Wednesday, 17 December 2025
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जन अपेक्षाओं के आईने में भारत जोड़ो यात्रा

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा तीन हजार आठ सौ किलोमीटर का सफर करीब पांच माह में पूरा करके पूर्ण होने जा रही है। आज की परिस्थितियों में यदि कोई राजनेता इस तरह की यात्रा का संकल्प लेकर उसे पूरा करके दिखा दे तो निश्चित रूप में यह मानना पड़ेगा कि उस नेता में कुछ तो ऐसा है जो उसे दूसरे समकक्षों से कहीं अलग पहचान देता है। इस यात्रा को यदि तपस्या का नाम दिया जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि पांच माह तक हर रोज करीब पचीस किलोमीटर पैदल चलना और रास्ते में प्रतिदिन सैकड़ों लोगों से संवाद स्थापित करना तथा मीडिया से भी आमने सामने होना कोई आसान काम नहीं है। राहुल गांधी के इस इतिहास को कोई दूसरा नेता लांघ सकेगा ऐसा नहीं लगता। इतनी लम्बी यात्रा में बिना थकान, शांत बने रहकर समाज के हर वर्ग की बात सुनना, उसे राष्ट्रीय प्रश्नों के प्रति जागरूक करना अपने में ही एक बड़ा स्वाध्याय और सीख हो जाता है। पांच माह में यह यात्रा बारह राज्यों और दो केन्द्र शासित राज्यों से होकर गुजरी है। एक सौ उन्नीस सहयात्रियों के साथ शुरू हुई इस यात्रा में रास्ते में कैसे हजारों लाखों लोग जुड़ते चले गये वही इस यात्रा को एक तपस्या की संज्ञा दे देता है। इसी से यह यात्रा अनुभव और ज्ञान दोनों का पर्याय बन जाती है। राहुल ने स्वयं इस यात्रा को नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान करार दिया है।
राहुल एक सांसद हैं और अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं। इस नाते देश की जनता के प्रति उनकी एक निश्चित जिम्मेदारी है। इस जिम्मेदारी के नाते देश की समस्याओं को आम जनता के सामने रखना और उन पर जनता की जानकारी और प्रतिक्रिया को जानना एक आवश्यक कर्तव्य बन जाता है। इन समस्याओं पर जनता से सीधा संपर्क बनाना उस समय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब लोकतांत्रिक मंच संसद और मीडिया में ऐसा करना कठिन हो गया हो। देश जानता है कि आज प्रधानमंत्री राष्ट्रीय समस्याओं पर जनता से सार्थक संवाद स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि मन की बात में अपनी ही बात जनता को सुनायी जा रही है। लेकिन जनता के मन में क्या है उसे सुनने का कोई मंच नहीं है। यहां तक की पिछले आठ वर्षों में मीडिया से भी खुले रुप में कोई संवाद नहीं हो पाया है। यही कारण है कि नोटबन्दी पर आम आदमी का अनुभव क्या रहा है उसकी कोई सीधी जानकारी प्रधानमन्त्री को नहीं मिल पायी है। जीएसटी का छोटे दुकानदार पर क्या प्रभाव पड़ा है और जीएसटी के करोड़ों के घपले क्यों हो रहे हैं। कोविड में आपदा को किन बड़े लोगों ने अवसर बनाया और ताली-थाली बजाने तथा दीपक जलाने पर आम आदमी की प्रतिक्रिया क्या रही है? आज सर्वोच्च न्यायालय में सरकार को शपथ पत्र देकर बार-बार यह क्यों कहना पड़ा है कि वैक्सीनेशन ऐच्छिक थी अनिवार्य नहीं? इसके प्रभावों/ कुप्रभावों की जानकारी रखना वैक्सीनेशन लेने वाले की जिम्मेदारी थी।
अन्ना आन्दोलन में जो लोकपाल की नियुक्ति जन मुद्दा बन गयी थी उसकी व्यवहारिक स्थिति आज क्या है। 2014 के चुनावों में हर भारतीय के खाते में पंद्रह लाख आने का वादा जुमला क्यों बन गया। सार्वजनिक बैंकों से लाखों करोड़ का कर्ज लेकर भाग जाने वालों के खिलाफ आज तक कोई प्रभावी कारवाई क्यों नहीं हुई। जब चीन के साथ रिश्ते सौहार्दपूर्ण नहीं है तो फिर उसके साथ व्यापार लगातार क्यों बढ़ रहा है। दो करोड़ नौकरियां देने का वादा पूरा न होने पर देश के युवा की प्रतिक्रिया क्या है? महंगाई से आम आदमी कैसे लगातार पीड़ित होता जा रहा है? आज के इन राष्ट्रीय प्रश्नों पर दुर्भाग्य से प्रधानमन्त्री या उनके किसी दूसरे निकट सहयोगी का जनता से सीधा संवाद नहीं रह गया है। इस वस्तुस्थिति में आज देश को एक ऐसे राजनेता की आवश्यकता है जो जनता के बीच जाकर उससे सीधा संवाद बनाने का साहस दिखाये। राहुल गांधी ने पांच माह में कन्याकुमारी से कश्मीर तक पैदल चलकर एक संवाद स्थापित किया है जो उनका कोई भी समकक्ष नहीं कर पाया है। इसलिये यह उम्मीद की जानी चाहिये कि वह जन अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे।

क्या हिमाचल जोशीमठ त्रासदी से सबक लेगा

जोशीमठ धंस रहा है। घरों और सड़कों तक हर जगह दरारें आ गयी हैं। यहां रहना जोखिम भरा हो गया है। पीड़ितों और प्रभावितों को दूसरे स्थानों पर बसाना प्राथमिकता बन गया है। देश के हर नागरिक का ध्यान इस ओर आकर्षित हुआ है और इसी से कुछ राष्ट्रीय प्रश्न भी उभर कर सामने आये हैं। यह सवाल उठ रहा है कि क्या जोशीमठ की यह त्रासदी अचानक घट गयी जिसका कोई पूर्व आभास ही नहीं हो पाया या फिर विकास के नाम पर पूर्व चेतावनीयों को नजरअन्दाज करने का यह परिणाम है ? क्या देश के सभी पर्यटक स्थल बने हिल स्टेशनों की देर सवेर यही दशा होने वाली है ? जोशीमठ क्षेत्र के विकास को लेकर एक समय संसद के अन्दर स्व. श्रीमती सुषमा स्वराज का वक्तव्य इस दिशा में बहुत कुछ कह जाता है। पहाड़ी क्षेत्रों के विकास के क्या मानक होने चाहिये इस पर दर्जनों भूवैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों के शोध उपलब्ध हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण के क्या मानक होनी चाहिये? प्रदूषण के विभिन्न पक्षों को कैसे नियंत्रित और सुनिश्चित किया जायेगा इसके लिए केन्द्र से लेकर राज्यों तक सभी जगह प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का गठन हो चुका है। बड़ी परियोजनाओं की स्थापना से पहले उन्हें पर्यावरण से जुड़ी हर क्लीयरैन्स हासिल करना अनिवार्य है। जोशीमठ का जब विकास हो रहा था और उस क्षेत्र में बड़ी परियोजनाएं स्थापित की जा रही थी और बड़ी-बड़ी सुरंगों का निर्माण हो रहा था तब यह सारे अदारे वहां कार्यरत थे। आज जोशीमठ क्षेत्र की इस त्रासदी के लिये इन्हीं परियोजना और निर्माणों को मूल कारण माना जा रहा है। इस परिपेक्ष में यह सवाल जवाब मांगता है कि जब यह विकास हो रहा था बड़ी परियोजनाओं और सुरंगे बन रही थी तब क्या इन अदारों ने पर्यावरण और विज्ञान से जुड़ी सारी अनिवार्यताओं की पूर्ति सुनिश्चित की थी या नहीं? क्या बाद में किसी के प्रभाव/दबाव में आकर इन अनिवार्यताओं की सुनिश्चितत्ता से समझौता कर लिया गया? इस समय इस पक्ष पर निष्पक्षता से जांच की आवश्यकता है। ताकि दोषियों को सार्वजनिक रूप से अनुकरणीय सजा दी जा सके।
आज जोशीमठ की तर्ज पर ही हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्र ऐसी ही आपदा के मुहाने पर खड़े है।ं प्रदेश के आपदा सूचना प्रवाह प्रभाग की सूचनाओं के अनुसार पिछले करीब दो वर्षों से प्रदेश के विभिन्न भागों में प्रायः औसतन हर रोज एक न एक भूकंप आ रहा है। प्रदेश भूकंप जोन पांच में है। सरकार की अपनी रिपोर्टों के मुताबिक राजधानी नगर शिमला भूकंप के मुहाने पर बैठा है।
1971 में शिमला के लक्कड़ बाजार क्षेत्र में जो नुकसान हुआ था उसके अवशेष आज भी उपलब्ध हैं। ऐतिहासिक रिज का एक हिस्सा हर वर्ष धंसाव का शिकार हो रहा है। इस स्थिति का कड़ा संज्ञान लेते हुये एन.जी.टी. ने नये निर्माणों पर रोक लगा रखी है। लेकिन एन.जी.टी. की इस रोक की अवहेलना स्वयं सरकार और मुख्यमन्त्री के सरकारी आवास से शुरू हुई है। एन.जी.टी. के फैसले के बाद हजारों भवन ऐसे बने हैं जो इन आदेशों की खुली अवहेलना हैं। पिछली सरकार एन.जी.टी. के आदेशों को निष्प्रभावी बनाने के लिये शिमला का विकास प्लान लेकर आयी थी। लेकिन एन.जी.टी. ने इस प्लान को रिजैक्ट कर दिया है। इस कारण फैसले के बाद बने हजारों मकानों पर नियमों की अवहेलना के तहत कारवायी होनी है। लेकिन वोट की राजनीति के चलते कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में आकर ऐसी कारवायी करने से बचना चाहता है। जबकि सरकार की अपनी ही रिपोर्ट के मुताबिक शिमला में भूकंप के हल्के से झटके में ही तीस हजार से ज्यादा लोगों की जान जायेगी और अस्सी प्रतिश्त निर्माणों को नुकसान पहुंचेगा। ऐसे में यह देखना रोचक होगा कि हिमाचल सरकार जोशीमठ से कोई सबक लेती है या नहीं।

कर्ज का जुगाड़ विकास का मानक नहीं है

क्या प्रदेश का संचालन कर्ज लिये बिना नहीं हो सकता ? यह सवाल इसलिये उठ रहा है क्योंकि सुक्खू सरकार ने अपने पहले ही विधानसभा सत्र में राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबन्धन एक्ट में संशोधन करके प्रदेश सरकार की कर्ज लेने की सीमा बढ़ाने का प्रबन्ध कर लिया है। अब तक नियम था कि राज्य सरकार सकल घरेलू उत्पादन का तीन प्रतिशत तक ही कर्ज ले सकती है। अब इस अधिनियम में संशोधन करके कर्ज की यह सीमा बढ़ा दी गयी है। कर्ज की सीमा बढ़ाना वित्तीय कुप्रबन्धन का सीधा प्रमाण माना जाता है। मार्च 2022 में ही यह स्थिति जीडीपी के छः प्रतिशत तक पहुंच गयी थी। सदन के पटल पर आये रिकॉर्ड के मुताबिक प्रदेश की वित्तीय स्थिति वर्ष 2020-21 में ही बिगड़ गयी थी जो लगातार गहराती चली गयी। क्योंकि केन्द्र सरकार से जो राजस्व घाटा अनुदान प्रदेश को मिलता था वह बन्द हो गया है। जीएसटी की प्रतिपूर्ति मिलनी थी वह केन्द्र से नहीं मिल रही है और इसके कारण करीब तीन हजार करोड का प्रदेश को नुकसान हो चुका है। केन्द्र प्रदेश को यह हक देने की बजाये कर्ज लेने के लिये प्रोत्साहित करता रहा है। इसलिये पिछली सरकार सबसे अधिक कर्ज लेने वाली सरकार बन गयी। इन केन्द्रीय अनुदानों की स्थिति सुक्खू सरकार के लिये भी ऐसी ही रहने वाली है। प्रदेश कर्ज लेने की सीमाएं लांघ चुका है और केन्द्र का वित्त विभाग इसकी चेतावनी भी प्रदेश को बहुत पहले जारी कर चुका है। यह चेतावनी का पत्रा हम अपने पाठकों के सामने रख चुके हैं। आज कर्ज की किश्त चुकाने के लिये भी कर्ज लेने की नौबत आ चुकी है। सुक्खू सरकार को अपने संसाधन बढ़ाने के लिये डीजल पर प्रति लीटर तीन रूपये वैट बढ़ाना पड़ा है। इस बढ़ौतरी का हर सामना की ढुलाई पर असर पड़ेगा जिसके परिणामवश महंगाई बढ़ेगी। इस परिदृश्य में जब इस सरकार को अपने चुनावी वायदे पूरे करने पड़ेंगे तो स्वभाविक रूप से धन का प्रबन्ध करने के लिए सेवाओं के दाम बढ़ाने और कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं होगा। परन्तु यह करने से लोगों में रोष पनपेगा और सरकार की विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवाल खड़े हो जायेंगे। इस स्थिति में चुनावी वादे पूरे कर पाना आसान नहीं होगा। ऐसे में यह सवाल बड़ा अहम हो जाता है कि सरकार अपने वादे भी पूरे कर दे और जनता पर कर्ज का बोझ भी न पड़े। इसके लिये सबसे पहले प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र जारी करके जनता को वस्तुस्थिति से अवगत करवाना होगा। इसी के साथ सरकार की प्राथमिकताओं का भी नये सिरे से निर्धारण करना होगा। प्रदेश की जनता को यह बताना होगा कि पिछली सरकार ने कर्ज का यह पैसा कहां खर्च किया? क्योंकि कर्ज लेकर दान नहीं दिया जाता है। इसी के साथ भ्रष्टाचार को बेनकाब करके दोषियों के खिलाफ कढ़ी कारवाही करनी होगी। क्योंकि डबल इंजन की सरकार से जब प्रदेश को उसका हक भी नहीं मिला है तो इसकी जानकारी जनता के सामने रखना आवश्यक हो जाता है। यह जानकारी सामने रखने के साथ ही अपने अनावश्यक खर्चों पर भी लगाम लगानी पड़ेगी। आज जब सरकार ने राजनीतिक सन्तुलन बनाने के लिये मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां की है तो यह बताना होगा कि ऐसा करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। जबकि पिछली दो सरकारों में ऐसी राजनीतिक नियुक्तियां नहीं की गयी थी। जनता में इन नियुक्तियों का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है। इन नियुक्तियों के वैधानिक पक्ष को यदि छोड़ भी दिया जाये तो भी राजनीतिक रूप से भी इसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा है। क्योंकि चुनाव के दौरान जो आरोप पत्र ‘‘लूट की छूट’’ के नाम से जारी किया गया था उसकी दिशा में इस एक माह के समय में कोई कदम उठाने का संकेत तक नहीं आया है। जबकि सरकार लगातार व्यवस्था बदलने की दिशा में काम करने की बातें कर रही है लेकिन व्यवहारिक रूप से उसके प्रशासनिक फैसलों से इस तरह के कोई संकेत सामने नहीं आये हैं। जनता सरकार की हर चीज पर नजर रख रही है क्योंकि इस सत्ता परिवर्तन में कांग्रेस के नेताओं से ज्यादा योगदान दूसरे लोगों का रहा है। आज जयराम सरकार पर सबसे ज्यादा कर्ज लेने का आरोप इसलिये लग रहा है कि उसने प्रदेश के वित्तीय प्रबन्धन से जुड़े तन्त्र पर आंख बन्द करके विश्वास कर लिया था। कर्ज लेना विकास का कोई मानक नहीं है। बल्कि कर्ज लेकर घी पीने का पर्याय बन चुका है।

कर्ज का जुगाड़ विकास का मानक नहीं है

क्या प्रदेश का संचालन कर्ज लिये बिना नहीं हो सकता यह सवाल इसलिये उठ रहा है क्योंकि सुक्खू सरकार ने अपने पहले ही विधानसभा सत्र में राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबन्धन एक्ट में संशोधन करके प्रदेश सरकार की कर्ज लेने की सीमा बढ़ाने का प्रबन्ध कर लिया है। अब तक नियम था कि राज्य सरकार सकल घरेलू उत्पादन का तीन प्रतिशत तक ही कर्ज ले सकती है। अब इस अधिनियम में संशोधन करके कर्ज की यह सीमा बढ़ा दी गयी है। कर्ज की सीमा बढ़ाना वित्तीय कुप्रबन्धन का सीधा प्रमाण माना जाता है। मार्च 2022 में ही यह स्थिति जीडीपी के छः प्रतिशत तक पहुंच गयी थी। सदन के पटल पर आये रिकॉर्ड के मुताबिक प्रदेश की वित्तीय स्थिति वर्ष 2020-21 में ही बिगड़ गयी थी जो लगातार गहराती चली गयी। क्योंकि केन्द्र सरकार से जो राजस्व घाटा अनुदान प्रदेश को मिलता था वह बन्द हो गया है। जीएसटी की प्रतिपूर्ति मिलनी थी वह केन्द्र से नहीं मिल रही है और इसके कारण करीब तीन हजार करोड का प्रदेश को नुकसान हो चुका है। केन्द्र प्रदेश को यह हक देने की बजाये कर्ज लेने के लिये प्रोत्साहित करता रहा है। इसलिये पिछली सरकार सबसे अधिक कर्ज लेने वाली सरकार बन गयी। इन केन्द्रीय अनुदानों की स्थिति सुक्खू सरकार के लिये भी ऐसी ही रहने वाली है। प्रदेश कर्ज लेने की सीमाएं लांघ चुका है और केन्द्र का वित्त विभाग इसकी चेतावनी भी प्रदेश को बहुत पहले जारी कर चुका है। यह चेतावनी का पत्रा हम अपने पाठकों के सामने रख चुके हैं। आज कर्ज की किश्त चुकाने के लिये भी कर्ज लेने की नौबत आ चुकी है। सुक्खू सरकार को अपने संसाधन बढ़ाने के लिये डीजल पर प्रति लीटर तीन रूपये वैट बढ़ाना पड़ा है। इस बढ़ौतरी का हर सामना की ढुलाई पर असर पड़ेगा जिसके परिणामवश महंगाई बढ़ेगी। इस परिदृश्य में जब इस सरकार को अपने चुनावी वायदे पूरे करने पड़ेंगे तो स्वभाविक रूप से धन का प्रबन्ध करने के लिए सेवाओं के दाम बढ़ाने और कर्ज लेने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं होगा। परन्तु यह करने से लोगों में रोष पनपेगा और सरकार की विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवाल खड़े हो जायेंगे। इस स्थिति में चुनावी वादे पूरे कर पाना आसान नहीं होगा। ऐसे में यह सवाल बड़ा अहम हो जाता है कि सरकार अपने वादे भी पूरे कर दे और जनता पर कर्ज का बोझ भी न पड़े। इसके लिये सबसे पहले प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र जारी करके जनता को वस्तुस्थिति से अवगत करवाना होगा। इसी के साथ सरकार की प्राथमिकताओं का भी नये सिरे से निर्धारण करना होगा। प्रदेश की जनता को यह बताना होगा कि पिछली सरकार ने कर्ज का यह पैसा कहां खर्च किया? क्योंकि कर्ज लेकर दान नहीं दिया जाता है। इसी के साथ भ्रष्टाचार को बेनकाब करके दोषियों के खिलाफ कढ़ी कारवाही करनी होगी। क्योंकि डबल इंजन की सरकार से जब प्रदेश को उसका हक भी नहीं मिला है तो इसकी जानकारी जनता के सामने रखना आवश्यक हो जाता है। यह जानकारी सामने रखने के साथ ही अपने अनावश्यक खर्चों पर भी लगाम लगानी पड़ेगी। आज जब सरकार ने राजनीतिक सन्तुलन बनाने के लिये मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां की है तो यह बताना होगा कि ऐसा करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। जबकि पिछली दो सरकारों में ऐसी राजनीतिक नियुक्तियां नहीं की गयी थी। जनता में इन नियुक्तियों का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा है। इन नियुक्तियों के वैधानिक पक्ष को यदि छोड़ भी दिया जाये तो भी राजनीतिक रूप से भी इसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा है। क्योंकि चुनाव के दौरान जो आरोप पत्र ‘‘लूट की छूट’’ के नाम से जारी किया गया था उसकी दिशा में इस एक माह के समय में कोई कदम उठाने का संकेत तक नहीं आया है। जबकि सरकार लगातार व्यवस्था बदलने की दिशा में काम करने की बातें कर रही है लेकिन व्यवहारिक रूप से उसके प्रशासनिक फैसलों से इस तरह के कोई संकेत सामने नहीं आये हैं। जनता सरकार की हर चीज पर नजर रख रही है क्योंकि इस सत्ता परिवर्तन में कांग्रेस के नेताओं से ज्यादा योगदान दूसरे लोगों का रहा है। आज जयराम सरकार पर सबसे ज्यादा कर्ज लेने का आरोप इसलिये लग रहा है कि उसने प्रदेश के वित्तीय प्रबन्धन से जुड़े तन्त्र पर आंख बन्द करके विश्वास कर लिया था। कर्ज लेना विकास का कोई मानक नहीं है। बल्कि कर्ज लेकर घी पीने का पर्याय बन चुका है।

कुछ की सुविधा ही विकास नहीं होता

 केन्द्र सरकार गरीबों को मुफ्त अनाज देने की योजना को अभी एक वर्ष और जारी रखेगी ऐसा कहा गया है। अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दिया जा रहा है ऐसा दावा है। एक सौ तीस करोड़ की कुल जनसंख्या में से 80 करोड़ को मुफ्त राशन दिये जाने का अर्थ है कि हर दूसरे व्यक्ति को मुफ्त राशन मिल रहा है। क्या वास्तव में ही ऐसा है या किसी ने आंकड़ों पर ध्यान ही नहीं दिया है? जिस देश की आधे से भी अधिक जनसंख्या को मुफ्त राशन देना सरकार की बाध्यता बन जाये उसके विकास का आकलन कैसे किया जाये यह अपने में ही क्या एक बड़ा सवाल नही बन जाता है? इसी के साथ एक और रोचक आंकड़ा पिछले दिन राज्यसभा में आया है। इसके मुताबिक वर्ष 2014 तक केंद्र में रही सारी सरकारों ने पच्चपन लाख करोड़ का कर्ज लिया है और 2014 में आयी मोदी सरकार ने 2022 तक आठ वर्षों में ही पच्चासी लाख करोड का कर्ज ले लिया है। केंद्र सरकार का कुल कर्ज इस समय डेढ़ लाख करोड़ से भी ऊपर चला गया है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारों का कर्ज 1,70,000 करोड़़ हो चुका है। इस तरह केंद्र से लेकर राज्यों तक सभी सरकारें कर्ज पर अधारित हैं। कर्ज के बढ़ने से ही महंगाई और बेरोजगारी बढ़ती है। इन आंकड़ो का जिक्र करना इसलिये प्रसांगिक हो जाता है कि इनसे उठते सवाल बहुत अहम हो जाते हैं। यह स्वभाविक सवाल उठता है कि जिस देश में आधे से अधिक बादी आज भी अपने दो वक्त के भोजन के लिये सरकार के मुफ्त राशन पर निर्भर हो वहां के विकास के दावों की विश्वसनीयता का आकलन कैसे किया जाये? जब कर्ज के आंकड़े संसद के पटल पर आ जाये तब तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। यह सवाल स्वतः ही खड़ा हो जाता है कि यह पैसा चला कहां गया। क्योंकि इसी संसद के सत्र में सरकार ने यह भी बताया कि साढे़ दस लाख करोड़ का एन पी ए बट्टे खाते में डाल दिया गया है। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सरकार कर्ज भी ले तही रही है और एन पी ए को बट्टे खाते में भी डाल रही है। इसी एन पी ए की वसूली के लिए बैड बैंक तक का गठन भी किया गया है। लेकिन इसके परिणाम अभी तक कोई संतोषजनक नहीं रहे हैं। एन पी ए बढ़ता जा रहा है और रिकवरी बहुत धीमी होती जा रही है। बैंक अपना घाटा पूरा करने के लिये लोगों के हर तरह के जमा पर ब्याज दरें घटाता जा रहा है। जबकि आर बी आई अपने रैपो रेट लगातार बढ़ाता जा रहा है। यह सही है कि आम आदमी को वितीय स्थिति के इन पक्षों की कोई ज्यादा जानकारी नही है। परन्तु यह भी यक कड़वा सच है कि इस सबका प्रभाव बेरोजगारी और महंगाई के रूप में इसी आम आदमी पर ज्यादा पड़ रहा है। क्यों बेरोजगारी और महंगाई पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। इस वस्तुस्थिति में यह सवाल और अहम हो जाता है कि इस आम आदमी की वितिय सहायता कैसे की जाये। इसके लिये एक प्रयोग यह किया गया कि कुछ सामाजिक सुरक्षा योजनायें शुरु की जाये। जिनसे यह आम आदमी लाभान्वित हो। लेकिन इन योजनाओं के बाद भी आम आदमी की स्थिति में कोई ठोस सुधार नजर नहीं आया। इस लिये एक और प्रयोग आम आदमी के हाथ में कुछ नकद पैसे देने का कांग्रेस सरकारों द्वारा किया जाने लगा है। सभी राजनीतिक दल सता में आने के लिये इस तरह के प्रयोग कर रहे हैं। अपने प्रयोगों को सही ठहराने और दूसरों के प्रयोगों को रेवड़ियां बांटने की संज्ञा दी जा रही है। भाजपा ने 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव इन्ही रेवड़ियों के सहारे जीते हैं। लेकिन जब दूसरेे दलों ने यही सब करने का रास्ता अपनाया तो आर बी आई से लेकर केन्द्र सरकार तक सभी इस पर चीख पड़े। यह सही है कि जब किसी एक को कुछ मुफ्त में दिया जाता है तो उसकी कीमत किसी दूसरे को चुकानी पड़ती है। इस कीमत चुकाने का असर अपरोक्ष में सभी पर पड़ जाता है। ऐसे में सरकार की योजनाओं का आकलन किया जाना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि अधिकांश योजनाएं ऐसी है जिन पर भारी निवेश तो हो रहा है लेकिन उनका व्यवहारिक लाभ कुछ मुट्ठी भर को ही होता है और बहुसंख्यक के हिस्से में केवल आंकडे़ और मंहगाई तथा बेरोजगारी ही आती है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि भारी निवेश की योजनाओं के लॉंच से पहले उन पर सार्वजनिक बहस करवाई जाये।

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