Friday, 19 September 2025
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कर्ज का जुगाड़ विकास का मानक नहीं है

क्या प्रदेश का संचालन कर्ज लिये बिना नहीं हो सकता ? यह सवाल इसलिये उठ रहा है क्योंकि सुक्खू सरकार ने अपने पहले ही विधानसभा सत्र में राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबन्धन एक्ट में संशोधन करके प्रदेश सरकार की कर्ज लेने की सीमा बढ़ाने का प्रबन्ध कर लिया है। अब तक नियम था कि राज्य सरकार सकल घरेलू उत्पादन का तीन प्रतिशत तक ही कर्ज ले सकती है। अब इस अधिनियम में संशोधन करके कर्ज की यह सीमा बढ़ा दी गयी है। कर्ज की सीमा बढ़ाना वित्तीय कुप्रबन्धन का सीधा प्रमाण माना जाता है। मार्च 2022 में ही यह स्थिति जीडीपी के छः प्रतिशत तक पहुंच गयी थी। सदन के पटल पर आये रिकॉर्ड के मुताबिक प्रदेश की वित्तीय स्थिति वर्ष 2020-21 में ही बिगड़ गयी थी जो लगातार गहराती चली गयी। क्योंकि केन्द्र सरकार से जो राजस्व घाटा अनुदान प्रदेश को मिलता था वह बन्द हो गया है। जीएसटी की प्रतिपूर्ति मिलनी थी वह केन्द्र से नहीं मिल रही है और इसके कारण करीब तीन हजार करोड का प्रदेश को नुकसान हो चुका है। केन्द्र प्रदेश को यह हक देने की बजाये कर्ज लेने के लिये प्रोत्साहित करता रहा है। इसलिये पिछली सरकार सबसे अधिक कर्ज लेने वाली सरकार बन गयी। इन केन्द्रीय अनुदानों की स्थिति सुक्खू सरकार के लिये भी ऐसी ही रहने वाली है। प्रदेश कर्ज लेने की सीमाएं लांघ चुका है और केन्द्र का वित्त विभाग इसकी चेतावनी भी प्रदेश को बहुत पहले जारी कर चुका है। यह चेतावनी का पत्रा हम अपने पाठकों के सामने रख चुके हैं। आज कर्ज की किश्त चुकाने के लिये भी कर्ज लेने की नौबत आ चुकी है। सुक्खू सरकार को अपने संसाधन बढ़ाने के लिये डीजल पर प्रति लीटर तीन रूपये वैट बढ़ाना पड़ा है। इस बढ़ौतरी का हर सामना की ढुलाई पर असर पड़ेगा जिसके परिणामवश महंगाई बढ़ेगी। इस परिदृश्य में जब इस सरकार को अपने चुनावी वायदे पूरे करने पड़ेंगे तो स्वभाविक रूप से धन का प्रबन्ध करने के लिए सेवाओं के दाम बढ़ाने और कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं होगा। परन्तु यह करने से लोगों में रोष पनपेगा और सरकार की विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवाल खड़े हो जायेंगे। इस स्थिति में चुनावी वादे पूरे कर पाना आसान नहीं होगा। ऐसे में यह सवाल बड़ा अहम हो जाता है कि सरकार अपने वादे भी पूरे कर दे और जनता पर कर्ज का बोझ भी न पड़े। इसके लिये सबसे पहले प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र जारी करके जनता को वस्तुस्थिति से अवगत करवाना होगा। इसी के साथ सरकार की प्राथमिकताओं का भी नये सिरे से निर्धारण करना होगा। प्रदेश की जनता को यह बताना होगा कि पिछली सरकार ने कर्ज का यह पैसा कहां खर्च किया? क्योंकि कर्ज लेकर दान नहीं दिया जाता है। इसी के साथ भ्रष्टाचार को बेनकाब करके दोषियों के खिलाफ कढ़ी कारवाही करनी होगी। क्योंकि डबल इंजन की सरकार से जब प्रदेश को उसका हक भी नहीं मिला है तो इसकी जानकारी जनता के सामने रखना आवश्यक हो जाता है। यह जानकारी सामने रखने के साथ ही अपने अनावश्यक खर्चों पर भी लगाम लगानी पड़ेगी। आज जब सरकार ने राजनीतिक सन्तुलन बनाने के लिये मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां की है तो यह बताना होगा कि ऐसा करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। जबकि पिछली दो सरकारों में ऐसी राजनीतिक नियुक्तियां नहीं की गयी थी। जनता में इन नियुक्तियों का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है। इन नियुक्तियों के वैधानिक पक्ष को यदि छोड़ भी दिया जाये तो भी राजनीतिक रूप से भी इसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा है। क्योंकि चुनाव के दौरान जो आरोप पत्र ‘‘लूट की छूट’’ के नाम से जारी किया गया था उसकी दिशा में इस एक माह के समय में कोई कदम उठाने का संकेत तक नहीं आया है। जबकि सरकार लगातार व्यवस्था बदलने की दिशा में काम करने की बातें कर रही है लेकिन व्यवहारिक रूप से उसके प्रशासनिक फैसलों से इस तरह के कोई संकेत सामने नहीं आये हैं। जनता सरकार की हर चीज पर नजर रख रही है क्योंकि इस सत्ता परिवर्तन में कांग्रेस के नेताओं से ज्यादा योगदान दूसरे लोगों का रहा है। आज जयराम सरकार पर सबसे ज्यादा कर्ज लेने का आरोप इसलिये लग रहा है कि उसने प्रदेश के वित्तीय प्रबन्धन से जुड़े तन्त्र पर आंख बन्द करके विश्वास कर लिया था। कर्ज लेना विकास का कोई मानक नहीं है। बल्कि कर्ज लेकर घी पीने का पर्याय बन चुका है।

कर्ज का जुगाड़ विकास का मानक नहीं है

क्या प्रदेश का संचालन कर्ज लिये बिना नहीं हो सकता यह सवाल इसलिये उठ रहा है क्योंकि सुक्खू सरकार ने अपने पहले ही विधानसभा सत्र में राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबन्धन एक्ट में संशोधन करके प्रदेश सरकार की कर्ज लेने की सीमा बढ़ाने का प्रबन्ध कर लिया है। अब तक नियम था कि राज्य सरकार सकल घरेलू उत्पादन का तीन प्रतिशत तक ही कर्ज ले सकती है। अब इस अधिनियम में संशोधन करके कर्ज की यह सीमा बढ़ा दी गयी है। कर्ज की सीमा बढ़ाना वित्तीय कुप्रबन्धन का सीधा प्रमाण माना जाता है। मार्च 2022 में ही यह स्थिति जीडीपी के छः प्रतिशत तक पहुंच गयी थी। सदन के पटल पर आये रिकॉर्ड के मुताबिक प्रदेश की वित्तीय स्थिति वर्ष 2020-21 में ही बिगड़ गयी थी जो लगातार गहराती चली गयी। क्योंकि केन्द्र सरकार से जो राजस्व घाटा अनुदान प्रदेश को मिलता था वह बन्द हो गया है। जीएसटी की प्रतिपूर्ति मिलनी थी वह केन्द्र से नहीं मिल रही है और इसके कारण करीब तीन हजार करोड का प्रदेश को नुकसान हो चुका है। केन्द्र प्रदेश को यह हक देने की बजाये कर्ज लेने के लिये प्रोत्साहित करता रहा है। इसलिये पिछली सरकार सबसे अधिक कर्ज लेने वाली सरकार बन गयी। इन केन्द्रीय अनुदानों की स्थिति सुक्खू सरकार के लिये भी ऐसी ही रहने वाली है। प्रदेश कर्ज लेने की सीमाएं लांघ चुका है और केन्द्र का वित्त विभाग इसकी चेतावनी भी प्रदेश को बहुत पहले जारी कर चुका है। यह चेतावनी का पत्रा हम अपने पाठकों के सामने रख चुके हैं। आज कर्ज की किश्त चुकाने के लिये भी कर्ज लेने की नौबत आ चुकी है। सुक्खू सरकार को अपने संसाधन बढ़ाने के लिये डीजल पर प्रति लीटर तीन रूपये वैट बढ़ाना पड़ा है। इस बढ़ौतरी का हर सामना की ढुलाई पर असर पड़ेगा जिसके परिणामवश महंगाई बढ़ेगी। इस परिदृश्य में जब इस सरकार को अपने चुनावी वायदे पूरे करने पड़ेंगे तो स्वभाविक रूप से धन का प्रबन्ध करने के लिए सेवाओं के दाम बढ़ाने और कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं होगा। परन्तु यह करने से लोगों में रोष पनपेगा और सरकार की विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवाल खड़े हो जायेंगे। इस स्थिति में चुनावी वादे पूरे कर पाना आसान नहीं होगा। ऐसे में यह सवाल बड़ा अहम हो जाता है कि सरकार अपने वादे भी पूरे कर दे और जनता पर कर्ज का बोझ भी न पड़े। इसके लिये सबसे पहले प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र जारी करके जनता को वस्तुस्थिति से अवगत करवाना होगा। इसी के साथ सरकार की प्राथमिकताओं का भी नये सिरे से निर्धारण करना होगा। प्रदेश की जनता को यह बताना होगा कि पिछली सरकार ने कर्ज का यह पैसा कहां खर्च किया? क्योंकि कर्ज लेकर दान नहीं दिया जाता है। इसी के साथ भ्रष्टाचार को बेनकाब करके दोषियों के खिलाफ कढ़ी कारवाही करनी होगी। क्योंकि डबल इंजन की सरकार से जब प्रदेश को उसका हक भी नहीं मिला है तो इसकी जानकारी जनता के सामने रखना आवश्यक हो जाता है। यह जानकारी सामने रखने के साथ ही अपने अनावश्यक खर्चों पर भी लगाम लगानी पड़ेगी। आज जब सरकार ने राजनीतिक सन्तुलन बनाने के लिये मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां की है तो यह बताना होगा कि ऐसा करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। जबकि पिछली दो सरकारों में ऐसी राजनीतिक नियुक्तियां नहीं की गयी थी। जनता में इन नियुक्तियों का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है। इन नियुक्तियों के वैधानिक पक्ष को यदि छोड़ भी दिया जाये तो भी राजनीतिक रूप से भी इसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा है। क्योंकि चुनाव के दौरान जो आरोप पत्र ‘‘लूट की छूट’’ के नाम से जारी किया गया था उसकी दिशा में इस एक माह के समय में कोई कदम उठाने का संकेत तक नहीं आया है। जबकि सरकार लगातार व्यवस्था बदलने की दिशा में काम करने की बातें कर रही है लेकिन व्यवहारिक रूप से उसके प्रशासनिक फैसलों से इस तरह के कोई संकेत सामने नहीं आये हैं। जनता सरकार की हर चीज पर नजर रख रही है क्योंकि इस सत्ता परिवर्तन में कांग्रेस के नेताओं से ज्यादा योगदान दूसरे लोगों का रहा है। आज जयराम सरकार पर सबसे ज्यादा कर्ज लेने का आरोप इसलिये लग रहा है कि उसने प्रदेश के वित्तीय प्रबन्धन से जुड़े तन्त्र पर आंख बन्द करके विश्वास कर लिया था। कर्ज लेना विकास का कोई मानक नहीं है। बल्कि कर्ज लेकर घी पीने का पर्याय बन चुका है।

कुछ की सुविधा ही विकास नहीं होता

 केन्द्र सरकार गरीबों को मुफ्त अनाज देने की योजना को अभी एक वर्ष और जारी रखेगी ऐसा कहा गया है। अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दिया जा रहा है ऐसा दावा है। एक सौ तीस करोड़ की कुल जनसंख्या में से 80 करोड़ को मुफ्त राशन दिये जाने का अर्थ है कि हर दूसरे व्यक्ति को मुफ्त राशन मिल रहा है। क्या वास्तव में ही ऐसा है या किसी ने आंकड़ों पर ध्यान ही नहीं दिया है? जिस देश की आधे से भी अधिक जनसंख्या को मुफ्त राशन देना सरकार की बाध्यता बन जाये उसके विकास का आकलन कैसे किया जाये यह अपने में ही क्या एक बड़ा सवाल नही बन जाता है? इसी के साथ एक और रोचक आंकड़ा पिछले दिन राज्यसभा में आया है। इसके मुताबिक वर्ष 2014 तक केंद्र में रही सारी सरकारों ने पच्चपन लाख करोड़ का कर्ज लिया है और 2014 में आयी मोदी सरकार ने 2022 तक आठ वर्षों में ही पच्चासी लाख करोड का कर्ज ले लिया है। केंद्र सरकार का कुल कर्ज इस समय डेढ़ लाख करोड़ से भी ऊपर चला गया है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारों का कर्ज 1,70,000 करोड़़ हो चुका है। इस तरह केंद्र से लेकर राज्यों तक सभी सरकारें कर्ज पर अधारित हैं। कर्ज के बढ़ने से ही महंगाई और बेरोजगारी बढ़ती है। इन आंकड़ो का जिक्र करना इसलिये प्रसांगिक हो जाता है कि इनसे उठते सवाल बहुत अहम हो जाते हैं। यह स्वभाविक सवाल उठता है कि जिस देश में आधे से अधिक बादी आज भी अपने दो वक्त के भोजन के लिये सरकार के मुफ्त राशन पर निर्भर हो वहां के विकास के दावों की विश्वसनीयता का आकलन कैसे किया जाये? जब कर्ज के आंकड़े संसद के पटल पर आ जाये तब तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। यह सवाल स्वतः ही खड़ा हो जाता है कि यह पैसा चला कहां गया। क्योंकि इसी संसद के सत्र में सरकार ने यह भी बताया कि साढे़ दस लाख करोड़ का एन पी ए बट्टे खाते में डाल दिया गया है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सरकार कर्ज भी ले तही रही है और एन पी ए को बट्टे खाते में भी डाल रही है। इसी एन पी ए की वसूली के लिए बैड बैंक तक का गठन भी किया गया है। लेकिन इसके परिणाम अभी तक कोई संतोषजनक नहीं रहे हैं। एन पी ए बढ़ता जा रहा है और रिकवरी बहुत धीमी होती जा रही है। बैंक अपना घाटा पूरा करने के लिये लोगों के हर तरह के जमा पर ब्याज दरें घटाता जा रहा है। जबकि आर बी आई अपने रैपो रेट लगातार बढ़ाता जा रहा है। यह सही है कि आम आदमी को वितीय स्थिति के इन पक्षों की कोई ज्यादा जानकारी नही है। परन्तु यह भी यक कड़वा सच है कि इस सबका प्रभाव बेरोजगारी और महंगाई के रूप में इसी आम आदमी पर ज्यादा पड़ रहा है। क्यों बेरोजगारी और महंगाई पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। इस वस्तुस्थिति में यह सवाल और अहम हो जाता है कि इस आम आदमी की वितिय सहायता कैसे की जाये। इसके लिये एक प्रयोग यह किया गया कि कुछ सामाजिक सुरक्षा योजनायें शुरु की जाये। जिनसे यह आम आदमी लाभान्वित हो। लेकिन इन योजनाओं के बाद भी आम आदमी की स्थिति में कोई ठोस सुधार नजर नहीं आया। इस लिये एक और प्रयोग आम आदमी के हाथ में कुछ नकद पैसे देने का कांग्रेस सरकारों द्वारा किया जाने लगा है। सभी राजनीतिक दल सता में आने के लिये इस तरह के प्रयोग कर रहे हैं। अपने प्रयोगों को सही ठहराने और दूसरों के प्रयोगों को रेवड़ियां बांटने की संज्ञा दी जा रही है। भाजपा ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव इन्ही रेवड़ियों के सहारे जीते हैं। लेकिन जब दूसरेे दलों ने यही सब करने का रास्ता अपनाया तो आर बी आई से लेकर केन्द्र सरकार तक सभी इस पर चीख पड़े। यह सही है कि जब किसी एक को कुछ मुफ्त में दिया जाता है तो उसकी कीमत किसी दूसरे को चुकानी पड़ती है। इस कीमत चुकाने का असर अपरोक्ष में सभी पर पड़ जाता है। ऐसे में सरकार की योजनाओं का आकलन किया जाना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि अधिकांश योजनाएं ऐसी है जिन पर भारी निवेश तो हो रहा है लेकिन उनका व्यवहारिक लाभ कुछ मुट्ठी भर को ही होता है और बहुसंख्यक के हिस्से में केवल आंकडे़ और मंहगाई तथा बेरोजगारी ही आती है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि भारी निवेश की योजनाओं के लॉंच से पहले उन पर सार्वजनिक बहस करवाई जाये।

गारंटीयों की गारंटी पर अभी से उठने लगे सवाल

प्रदेश कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में अपना एजेंडा जनता के सामने रखते हुये दस गारंटियां जारी की थी। यह कहा था कि यदि वह जीत जाती है तो सत्ता में आने पर प्रदेश की जनता के लिये यह उसकी कार्ययोजना होगी। कांग्रेस की यह गारंटियां सत्तारूढ़ भाजपा के दृष्टि पत्र पर भारी पड़ी। जनता ने कांग्रेस के वायदों पर विश्वास किया क्योंकि कुछ गारंटियों को लेकर यह कहा गया था कि उन्हें मंत्रिमंडल की पहली ही बैठक में लागू कर दिया जायेगा। इन वायदों के परिणाम स्वरूप कांग्रेस को बहुमत मिल गया और उसकी सरकार बन गयी। अब सरकार बनने पर जनता इन गारंटियों पर अमल किये जाने की प्रतीक्षा करने लग गयी है। अभी मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का एक टीवी चैनल पर साक्षात्कार सामने आया है। इसमें मुख्यमंत्री ने यह कहा है कि सरकार पांच वर्षों के लिये आयी है और यह गारंटीयां भी पांच वर्षों में पूरी की जायेगी। जब संसाधन बढ़ जायेंगे तो महिलाओं को पंद्रह सौ रूपये प्रति माह भी दिया जायेगा। यह सही है कि सरकार पांच वर्षों के लिये आयी है और यह एजेंडा भी पांच वर्षों में ही लागू किया जाना है। लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान तो ऐसा नहीं कहा गया था। इसलिये कुछ गारंटीयों पर अभी से जनता में चर्चाएं उठना शुरू हो गयी है। अभी 2023 के शुरू में ही नगर निगम शिमला के चुनाव आ जायेंगे। इन चुनावों का संदेश पूरे प्रदेश में जाता है। इनके बाद 2024 में लोकसभा के लिये चुनाव होंगे और भाजपा यह चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ेगी। इन चुनावों में गारंटियों की पूर्ति में उठाये गये व्यवहारिक कदमों की बड़ी भूमिका रहेगी यह स्वाभाविक है।
गारंटीयों को पूरा करने के लिये निश्चित रूप से धन की आवश्यकता रहेगी। इस समय निवर्तमान जयराम सरकार पर सबसे बड़ा आरोप ही प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में उलझाने का लगा है। केंद्र सरकार से जीएसटी की प्रतिपूर्ति मिलना जून से पूरी तरह बंद हो चुकी है। अटल ग्रामीण सड़क योजना भी केंद्र बंद कर चुका है और इस योजना की दो सौ सड़कें अधर में लटकी हुई हैं। यही नहीं केंद्र तो राजस्व घाटा अनुदान भी बंद कर चुका है। जयराम सरकार इन तथ्यों पर न तो मोदी सरकार के सामने मुंह खोल पायी और न ही प्रदेश की जनता को इसकी जानकारी दे पायी। प्रशासन कर्ज लेकर काम चलाता रहा है। इस वस्तु स्थिति में यह एक बड़ा गंभीर प्रश्न होगा कि सरकार इससे कैसे बाहर निकल पाती हैं। यह सुक्खू सरकार के सामने ही आ चुका है कि बहुत सारे फैसले बिना बजट प्रावधानों के केवल चुनाव के दृष्टिकोण से ही लिये गये थे और प्रशासन इसमें पूरी तरह सरकार के साथ था। मीडिया तक भी आर्थिक प्रश्नों पर चुप रहा है।
जब इस तरह की आर्थिक स्थितियां बन जाती हैं की कर्ज की किश्त चुकाने के लिए भी कर्ज लेना पड़े तो इसमें सबसे अधिक बढ़ता है भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार का आलम यह रहा है कि प्रशासन ने इसमें सबसे पहले राजनेताओं को हिस्सेदार बनाया और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की आवाज को कुचलने के लिये हर तरह का दमन किया। आज सुक्खू सरकार को आर्थिक अनुशासन लाने के लिए भ्रष्टाचारियों के खिलाफ भी कड़े कदम उठाने होंगे। यह दोनों काम यदि एक साथ शुरू न हो पाये तो सरकार को आगे बढ़ना कठिन हो जायेगा। इस सरकार के लिये यह संभव नहीं होगा कि जयराम की तरह चुनावी वर्ष के अंतिम छः माह में ही फैसले लिये जायें। क्योंकि कांग्रेस के अंदर पहले दिन से ही गुटबाजी सामने आ चुकी है और भाजपा इसे भुनाने के लिये हर हद तक जायेगी। सरकार को यह समझना होगा कि संगठन और सरकार अलग-अलग इकाइयां हैं। सरकार को संगठन की तर्ज पर नहीं चलाया जा सकता। जबकि अभी यह संदेश जा रहा है कि सरकार पर संगठन प्रभावी हो रहा है। ऐसे में गारंटियों की प्रतिपूर्ति के लिये जनता पांचवें वर्ष का इंतजार कर लेगी यह मानकर चलना कठिन होगा यह सही है कि जनता के पास कोई ऐसी ताकत नहीं है कि वह अगले चुनावों से पहले कुछ कर पाये। लेकिन लोकसभा चुनाव उसे अपनी नाराजगी दिखाने का पहला अवसर होगा। जनता की अनदेखी ने ही सबसे बड़ी पार्टी होने का दम भरने वाली भाजपा को घर बिठा दिया है। इसलिये गारंटीयों की गारंटी पर उठने वाले प्रश्नों को अभी से गंभीरता से लेना होगा। 

व्यवस्था परिवर्तन -कुछ सवाल

हिमाचल में सत्ता परिवर्तन हो गया है कांग्रेस की सरकार बन गयी है। नई सरकार के मुख्यमंत्री ठाकुर सुखविंदर सिंह ने दावा किया है कि वह इस सत्ता परिवर्तन के माध्यम से प्रदेश की व्यवस्था बदलने का प्रयास करेंगे। मुख्यमंत्री के इस दावे की चर्चा करने से पहले प्रदेश की इस समय की व्यवस्था को समझना आवश्यक हो जाता है। परिवार से लेकर प्रदेश और देश के संचालन तक के लिए कुछ नियम कानून तथा प्रथाएं स्थापित की जाती है। जब इन स्थापित मानकों की किसी भी कारण से अनदेखी की जाने लगती है तभी व्यवस्था के गड़बड़ाने के आरोप लगने शुरू हो जाते हैं। यह अनदेखी उस समय और भी गंभीर सवाल बन जाती है जब व्यवस्था के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति अपने ही फैसलों को अंतिम सच मानना और प्रचारित करना शुरू कर देता है। आज राष्ट्रीय स्तर पर यह स्थिति उस मोड़ तक पहुंच गयी है जहां सर्वोच्च न्यायालय को भी यह कहना पड़ा है कि जब कानून है तो उसे मानना ही पड़ेगा। नियमों कानूनों की अनुपालना ही व्यवस्था होती है। प्रदेश में दर्जनों मामले हैं जहां पर नियमों कानूनों की अवहेलना हुई है। इसमें सबसे पहले प्रदेश की वित्तीय स्थिति आती है। जब जयराम सरकार ने सत्ता संभाली थी तब प्रदेश का कर्ज भार 46,000 करोड़ था जो आज बढ़कर 70,000 करोड़ भी कहीं ज्यादा हो गया है। जबकि एफ.आर.बी.एम. के मुताबिक यह कर्ज डी.जी.पी. के 3% से अधिक नहीं होना चाहिये। कर्ज को 3% के दायरे में ही रखने के लिये केंद्र एक बार प्रदेश को चेतावनी भी दे चुका है। पिछले मानसून सत्र के बाद प्रदेश के करीब हर विधानसभा क्षेत्र में करोड़ों की योजनाएं घोषित हुई हैं। क्या इस आश्य के प्रशासनिक प्रस्तावों को अनुमोदित करने से पहले वित्तीय अनुमोदन लिया गया है? क्या ऐसे अनुमोदन पर कर्ज के बिना भी धन की उपलब्धता रही है? क्या कर्ज लेकर घी पीने की प्रथा व्यवस्था पर एक गंभीर सवाल नहीं बन जाता है। रेवड़ी संस्कृति पर राष्ट्रीय स्तर पर सवाल उठने के बाद यह मामला भी सर्वाेच्च न्यायालय तक पहुंच चुका है। केन्द्र सरकार जयराम की सरकार को कोई आर्थिक सहायता नहीं दे पायी है तो सुक्खु सरकार को ऐसी सहायता मिल पाना कठिन लगता है। सरकार को 10 गारन्टीयां पूरी करनी है और कुछ तो पहली बैठक में ही पूरी करनी होगी। वित्त विभाग कर्ज के अतिरिक्त और कोई उपाय पिछली सरकार को नहीं सुझा पाया है तो अब कैसे कर पायेगा। यह सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती होगी। जबकि प्रदेश की जानकारी रखने वालों का मानना है कि कर्ज और करों का बोझ बढ़ाये बिना भी सरकार चलाई जा सकती है। इसके लिए जनता को विश्वास में लेना होगा और इस विश्वास के लिए श्वेत पत्र जारी करना पहली आवश्यकता होगी। कांग्रेस ने जनता से वादा किया है कि वह पिछले छः माह में लिये गये फैसलों की समीक्षा करके उन्हें बदलेगी। क्या गलत फैसलों के लिये किसी को जिम्मेदार भी ठहराया जायेगा यह देखना भी महत्वपूर्ण होगा। क्योंकि इस दौरान कुछ विभागों में भ्रष्टाचार के कई गंभीर मामले घटे हैं। पिछली सरकार प्रशासन के साथ कितना तालमेल बिठा पायी थी इसका पता इसी से चल जाता है कि सात मुख्य सचिव बदलने पड़े क्योंकि वरीयता को नजरअन्दाज करने का जो कदम पहले दिन से ही उठ गया उसे अन्त तक सुधारा नहीं जा सका। यदि किसी ने मत विभिन्नता प्रकट की तो उसे विरोधी मानकर कुचलने का प्रयास किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भ्रष्टाचार मुख्य संस्कृति बन गयी और भ्रष्टाचार के किसी भी प्रकरण पर कोई कार्यवाही नहीं हो पायी बल्कि विपक्ष तक को अपरोक्ष में धमकियां दी गयी। आज सुक्खु सरकार विरासत में मिली इस वस्तुस्थिति से बाहर निकल कर व्यवस्था परिवर्तन तभी कर पायेगी यदि वरीयता और नियम कानूनों को अभिमान दे पायी अन्यथा यह सिर्फ कागजी दावा होकर रह जायेगा।

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