Friday, 19 September 2025
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अमृत काल में विश्वास का टूटना

आजादी के स्वर्णिम जयन्ती को अमृत काल की संज्ञा दी है हमारे आदरणीय प्रधानमंत्री ने। इस अमृत काल में स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर प्रधानमंत्री के गुजरात में ही बिलकिस बानो के दोषीयों को न केवल रिहाई का तोहफा दिया गया बल्कि उन्हें एक तरह से सम्मानित भी किया गया। 2002 में जब गुजरात में गोधरा काण्ड घटा था तब उसके बाद राज्य में दंगे भड़क उठे थे। इन्ही दंगों में दंगाईयों ने बिलकिस बानो के परिवार के साथ व्यस्क सदस्यों की हत्या करने के बाद उसकी गोद से बच्चे को छीन कर उसे भी मौत के घाट उतार दिया। दंगाई इतने पर ही नहीं रुके बल्कि 5 माह की गर्भवती बिलकिस बानो के साथ 11 लोगों ने सामूहिक बलात्कार भी किया। बाद में इस पर मुकद्दमा चला मुंबई की विशेष अदालत में सुनवाई हुई। सभी ग्यारह लोगों को उम्र कैद की सजा सुनाई गई। उच्च न्यायालय में इसकी अपील दायर हुई और हाईकोर्ट ने भी विशेष अदालत के फैसले को बहाल रखा। इन दोषियों को मृत्युदण्ड की सजा क्यों नहीं हुई इसका जवाब आज तक नहीं आया है और यही इनके प्रभावशाली होने का प्रमाण है। अब स्वर्ण जयंती के अमृत काल में गुजरात सरकार ने इन्हें रिहाई का तोहफा दिया। संगठन से जुड़े मंचों ने उन्हें भगवा पटके पहनाकर और माथे पर तिलक लगाकर सम्मानित किया। पूरे देश ने यह देखा है। यह लोग इतने बड़े जघन्य अपराध के दोषी थे जिन्हें अदालत ने सजा दी थी। अब ऐसे लोगों की रिहाई जहां कानून के कमजोर पक्षों पर कई गंभीर सवाल खड़े कर रही है वहीं पर इनका इस तरह से सम्मानित किया जाना समाज के एक वर्ग की मानसिकता और नीयत पर जो सवाल खड़े कर जाती है उसके परिणाम आने वाले समय के लिये घातक होंगे। क्योंकि इस तरह के आचरण से विदेशों में भी सरकार और देश की छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। जब विश्व गुरू बनने का दावा करने वाले समाज की यह तस्वीर विश्व के सामने जायेगी कि यहां तो जितना बड़ा अपराध उतना ही बड़ा उसका महिमा मण्डन और इनसे भी बड़ी सरकार की चुप्पी तो सारा परिदृश्य ही बदल जाता है। प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक संघ परिवार सहित किसी ने भी ऐसे आचरण की निंदा नहीं की है। केवल पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने इसे देश का दुर्भाग्य कहा हैं इन्हीं गुजरात दंगों को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री स्व.अटल बिहारी बाजपेयी ने यहां राजधर्म की अनुपालना न होने की बात की थी। परन्तु पिछले दिनों जब सुप्रीम कोर्ट ने जाकिया जाफरी की याचिका को यह कहकर खारिज कर दिया था कि इन दंगों में प्रायोजित जैसा कुछ नहीं है और इस फैसले के बाद जिस तरह से यह मामला उठाने वालों के खिलाफ कारवायी हुयी क्या उस पर इस आचरण के बाद स्वतः ही प्रश्नचिन्ह नहीं लग जाता है? क्या इस परिदृश्य में आज सीबीआई, ई डी और अन्य एजेंसियां जो सक्रियता दिखा रही है उन पर आसानी से आम आदमी का विश्वास बन पायेगा? क्या सर्वाेच्च न्यायालय ऐसे महिमा मण्डन का स्वतः संज्ञान लेकर कुछ कारवाई का साहस दिखायेगा? क्या इसी पृष्ठभूमि में वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल यह कहने को बाध्य नहीं हुये कि अब तो सुप्रीम कोर्ट से भी उम्मीद नहीं रही? क्योंकि अब जांच एजेंसियों का राजनीतिक उपयोग होने के खुले आरोप लगने लग पड़े हैं। जांच एजेंसियों और न्यायिक व्यवस्था पर से उठता विश्वास कालान्तर में लोकतंत्र के लिए बहुत घातक प्रमाणित होगा यह तय है।

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