Wednesday, 17 December 2025
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गारंटीयों की गारंटी पर अभी से उठने लगे सवाल

प्रदेश कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में अपना एजेंडा जनता के सामने रखते हुये दस गारंटियां जारी की थी। यह कहा था कि यदि वह जीत जाती है तो सत्ता में आने पर प्रदेश की जनता के लिये यह उसकी कार्ययोजना होगी। कांग्रेस की यह गारंटियां सत्तारूढ़ भाजपा के दृष्टि पत्र पर भारी पड़ी। जनता ने कांग्रेस के वायदों पर विश्वास किया क्योंकि कुछ गारंटियों को लेकर यह कहा गया था कि उन्हें मंत्रिमंडल की पहली ही बैठक में लागू कर दिया जायेगा। इन वायदों के परिणाम स्वरूप कांग्रेस को बहुमत मिल गया और उसकी सरकार बन गयी। अब सरकार बनने पर जनता इन गारंटियों पर अमल किये जाने की प्रतीक्षा करने लग गयी है। अभी मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का एक टीवी चैनल पर साक्षात्कार सामने आया है। इसमें मुख्यमंत्री ने यह कहा है कि सरकार पांच वर्षों के लिये आयी है और यह गारंटीयां भी पांच वर्षों में पूरी की जायेगी। जब संसाधन बढ़ जायेंगे तो महिलाओं को पंद्रह सौ रूपये प्रति माह भी दिया जायेगा। यह सही है कि सरकार पांच वर्षों के लिये आयी है और यह एजेंडा भी पांच वर्षों में ही लागू किया जाना है। लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान तो ऐसा नहीं कहा गया था। इसलिये कुछ गारंटीयों पर अभी से जनता में चर्चाएं उठना शुरू हो गयी है। अभी 2023 के शुरू में ही नगर निगम शिमला के चुनाव आ जायेंगे। इन चुनावों का संदेश पूरे प्रदेश में जाता है। इनके बाद 2024 में लोकसभा के लिये चुनाव होंगे और भाजपा यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ेगी। इन चुनावों में गारंटियों की पूर्ति में उठाये गये व्यवहारिक कदमों की बड़ी भूमिका रहेगी यह स्वाभाविक है।
गारंटीयों को पूरा करने के लिये निश्चित रूप से धन की आवश्यकता रहेगी। इस समय निवर्तमान जयराम सरकार पर सबसे बड़ा आरोप ही प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में उलझाने का लगा है। केंद्र सरकार से जीएसटी की प्रतिपूर्ति मिलना जून से पूरी तरह बंद हो चुकी है। अटल ग्रामीण सड़क योजना भी केंद्र बंद कर चुका है और इस योजना की दो सौ सड़कें अधर में लटकी हुई हैं। यही नहीं केंद्र तो राजस्व घाटा अनुदान भी बंद कर चुका है। जयराम सरकार इन तथ्यों पर न तो मोदी सरकार के सामने मुंह खोल पायी और न ही प्रदेश की जनता को इसकी जानकारी दे पायी। प्रशासन कर्ज लेकर काम चलाता रहा है। इस वस्तु स्थिति में यह एक बड़ा गंभीर प्रश्न होगा कि सरकार इससे कैसे बाहर निकल पाती हैं। यह सुक्खू सरकार के सामने ही आ चुका है कि बहुत सारे फैसले बिना बजट प्रावधानों के केवल चुनाव के दृष्टिकोण से ही लिये गये थे और प्रशासन इसमें पूरी तरह सरकार के साथ था। मीडिया तक भी आर्थिक प्रश्नों पर चुप रहा है।
जब इस तरह की आर्थिक स्थितियां बन जाती हैं की कर्ज की किश्त चुकाने के लिए भी कर्ज लेना पड़े तो इसमें सबसे अधिक बढ़ता है भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार का आलम यह रहा है कि प्रशासन ने इसमें सबसे पहले राजनेताओं को हिस्सेदार बनाया और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की आवाज को कुचलने के लिये हर तरह का दमन किया। आज सुक्खू सरकार को आर्थिक अनुशासन लाने के लिए भ्रष्टाचारियों के खिलाफ भी कड़े कदम उठाने होंगे। यह दोनों काम यदि एक साथ शुरू न हो पाये तो सरकार को आगे बढ़ना कठिन हो जायेगा। इस सरकार के लिये यह संभव नहीं होगा कि जयराम की तरह चुनावी वर्ष के अंतिम छः माह में ही फैसले लिये जायें। क्योंकि कांग्रेस के अंदर पहले दिन से ही गुटबाजी सामने आ चुकी है और भाजपा इसे भुनाने के लिये हर हद तक जायेगी। सरकार को यह समझना होगा कि संगठन और सरकार अलग-अलग इकाइयां हैं। सरकार को संगठन की तर्ज पर नहीं चलाया जा सकता। जबकि अभी यह संदेश जा रहा है कि सरकार पर संगठन प्रभावी हो रहा है। ऐसे में गारंटियों की प्रतिपूर्ति के लिये जनता पांचवें वर्ष का इंतजार कर लेगी यह मानकर चलना कठिन होगा यह सही है कि जनता के पास कोई ऐसी ताकत नहीं है कि वह अगले चुनावों से पहले कुछ कर पाये। लेकिन लोकसभा चुनाव उसे अपनी नाराजगी दिखाने का पहला अवसर होगा। जनता की अनदेखी ने ही सबसे बड़ी पार्टी होने का दम भरने वाली भाजपा को घर बिठा दिया है। इसलिये गारंटीयों की गारंटी पर उठने वाले प्रश्नों को अभी से गंभीरता से लेना होगा। 

व्यवस्था परिवर्तन -कुछ सवाल

हिमाचल में सत्ता परिवर्तन हो गया है कांग्रेस की सरकार बन गयी है। नई सरकार के मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह ने दावा किया है कि वह इस सत्ता परिवर्तन के माध्यम से प्रदेश की व्यवस्था बदलने का प्रयास करेंगे। मुख्यमंत्री के इस दावे की चर्चा करने से पहले प्रदेश की इस समय की व्यवस्था को समझना आवश्यक हो जाता है। परिवार से लेकर प्रदेश और देश के संचालन तक के लिए कुछ नियम कानून तथा प्रथाएं स्थापित की जाती है। जब इन स्थापित मानकों की किसी भी कारण से अनदेखी की जाने लगती है तभी व्यवस्था के गड़बड़ाने के आरोप लगने शुरू हो जाते हैं। यह अनदेखी उस समय और भी गंभीर सवाल बन जाती है जब व्यवस्था के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति अपने ही फैसलों को अंतिम सच मानना और प्रचारित करना शुरू कर देता है। आज राष्ट्रीय स्तर पर यह स्थिति उस मोड़ तक पहुंच गयी है जहां सर्वोच्च न्यायालय को भी यह कहना पड़ा है कि जब कानून है तो उसे मानना ही पड़ेगा। नियमों कानूनों की अनुपालना ही व्यवस्था होती है। प्रदेश में दर्जनों मामले हैं जहां पर नियमों कानूनों की अवहेलना हुई है। इसमें सबसे पहले प्रदेश की वित्तीय स्थिति आती है। जब जयराम सरकार ने सत्ता संभाली थी तब प्रदेश का कर्ज भार 46,000 करोड़ था जो आज बढ़कर 70,000 करोड़ भी कहीं ज्यादा हो गया है। जबकि एफ.आर.बी.एम. के मुताबिक यह कर्ज डी.जी.पी. के 3% से अधिक नहीं होना चाहिये। कर्ज को 3% के दायरे में ही रखने के लिये केंद्र एक बार प्रदेश को चेतावनी भी दे चुका है। पिछले मानसून सत्र के बाद प्रदेश के करीब हर विधानसभा क्षेत्र में करोड़ों की योजनाएं घोषित हुई हैं। क्या इस आश्य के प्रशासनिक प्रस्तावों को अनुमोदित करने से पहले वित्तीय अनुमोदन लिया गया है? क्या ऐसे अनुमोदन पर कर्ज के बिना भी धन की उपलब्धता रही है? क्या कर्ज लेकर घी पीने की प्रथा व्यवस्था पर एक गंभीर सवाल नहीं बन जाता है। रेवड़ी संस्कृति पर राष्ट्रीय स्तर पर सवाल उठने के बाद यह मामला भी सर्वाेच्च न्यायालय तक पहुंच चुका है। केन्द्र सरकार जयराम की सरकार को कोई आर्थिक सहायता नहीं दे पायी है तो सुक्खु सरकार को ऐसी सहायता मिल पाना कठिन लगता है। सरकार को 10 गारन्टीयां पूरी करनी है और कुछ तो पहली बैठक में ही पूरी करनी होगी। वित्त विभाग कर्ज के अतिरिक्त और कोई उपाय पिछली सरकार को नहीं सुझा पाया है तो अब कैसे कर पायेगा। यह सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। जबकि प्रदेश की जानकारी रखने वालों का मानना है कि कर्ज और करों का बोझ बढ़ाये बिना भी सरकार चलाई जा सकती है। इसके लिए जनता को विश्वास में लेना होगा और इस विश्वास के लिए श्वेत पत्र जारी करना पहली आवश्यकता होगी। कांग्रेस ने जनता से वादा किया है कि वह पिछले छः माह में लिये गये फैसलों की समीक्षा करके उन्हें बदलेगी। क्या गलत फैसलों के लिये किसी को जिम्मेदार भी ठहराया जायेगा यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा। क्योंकि इस दौरान कुछ विभागों में भ्रष्टाचार के कई गंभीर मामले घटे हैं। पिछली सरकार प्रशासन के साथ कितना तालमेल बिठा पायी थी इसका पता इसी से चल जाता है कि सात मुख्य सचिव बदलने पड़े क्योंकि वरीयता को नजरअन्दाज करने का जो कदम पहले दिन से ही उठ गया उसे अन्त तक सुधारा नहीं जा सका। यदि किसी ने मत विभिन्नता प्रकट की तो उसे विरोधी मानकर कुचलने का प्रयास किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भ्रष्टाचार मुख्य संस्कृति बन गयी और भ्रष्टाचार के किसी भी प्रकरण पर कोई कार्यवाही नहीं हो पायी बल्कि विपक्ष तक को अपरोक्ष में धमकियां दी गयी। आज सुक्खु सरकार विरासत में मिली इस वस्तुस्थिति से बाहर निकल कर व्यवस्था परिवर्तन तभी कर पायेगी यदि वरीयता और नियम कानूनों को अभिमान दे पायी अन्यथा यह सिर्फ कागजी दावा होकर रह जायेगा।

चुनावी आकलन-एक पक्ष

चुनावी आकलन किसके कितने सही निकलते हैं यह चुनाव परिणाम आने पर सामने आ जायेगा। हर मतदाता यह मानकर चलता है कि जिसको उसने वोट दिया है विजय उसी की होगी। इसमें अपवाद की गुंजाइश 1% से ज्यादा की नहीं रहती है। चुनावी आकलन मतदान से पहले और बाद दोनों स्थितियों में लगाये जातेे हैं। मतदान से पहले के सर्वेक्षणों का प्रभाव मतदान पर भी पड़ता है ऐसी धारणा भी एक समय तक रही है। लेकिन जिस अनुपात में मीडिया पर गोदी मीडिया होने का आरोप लगता गया उसी अनुपात में यह धारणा प्रश्नित होती गई और आज प्रसांगिक होकर रह गई है। क्योंकि आज मतदाता सरकार बनने के पहले दिन से ही उस पर नजर रखना शुरू करता है। ऐसा इसलिए होता है कि वह सरकार के फैसलों पर उसके कार्यों से सीधा प्रभावित होता है। सरकार के फैसलों को गुण दोष के आधार पर समझना शुरू कर देता है। वह अपने तत्कालिक आवश्यकताओं के तराजू पर सरकार को तोलना शुरू कर देता है। यह तत्कालिक आवश्यकताएं इतनी अहम हो चुकी है कि इनकी प्रतिपूर्ति भी तत्कालिक चाहिए। इन आवश्यकताओं के लिए जब उसे सुदूर भविष्य का सपना दिखाया जाता है तब सरकार से उसका मोह भंग होना शुरू हो जाता है। जब वह व्यवहारिकता में उसमें भेदभाव का सामना करता है तब सरकार और व्यवस्था के प्रतिरोष पनपना शुरू हो जाता है। जो चलते चलते अघोषित विद्रोह की शक्ल लेता जाता है। जब इस रोष को कोई दशा दिशा मिल जाती है तो यह आन्दोलनों में परिवर्तित हो जाता है अन्यथा चुनावी मतदान में यह खुलकर सामने आता है। इसलिए तो यह माना जाता है कि पहली बार घोषित नीतियों के आधार पर सरकारें बनती है। लेकिन सत्ता में वापसी सरकार की परफारमैन्स के आधार पर होती है। इस बार के मतदान और उसके परिणामों का आकलन इसी मानक पर होगा। इसमें यदि मीडिया सरकार के कामकाज पर पहले दिन से ही निष्पक्षता के साथ नजर बनाये रखेगा और सरकार से समय-समय पर तीखे सवाल पूछने से नहीं डरेगा तो उसके आकलन निश्चित रूप से सही प्रमाणित होंगे। यदि कोई चुनाव प्रचार के स्तर पर और उसमें अपनाए गए साधनों की कसौटी पर आकलन का प्रयास करेगा तो ऐसे आकलन सही प्रमाणित नहीं होंगे। क्योंकि प्रचार के साधन तो स्वभाविक रूप से सत्तारूढ़ दल के पास ही सबसे अधिक होंगे तो आकलन भी उसी के पक्ष में आयेगा। लेकिन जब सरकार की परफारमैन्स के सवाल पर यह सामने आयेगा कि जो आरोप यह पार्टी कांग्रेस पर लगाती थी सरकार बनते ही उसी राह पर स्वयं चल पड़ी। लोकसेवा आयोग इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। कर्ज लेने के नाम पर पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। बेरोजगारी में प्रदेश देशभर में छठे स्थान पर पहुंच गया है। महंगाई के कारण ही चारों उप चुनाव हारे हैं। यह स्वयं मुख्यमंत्री ने माना है। केन्द्र से कोई आर्थिक पैकेज मिलना तो दूर यह सरकार जीएसटी की प्रतिपूर्ति जोर देकर नहीं मांग पायी है। चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री और दूसरे केन्द्रीय नेताओं का जितना ज्यादा सहारा लिया गया उसी अनुपात में केन्द्र के जुमले नये सिरे से हर जुबान पर आ गयेे। अन्ध भक्तों को छोड़कर बाकी हर एक की जुबान पर केन्द्र के चुनाव पूर्व किये गये वायदे आ गये जो कभी वफा नहीं हुये। राम मन्दिर, धारा 370, तीन तलाक और हिन्दू मुस्लिम से हर रोज आम आदमी का पेट नहीं भरता। हजारों टन अनाज बाहर खुले में सड़ गया इसलिये अब सस्ता राशन नहीं मिल सकता। आम आदमी जिन सवालों से पीस रहा है उनका पूछा जाना भक्तों की नजरों में तो कांग्रेस प्रेम हो सकता है। परन्तु आम आदमी की यह पहली आवश्यकता है। गुजरात को मतदान की गणना के लिए तीन दिन और हिमाचल के लिए पच्चीस दिन का अन्तराल क्यों? इस सवाल को पूर्व के आंकड़ों से ढकना बेमानी होगा। यह सही है कि प्रचार तंत्र में भाजपा का कोई मुकाबला नहीं कर सकता। यदि महंगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार प्रचार तंत्र से सही में बड़े मुद्दे हैं तो निश्चित रूप से विपक्ष को सत्ता में आने से कोई नहीं रोक सकता और हिमाचल में यह विपक्ष केवल कांग्रेस है।

क्यों उठ रहे हैं चुनाव आयोग पर सवाल

हिमाचल और गुजरात के चुनाव परिणाम जब एक ही दिन घोषित हो सकते हैं तो फिर इन चुनावों की घोषणा भी एक ही साथ क्यों नहीं हो सकती थी? यह सवाल कुछ हलकों में प्रमुखता से उभरा है लेकिन इसका कोई जवाब नहीं आया है। पोस्टल मतदान मतगणना के शुरू होने तक आ सकता है और इसमें यह आरोप लगने शुरू हो गये हैं कि पोस्टल मतदान के पात्र सभी लोगों को पर्याप्त समय पर यह सुविधा उपलब्ध नहीं करवाई गयी है। पोस्टल मतदान के लिये यह व्यवस्था नहीं हो पायी है कि यह मतदान भी जरनल मतदान के दिन ही संभव हो पाये। मतदान के दिन ईवीएम और वीवीपैट मशीनों के कई जगह सुचारू रूप से काम न कर पाने की शिकायतें भी बहुत जगहों से आयी हैं। ईवीएम की बजाये पुरानी मतपत्र व्यवस्था से ही मतदान करवाने की मांग लम्बे अरसे से उठती आ रही है। जब ईवीएम के साथ ही वीवीपैट मतदान का लिखित रिकॉर्ड उपलब्ध रहता है तो ईवीएम के परिणाम का मिलान वीवीपैट की पर्ची से क्यों नहीं करवाया जा सकता? इसमें यदि चुनाव परिणाम घोषित करने में एक या दो दिन का समय ज्यादा लग जाता है तो इसमें किसी को भी क्या आपत्ति हो सकती हैं? एक लम्बे अरसे से ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता पर सवाल उठते आ रहे हैं जिन्हें लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। उन्नीस लाख ईवीएम मशीनें चोरी हो जाने का मामला आज तक लंबित चला रहा है। चुनाव आचार संहिता की उल्लंघना पर तुरन्त प्रभाव से आपराधिक मामला दर्ज किये जाने का प्रावधान अभी तक नहीं हो पाया है। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो आज की चुनाव व्यवस्था को लेकर उठाए जा सकते हैं। हर चुनाव के समय यह सवाल उठने शुरू हो गए हैं।
चुनावों की निष्पक्षता सुनिश्चित करना चुनाव आयोग का काम है। चुनाव आयोग राजनीतिक दलों के सांगठनिक चुनाव सुनिश्चित करवा रहा है। चुनाव उम्मीदवारों से चुनाव खर्च का हिसाब तलब करता है। क्योंकि उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा तय है। ऐसे में यह सवाल क्यों नहीं उठना चाहिये कि यही खर्च की सीमा राजनीतिक दलों के लिए भी क्यों न हो। क्योंकि जब राजनीतिक दल इस सीमा से बाहर रह जाते हैं तब सारा चुनाव ही धनबल का नंगा प्रदर्शन हो कर रहे जाता है। राजनीतिक दल यह चुनाव खर्च दल के सदस्यों के सदस्यता शुल्क या उनके चन्दे से नहीं जुटाते हैं। बल्कि यह धन इन दलों के पास कारपोरेट घरानों से आता है। किस कारपोरेट घराने ने किस दल को कितना धन चुनावी चन्दे के रूप में दिया है इसकी कोई जानकारी सार्वजनिक रूप से नहीं आ पायी है। क्योंकि इसके चन्दे के लिये इलैक्शन बॉण्डज जारी किये जाते हैं। यह चुनावी बॉण्डज किस कॉर्पाेरेट घराने ने कितने खरीदे और किस दल को दिये इसकी जानकारी केवल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और आरबीआई को ही रहती है। इन चुनावी बॉण्डज को लेकर जब मामला सर्वाेच्च न्यायालय में आया था तब इसमें चुनाव आयोग की भूमिका बहुत ही निराशाजनक रही है। जबकि इस धन की जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध रहनी चाहिये थी ताकि जनता को यह पता चल पाता कि किस घराने ने किस दल को कितना पैसा दिया है। क्योंकि दल सरकार बनने पर इन्हीं घरानों के पक्ष में नीतियां बनाते हैं आम आदमी इस पूरे सिस्टम में ‘‘दूध से मक्खी’’ की तरह बाहर निकल जाता है।
यह चर्चा और सवाल इस समय इसलिए प्रसांगिक हो जाते हैं क्योंकि इस समय सर्वाेच्च न्यायालय की संविधान पीठ में चुनाव आयोग को लेकर चर्चा चल रही है। यह सवाल पूरी बेबाकी से सामने आ गया है कि जिस संस्था पर चुनावों और उनसे जुड़ी हर प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी हैं उसके अपने ही गठन की प्रक्रिया में निष्पक्षता को लेकर सवाल उठने लगे पड़े हैं। चुनाव आयुक्त अरुण कुमार गोयल की नियुक्ति को लेकर संविधान पीठ ने जो सवाल उठाये हैं वह आने वाले दिनों में देश के हर बच्चे की जुबान पर होंगे यह तय है। क्योंकि यह देश के भविष्य से जुड़े सवाल हैं। अब वह समय आ गया है कि जब चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्तियों के लिए एक प्रक्रिया तय हो जानी चाहिये जिसमें प्रधानमन्त्री के साथ नेता प्रतिपक्ष और सर्वाेच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की पूरी भागीदारी रहनी चाहिये। इसके लिये केवल सरकारी सेवाओं में बैठे बड़े अधिकारियों की ही पात्रता नहीं रहनी चाहिए बल्कि अन्य पक्षों से जुड़े विद्वानों को भी अधिमान दिया जाना चाहिये। आज चुनावों को धनबल और बाहुबल से मुक्ति दिलाना पहली जिम्मेदारी होनी चाहिये।

राष्ट्र निर्माण में मीडिया की भूमिका-कुछ सवाल

किसी भी राष्ट्र के आधार उसकी कार्यपालिका, व्यवस्थापालिका और न्यायपालिका माने जाते हैं। राष्ट्र की व्यवस्था चाहे लोकतांत्रिक हो या राजशाही हो इन आधारों का सीधा रिश्ता राष्ट्र के जनमानस से होता है। मीडिया इन आधारों और जनता के बीच एक सशक्त माध्यम के रूप में मौजूद रहता है। राष्ट्र की व्यवस्था चाहे जैसी भी हो उसका अंतिम प्रतिफल जनता का व्यापक हित होता है। क्योंकि जब यह हित किन्हीं कारणों से आहत होता है तो व्यवस्था को लेकर व्यवधान और सवाल दोनों एक साथ पैदा होते हैं। यही व्यवधान राष्ट्र के निर्माण की प्रक्रिया बनते हैं। यहीं से मीडिया की भूमिका का आकलन शुरू हो जाता है। यह देखा जाता है कि मीडिया किसकी पक्षधरता निभा रहा है। यह पक्षधरता ही इस निर्माण में उसकी भूमिका तय करती है। इस परिपेक्ष में जब भारत के संद्धर्भ में चिंतन और चर्चा आती है तब सबसे पहले लोकतांत्रिक व्यवस्था पर ध्यान आकर्षित होता है। लोकतंत्र में विपक्ष और सत्तापक्ष आवश्यक सोपान हैं। लेकिन जब सत्ता पक्ष विपक्ष से मुक्त व्यवस्था की कामना करता हुआ व्यवहारिक तौर पर ही विपक्ष को रास्ते से हटाने के सक्रिय प्रयासों में लग जाता है तो वहीं से लोकतंत्र पर पहला ग्रहण लग जाता है। विपक्ष को हटाने के लिये जब धर्म को भी राजनीति का अभिन्न अंग बनाकर एक सामाजिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया जाता है तो उसकी कीमत आने वाली कई पीढ़ियों को चुकानी पड़ जाती हैं।
आज देश की जो स्थिति निर्मित होती जा रही हैं उसमें पहली बार लोकतंत्र के स्थायी आधारों पर गंभीर सवाल उठते जा रहे हैं। कार्यपालिका को जो स्थायी चरित्र दिया गया था उस पर स्वयं सत्ता पक्ष द्वारा सवाल उठाते हुए उसमें कॉरपोरेट घरानों के नौकरशाहों को कार्यपालिका में जगह दी जा रही है। इसमें रोचक यह है कि इस पर किसी भी मंच पर कोई सार्वजनिक विचार-विमर्श तक नहीं हुआ है। कार्यपालिका का स्टील फ्रेम मानी जाने वाली अखिल भारतीय सेवा संवर्ग ने इसे सिर झुका कर स्वीकार कर लिया है। इसी स्वीकार का परिणाम है कि ईडी आयकर और सीबीआई जैसी संस्थाओं पर राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप लग रहे हैं। व्यवस्था पालिका में संसद से लेकर विधानसभाओं तक में हर बार आपराधिक छवि के माननीयों का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाने के सारे दावे जुमले सिद्ध हुए हैं। अब तो न्यायपालिका की निष्पक्षता पर भी गंभीर आक्षेप लगने शुरू हो गये हैं। यह शुरुआत स्वयं देश के कानून मंत्री ने की है। जब लोकतंत्र के इन आधारों पर ही इस तरह के गंभीर आरोप लगने शुरू हो जायें तो क्या यह सोचना नहीं पड़ेगा कि वह आम आदमी इस व्यवस्था में कहां खड़ा है जिसके नाम पर यह सब किया जा रहा है।
आम आदमी के हित की व्याख्या जब शीर्ष पर बैठे कुछ संपन्न लोग करने लग जाते हैं तब सारी व्यवस्थायें एक-एक करके धराशायी होती चली जाती हैं। बड़ी चालाकी से इसे भविष्य के निर्माण की संज्ञा दे दी जाती है। नोटबंदी और लॉकडउन के समय श्रम कानूनों में हुए संशोधन तथा विवादित कृषि कानून इसी निर्माण के नाम पर लाये गये थे। इन सारे सवालों पर जब मीडिया ने सत्ता पक्ष की पक्षधरता के साथ खड़े होने का फैसला ले लिया तो क्या उसी से राष्ट्र निर्माण में उसकी भूमिका स्पष्ट नहीं हो जाती हैं। आज जब मीडिया सत्ता पक्ष के प्रचारक की भूमिका में आ खड़ा हो गया है तो उससे किस तरह की भूमिका की अपेक्षा की जा सकती है। इसी कारण से आज निष्पक्ष मीडिया को देशद्रोह और सरकारी विज्ञापनों पर रोक जैसे हथियारों से केंद्र से लेकर राज्यों तक की सरकारें प्रताड़ित करने के प्रयासों में लगे हुए हैं। इस हमाम में सत्तापक्ष से लेकर विपक्ष तक की सारी सरकारें बराबर की नंगी हैं। इस परिदृश्य में राष्ट्र निर्माण में मीडिया की भूमिका पर चर्चा करना एक प्रशासनिक औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं रह जाता है।

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