प्रदेश कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में अपना एजेंडा जनता के सामने रखते हुये दस गारंटियां जारी की थी। यह कहा था कि यदि वह जीत जाती है तो सत्ता में आने पर प्रदेश की जनता के लिये यह उसकी कार्ययोजना होगी। कांग्रेस की यह गारंटियां सत्तारूढ़ भाजपा के दृष्टि पत्र पर भारी पड़ी। जनता ने कांग्रेस के वायदों पर विश्वास किया क्योंकि कुछ गारंटियों को लेकर यह कहा गया था कि उन्हें मंत्रिमंडल की पहली ही बैठक में लागू कर दिया जायेगा। इन वायदों के परिणाम स्वरूप कांग्रेस को बहुमत मिल गया और उसकी सरकार बन गयी। अब सरकार बनने पर जनता इन गारंटियों पर अमल किये जाने की प्रतीक्षा करने लग गयी है। अभी मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का एक टीवी चैनल पर साक्षात्कार सामने आया है। इसमें मुख्यमंत्री ने यह कहा है कि सरकार पांच वर्षों के लिये आयी है और यह गारंटीयां भी पांच वर्षों में पूरी की जायेगी। जब संसाधन बढ़ जायेंगे तो महिलाओं को पंद्रह सौ रूपये प्रति माह भी दिया जायेगा। यह सही है कि सरकार पांच वर्षों के लिये आयी है और यह एजेंडा भी पांच वर्षों में ही लागू किया जाना है। लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान तो ऐसा नहीं कहा गया था। इसलिये कुछ गारंटीयों पर अभी से जनता में चर्चाएं उठना शुरू हो गयी है। अभी 2023 के शुरू में ही नगर निगम शिमला के चुनाव आ जायेंगे। इन चुनावों का संदेश पूरे प्रदेश में जाता है। इनके बाद 2024 में लोकसभा के लिये चुनाव होंगे और भाजपा यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ेगी। इन चुनावों में गारंटियों की पूर्ति में उठाये गये व्यवहारिक कदमों की बड़ी भूमिका रहेगी यह स्वाभाविक है।
गारंटीयों को पूरा करने के लिये निश्चित रूप से धन की आवश्यकता रहेगी। इस समय निवर्तमान जयराम सरकार पर सबसे बड़ा आरोप ही प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में उलझाने का लगा है। केंद्र सरकार से जीएसटी की प्रतिपूर्ति मिलना जून से पूरी तरह बंद हो चुकी है। अटल ग्रामीण सड़क योजना भी केंद्र बंद कर चुका है और इस योजना की दो सौ सड़कें अधर में लटकी हुई हैं। यही नहीं केंद्र तो राजस्व घाटा अनुदान भी बंद कर चुका है। जयराम सरकार इन तथ्यों पर न तो मोदी सरकार के सामने मुंह खोल पायी और न ही प्रदेश की जनता को इसकी जानकारी दे पायी। प्रशासन कर्ज लेकर काम चलाता रहा है। इस वस्तु स्थिति में यह एक बड़ा गंभीर प्रश्न होगा कि सरकार इससे कैसे बाहर निकल पाती हैं। यह सुक्खू सरकार के सामने ही आ चुका है कि बहुत सारे फैसले बिना बजट प्रावधानों के केवल चुनाव के दृष्टिकोण से ही लिये गये थे और प्रशासन इसमें पूरी तरह सरकार के साथ था। मीडिया तक भी आर्थिक प्रश्नों पर चुप रहा है।
जब इस तरह की आर्थिक स्थितियां बन जाती हैं की कर्ज की किश्त चुकाने के लिए भी कर्ज लेना पड़े तो इसमें सबसे अधिक बढ़ता है भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार का आलम यह रहा है कि प्रशासन ने इसमें सबसे पहले राजनेताओं को हिस्सेदार बनाया और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की आवाज को कुचलने के लिये हर तरह का दमन किया। आज सुक्खू सरकार को आर्थिक अनुशासन लाने के लिए भ्रष्टाचारियों के खिलाफ भी कड़े कदम उठाने होंगे। यह दोनों काम यदि एक साथ शुरू न हो पाये तो सरकार को आगे बढ़ना कठिन हो जायेगा। इस सरकार के लिये यह संभव नहीं होगा कि जयराम की तरह चुनावी वर्ष के अंतिम छः माह में ही फैसले लिये जायें। क्योंकि कांग्रेस के अंदर पहले दिन से ही गुटबाजी सामने आ चुकी है और भाजपा इसे भुनाने के लिये हर हद तक जायेगी। सरकार को यह समझना होगा कि संगठन और सरकार अलग-अलग इकाइयां हैं। सरकार को संगठन की तर्ज पर नहीं चलाया जा सकता। जबकि अभी यह संदेश जा रहा है कि सरकार पर संगठन प्रभावी हो रहा है। ऐसे में गारंटियों की प्रतिपूर्ति के लिये जनता पांचवें वर्ष का इंतजार कर लेगी यह मानकर चलना कठिन होगा यह सही है कि जनता के पास कोई ऐसी ताकत नहीं है कि वह अगले चुनावों से पहले कुछ कर पाये। लेकिन लोकसभा चुनाव उसे अपनी नाराजगी दिखाने का पहला अवसर होगा। जनता की अनदेखी ने ही सबसे बड़ी पार्टी होने का दम भरने वाली भाजपा को घर बिठा दिया है। इसलिये गारंटीयों की गारंटी पर उठने वाले प्रश्नों को अभी से गंभीरता से लेना होगा।


















चुनावों की निष्पक्षता सुनिश्चित करना चुनाव आयोग का काम है। चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के सांगठनिक चुनाव सुनिश्चित करवा रहा है। चुनाव उम्मीदवारों से चुनाव खर्च का हिसाब तलब करता है। क्योंकि उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा तय है। ऐसे में यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिये कि यही खर्च की सीमा राजनीतिक दलों के लिए भी क्यों न हो। क्योंकि जब राजनीतिक दल इस सीमा से बाहर रह जाते हैं तब सारा चुनाव ही धनबल का नंगा प्रदर्शन हो कर रहे जाता है। राजनीतिक दल यह चुनाव खर्च दल के सदस्यों के सदस्यता शुल्क या उनके चन्दे से नहीं जुटाते हैं। बल्कि यह धन इन दलों के पास कारपोरेट घरानों से आता है। किस कारपोरेट घराने ने किस दल को कितना धन चुनावी चन्दे के रूप में दिया है इसकी कोई जानकारी सार्वजनिक रूप से नहीं आ पायी है। क्योंकि इसके चन्दे के लिये इलैक्शन बॉण्डज जारी किये जाते हैं। यह चुनावी बॉण्डज किस कॉर्पाेरेट घराने ने कितने खरीदे और किस दल को दिये इसकी जानकारी केवल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और आरबीआई को ही रहती है। इन चुनावी बॉण्डज को लेकर जब मामला सर्वाेच्च न्यायालय में आया था तब इसमें चुनाव आयोग की भूमिका बहुत ही निराशाजनक रही है। जबकि इस धन की जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रहनी चाहिये थी ताकि जनता को यह पता चल पाता कि किस घराने ने किस दल को कितना पैसा दिया है। क्योंकि दल सरकार बनने पर इन्हीं घरानों के पक्ष में नीतियां बनाते हैं आम आदमी इस पूरे सिस्टम में ‘‘दूध से मक्खी’’ की तरह बाहर निकल जाता है।
यह चर्चा और सवाल इस समय इसलिए प्रसांगिक हो जाते हैं क्योंकि इस समय सर्वाेच्च न्यायालय की संविधान पीठ में चुनाव आयोग को लेकर चर्चा चल रही है। यह सवाल पूरी बेबाकी से सामने आ गया है कि जिस संस्था पर चुनावों और उनसे जुड़ी हर प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी हैं उसके अपने ही गठन की प्रक्रिया में निष्पक्षता को लेकर सवाल उठने लगे पड़े हैं। चुनाव आयुक्त अरुण कुमार गोयल की नियुक्ति को लेकर संविधान पीठ ने जो सवाल उठाये हैं वह आने वाले दिनों में देश के हर बच्चे की जुबान पर होंगे यह तय है। क्योंकि यह देश के भविष्य से जुड़े सवाल हैं। अब वह समय आ गया है कि जब चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्तियों के लिए एक प्रक्रिया तय हो जानी चाहिये जिसमें प्रधानमन्त्री के साथ नेता प्रतिपक्ष और सर्वाेच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की पूरी भागीदारी रहनी चाहिये। इसके लिये केवल सरकारी सेवाओं में बैठे बड़े अधिकारियों की ही पात्रता नहीं रहनी चाहिए बल्कि अन्य पक्षों से जुड़े विद्वानों को भी अधिमान दिया जाना चाहिये। आज चुनावों को धनबल और बाहुबल से मुक्ति दिलाना पहली जिम्मेदारी होनी चाहिये।






आज देश की जो स्थिति निर्मित होती जा रही हैं उसमें पहली बार लोकतंत्र के स्थायी आधारों पर गंभीर सवाल उठते जा रहे हैं। कार्यपालिका को जो स्थायी चरित्र दिया गया था उस पर स्वयं सत्ता पक्ष द्वारा सवाल उठाते हुए उसमें कॉरपोरेट घरानों के नौकरशाहों को कार्यपालिका में जगह दी जा रही है। इसमें रोचक यह है कि इस पर किसी भी मंच पर कोई सार्वजनिक विचार-विमर्श तक नहीं हुआ है। कार्यपालिका का स्टील फ्रेम मानी जाने वाली अखिल भारतीय सेवा संवर्ग ने इसे सिर झुका कर स्वीकार कर लिया है। इसी स्वीकार का परिणाम है कि ईडी आयकर और सीबीआई जैसी संस्थाओं पर राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप लग रहे हैं। व्यवस्था पालिका में संसद से लेकर विधानसभाओं तक में हर बार आपराधिक छवि के माननीयों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाने के सारे दावे जुमले सिद्ध हुए हैं। अब तो न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी गंभीर आक्षेप लगने शुरू हो गये हैं। यह शुरुआत स्वयं देश के कानून मंत्री ने की है। जब लोकतंत्र के इन आधारों पर ही इस तरह के गंभीर आरोप लगने शुरू हो जायें तो क्या यह सोचना नहीं पड़ेगा कि वह आम आदमी इस व्यवस्था में कहां खड़ा है जिसके नाम पर यह सब किया जा रहा है।
आम आदमी के हित की व्याख्या जब शीर्ष पर बैठे कुछ संपन्न लोग करने लग जाते हैं तब सारी व्यवस्थायें एक-एक करके धराशायी होती चली जाती हैं। बड़ी चालाकी से इसे भविष्य के निर्माण की संज्ञा दे दी जाती है। नोटबंदी और लॉकडउन के समय श्रम कानूनों में हुए संशोधन तथा विवादित कृषि कानून इसी निर्माण के नाम पर लाये गये थे। इन सारे सवालों पर जब मीडिया ने सत्ता पक्ष की पक्षधरता के साथ खड़े होने का फैसला ले लिया तो क्या उसी से राष्ट्र निर्माण में उसकी भूमिका स्पष्ट नहीं हो जाती हैं। आज जब मीडिया सत्ता पक्ष के प्रचारक की भूमिका में आ खड़ा हो गया है तो उससे किस तरह की भूमिका की अपेक्षा की जा सकती है। इसी कारण से आज निष्पक्ष मीडिया को देशद्रोह और सरकारी विज्ञापनों पर रोक जैसे हथियारों से केंद्र से लेकर राज्यों तक की सरकारें प्रताड़ित करने के प्रयासों में लगे हुए हैं। इस हमाम में सत्तापक्ष से लेकर विपक्ष तक की सारी सरकारें बराबर की नंगी हैं। इस परिदृश्य में राष्ट्र निर्माण में मीडिया की भूमिका पर चर्चा करना एक प्रशासनिक औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं रह जाता है।