Friday, 19 September 2025
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संसद का विशेष सत्र क्यों

मोदी सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाकर पूरे देश को अटकलों के भंवर में लाकर खड़ा कर दिया है। क्योंकि विशेष सत्र का अर्थ ही यह है कि सरकार कुछ ऐसा विशेष करने जा रही है जिसके लिए नियमित सत्र का इंतजार नहीं किया जा सकता। ऐसे में यह अटकलें लगना स्वभाविक है कि यह विशेष क्या हो सकता है। लोकसभा का आम चुनाव सामान्य स्थितियों में मई 2024 में होना है। ऐसे में यह देखना और समझना आवश्यक हो जाता है कि मोदी सरकार ने ऐसा कौन सा वायदा परोक्ष/अपरोक्ष में देश के साथ कर रखा है जिसे पूरा करने के लिए विशेष सत्र आहूत करना आवश्यक हो गया है। मोदी के नेतृत्व में भाजपा मई 2014 में केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई थी और 2019 के चुनावों में पहले से भी ज्यादा बहुमत हासिल किया यह एक हकीकत है। लेकिन 2014 में भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस लोकपाल की स्थापना के मुद्दे पर सत्ता परिवर्तन हुआ था उसका व्यवहारिक सच यह है कि जिन नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे वह अब भाजपा में जाकर बिना किसी जांच के पाक साफ हो गये हैं। इसलिये भ्रष्टाचार से जुड़ा कोई मुद्दा विशेष सत्र का विषय नहीं हो सकता भले ही 183 अपराधों को जेल की सजा के दायरे से बाहर कर दिया हो।
मोदी सरकार ने जान विश्वास विधायक पारित करके व्यवसाय और जीवन ज्ञापन को सुगम बनाने का प्रयास करने का दावा किया है। क्योंकि मोदी मूल सूत्र मेक इन इंडिया है। इस सूत्र के तहत विदेश की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यहां बुलाकर देश के संसाधन उन्हें उपलब्ध करवाकर देश के निर्माण करने के लिए आमंत्रित किया है। इस व्यवसायिक सुगमता के लिये ही यहां के हर संसाधन की प्राइवेट सैक्टर को उपलब्धतता सुनिश्चित करने के लिये बड़े पैमाने पर निजीकरण को बढ़ावा दिया गया है। इससे यह बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे ही संसाधनों से लाभ कमा कर अपने देश में ले जा रहे हैं। क्योंकि सरकार मेड इन इंडिया की बजाये मेक इन इंडिया को सूत्र बनाकर चल रही है। इसलिये इस संद्धर्भ में भी कुछ अप्रत्याशित लाने के लिये यह विशेष सत्र नहीं हो रहा है यह तय है।
मोदी सरकार हर चुनाव में अपना एजेंडा बदलती रही है यह अब तक का रिकॉर्ड रहा है। हर चुनाव नये नारे पर ही लड़ा गया है। इसलिये इस चुनाव के लिये भी कुछ नया लाने का प्रयास रहेगा यह तय है। मोदी सरकार ने विधानसभा से लेकर संसद तक को अपराधियों से मुक्त करवाने और एक देश एक चुनाव की बात भी संसद के संयुक्त सत्र में की थी। इसलिये इस विशेष सत्र में इस आश्य का संशोधन लाये जाने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। क्योंकि पिछले दोनों चुनावों में विपक्ष बिखरा हुआ था जो कि अब इकट्ठा होता जा रहा है। जिस राहुल गांधी को पप्पू प्रचारित करने के लिये लाखों का निवेश किया गया था वह राहुल गांधी भारत छोड़ो यात्रा के बाद मोदी से बहुत आगे निकल चुका है। लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि भाजपा संघ परिवार की एक राजनीतिक इकाई है। संघ का मूल सूत्र हिन्दु राष्ट्र की स्थापना है। संघ की सारी ईकाईयां इस दिशा में प्रयासरत रही हैं। इस समय संसद में जो बहुमत मोदी भाजपा को हासिल है इतना बड़ा बहुमत पुनः मिल पाना संभव नहीं है। हिन्दु राष्ट्र को लेकर देश की राजनीतिक प्रतिक्रिया क्या रहेगी इसके लिये दो स्तरों पर प्रयास हुये हैं। मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टीस सेन का हिन्दु राष्ट्र को लेकर दिया गया फैसला पहला प्रयास था। भले ही मेघालय उच्च न्यायालय की बड़ी पीठ ने एकल पीठ के फैसले को बाद में पलट दिया है लेकिन यह पलटना तब हुआ जब इस पर सर्वाेच्च न्यायालय में एक याचिका आ गयी। यह फैसला राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक सब स्तरों पर सर्व हो चुकने के बाद पलटा गया है। परन्तु इस पर केंद्र सरकार और संघ की कोई प्रतिक्रिया तक नहीं आयी है। जबकि संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने के नाम से भारत का नया संविधान तक वायरल हो चुका है और इस पर भी संघ और सरकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। मोदी सरकार आर्थिक क्षेत्र में बुरी तरह असफल रही है। महंगाई और बेरोजगारी ने हर आदमी की कमर तोड़कर रख दी है। इनके अनुपात में आम आदमी की आय नहीं बढ़ी है। बेरोजगार और गरीब के लिये चन्द्रयान की उपलब्धि अपनी महंगाई और बेरोजगारी के बाद आती है। इसलिये संभव है कि सरकार संघ के दबाव में हिन्दु राष्ट्र को लेकर इस विशेष सत्र में फैसला ले लें।

विनाश में भविष्य का फैसला वर्तमान की परीक्षा होगी

प्रदेश भर में इस मानसून सत्र से जो तबाही हुई है उससे कुछ बुनियादी सवाल भी उठ खड़े हुये हैं। सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि इस विनाश के लिये क्या प्रकृति ही जिम्मेदार है या सरकार की नीतियों और हमारा लालच भी बराबर का जिम्मेदार रहा है। मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है की सरकार की नीतियां लालच से ज्यादा जिम्मेदार रही है। क्योंकि जब नीतियों में ढील दी जाती है तो उससे लालच बढ़ता जाता है। हिमाचल में गैर कृषक गैर हिमाचली को जमीन खरीदने पर मूलतः प्रबंध रहा है। इस प्रतिबंध में ढील देने के लिये भू राजस्व अधिनियम की धारा 118 में सरकारी अनुमति का प्रभावधान करके इस खरीद का मार्ग प्रशस्त किया गया। इस प्रावधान का इतना दुरूपयोग हुआ है की सरकारों पर हिमाचल को बेचने के आरोप लगे। बेनामी खरीदो पर चार बार जांच आयोग बैठाये गये। हर जांच रिपोर्ट में सैकड़ो मामले सामने आ चुके हैं। लेकिन किसी भी रिपोर्ट पर कोई अंतिम कारवाई नहीं हो पायी है। इसी का परिणाम है कि हर एक पर्यटक स्थल पर गैर हिमाचली गैर कृषक व्यवसायिक परिसर बनाकर बैठे हुये है। प्रदेश में कार्यरत गैर हिमाचली गैर कृषक अधिकारियों ने भी जब यहां जमीन खरीदनी शुरू की तब यह भी प्रावधान नहीं किया गया की एक व्यक्ति को धारा 118 के तहत कितनी बार जमीन खरीद की अनुमति मिल सकती है।

जमीन खरीद पर प्रतिबंध के साथ ही लैंड सीलिंग एक्ट के तहत अधिकतम भूमि सीमा का भी प्रतिबंध है । इस प्रतिबंध के तहत 161 बीघा या 300 कनाल से अधिक जमीन नहीं खरीदी जा सकती। लेकिन जल विद्युत परियोजनाओं और सीमेंट उद्योगों के लिए यह सीमा में छूट दे दी गयी। यही नहीं राधा स्वामी सत्संग व्यास के लिये भी इसमें छूट दे दी गयी और इस संस्था को कृषक का दर्जा भी अदालत के माध्यम से दिला दिया गया और इस फैसले की कोई अपील तक नहीं की गयी। इसी का परिणाम है की राधा स्वामी सत्संग ब्यास के पास आज हजारों बिघा जमीन है। अब तो 1974 में पारित लैंड सीलिंग एक्ट में भी संशोधन करके एक नया आयाम स्थापित कर दिया गया है। इस संशोधन के लाभार्थी कौन होंगे यह नई चर्चा का विषय बन जायेगा। रियल स्टेट प्रदेश में एक पूरा उद्योग बन गया जबकि नये स्थापित उद्योगिक क्षेत्रों में लेबर को आवासीय सुविधा उपलब्ध करवाने के लिये ऐसे निर्माणों के अनुमति दी गई थी।

इसी तरह भवन निर्माण के लिए जो स्थाई पॉलिसी 1979 में बनाई जानी थी वह आज 2023 में भी अंतरिम आधार पर ही चल रही है। क्योंकि स्थाई योजना एनजीटी के आदेश के बाद केवल शिमला के लिये ही बन पायी और वह सर्वाेच्च न्यायालय में विचाराधीन चल रही है। भवन निर्माणों में अवैधताओं को कैसे लालच का रूप लेने दिया गया इसका खुलासा अब तक लायी गयी रिटेंशन पॉलिसीयों से हो जाता है। जिस विकास के नाम पर इन अवैधताओं को बढ़ावा दिया जाता रहा है उसे सब का सामूहिक परिणाम है यह विनाश। इस विनाश में जहां प्रभावितों को तुरंत राहत पहुंचना प्राथमिकता है तो उसी के साथ यह पुनर्निर्माण भी आवश्यक है। निर्माण की अनिवार्यता और राहत की तात्कालिक आवश्यकता के साथ ही भविष्य की संभावनाओं को भी ध्यान में रखकर अगले फैसले लेने होंगे। यह निष्पक्षता से विचार करना होगा की क्या शिमला राजधानी के तौर पर भविष्य की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को पूरा कर पायेगा। जो लोग कल तक किन्हीं कारणों से एनजीटी के फैसले का विरोध कर रहे थे उन्हें अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर खुले मन से इस विनाश के परिपेक्ष में फैसला लेना होगा। यह फैसला आज की राजनीतिक और प्रशासनिक पीढ़ियां की परीक्षा भी साबित होगी।

 

क्या अब राजधानी बदलने का वक्त आ गया है

इस मानसून में जिस तरह की तबाही पूरे प्रदेश में देखने को मिली है उससे कुछ ऐसे बुनियादी सवाल उठ खड़े हुये हैं जिन्हें भविष्य को सामने रखते हुए नजरअंदाज करना संभव नहीं होगा। यह तबाही प्रदेश के हर जिले में हुई है और इसके बाद प्रदेश को लेकर अब तक हुये सारे भूगर्भीय अध्ययन भी चर्चा में आ खड़े हुये हैं। इन सारे अध्ययनों में यह कहा गया है की पूरा प्रदेश भूकंप क्षेत्र में आता है। एक वर्ष में ऊना को छोड़कर अन्य सभी जिलों में हुये 87 भूकंपों का आंकड़ा सामने आ चुका है। इन भूकंपो से भूस्खलन, पहाड़ों में लैंडस्लाइड, बाढ़ आदि होना यह अध्ययनों में आ चुका है। इसका कारण पहाड़ों में बनी जल विद्युत परियोजनाओं और यहां बनाई गई सड़कों को कहा गया है। इन जल विद्युत परियोजनाओं और सड़कों के निर्माण से पर्यटन का विकास हुआ। यह सारा विकास पिछले तीन दशकों की जमा पूंजी है। इस सारे विकास से जो आर्थिक लाभ प्रदेश को पहुंचा है उसी का परिणाम है प्रदेश पर खड़ा एक लाख करोड़ के करीब का कर्ज और इतना ही इसके लिये दिया गया उपदान। लेकिन इतनी कीमत चुकाकर खड़ा किया गया यह विकास कितनी देर टिक पायेगा।
1971 में किन्नौर में आये भूकंप का असर शिमला के रिज और लक्कड़ बाजार क्षेत्र में आज भी देखा जा सकता है। आज तक रिज अपने पुराने मूल रूप में नहीं आ सका है। हर वर्ष रिज के जख्म हरे हो जाते हैं। इसी विनाश के कारण 1979 में यह माना गया कि प्रदेश के सुनियोजित विकास के लिए नगर एवं ग्रामीण नियोजन विभाग चाहिए और परिणामतयः टीसीपी विभाग का गठन हुआ। प्रदेश के नगरीय और ग्रामीण विकास के लिये एक स्थाई विकास योजना तैयार करने की जिम्मेदारी इस विभाग की थी। लेकिन राजनीति के चलते यह विभाग ग्रामीण क्षेत्र तो दूर शहरों के लिये भी कोई स्थाई योजना नहीं बना पाया है। राजधानी नगर शिमला के लिये ऐसी स्थाई योजना की एकदम आवश्यकता थी लेकिन 1979 में जो अंतरिम योजना जारी हुई उसमें भी एन.जी.टी. का फैसला आने तक 9 बार रिटैन्शन पॉलिसीयां जारी हुई और हर पॉलिसी में अवैधता का अनुमोदन किया। यहां तक की एन.जी.टी. का फैसला आने के बाद भी हजारों अवैध निर्माण खड़े हो गये। सरकार स्वयं फैसले के उल्लंघनकर्ताओं में शामिल है। शायद सरकार के किसी भी निर्माण का नक्शा कहीं से भी पारित नहीं है। जबकि टी.सी.पी. नियमों के अनुसार हर सरकारी भवन का नक्शा पास होना आवश्यक है।
राजधानी नगर शिमला के कई हिस्से स्लाइडिंग और सिंकिंग जोन घोषित हैं। इनमें कायदे से कोई निर्माण नहीं होना चाहिए था। लेकिन यहां निर्माण हुए हैं। पहाड़ में 35 डिग्री से ज्यादा के ढलान पर निर्माण नहीं होना चाहिए। लेकिन सरकारी निर्माण भी हुये हैं। जब सरकारी भवन ही कई-कई मंजिलों के बन गये तो प्राइवेट सैक्टर को कैसे रोका जा सकता था। ऐसे बहुमंजिला भवनों की एक लंबी सूची विधानसभा के पटल पर भी आ चुकी है लेकिन वह रिकार्ड का हिस्सा बनकर ही रह गई है। आज शिमला में जो तबाही हुई है उसका एक मात्र कारण निर्माण की अवैधताएं हैं जिन्हें रोक पाना शायद किसी भी सरकार के बस में नहीं रह गया है। सुक्खू सरकार ने भी इसी दबाव में आकर ऐटिक और बेसमैन्ट का फैसला लिया है। जब सरकार के अपने भवन ही असुरक्षित होने लग जायें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि शिमला कितना सुरक्षित रह गया है। इस विनाश के बाद शिमला की सुरक्षा को लेकर हर मंच पर सवाल उठ रहे हैं। पिछले चार दशको में हुए शिमला के विकास ने आज जहां लाकर खड़ा कर दिया है उसके बाद यह सामान्य सवाल उठने लग गया है कि भविष्य को सामने रखते अब राजधानी को शिमला से किसी दूसरे स्थान पर ले जाने पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है। एन.जी.टी. ने कुछ कार्यालय शिमला से बाहर ले जाने के निर्देश दिए हुए हैं। लेकिन अब कार्यालयों की जगह राजधानी को ही शिफ्ट करने पर विचार किया जाना चाहिए।

मंदिरों में वीआईपी प्रयोग

पिछले दिनों मां चिंतपूर्णी के दरबार में 1100 रूपए की पर्ची कटवाकर श्रद्धालुओं को वी आई पी दर्शन करवाने की सुविधा प्रदान की गई है। बुजुर्गों और अपंगों के लिए 50 रूपये की पर्ची से यह सुविधा मिलेगी । हर वर्ग के लिए अलग-अलग शुल्क के साथ पर्ची काटी जाएगी। इस फरमान का विपक्षी दल भाजपा ने कड़ा विरोध किया है। महावीर दल ने इस आशय का एक ज्ञापन प्रदेश भाजपा प्रभारी अविनाश राय खन्ना के माध्यम से प्रदेश के राज्यपाल को भी सौंपा है। पूर्व मंत्री विक्रम ठाकुर ने भी इस फरमान को वापस लेने की मांग की है । लेकिन इस पर कांग्रेस की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री जिनके पास यह विभाग है उनकी भी कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। इससे यही प्रमाणित होता है कि सरकार ने राजस्व बढ़ाने की नीयत से यह प्रयोग शुरू किया है। यह प्रयोग मां चिंतपूर्णी से शुरू होकर सरकार द्वारा अधिग्रहण किये जा चुके अन्य मंदिरों तक भी जाएगा क्योंकि सरकार का नियम सभी जगह एक सम्मान लागू होता है।
हिमाचल में मंदिरों का अधिग्रहण 1984 में विधानसभा में इस आशय का एक विधेयक लाकर किया गया था। उस समय सदन में इसका विरोध केवल जनता पार्टी के विधायक राम रतन शर्मा ने किया था। क्योंकि वह स्वयं दियोथ सिद्ध मंदिर के पुजारियों में से एक थे । उसे समय यह आक्षेप लग रहे थे की इन मंदिरों में जितनी आय हो रही है उसके अनुरूप यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो रही है। मंदिरों के पैसों का दुरुपयोग हो रहा है। इन आक्षेपों से सभी ने सहमति जताई और यह विधेयक पारित हो गया। उसे समय केवल 11 मंदिरों का अधिग्रहण हुआ था और इन मंदिरों से 8 से 10 करोड़ की आय अनुमानित की गई थी। लेकिन विधेयक का आगे आने वाले समय में विस्तार किए जाने का प्रावधान भी रखा गया था और इस विस्तार का प्रस्ताव जनता पार्टी की विधायक स्व. श्यामा शर्मा की ओर से आया था । यह कहा गया था कि मंदिरों की आय का उपयोग शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में किया जाएगा।
इसी विस्तार का परिणाम है कि आज प्रदेश के 35 मंदिरों का प्रबंधन सरकार के पास है और 2018 में विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री के एक प्रश्न के उत्तर में आयी जानकारी के अनुसार इन मंदिरों में क्विंटलों के हिसाब से सोना और चांदी जमा है। कैश और एफडी के नाम पर सैकड़ों करोड़ जमा है । प्रदेश उच्च न्यायालय में आयी एक याचिका के जवाब में इन मंदिरों के पास 2018 में 361.43 करोड़ रूपया होने की जानकारी दी गई है। किन्नौर को छोड़कर प्रदेश के शेष सभी जिलों में यह मंदिर स्थित हैं। इनके प्रबंधन के लिए जिलाधीशों के तहत ट्रस्ट गठित है । सभी मंदिरों में मंदिर अधिकारी तैनात हैं। सभी कर्मचारी सरकारी अधिकारी हैं । अधिनियम के अनुसार ट्रस्ट का मुखिया हिंदू ही होगा। यदि किसी जिले में गैर हिंदू को जिलाधीश लगा दिया जाता है तो उसे मंदिर के ट्रस्ट की जिम्मेदारी नहीं दी जाती है।
इस परिदृश्य में आज की स्थितियों पर विचार किया जाये तो यह सवाल उठता है कि इन मंदिरों के पास जितनी संपत्ति है क्या उसके अनुरूप वहां आने वालों के लिए मंदिर प्रबंधनों द्वारा सुविधा उपलब्ध करवाई गई है । क्या प्रबंधनों ने अपने स्तर पर आवासीय सुविधा सुरजीत की हुई हैॽ कितने मंदिर अपने यहां संस्कृत के अतिरिक्त अन्य विषयों का शिक्षण प्रदान कर रहे हैं। इस मंदिर पर्यटन के नाम पर एक बड़ा व्यवसाय इन परिसरों के गिर्द खड़ा होता जा रहा है। क्या मंदिरों को पर्यटक स्थलों के रूप में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के बिना विकसित करना श्रेयस्कर होगाॽ क्या मंदिरों और पर्यटक की संस्कृति एक सम्मान हो सकती हैॽ मंदिर श्रद्धा और आस्था का केंद्र है। यह धारणा है कि भगवान के पास सब एक बराबर होते हैं । वहां कोई बड़ा या छोटा नहीं होता। ऊंची और नीचे जाति कोई नहीं होती। वहां पर कोई अधिकारी या सेवक का वर्गीकरण नहीं होता। सबको एक ही लाइन में लगकर दर्शन और पूजा अर्चना करनी होती है। मंदिरों में जब पैसे खर्च करके वीआईपी की सुविधा उपलब्ध करवाने की बात आएगी तो क्या उससे आम आदमी की आस्था प्रभावित नहीं होगीॽ निश्चित रूप से होगी और तब आम आदमी का विश्वास ऐसी व्यवस्था बनाने वालों के प्रति कितना सम्मानजनक रह जाएगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। आस्था को पैसों के तराजू पर तोलना घातक होगा।

यह राहुल की जीत है या मोदी भाजपा की हार

सर्वाेच्च न्यायालय ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को गुजरात के सी.जे.एम. की अदालत से मानहानि के मामले में मिली दो वर्ष की सजा को अन्तिम फैसला आने तक स्थगित कर दिया है। राहुल को यह राहत सैशन कोर्ट और गुजरात उच्च न्यायालय से भी नहीं मिली थी। दो साल की सजा मिलने से उनकी सांसदी और इस नाते मिला हुआ सरकारी आवास भी छिन गया था। यह सजा मिलने के बाद इस फैसले की अपील सत्र न्यायालय में की गयी जो अब तक लंबित है। इसी के साथ इसमें मिली सजा को स्थगित रखने की याचिका भी दायर की गयी थी। जिसको सत्र न्यायालय और गुजरात उच्च न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया और अब सर्वाेच्च न्यायालय से यह राहत मिली है। यह राहत मिलने से राहुल की संसद सदस्यता और आवास दोनों बहाल हो जायेंगे। राहुल के खिलाफ सदस्यता और आवास छीनने की कारवाई को 24 घंटे के भीतर अन्जाम दे दिया गया था लेकिन अब बहाली में वही तेजी नहीं दिखाई जा रही है। जब सजा का फैसला आया था तब जिस तरह की प्रतिक्रियाएं भाजपा नेताओं की आयी थी और वह बहाली में लगाई जा रही देरी से यह सन्देश जाने लगा है कि सर्वाेच्च न्यायालय का फैसला राहुल की जीत से ज्यादा यह मोदी भाजपा की हार तो नहीं बन गया है।
भारतीय दण्ड संहिता निर्माताओं ने हर अपराध की गंभीरता को आंकते हुए उसमें अधिकतम दण्ड का प्रावधान किया हुआ है जो आजीवन कारावास और मृत्यु दण्ड तक का है। मानहानि के मामले में अधिकतम सजा दो वर्ष की है। किसी भी अपराध में जब कोई न्यायधीश अधिकतम सजा सुनाता है तब उसमें वह यह कारण भी दर्ज करता है कि अधिकतम सजा क्यों दी जा रही है। लेकिन सर्वाेच्च न्यायालय ने यह साफ कहा है कि ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में अधिकतम सजा के आधारों की व्याख्या ही नहीं की है। जब राहुल सत्र न्यायालय और फिर गुजरात उच्च न्यायालय में अपील में गये तो वहां भी मान्य अदालतों ने इस पक्ष का संज्ञान ही नहीं लिया। यदि राहुल गांधी को इस मामले में दो वर्ष से एक दिन की भी सजा कम होती तो उनकी संसद सदस्यता न जाती। इसलिए आम आदमी में यह धारणा बनती जा रही है कि राहुल को संसद से बाहर रखने के लिये यह मामला बनाया गया था। इस सजा के बाद ही गुजरात में मोदी समाज का अधिवेशन हुआ और गृह मन्त्री अमित शाह उसमें शामिल हुए। इस सम्मेलन में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को समाज का रत्न कहा गया। राहुल के खिलाफ मानहानि का मामला करने वाले पूर्णेश मोदी को महिमामण्डित किया। इस मामले में जो कुछ घटा है उससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि आज प्रधानमन्त्री से लेकर पूरी भाजपा तक राहुल से डरी हुई है।
2014 में जब से मोदी ने सत्ता संभाली है तब से लेकर आज तक राहुल और नेहरू-गांधी परिवार को घेरने के लिये जो कुछ भी इस सरकार ने किया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी स्वतः ही राहुल से हल्के पड़ते जा रहे हैं। एक नेता को संसद से बाहर रखने के लिये इस सीमा तक जाना कई सन्देशो और आशंकाओं की आहट मानी जा रही है। 2024 के चुनावों को टालने से लेकर कुछ भी घट सकता है। क्योंकि इस समय जो बहुमत संसद में भाजपा को हासिल है उसके सहारे हिंदुत्व को लाने के लिये सरकार किसी भी हद तक जा सकती है। संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत के नाम से जो भारत का नया संविधान कुछ अरसे से वायरल होकर बाहर आया है उस पर संघ से लेकर भारत सरकार तक सबकी चुप्पी अपने में बहुत कुछ कह जाती है। हिंदुत्व को संवैधानिक तौर पर लागू करने के जो निर्देश एक समय मेघालय उच्च न्यायालय के फैसले के माध्यम से भारत सरकार तक 2019 में आ चुका है उस पर भी अभी तक की खमोसी अर्थ पूर्ण लगती है।

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