Tuesday, 16 December 2025
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ई वी एम पर उठते सवाल घातक होंगे

ई वी एम पर इन चुनावों के बाद भी सवाल उठने शुरू हो गये है। संभव है कि यह मामला सर्वाेच्च न्यायालय तक भी पहुंच जाये क्योंकि सैकड़ो साक्ष्य जुटा लिये जाने का दावा किया गया है। ई वी एम पर हर चुनाव के बाद सवाल उठते आ रहे हैं। सभी राजनीतिक दल ई वी एम की विश्वसनीयता पर सवाल उठा चुके हैं। ई वी एम से 2004 से चुनाव करवाये जा रहे हैं और 2009 में चुनाव से ही इस पर सवाल उठने शुरू हो गये थे। वर्ष 2009 में पूर्व उप प्रधानमंत्री वरिष्ठतम भाजपा नेता एल के आडवाणी ने इस पर सवाल उठाये थे। वर्ष 2010 में तो भाजपा नेता जी वी एल नरसिम्हा राव ने तो इस पर डेमोक्रेसी एट रिस्क कैन वीे ट्रस्ट ऑवर ई वी एम मशीन लिख डाली थी। आडवाणी ने इस किताब की भूमिका लिखी है और नितिन गडकरी ने इसका विमोचन किया है। भाजपा नेता पूर्व मंत्री डॉ स्वामी तो इस पर सुप्रीम कोर्ट भी गये थे और तब इसमें वी वी पैट का प्रावधान किया गया था। वर्ष 2016 से 2018 के बीच उन्नीस लाख मशीने गायब हो चुकी है और आर टी आई में यह जानकारी सामने आयी है। निर्वाचन आयोग ने इस तथ्य को स्वीकारा है। इन गायब हुई उन्नीस लाख ई वी एम मशीनों के बारे में आज तक सरकार कुछ नहीं कर पायी है। हर चुनाव में ई वी एम मशीनों को लेकर सैकड़ो शिकायते आती है। ई वी एम हैक होने से लेकर मशीन बदल दिये जाने के आरोप लगते है। दिल्ली विधानसभा में आप विधायक सौरभ भारद्वाज ने तो ई वी एम हैक करके दिखा दी थी। वर्ष 2017 में आप विधायक ने सदन के पटल पर यह प्रदर्शन किया था। इस तरह वर्ष 2009 से लगातार ई वी एम के माध्यम से चुनाव करवाये जाने की विश्वसनीयता पर लगातार सवाल उठते आ रहे है। मांग की जा रही है कि ई वी एम के स्थान पर मत पत्रों से ही चुनाव करवाये जाये। लेकिन चुनाव आयोग पर इन सवालों और इस मांग का कोई असर नहीं हो रहा है। उन्नीस लाख ई वी एम मशीनों के गायब होने पर जो आयोग और सरकार अब तक चुप बैठी है क्या उस पर आसानी से विश्वास किया जा सकता है। इस बार इन ई वी एम मशीनों पर राजनेताओं और राजनीतिक दलों में नहीं वरन आम आदमी ने सवाल उठाये हैं। वरिष्ठ वकील इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट जा रहे हैं। इस समय ई वी एम पर से आम आदमी का भरोसा लगातार टूटता जा रहा है। फिर ई वी एम मशीन की सामान्य समझ के लिए भी इंजीनियर होना आवश्यक है। और इसका सीधा सा अर्थ है कि यह ई वी एम मशीनों की वर्किंग आम आदमी की समझ से परे हैं ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक जी चयन प्रक्रिया की आम आदमी को बुनियादी समझ ही नहीं है उस पर विश्वास कैसे कर पायेगा। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विश्व के सबसे लोकप्रिय नेता माने जाते हैं ऐसे लोकप्रिय नेता के नेतृत्व में चुनाव चाहे जिस मर्जी प्रक्रिया से करवाये जाये उनकी पार्टी का जीतना तय है। इसलिये जिस प्रक्रिया पर आम आदमी का विश्वास हो और उसे समझ आती हो उसके माध्यम से चुनाव करवाने में नुकसान ही क्या है। यदि मत पत्रों से चुनाव करवाने और उनकी गणना करने में चार दिन का समय ज्यादा भी लग जाता है तो उसमें आपत्ति ही क्या है? यह समय लगने से नेता और चुनाव प्रक्रिया दोनों पर ही विश्वास बहाल हो जायेगा। इस समय उन्नीस लाख ई वी एम मशीनों के गायब होने पर सरकार और चुनाव आयोग दोनों की निष्क्रियता आम आदमी की समझ में आने लगी है। इसमें आम आदमी का वर्तमान चुनाव प्रक्रिया पर से विश्वास उठना स्वभाविक है। यदि समय रहते इस प्रक्रिया को न बदला गया तो आम आदमी का आक्रोष क्या रख अपना लेगा इसका अन्दाजा लगाना कठिन है।

क्यों हारी कांग्रेस

पहले हिमाचल और फिर कर्नाटक में चुनावी जीत हासिल करके कांग्रेस ने मध्य प्रदेश राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ में भी मुफ्ती के वायदों के सहारे जो चुनाव जीतने की उम्मीद लगा रखी थी उसे परिणामों ने धरासाही कर दिया है। क्योंकि भाजपा ने कांग्रेस से बड़े वायदे परोस दिये और जनता अपना लाभ देखकर भाजपा की ओर हो ली। 2014 से 2023 तक जितने भी संसद से लेकर विधानसभा तक के चुनाव हुये हैं हर चुनाव मुफ्ती के वायदे पर लड़ा गया है। मुफ्ती के इन वायदों की कितनी कीमत सरकारी खजाने और आम आदमी को उठानी पड़ती है इस पर कभी सार्वजनिक बहस नहीं हुई है। सर्वाेच्च अदालत में भी मुफ्ती  के मामले पर कोई ठोस कारवाई नहीं हो पायी है। इसलिए जब तक राजनीतिक दल मुफ्ती पर चुनाव लड़ते रहेंगे तब तक चुनावी हार जीत इसी तरह चलती रहेगी। नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा को देश 2014 से देखता आ रहा है हर चुनाव में नया वायदा और नया मुद्दा मूल मंत्र रहा है। जिस देश में 140 करोड़ की आबादी में से अभी भी 81 करोड़ को सरकार के मुफ्त अनाज के सहारे जीना पड़ रहा हो उसको कितना विकसित देश माना जाना चाहिये यह सोचने का विषय है। इसलिये चुनावी हार जीत कोई बहुत ज्यादा प्रासंगिक नहीं रह जाती।
लेकिन इस चुनावी हार के बाद राहुल गांधी के लिये अवश्य ही कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठ जाते हैं क्योंकि राहुल गांधी ने जिस ईमानदारी से देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं और परंपराओं के ह्यस का प्रश्न उठाया। जिस तरह से देश के संसाधनों को कॉरपोरेट घरानों के हाथों बेचे जाने के बुनियादी सवाल उठाये और समाज को नफरती ब्यानों द्वारा बांटे जाने का सवाल उठाया। इन सवालों पर देश को जोड़ने के लिये कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा निकाली और जनता ने उसका स्वागत किया। उससे लगा था कि राहुल गांधी नरेंद्र मोदी का विकल्प हो सकते हैं। लेकिन इन चुनावों में कांग्रेस की हार का सबसे बड़ा नुकसान राहुल गांधी की छवि को होगा। क्योंकि इन चुनावों की धूरी कांग्रेस में वही बने हुये थे। इसलिये इस हार से उठते सवाल भी उन्हीं को संबोधित होंगे। इस समय केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारों तक सभी भारी कर्ज के बोझ तले दबे हैं। राज्य सरकारों पर ही 70 लाख करोड़ का कर्जा है। ऐसे में क्या कोई भी राज्य सरकार बिना कर्ज लिये कोई भी गारन्टी वायदा पूरा कर सकती है। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बने हुये एक वर्ष हो गया है। प्रदेश सरकार हर माह 1000 करोड़ का कर्ज ले रही है। दस गारंटीयां चुनावों में दी थी जिनमें से किसी एक पर अमल नहीं हुआ है। भाजपा ने इसे मुद्दा बनाकर इन राज्यों में खूब उछाला। इसी कारण हिमाचल कांग्रेस का कोई बड़ा नेता या मंत्री इन राज्यों में चुनाव प्रचार के लिये नहीं आ पाया। क्या हिमाचल सरकार की इस असफलता का कांग्रेस की विश्वसनीयता पर असर नहीं पड़ेगा? जब तक कांग्रेस अपनी राज्य सरकारों के कामकाज पर नजर नहीं रखेगी तब तक सरकारों की विश्वसनीयता नहीं बन पायेगी।
आने वाले लोकसभा चुनावों के लिये जो जनता से वायदे किये जायें उन्हें पूरा करने के लिये आम आदमी पर कर्ज का बोझ नहीं डाला जायेगा जब तक यह विश्वास आम आदमी को नहीं हो जायेगा तब तक कोई भी चुनावी सफलता आसान नहीं होगी। इसलिए अब जब यह देखा खोजा जा रहा है कि कांग्रेस क्यों हारी तो सबसे पहले प्रत्यक्ष रूप से हिमाचल का नाम आ रहा जिसने गारंटीयों से अपनी जीत तो हासिल कर ली परन्तु और जगह हार का बड़ा कारण भी बन गयी।

प्रशासनिक ट्रिब्यूनल क्या वक्त की जरूरत है

हिमाचल सरकार ने प्रशासनिक ट्रिब्यूनल को फिर से बहाल करने का निर्णय लिया है क्योंकि 2022 के विधानसभा चुनावों में ऐसा आश्वासन प्रदेश के कर्मचारियों को दिया गया था। प्रदेश में प्रशासनिक ट्रिब्यूनल की स्थापना 1986 में की गयी थी। 1986 के बाद इसे दो बार बन्द किया गया। संयोगवश बन्द करने का फैसला दोनों बार भाजपा शासन के दौरान ही लिया गया। जुलाई 2019 में पूर्व जयराम ठाकुर की सरकार के दौरान कर्मचारियों के ही आग्रह पर लिया गया था। आज इसे दोबारा खोलने का फैसला क्या इसलिये लिया जा रहा है कि बन्द करने का फैसला पूर्व सरकार ने लिया था। 2022 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने प्रदेश की जनता को दस गारंटीयां भी दी थी। लाखों युवाओं को रोजगार देने का वायदा भी किया गया था। लेकिन जब इन गारंटीयों को पूरा करने की बात आयी तब प्रदेश के सामने राज्य की कठिन वित्तीय स्थिति का राग अलाप कर श्रीलंका जैसे हालात होने की चेतावनी दे डाली। इसके बाद प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र लाकर 92 हजार करोड़ की देनदारी विरासत में मिलने की बात कर दी। इस कर्ज की विरासत के नाम पर कितनी बार कितनी सेवाओं और वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि कर दी गई है यह सिर्फ उपभोक्ता ही जानता है। इस कठिन वितिय स्थिति के नाम पर ही सरकार ने अब तक 12000 करोड़ का कर्ज ले लिया है। जो स्थितियां आज प्रदेश की चल रही है उनके मद्देनजर यह स्पष्ट है कि सरकार आम जनता से किया गया कोई भी वायदा पूरा नहीं कर पायेगी। क्योंकि सरकार भ्रष्टाचार से लगातार समझौता करती जा रही है। बल्कि भ्रष्टाचार अब सरकार के एजैन्डे पर ही नहीं है। इस परिदृश्य में प्रशासनिक ट्रिब्यूनल दोबारा खोलकर प्रदेश पर सौ करोड़ का बोझ डालना कितना हितकारी होगा यह आम सवाल बन गया है। जब जुलाई 2019 में ट्रिब्यूनल को बन्द कर दिया गया था और कर्मचारी मामले प्रदेश उच्च न्यायालय को ट्रांसफर कर दिये गये थे तब इन मामलों के आंकड़ों पर ही उच्च न्यायालय से न्यायाधीशों की संख्या में बढ़ौतरी की गयी थी। मुख्य न्यायालय में जजों की संख्या 13 से 17 कर दी गयी थी। अब फिर इस संख्या को 17 से 21 करने का प्रस्ताव विचाराधीन है। अब जब ट्रिब्यूनल फिर से खोल दिया जायेगा तो कर्मचारियों के मामले वहां से ट्रांसफर होकर ट्रिब्यूनल में वापस आएंगे और इसका असर उच्च न्यायालय पर पड़ेगा और उसके विस्तार का रास्ता रुक जायेगा। दूसरी ओर ट्रिब्यूनल के लिये एक अलग भवन की व्यवस्था करनी पड़ेगी। क्योंकि पुराना भवन अब उच्च न्यायालय के पास नहीं है। ऐसे में यह अहम सवाल हो जाता है कि क्या कर्ज लेकर ऐसी व्यवस्था करना आवश्यक है। इस समय कर्मचारियों के कई मामले लंबित पड़े हुये हैं। 2016 में जो वेतनमानों में संशोधन हुआ था उसके मुताबिक सरकार अभी तक सरकारी कर्मचारियों को भुगतान नहीं कर पायी है। सेवानिवृत कर्मचारी इन लाभों के लिये उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं। दर्जनों मामलों पर उच्च न्यायालय कर्मचारियों को यह भुगतान 6% ब्याज सहित करने के आदेश कर चुका हैै लेकिन सरकार इन फसलों पर अमल नहीं कर पा रही है। ऐसी करोडों की देनदारियां सरकार के नाम खड़ी हो गयी है और कर्मचारियों में रोष फैलता जा रहा है। इस वस्तुस्थिति में ट्रिब्यूनल की बहाली कुछ सेवानिवृत्ति बड़े अधिकारियों के पुनः रोजगार का साधन बनने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पायेगा। बल्कि कर्मचारियों को जो न्याय आज तक उच्च न्यायालय से मिल रहा है उसके मिलने का रास्ता भी लम्बा हो जायेगा। यह ट्रिब्यूनल पुनः खोलने से पहले सरकार को यह आंकड़ा जारी करना चाहिये की जब यह संस्थान खोला गया था तब कितने मामले इसके पास आये थे। प्रतिवर्ष औसतन कितने मामलों का फैसला हुआ है। उच्च न्यायालय में कर्मचारियों के कितने मामले प्रतिवर्ष निपटाये गये? आज इसे खोलने की आवश्यकता क्यों आयी है? इस पर प्रतिवर्ष कितना खर्च होगा और उसका साधन क्या होगा। सरकार जब तक तार्किक तरीके से अपना पक्ष जनता में नहीं रखेगी तब तक इस प्रयास को कर्ज लेकर घी पीने का जुगाड़ ही माना जायेगा।

किसके पक्ष में जाएंगे यह चुनाव परिणाम

पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के परिणाम क्या रहेंगे यह तो परिणाम आने के बाद ही पूरी तरह स्पष्ट हो पायेगा। लेकिन जिस तरह राजनीतिक व्यवहार राजनीतिक दलों का सामने आता जा रहा है उससे यह संकेत उभर रहे हैं कि इन चुनावों में भाजपा को बड़ा नुकसान होने जा रहा है। भाजपा का यह नुकसान कांग्रेस का ही लाभ रहेगा यह पूरी स्पष्टता से नहीं कहा जा सकता क्योंकि दूसरे दल भी चुनाव में हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि यह परिणाम देश की राजनीति पर एक गहरा और दुर्गामी प्रभाव डालेंगे। क्योंकि इस समय देश 1975 के आपातकाल जैसी स्थितियों से गुजर रहा है। उस समय का आपातकाल घोषित था और आज का अघोषित है। वह आपातकाल 1975 में शुरू होकर 1977 के आम चुनाव में समाप्त हो गया था। परन्तु आज का आपात 2014 के सत्ता परिवर्तन से शुरू होकर आज तक चला आ रहा है। उस समय के आपातकाल में देश की आर्थिकी मजबूत हुई थी और आज के अघोषित आपात में आर्थिकी ही सबसे ज्यादा कमजोर हुई है। क्योंकि योजनाबद्ध तरीके से सारे अदारे निजी क्षेत्र के हवाले कर दिये गये हैं। इसमें आम आदमी के हिस्से में केवल कर्ज आया है। 2014 के सत्ता परिवर्तन के समय केंद्र सरकार का कुल कर्ज 55000 करोड़ था जो 2023 में बढ़कर 1.5 लाख करोड़ से भी ज्यादा हो गया है। राज्य सरकारों का ही कर्ज 70 लाख करोड़ से ज्यादा हो गया है। जिस अनुपात में कर्ज बड़ा है उसी अनुपात में महंगाई और बेरोजगारी भी बड़ी है। सत्ता परिवर्तन से लेकर अब तक जो कुछ घटा है वह सब आज चर्चा का विषय बना हुआ है। केंद्र सरकार को अपनी अब तक की सारी उपलब्धियां जनता तक पहुंचाने के लिए विकसित भारत संकल्प यात्रा प्रशासन के सहयोग से आयोजित करनी पड़ रही है। कुल मिलाकर देश के सामने एक ऐसी स्थिति निर्मित हो गई है जहां प्रत्येक नागरिक को भविष्य के हित में एक सुविचारित फैसला लेने की घड़ी आ गई है। इस फैसले के लिए यह ध्यान में रखना होगा कि यदि आर्थिकी बची रहेगी तो दूसरी चीजें देर सवेर संभल जायेंगी। इस समय सत्ता जिस तरह से आर्थिकी के सवाल को मन्दिर-मस्जिद और हिन्दू-मुस्लिम के आवरणों से ढकने का प्रयास कर रही है क्या वह किसी भी गणित से एक लाभकारी प्रयोग हो सकता है। आज जिस देश की आधी से अधिक आबादी को सरकार के मुफ्त राशन पर जीने के कगार पर पहुंचा दिया गया हो उस देश का भविष्य क्या होगा यह सोचने का विषय है। जिन नीतियों और योजनाओं के कारण महंगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार बढ़ा हो क्या उसका समर्थन किया जा सकता है। इस समय हर राज्य सरकार का आकलन कर्ज और मुफ्ती के बिन्दुओं पर करना होगा चाहे वह किसी भी दल की सरकार हो। क्योंकि मुफ्ती के वायदे केवल कर्ज के सहारे ही पूरे किये जा सकते हैं और बढ़ता कर्ज किसी भी विकास का कोई मानदण्ड नहीं होता है। इसलिए इन चुनावों में मतदाताओं को इन बिन्दुओं का आकलन करके ही मतदाता का फैसला लेना होगा।

अब अधिकारी होंगे रथ प्रभारी

मोदी सरकार अपने नौ वर्ष के कार्यकाल की उपलब्धियां को लेकर एक विकसित भारत संकल्प यात्रा कर रही है। यह यात्रा देश के 765 जिलों की 2.69 लाख पंचायतों से होकर गुजरेगी। 2014 से अब तक जो उपलब्धियां इस सरकार की रही है उन्हें इस यात्रा के माध्यम से देश के सामने रखा जाएगा। हर रथ एक उपलब्धि का वाहक होगा और उसका प्रभारी एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होगा। अक्तूबर 2022 में इस योजना की रूपरेखा तैयार की गयी थी। अब अक्तूबर 2023 में एक प्रपत्र के माध्यम से इन प्रभारियों के नाम मांगे गये। इसमें उपनिदेशक से लेकर संयुक्त सचिव स्तर तक के अधिकारियों को रथ प्रभारी नामित किया जाएगा। इससे पूर्व रक्षा मंत्रालय ने भी छुट्टी पर जाने वाले सैनिकों से भी कहा है कि उन्हें राष्ट्रीय निर्माण के कार्य में हिस्सा लेना चाहिए इसके लिए स्थानीय समुदाय से जुड़कर सरकारी योजनाओं का प्रचार करना चाहिए। यह यात्रा 25 नवम्बर 2023 से 25 जनवरी 2024 तक जारी रहेगी। कई राजनीतिक दलों ने इस योजना का विरोध करते हुए इसे अधिकारियों का राजनीतिकरण किया जाने की संज्ञा दी है। चुनाव आयोग ने भी इसका संज्ञान लेकर जिन राज्यों में अभी चुनाव हो रहे हैं और वहां पर आचार संहिता लागू हो चुकी है वहां पर इसके प्रवेश पर रोक लगा दी है। अब इस मुद्दे पर एक अलग बहस छिड़ गई है क्योंकि जहां कांग्रेस और अन्य दल इसका विरोध कर रहे हैं वहीं पर भाजपा इसका पुरजोर समर्थन कर रही है। जब सरकार पिछले एक वर्ष से इस योजना की रूपरेखा तैयार कर रही है तो निश्चित है कि यह लागू होगी। भले ही रथ प्रभारी के स्थान पर इन अधिकारियों को नोडल अधिकारी का पदनाम दे दिया जाये। यहां पर यह भी स्मरणीय है कि मोदी सरकार ने निजी क्षेत्र से तीन दर्जन से भी अधिक कॉर्पाेरेट अधिकारियों को यू.पी.एस.सी. पास किए बिना ही सीधे आई.ए.एस. संयूक्त सचिव नामित कर दिया और उस पर आई.ए.एस. द्वारा कोई प्रतिक्रिया तक नहीं दी गई थी। क्योंकि सरकार ऐसा कर सकती है। शायद इसी मौन का परिणाम है कि आज आई.ए.एस. अधिकारियों को सरकारी योजनाओं के प्रचार प्रसार के लिए रथ प्रभारी नामित किया जा रहा है। संभव है कि इसके बाद देश प्रतिबद्ध कार्यपालिका की ओर भी बढ़ जाये। सविधान में कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका तीनों को स्वतंत्र रखा गया है। कार्यपालिका के लिए तो सेवा नियम 1964 अलग से परिभाषित है और अपेक्षा की जाती है कि कार्यपालिका राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रहे। क्योंकि राजनीतिक सता तो हर पांच वर्ष बाद बदल जाती है। इसीलिए कार्यपालिका को 60 वर्ष की आयु तक का कार्यकाल दिया गया है ताकि उसकी निरन्तरता में सता बदलने का कोई प्रभाव न पड़े। इसलिए नीति और नियम बनाने का काम व्यवस्थापिका को दिया गया है। इन नीति नियमों की अनुपालना कार्यपालिका के जिम्मे है। ऐसे में जब राजनीतिक सरकार द्वारा बनाई गई योजनाओं के प्रचार प्रसार की ऐसी जिम्मेदारी अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को दी जाएगी तो उनकी निष्पक्षता कितनी बनी रह पाएगी यह अपने में ही एक बड़ा सवाल बन जाएगा। सरकार के ऐसे फैसलों पर वरिष्ठ नौकरशाही की ओर से ऐतराज़ आना चाहिए था। लेकिन जब कैबिनेट सचिव स्तर से लेकर कई राज्यों के मुख्य सचिव तक सेवा विस्तारों पर चल रहे हो तो फिर कार्यपालिका की निष्पक्षता कैसे सुरक्षित रह पाएगी?

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