चुनावी आकलन किसके कितने सही निकलते हैं यह चुनाव परिणाम आने पर सामने आ जायेगा। हर मतदाता यह मानकर चलता है कि जिसको उसने वोट दिया है विजय उसी की होगी। इसमें अपवाद की गुंजाइश 1% से ज्यादा की नहीं रहती है। चुनावी आकलन मतदान से पहले और बाद दोनों स्थितियों में लगाये जातेे हैं। मतदान से पहले के सर्वेक्षणों का प्रभाव मतदान पर भी पड़ता है ऐसी धारणा भी एक समय तक रही है। लेकिन जिस अनुपात में मीडिया पर गोदी मीडिया होने का आरोप लगता गया उसी अनुपात में यह धारणा प्रश्नित होती गई और आज प्रसांगिक होकर रह गई है। क्योंकि आज मतदाता सरकार बनने के पहले दिन से ही उस पर नजर रखना शुरू करता है। ऐसा इसलिए होता है कि वह सरकार के फैसलों पर उसके कार्यों से सीधा प्रभावित होता है। सरकार के फैसलों को गुण दोष के आधार पर समझना शुरू कर देता है। वह अपने तत्कालिक आवश्यकताओं के तराजू पर सरकार को तोलना शुरू कर देता है। यह तत्कालिक आवश्यकताएं इतनी अहम हो चुकी है कि इनकी प्रतिपूर्ति भी तत्कालिक चाहिए। इन आवश्यकताओं के लिए जब उसे सुदूर भविष्य का सपना दिखाया जाता है तब सरकार से उसका मोह भंग होना शुरू हो जाता है। जब वह व्यवहारिकता में उसमें भेदभाव का सामना करता है तब सरकार और व्यवस्था के प्रतिरोष पनपना शुरू हो जाता है। जो चलते चलते अघोषित विद्रोह की शक्ल लेता जाता है। जब इस रोष को कोई दशा दिशा मिल जाती है तो यह आन्दोलनों में परिवर्तित हो जाता है अन्यथा चुनावी मतदान में यह खुलकर सामने आता है। इसलिए तो यह माना जाता है कि पहली बार घोषित नीतियों के आधार पर सरकारें बनती है। लेकिन सत्ता में वापसी सरकार की परफारमैन्स के आधार पर होती है। इस बार के मतदान और उसके परिणामों का आकलन इसी मानक पर होगा। इसमें यदि मीडिया सरकार के कामकाज पर पहले दिन से ही निष्पक्षता के साथ नजर बनाये रखेगा और सरकार से समय-समय पर तीखे सवाल पूछने से नहीं डरेगा तो उसके आकलन निश्चित रूप से सही प्रमाणित होंगे। यदि कोई चुनाव प्रचार के स्तर पर और उसमें अपनाए गए साधनों की कसौटी पर आकलन का प्रयास करेगा तो ऐसे आकलन सही प्रमाणित नहीं होंगे। क्योंकि प्रचार के साधन तो स्वभाविक रूप से सत्तारूढ़ दल के पास ही सबसे अधिक होंगे तो आकलन भी उसी के पक्ष में आयेगा। लेकिन जब सरकार की परफारमैन्स के सवाल पर यह सामने आयेगा कि जो आरोप यह पार्टी कांग्रेस पर लगाती थी सरकार बनते ही उसी राह पर स्वयं चल पड़ी। लोकसेवा आयोग इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। कर्ज लेने के नाम पर पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। बेरोजगारी में प्रदेश देशभर में छठे स्थान पर पहुंच गया है। महंगाई के कारण ही चारों उप चुनाव हारे हैं। यह स्वयं मुख्यमंत्री ने माना है। केन्द्र से कोई आर्थिक पैकेज मिलना तो दूर यह सरकार जीएसटी की प्रतिपूर्ति जोर देकर नहीं मांग पायी है। चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री और दूसरे केन्द्रीय नेताओं का जितना ज्यादा सहारा लिया गया उसी अनुपात में केन्द्र के जुमले नये सिरे से हर जुबान पर आ गयेे। अन्ध भक्तों को छोड़कर बाकी हर एक की जुबान पर केन्द्र के चुनाव पूर्व किये गये वायदे आ गये जो कभी वफा नहीं हुये। राम मन्दिर, धारा 370, तीन तलाक और हिन्दू मुस्लिम से हर रोज आम आदमी का पेट नहीं भरता। हजारों टन अनाज बाहर खुले में सड़ गया इसलिये अब सस्ता राशन नहीं मिल सकता। आम आदमी जिन सवालों से पीस रहा है उनका पूछा जाना भक्तों की नजरों में तो कांग्रेस प्रेम हो सकता है। परन्तु आम आदमी की यह पहली आवश्यकता है। गुजरात को मतदान की गणना के लिए तीन दिन और हिमाचल के लिए पच्चीस दिन का अन्तराल क्यों? इस सवाल को पूर्व के आंकड़ों से ढकना बेमानी होगा। यह सही है कि प्रचार तंत्र में भाजपा का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। यदि महंगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार प्रचार तंत्र से सही में बड़े मुद्दे हैं तो निश्चित रूप से विपक्ष को सत्ता में आने से कोई नहीं रोक सकता और हिमाचल में यह विपक्ष केवल कांग्रेस है।
चुनावों की निष्पक्षता सुनिश्चित करना चुनाव आयोग का काम है। चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के सांगठनिक चुनाव सुनिश्चित करवा रहा है। चुनाव उम्मीदवारों से चुनाव खर्च का हिसाब तलब करता है। क्योंकि उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा तय है। ऐसे में यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिये कि यही खर्च की सीमा राजनीतिक दलों के लिए भी क्यों न हो। क्योंकि जब राजनीतिक दल इस सीमा से बाहर रह जाते हैं तब सारा चुनाव ही धनबल का नंगा प्रदर्शन हो कर रहे जाता है। राजनीतिक दल यह चुनाव खर्च दल के सदस्यों के सदस्यता शुल्क या उनके चन्दे से नहीं जुटाते हैं। बल्कि यह धन इन दलों के पास कारपोरेट घरानों से आता है। किस कारपोरेट घराने ने किस दल को कितना धन चुनावी चन्दे के रूप में दिया है इसकी कोई जानकारी सार्वजनिक रूप से नहीं आ पायी है। क्योंकि इसके चन्दे के लिये इलैक्शन बॉण्डज जारी किये जाते हैं। यह चुनावी बॉण्डज किस कॉर्पाेरेट घराने ने कितने खरीदे और किस दल को दिये इसकी जानकारी केवल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और आरबीआई को ही रहती है। इन चुनावी बॉण्डज को लेकर जब मामला सर्वाेच्च न्यायालय में आया था तब इसमें चुनाव आयोग की भूमिका बहुत ही निराशाजनक रही है। जबकि इस धन की जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रहनी चाहिये थी ताकि जनता को यह पता चल पाता कि किस घराने ने किस दल को कितना पैसा दिया है। क्योंकि दल सरकार बनने पर इन्हीं घरानों के पक्ष में नीतियां बनाते हैं आम आदमी इस पूरे सिस्टम में ‘‘दूध से मक्खी’’ की तरह बाहर निकल जाता है।
यह चर्चा और सवाल इस समय इसलिए प्रसांगिक हो जाते हैं क्योंकि इस समय सर्वाेच्च न्यायालय की संविधान पीठ में चुनाव आयोग को लेकर चर्चा चल रही है। यह सवाल पूरी बेबाकी से सामने आ गया है कि जिस संस्था पर चुनावों और उनसे जुड़ी हर प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी हैं उसके अपने ही गठन की प्रक्रिया में निष्पक्षता को लेकर सवाल उठने लगे पड़े हैं। चुनाव आयुक्त अरुण कुमार गोयल की नियुक्ति को लेकर संविधान पीठ ने जो सवाल उठाये हैं वह आने वाले दिनों में देश के हर बच्चे की जुबान पर होंगे यह तय है। क्योंकि यह देश के भविष्य से जुड़े सवाल हैं। अब वह समय आ गया है कि जब चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्तियों के लिए एक प्रक्रिया तय हो जानी चाहिये जिसमें प्रधानमन्त्री के साथ नेता प्रतिपक्ष और सर्वाेच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की पूरी भागीदारी रहनी चाहिये। इसके लिये केवल सरकारी सेवाओं में बैठे बड़े अधिकारियों की ही पात्रता नहीं रहनी चाहिए बल्कि अन्य पक्षों से जुड़े विद्वानों को भी अधिमान दिया जाना चाहिये। आज चुनावों को धनबल और बाहुबल से मुक्ति दिलाना पहली जिम्मेदारी होनी चाहिये।
आज देश की जो स्थिति निर्मित होती जा रही हैं उसमें पहली बार लोकतंत्र के स्थायी आधारों पर गंभीर सवाल उठते जा रहे हैं। कार्यपालिका को जो स्थायी चरित्र दिया गया था उस पर स्वयं सत्ता पक्ष द्वारा सवाल उठाते हुए उसमें कॉरपोरेट घरानों के नौकरशाहों को कार्यपालिका में जगह दी जा रही है। इसमें रोचक यह है कि इस पर किसी भी मंच पर कोई सार्वजनिक विचार-विमर्श तक नहीं हुआ है। कार्यपालिका का स्टील फ्रेम मानी जाने वाली अखिल भारतीय सेवा संवर्ग ने इसे सिर झुका कर स्वीकार कर लिया है। इसी स्वीकार का परिणाम है कि ईडी आयकर और सीबीआई जैसी संस्थाओं पर राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप लग रहे हैं। व्यवस्था पालिका में संसद से लेकर विधानसभाओं तक में हर बार आपराधिक छवि के माननीयों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाने के सारे दावे जुमले सिद्ध हुए हैं। अब तो न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी गंभीर आक्षेप लगने शुरू हो गये हैं। यह शुरुआत स्वयं देश के कानून मंत्री ने की है। जब लोकतंत्र के इन आधारों पर ही इस तरह के गंभीर आरोप लगने शुरू हो जायें तो क्या यह सोचना नहीं पड़ेगा कि वह आम आदमी इस व्यवस्था में कहां खड़ा है जिसके नाम पर यह सब किया जा रहा है।
आम आदमी के हित की व्याख्या जब शीर्ष पर बैठे कुछ संपन्न लोग करने लग जाते हैं तब सारी व्यवस्थायें एक-एक करके धराशायी होती चली जाती हैं। बड़ी चालाकी से इसे भविष्य के निर्माण की संज्ञा दे दी जाती है। नोटबंदी और लॉकडउन के समय श्रम कानूनों में हुए संशोधन तथा विवादित कृषि कानून इसी निर्माण के नाम पर लाये गये थे। इन सारे सवालों पर जब मीडिया ने सत्ता पक्ष की पक्षधरता के साथ खड़े होने का फैसला ले लिया तो क्या उसी से राष्ट्र निर्माण में उसकी भूमिका स्पष्ट नहीं हो जाती हैं। आज जब मीडिया सत्ता पक्ष के प्रचारक की भूमिका में आ खड़ा हो गया है तो उससे किस तरह की भूमिका की अपेक्षा की जा सकती है। इसी कारण से आज निष्पक्ष मीडिया को देशद्रोह और सरकारी विज्ञापनों पर रोक जैसे हथियारों से केंद्र से लेकर राज्यों तक की सरकारें प्रताड़ित करने के प्रयासों में लगे हुए हैं। इस हमाम में सत्तापक्ष से लेकर विपक्ष तक की सारी सरकारें बराबर की नंगी हैं। इस परिदृश्य में राष्ट्र निर्माण में मीडिया की भूमिका पर चर्चा करना एक प्रशासनिक औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं रह जाता है।
2014 के प्रायोजित आन्दोलन से हुये बदलाव के बाद कितने भ्रष्टाचारियों के खिलाफ जांच पूरी करके उनके मामले अदालतों तक पहुंचाये जा सके हैं तो शायद यह गिनती शुरू करने से पहले ही बन्द हो जायेगी। लेकिन इसके मुकाबले दूसरे दलों के कितने अपराधी और भ्रष्टाचारी भाजपा की गंगा में डुबकी लगाकर पाक साफ हो चुके हैं यह गिनती सैकड़ों से बढ़ चुकी है। पहली बार मीडिया पर गोदी मीडिया होने का आरोप लगा है। सीबीआई, आयकर और ईडी जैसी जांच एजैन्सियों पर राजनीतिक तोता होने का आरोप लगना अपने में ही एक बड़ा सवाल हो जाता है। यह सरकार जो शिक्षा नीति लायी है उसकी भूमिका के साथ लिखा है कि इससे हमारे बच्चों को खाड़ी के देशों में हैल्पर के रूप में रोजगार मिलने में आसानी हो जायेगी। इस पर प्रश्न होना चाहिये या सर पीटना चाहिये आप स्वयं निर्णय करें। क्योंकि इसी शिक्षा नीति में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाया जा रहा है।
धनबल के सहारे सरकारें पलटने माननीयों की खरीद करने की जो राजनीतिक संस्कृति शुरू हो गयी है इसके परिणाम कितने भयानक होंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। ऐसे में आज जब मतदान करने की जिम्मेदारी आती है तो वर्तमान राजनीतिक संस्कृति में मेरी राय में न तो निर्दलीय को समर्थन देने और न ही नोटा का प्रयोग किये जाने की अनुमति देती है। आज वक्त की जरूरत यह बन गयी है कि राष्ट्रीय दलों में से किसी एक के पक्ष में ही मतदान किया जाये। यह मतदान राष्ट्र के भविष्य के लिये एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है। जुमलों और असलियत पर परख करना आपका इम्तहान होगा।