Wednesday, 17 December 2025
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वोट डालने के साथ ही जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती

मतदान और मतगणना के बीच 25 दिन का अन्तराल है। इतना लम्बा अन्तराल शायद इससे पहले नहीं रहा है और न ही इतने लम्बे अन्तराल का कोई तर्क दिया गया है। मतदान के बाद मत पेेटियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। लेकिन जिस तरह से रामपुर में ईवीएम मशीनें एक अनाधिकृत वाहन में मिली है और उसके बाद घुमारवीं से भी कांग्रेस प्रत्याशी राजेश धर्माणी ने स्ट्रांग रूम में ईवीएम के साथ छेड़छाड़ किये जाने का आरोप लगाया है उससे कई गंभीर सवाल अवश्य खड़े हो जाते हैं। क्योंकि 19 लाख ईवीएम मशीनें गायब हो जाने का सवाल अभी तक अदालत में लंबित चल रहा है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाये बिना भी यह आशंका तो बराबर बनी रह सकती है कि रामपुर जैसे तत्व कहीं भी पाये जा सकते हैं। ऐसे में चुनाव प्रत्याशियों के अतिरिक्त आम मतदाता की भी यह ज्यादा जिम्मेदारी हो जाती है कि वह इस पर चौकसी बरते। क्योंकि इन घटनाओं पर जिस तरह के तीखे सवाल मीडिया द्वारा पूछे जाने चाहिये थे वह नहीं पूछे गये हैं। इसी के साथ यह सवाल भी स्वतः ही उठ खड़ा होता है कि क्या मतदाता की जिम्मेदारी वोट डालने के साथ ही समाप्त हो जाती है? क्या अगले चुनाव तक वह अप्रसांगिक होकर रह जाता है? क्योंकि उसके पास चयनित उम्मीदवार को वापस बुलाने का कोई वैधानिक अधिकार हासिल नहीं है। चुनाव सुधारों के नाम पर कई वायदे किये गये थे। संसद और विधानसभा को अपराधियों से मुक्त करवाने का दावा किया गया था। एक देश एक चुनाव का सपना दिखाया गया था। लेकिन इन वायदों को अमली शक्ल देने की दिशा में कोई काम नहीं किया गया। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि इन वायदों को उछाल कर ईवीएम पर उठते सवालों की धार को कम करने का प्रयास किया गया है। इसलिये आज के परिदृश्य में लोकतंत्र में जनादेश की निष्पक्षता बनाये रखने के लिये आम आदमी का चौकस होना बहुत आवश्यक हो जाता है। क्योंकि जनादेश को किस तरह जांच एजेंसियों और धनबल के माध्यम से प्रभावित करके चयनित सरकारों को गिराने के प्रयास हो रहे हैं यह लम्बे अरसे से देश में चर्चा का विषय बना हुआ है। इसलिए ईवीएम को लेकर जो घटनाएं सामने आ चुकी है उनके परिदृश्य में आम आदमी का सतर्क रहना बहुत आवश्यक हो जाता है। पिछले लम्बे अरसे से गंभीर आर्थिक सवालों से आम आदमी का ध्यान हटाने के लिए समानान्तर में भावनात्मक मुद्दे उछालने का सुनियोजित प्रयास होता आ रहा है। पिछले दिनों मुफ्ती योजनाओं के वायदों को लेकर प्रधानमंत्री से आरबीआई तक ने चिंता व्यक्त की है। क्या उसका कोई असर इन चुनावों में बड़े दलों के दृष्टि पत्र और गारंटी पत्र में देखने को मिला है? इन्हीं चुनाव के दौरान प्रदेश की वित्तीय स्थिति उस मोड़ तक पहुंच गयी थी जहां कोषागार को भुगतान से हाथ खड़े करने पड़ गये थे। इसका असर आम आदमी पर पड़ेगा यह तय है। यह भी स्पष्ट है कि अधिकांश मीडिया के लिये यह कोई सरोकार नहीं रहेगा। दृष्टि पत्र और गारंटी पत्र दोनों की प्रतिपूर्ति आज प्रदेश की आवश्यकता है। सरकार किसी की भी बने लेकिन आम आदमी के सामने प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र लाया जाना आवश्यक होगा। यदि श्वेत पत्र नहीं लाया जाता है तो सरकार को वित्तीय स्थिति पर कोई सवाल उठाने का अधिकार नहीं रह जायेगा। सरकार बनने पर यह आम आदमी की जिम्मेदारी होगी कि सरकार को श्वेत पत्र जारी करने के लिए बाध्य करें।

आपका मतदान आपकी बड़ी परीक्षा है

अब चुनाव प्रचार अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुका है। कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों के राष्ट्रीय नेताओं की लम्बी टीमें चुनाव प्रचार में उतर चुकी हैं। भाजपा के पास दूसरे दलों की अपेक्षा संसाधनों की बहुतायत है इसमें कोई दो राय नहीं है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि भाजपा को जितना भरोसा अपने संसाधनों पर है कांग्रेस को उससे ज्यादा भरोसा आम आदमी की उस पीड़ा पर है जो उसने महंगाई और बेरोजगारी के रूप में इस दौर में भोगी है। 2014 में हुये राजनीतिक बदलाव के लिये किस तरह एक आन्दोलन प्रायोजित किया गया था। किस तरह इस आन्दोलन के नायकों का चयन हुआ और किस मोड़ पर यह प्रायोजित आन्दोलन एक बिखराव के साथ बन्द हुआ। यह सब इस देश ने देखा है और आज तक भोगा है। कैसे पांच वर्ष की मांग से शुरू करके उसे अगले पचास वर्ष के लिये बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है यह सब देश देख रहा है। 2014 से आज तक देश में कोई भयंकर सूखा और बाढ़ नहीं आयी है जिसके कारण अन्न का उत्पादन प्रभावित हुआ हो। लेकिन इसके बावजूद आज खाद्य पदार्थों की महंगाई कैसे इतनी बढ़ गयी है यह सवाल हर किसी को लगातार कुरेद रहा है। प्रतिवर्ष दो करोड़ स्थाई नौकरियां देने का वायदा आज सेना में भी चार वर्ष की ही नौकरी देने तक कैसे पहुंच गया यह बेरोजगार युवाओं की समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन इसी देश में सरकारी नीतियों के सहारे आपदा काल में एक व्यक्ति आदाणी कैसे सबसे बड़ा अमीर बन गया इस पर सवाल तो सबके पास है परन्तु जवाब एक ही आदमी के पास है जो अपने मन के अलावा किसी की नहीं सुनता।
2014 के प्रायोजित आन्दोलन से हुये बदलाव के बाद कितने भ्रष्टाचारियों के खिलाफ जांच पूरी करके उनके मामले अदालतों तक पहुंचाये जा सके हैं तो शायद यह गिनती शुरू करने से पहले ही बन्द हो जायेगी। लेकिन इसके मुकाबले दूसरे दलों के कितने अपराधी और भ्रष्टाचारी भाजपा की गंगा में डुबकी लगाकर पाक साफ हो चुके हैं यह गिनती सैकड़ों से बढ़ चुकी है। पहली बार मीडिया पर गोदी मीडिया होने का आरोप लगा है। सीबीआई, आयकर और ईडी जैसी जांच एजैन्सियों पर राजनीतिक तोता होने का आरोप लगना अपने में ही एक बड़ा सवाल हो जाता है। यह सरकार जो शिक्षा नीति लायी है उसकी भूमिका के साथ लिखा है कि इससे हमारे बच्चों को खाड़ी के देशों में हैल्पर के रूप में रोजगार मिलने में आसानी हो जायेगी। इस पर प्रश्न होना चाहिये या सर पीटना चाहिये आप स्वयं निर्णय करें। क्योंकि इसी शिक्षा नीति में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाया जा रहा है।
धनबल के सहारे सरकारें पलटने माननीयों की खरीद करने की जो राजनीतिक संस्कृति शुरू हो गयी है इसके परिणाम कितने भयानक होंगे यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। ऐसे में आज जब मतदान करने की जिम्मेदारी आती है तो वर्तमान राजनीतिक संस्कृति में मेरी राय में न तो निर्दलीय को समर्थन देने और न ही नोटा का प्रयोग किये जाने की अनुमति देती है। आज वक्त की जरूरत यह बन गयी है कि राष्ट्रीय दलों में से किसी एक के पक्ष में ही मतदान किया जाये। यह मतदान राष्ट्र के भविष्य के लिये एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है। जुमलों और असलियत पर परख करना आपका इम्तहान होगा।

बैक फुट पर है भाजपा

प्रदेश विधानसभा चुनावों का प्रचार अभियान अपने चरम पर पहुंच चुका है। सभी राजनीतिक दल और निर्दलीय अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे हैं। यह दावा करना उनका धर्म और कर्तव्य दोनों है जिसे वह निभा रही हैं। वैसे मुख्य प्रतिद्वंदिता सत्तारूढ़ दल और मुख्य विपक्षी दल ने ही मानी जा रही है। इस नाते प्रदेश में भी मुकाबला भाजपा और कांग्रेस में ही माना जा रहा है। टिकट आवंटन पर दोनों पार्टियों में बगावत भी उभरी और अन्त में कांग्रेस से तीन गुना ज्यादा भाजपा के बागी चुनाव मैदान में हैं। यह एक सैद्धांतिक सच है कि चुनाव में मुख्य मुद्दा सत्तारूढ़ दल की कारगुजारी ही रहती है। सरकार की यह कारगुजारी विधानसभा के हर सत्र में पक्ष और विपक्ष के विधायकों द्वारा पूछे गये प्रश्नों तथा सरकार द्वारा दिये गये जवाबों के माध्यम से वर्ष में तीन बार सामने आ जाती है। यदि कोई इस कारगुजारी का बारीकी से अध्ययन और विश्लेषण कर ले तो उसे चुनावी निष्कर्षों पर पहुंचने में परेशानी नहीं होगी। क्योंकि विधायकों के यह प्रश्न अपने क्षेत्र की सामान्य समस्याओं बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दों से जुड़े रहते हैं। प्रदेश का कोई ऐसा चुनाव क्षेत्र नहीं है जहां स्कूलों में अध्यापकों और अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी न हो। इन कमियों को लेकर पांच वर्षों में दर्जनों मामले प्रदेश उच्च न्यायालय में आ चुके हैं। कर्मचारियों के तबादलों में मंत्रियों और दूसरे नेताओं का दखल कितना बढ़ चुका है इस पर कई मंत्रियों और नेताओं को उच्च न्यायालय नामत लताड़ लगा चुका है। गांव में इन समस्याओं से जूझ रहे लोगों की संख्या दूसरी योजनाओं के लाभार्थियों से कई गुना ज्यादा है। ऊपर से महंगाई और बेरोजगारी की आंच में हर परिवार झुलस रहा है। व्यवहारिक सच को चुनावी आकलनो में बहुत ही कम लोग गणना में ले पाते हैं।
इस जनपक्ष के बाद यदि जयराम सरकार के प्रशासनिक पक्ष पर नजर डाली जाये तो जब यह सामने आता है कि इस सरकार में तो मुख्य सचिव स्तर पर लगातार अस्थिरता बनाये रखी गयी है क्यों छः बार मुख्य सचिव बदले गये? क्यों आज कई मुख्य सचिव स्तर के अधिकारियों को बिना काम के बिठाकर सरकार का लाखों रुपया बर्बाद किया जा रहा है। एनजीटी के स्पष्ट फैसले के बाद भी प्रदेश में हजारों अवैध निर्माण खड़े होने दिये गये। एनजीटी के फैसले की अवहेलना करके डवैलप्मैन्ट प्लान बनाते रहे जिसे एनजीटी ने अस्वीकार कर दिया। ऐसे दर्जनों मामले जिनसे सरकार की प्रशासन और भ्रष्टाचार पर समझ तथा पकड़ दोनों पर एक साथ कई सवाल खड़े हो जाते हैं। 2017 के चुनाव में भाजपा ने वित्तीय कुप्रबन्धन का मामला बड़े जोर से उठाया था। सरकार बनने पर अपने पहले ही बजट भाषण से इस कुप्रबन्धन का खुलासा 18000 करोड़ का ऋण बिना पात्रता के लेने के रूप में किया। लेकिन इन आरोपों के बावजूद उसी वित्त सचिव को पद पर बनाये रखा जिस पर यह अपरोक्ष आरोप थे। इसलिये प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर कोई श्वेत पत्र नहीं लाया गया। बल्कि आज सबसे अधिक कर्ज लेने वाले मुख्यमंत्री का तमगा लगा लिया। लोक सेवा आयोग की जिन नियुक्तियों पर हिमाचल मांगे जवाब के नाम से चुनावों में एक पैम्फ्लैट जारी किया था सरकार बनने पर सबसे पहली नियुक्ति उसी आयोग में बिना नियम बदले करके इतिहास रच दिया और आज तक उसका कोई जवाब नहीं बन पा रहा है। बल्कि सवाल ज्यादा गंभीर बनता जा रहा है। 2017 का चुनाव धूमल के नाम पर लड़कर मिली सफलता का इनाम धूमल को हाशिये पर धकेल कर देने का परिणाम आज संगठन में सबके सामने हैं। यह जो कुछ इस कार्यकाल में घटा है उसी के कारण आज कुछ मंत्रियों को अपने को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करके चुनाव प्रचार करना पड़ रहा है। ऐसी परिस्थितियां सरकार कांग्रेस के अंदर अपने हर प्रयास के बाद पैदा करने असफल ही नहीं रही बल्कि एक्सपोज भी हो गयी और इसलिए चुनाव में लगातार बैकफुट पर जाती जा रही है।

क्या प्रदेश के मुद्दों पर लड़ा जायेगा चुनाव

प्रदेश विधानसभा के लिये चुनावों की तिथियां घोषित होने के बाद प्रमुख दलों भाजपा कांग्रेस तथा आप के उम्मीदवारों की सूचियां आने के साथ ही इनके स्टार प्रचारकों की सूचियां भी जारी हो चुकी हैं। नामांकन वापसी के बाद मतदान तक चुनाव प्रचार के लिये इस बार बहुत कम समय रखा गया है यह संयोगवश है या इसके पीछे कोई विशेष वैचारिक धरातल रहा है क्योंकि मतदान और परिणाम के बीच बहुत अन्तराल रखा गया है। चुनाव प्रचार में जिस संख्या में केन्द्रीय नेताओं को उतारा गया है उसके परिदृश्य में प्रदेश के नेताओं की भूमिका बड़ी संकुचित होकर रह जायेगी। स्टार प्रचारकों की सूचियों से तो यही इंगित होता है कि चुनाव प्रदेश के मुद्दों पर नहीं केंद्र के मुद्दों पर लड़ा जायेगा। क्योंकि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस जयराम सरकार के पूरे कार्यकाल में कोई आरोप पत्र तक जारी नहीं कर पाया है। ऐसे में कांग्रेस के केन्द्रिय नेताओं के पास प्रदेश के मद्दों की कोई बड़ी व्यवहारिक जानकारी स्वाभाविक रूप से हो नहीं पायेगी। आम आदमी पार्टी 2014 में अपने गठन से लेकर आज तक प्रदेश में गंभीर और ईमानदार हो नहीं पायी है। क्योंकि हिमाचल में आप की ज्यादा सक्रियता भाजपा के लिये नुकसानदेह होगी। इसीलिए आप हिमाचल में दिल्ली मॉडल का सूत्र अपने कार्यकर्ताओं और नेताओं को रटाने से आगे नहीं बढ़ी है। केजरीवाल उसी तर्ज पर दिल्ली मॉडल की बात करता है जिस तर्ज पर आज तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश की जनता को अपने ही मन की बात सुनाते आये है।ं दोनों विज्ञापन जीवियों की श्रेणी में आते हैं। जबकि केजरीवाल की मुफ्ती पर आरबीआई से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक की चिंता व्यक्त कर चुके हैं और इस पर कभी भी कोई कड़े निर्देश आ सकते हैं। आप की गुजरात में बिलकिस बानो प्रकरण में चल रही चुप्पी से कई सवाल खड़े होते जा रहे हैं।
इस परिप्रेक्ष में यह लगता है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व प्रदेश के मुद्दों पर बात करने के बजाय इसी से काम चलाने का प्रयास करेगा कि रुपया नहीं गिर रहा है बल्कि डॉलर मजबूत हो रहा है। इस समय बिलकिस बानो के हत्यारों की सजा मुआफी के मामले में जिस तरह से केन्द्र की भूमिका बेनकाब हुई है उससे क्या आज भाजपा के हर नेता से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये कि हत्यारों और बलात्कारियों का सार्वजनिक महिमामण्डन किस संस्कृति का मानक है। क्या मुस्लिम होने से उन्हें न्याय का अधिकार नहीं रह जाता है। क्या आज यह राष्ट्रीय प्रश्न नहीं बन जाता है। क्या संघ का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इसी का नाम है? इसी तरह आज नोटबंदी पर आई हुई 58 याचिकाओं पर सुनवाई के माध्यम से एक सार्वजनिक बहस का वातावरण निर्मित हो रहा है। सर्वाेच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार और आरबीआई को नोटिस जारी किया है। इसमें यह सामने आ चुका है की नोटबंदी का अधिकार आरबीआई एक्ट के तहत सरकार को था ही नहीं। इस बहस से यह सवाल फिर उछलेंगे कि नोटबंदी के समय घोषित लाभ कितने क्रियात्मक हो पाये हैं। नोटबंदी पर क्या आज सवाल नहीं पूछे जाने चाहियं? नफरती बयानों पर जिस तरह का कड़ा संज्ञान सर्वाेच्च न्यायालय ने लेते हुए प्रशासनिक निष्क्रियता को अदालती अवमानना करार दिया है उससे पूरे समाज में एक नयी संवेदना और संचेतना का वातावरण निर्मित हुआ है। नफरती बयानों के लिए सबसे अधिक सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोग जिम्मेदार हैं। नफरती बयानों पर भी भाजपा नेतृत्व से सवाल पूछे जाना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि यह सारे आज के राष्ट्रीय प्रश्न बन चुके हैं। इनके कारण अर्थव्यवस्था पूरी तरह तहस-नहस हो चुकी है। इन प्रश्नों से ध्यान हटाने के लिए राम मन्दिर, तीन तलाक धारा 370 हटाने जैसे मुद्दे परोसे जायेंगे।
हिमाचल के संद्धर्भ में भी इस सवाल का जवाब नहीं आयेगा कि प्रधानमंत्री मुद्रा ऋण योजना में ही 2541 करोड़ रूपया बांटे जाने के बाद भी प्रदेश बेरोजगारी में देश के
टॉप छः राज्यों में क्यों आ गया। प्रदेश का कर्ज भार हर रोज बढ़ता क्यों जा रहा है? प्रदेश को दिये गये 69 राष्ट्रीय राजमार्ग और कितने चुनावों के बाद सैद्धांतिक स्वीकृति से आगे बढ़ेंगे। मनरेगा में इस वर्ष अभी तक कोई पैसा क्यों जारी नहीं हो पाया है? प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना क्यों बंद हो गयी? इसके तहत निर्माणधीन 203 सड़को का भविष्य क्या होगा। विधानसभा का यह चुनाव बहुत अर्थों में महत्वपूर्ण होने जा रहा है इसलिये यह कुछ प्रश्न आम आदमी के सामने रखे जा रहे हैं।

प्रधानमंत्री और केंद्रीय एजैन्सियों के सहारे चुनाव जीतने की रणनीति

हिमाचल और गुजरात विधानसभा का कार्यकाल समाप्त होने में करीब एक माह का अंतराल है। अब तक यह प्रथा रही है कि जिन राज्यों की विधानसभाओं का छः माह के भीतर कार्यकाल समाप्त हो रहा होता है उनके चुनावों की घोषणा चुनाव आयोग एक साथ करता रहा है। लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ है। बल्कि हिमाचल चुनाव के लिये भी जो तारीखें घोषित हुई हैं उनके मुताबिक चुनाव प्रचार के लिये दिये गये समय से मतदान और परिणाम के बीच रखे गये अंतराल का समय बहुत अधिक है। प्रचार के लिये कम समय दिये जाने का प्रभाव छोटे दलों और निर्दलीयों पर पड़ेगा। इस पर कुछ दलों ने चुनाव आयोग को पत्र भी लिखा है। चुनाव आयोग के इस आचरण को कुछ लोग सत्तारूढ़ दल के दबाव के तौर पर देख रहे हैं। मतदान और परिणाम के बीच रखे गये लम्बे अंतराल को कुछ लोग ईवीएम से छेड़छाड़ की आशंकाओं की संभावनाओं के साथ ही जोड़ कर देख रहे हैं। यह आशंकायें कितनी सही निकलती है और हिमाचल के चुनाव परिणामों का असर गुजरात पर कितना पड़ेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन विश्लेषकों के लिए ऐसी स्थिति पहली बार सामने आयी है।
हिमाचल में पीछे हुए विधानसभा के मानसून सत्र के बाद जयराम सरकार ने विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों के सम्मेलन किये हैं। हर सप्ताह मंत्रिमण्डल की बैठक करके प्रदेश भर में करोड़ों की योजनाएं घोषित की हैं। मुख्यमंत्री की इन जनसभाओं के बाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने भी कार्यकर्ताओं और जनता का मन टटोलने का प्रयास किया है। क्योंकि जयराम के राजनीतिक संरक्षक के रूप में नड्डा का नाम ही सबसे पहले आता रहा है। आज नड्डा जयराम बनाम धूमल खेमे में भाजपा पूरी तरह बंटी हुई है यह सब जानते हैं। बल्कि इसी खेमे बाजी का परिणाम है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भी पांच जिलों में जनसभाएं आयोजित की गयी। चम्बा की सभा के लिये जो पोस्टर लगे थे उनमें राज्यसभा सांसद इन्दु गोस्वामी का फोटो नही था। इसकी जानकारी जब दिल्ली पहुंची तब रातों-रात इन्दु के फोटो वाले पोस्टर लगे।
प्रधानमंत्री के बाद गृह मंत्री अमित शाह की रैली भी सिरमौर में आयोजित की गयी। अब चुनाव प्रचार के दौरान भी प्रधानमंत्री की आधा दर्जन सभाएं करवाये जाने की योजना है।
प्रधानमंत्री की सभाओं और चुनाव आयोग की पुरानी प्रथा से हटने को यदि एक साथ जोड़ कर देखा जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि इस चुनाव में प्रदेश में केंद्रीय एजेंसियों और केंद्रीय नेतृत्व की भूमिका केंद्रीय होने जा रही है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि प्रदेश का यह चुनाव भी प्रधानमंत्री के चेहरे पर ही लड़ा जायेगा। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि इस समय प्रधानमंत्री और उनकी सरकार सर्वाेच्च न्यायालय में नोटबंदी तथा चुनावी बाँडस के मुद्दों पर जिस तरह सवालों के घेरे में घिरती जा रही है उसे विपक्ष कितनी सफलता के साथ प्रदेश की जनता के बीच रख पाता है। क्योंकि यह तय है कि खेमों में बंटी प्रदेश भाजपा के किसी भी नेता के नाम पर चुनाव लड़ने का जोखिम केंद्रीय नेतृत्व नहीं उठाना चाहता है।

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