मोदी सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाकर पूरे देश को अटकलों के भंवर में लाकर खड़ा कर दिया है। क्योंकि विशेष सत्र का अर्थ ही यह है कि सरकार कुछ ऐसा विशेष करने जा रही है जिसके लिए नियमित सत्र का इंतजार नहीं किया जा सकता। ऐसे में यह अटकलें लगना स्वभाविक है कि यह विशेष क्या हो सकता है। लोकसभा का आम चुनाव सामान्य स्थितियों में मई 2024 में होना है। ऐसे में यह देखना और समझना आवश्यक हो जाता है कि मोदी सरकार ने ऐसा कौन सा वायदा परोक्ष/अपरोक्ष में देश के साथ कर रखा है जिसे पूरा करने के लिए विशेष सत्र आहूत करना आवश्यक हो गया है। मोदी के नेतृत्व में भाजपा मई 2014 में केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई थी और 2019 के चुनावों में पहले से भी ज्यादा बहुमत हासिल किया यह एक हकीकत है। लेकिन 2014 में भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस लोकपाल की स्थापना के मुद्दे पर सत्ता परिवर्तन हुआ था उसका व्यवहारिक सच यह है कि जिन नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे वह अब भाजपा में जाकर बिना किसी जांच के पाक साफ हो गये हैं। इसलिये भ्रष्टाचार से जुड़ा कोई मुद्दा विशेष सत्र का विषय नहीं हो सकता भले ही 183 अपराधों को जेल की सजा के दायरे से बाहर कर दिया हो।
मोदी सरकार ने जान विश्वास विधायक पारित करके व्यवसाय और जीवन ज्ञापन को सुगम बनाने का प्रयास करने का दावा किया है। क्योंकि मोदी मूल सूत्र मेक इन इंडिया है। इस सूत्र के तहत विदेश की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यहां बुलाकर देश के संसाधन उन्हें उपलब्ध करवाकर देश के निर्माण करने के लिए आमंत्रित किया है। इस व्यवसायिक सुगमता के लिये ही यहां के हर संसाधन की प्राइवेट सैक्टर को उपलब्धतता सुनिश्चित करने के लिये बड़े पैमाने पर निजीकरण को बढ़ावा दिया गया है। इससे यह बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे ही संसाधनों से लाभ कमा कर अपने देश में ले जा रहे हैं। क्योंकि सरकार मेड इन इंडिया की बजाये मेक इन इंडिया को सूत्र बनाकर चल रही है। इसलिये इस संद्धर्भ में भी कुछ अप्रत्याशित लाने के लिये यह विशेष सत्र नहीं हो रहा है यह तय है।
मोदी सरकार हर चुनाव में अपना एजेंडा बदलती रही है यह अब तक का रिकॉर्ड रहा है। हर चुनाव नये नारे पर ही लड़ा गया है। इसलिये इस चुनाव के लिये भी कुछ नया लाने का प्रयास रहेगा यह तय है। मोदी सरकार ने विधानसभा से लेकर संसद तक को अपराधियों से मुक्त करवाने और एक देश एक चुनाव की बात भी संसद के संयुक्त सत्र में की थी। इसलिये इस विशेष सत्र में इस आश्य का संशोधन लाये जाने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। क्योंकि पिछले दोनों चुनावों में विपक्ष बिखरा हुआ था जो कि अब इकट्ठा होता जा रहा है। जिस राहुल गांधी को पप्पू प्रचारित करने के लिये लाखों का निवेश किया गया था वह राहुल गांधी भारत छोड़ो यात्रा के बाद मोदी से बहुत आगे निकल चुका है। लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि भाजपा संघ परिवार की एक राजनीतिक इकाई है। संघ का मूल सूत्र हिन्दु राष्ट्र की स्थापना है। संघ की सारी ईकाईयां इस दिशा में प्रयासरत रही हैं। इस समय संसद में जो बहुमत मोदी भाजपा को हासिल है इतना बड़ा बहुमत पुनः मिल पाना संभव नहीं है। हिन्दु राष्ट्र को लेकर देश की राजनीतिक प्रतिक्रिया क्या रहेगी इसके लिये दो स्तरों पर प्रयास हुये हैं। मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टीस सेन का हिन्दु राष्ट्र को लेकर दिया गया फैसला पहला प्रयास था। भले ही मेघालय उच्च न्यायालय की बड़ी पीठ ने एकल पीठ के फैसले को बाद में पलट दिया है लेकिन यह पलटना तब हुआ जब इस पर सर्वाेच्च न्यायालय में एक याचिका आ गयी। यह फैसला राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक सब स्तरों पर सर्व हो चुकने के बाद पलटा गया है। परन्तु इस पर केंद्र सरकार और संघ की कोई प्रतिक्रिया तक नहीं आयी है। जबकि संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने के नाम से भारत का नया संविधान तक वायरल हो चुका है और इस पर भी संघ और सरकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। मोदी सरकार आर्थिक क्षेत्र में बुरी तरह असफल रही है। महंगाई और बेरोजगारी ने हर आदमी की कमर तोड़कर रख दी है। इनके अनुपात में आम आदमी की आय नहीं बढ़ी है। बेरोजगार और गरीब के लिये चन्द्रयान की उपलब्धि अपनी महंगाई और बेरोजगारी के बाद आती है। इसलिये संभव है कि सरकार संघ के दबाव में हिन्दु राष्ट्र को लेकर इस विशेष सत्र में फैसला ले लें।
जमीन खरीद पर प्रतिबंध के साथ ही लैंड सीलिंग एक्ट के तहत अधिकतम भूमि सीमा का भी प्रतिबंध है । इस प्रतिबंध के तहत 161 बीघा या 300 कनाल से अधिक जमीन नहीं खरीदी जा सकती। लेकिन जल विद्युत परियोजनाओं और सीमेंट उद्योगों के लिए यह सीमा में छूट दे दी गयी। यही नहीं राधा स्वामी सत्संग व्यास के लिये भी इसमें छूट दे दी गयी और इस संस्था को कृषक का दर्जा भी अदालत के माध्यम से दिला दिया गया और इस फैसले की कोई अपील तक नहीं की गयी। इसी का परिणाम है की राधा स्वामी सत्संग ब्यास के पास आज हजारों बिघा जमीन है। अब तो 1974 में पारित लैंड सीलिंग एक्ट में भी संशोधन करके एक नया आयाम स्थापित कर दिया गया है। इस संशोधन के लाभार्थी कौन होंगे यह नई चर्चा का विषय बन जायेगा। रियल स्टेट प्रदेश में एक पूरा उद्योग बन गया जबकि नये स्थापित उद्योगिक क्षेत्रों में लेबर को आवासीय सुविधा उपलब्ध करवाने के लिये ऐसे निर्माणों के अनुमति दी गई थी।
इसी तरह भवन निर्माण के लिए जो स्थाई पॉलिसी 1979 में बनाई जानी थी वह आज 2023 में भी अंतरिम आधार पर ही चल रही है। क्योंकि स्थाई योजना एनजीटी के आदेश के बाद केवल शिमला के लिये ही बन पायी और वह सर्वाेच्च न्यायालय में विचाराधीन चल रही है। भवन निर्माणों में अवैधताओं को कैसे लालच का रूप लेने दिया गया इसका खुलासा अब तक लायी गयी रिटेंशन पॉलिसीयों से हो जाता है। जिस विकास के नाम पर इन अवैधताओं को बढ़ावा दिया जाता रहा है उसे सब का सामूहिक परिणाम है यह विनाश। इस विनाश में जहां प्रभावितों को तुरंत राहत पहुंचना प्राथमिकता है तो उसी के साथ यह पुनर्निर्माण भी आवश्यक है। निर्माण की अनिवार्यता और राहत की तात्कालिक आवश्यकता के साथ ही भविष्य की संभावनाओं को भी ध्यान में रखकर अगले फैसले लेने होंगे। यह निष्पक्षता से विचार करना होगा की क्या शिमला राजधानी के तौर पर भविष्य की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को पूरा कर पायेगा। जो लोग कल तक किन्हीं कारणों से एनजीटी के फैसले का विरोध कर रहे थे उन्हें अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर खुले मन से इस विनाश के परिपेक्ष में फैसला लेना होगा। यह फैसला आज की राजनीतिक और प्रशासनिक पीढ़ियां की परीक्षा भी साबित होगी।
1971 में किन्नौर में आये भूकंप का असर शिमला के रिज और लक्कड़ बाजार क्षेत्र में आज भी देखा जा सकता है। आज तक रिज अपने पुराने मूल रूप में नहीं आ सका है। हर वर्ष रिज के जख्म हरे हो जाते हैं। इसी विनाश के कारण 1979 में यह माना गया कि प्रदेश के सुनियोजित विकास के लिए नगर एवं ग्रामीण नियोजन विभाग चाहिए और परिणामतयः टीसीपी विभाग का गठन हुआ। प्रदेश के नगरीय और ग्रामीण विकास के लिये एक स्थाई विकास योजना तैयार करने की जिम्मेदारी इस विभाग की थी। लेकिन राजनीति के चलते यह विभाग ग्रामीण क्षेत्र तो दूर शहरों के लिये भी कोई स्थाई योजना नहीं बना पाया है। राजधानी नगर शिमला के लिये ऐसी स्थाई योजना की एकदम आवश्यकता थी लेकिन 1979 में जो अंतरिम योजना जारी हुई उसमें भी एन.जी.टी. का फैसला आने तक 9 बार रिटैन्शन पॉलिसीयां जारी हुई और हर पॉलिसी में अवैधता का अनुमोदन किया। यहां तक की एन.जी.टी. का फैसला आने के बाद भी हजारों अवैध निर्माण खड़े हो गये। सरकार स्वयं फैसले के उल्लंघनकर्ताओं में शामिल है। शायद सरकार के किसी भी निर्माण का नक्शा कहीं से भी पारित नहीं है। जबकि टी.सी.पी. नियमों के अनुसार हर सरकारी भवन का नक्शा पास होना आवश्यक है।
राजधानी नगर शिमला के कई हिस्से स्लाइडिंग और सिंकिंग जोन घोषित हैं। इनमें कायदे से कोई निर्माण नहीं होना चाहिए था। लेकिन यहां निर्माण हुए हैं। पहाड़ में 35 डिग्री से ज्यादा के ढलान पर निर्माण नहीं होना चाहिए। लेकिन सरकारी निर्माण भी हुये हैं। जब सरकारी भवन ही कई-कई मंजिलों के बन गये तो प्राइवेट सैक्टर को कैसे रोका जा सकता था। ऐसे बहुमंजिला भवनों की एक लंबी सूची विधानसभा के पटल पर भी आ चुकी है लेकिन वह रिकार्ड का हिस्सा बनकर ही रह गई है। आज शिमला में जो तबाही हुई है उसका एक मात्र कारण निर्माण की अवैधताएं हैं जिन्हें रोक पाना शायद किसी भी सरकार के बस में नहीं रह गया है। सुक्खू सरकार ने भी इसी दबाव में आकर ऐटिक और बेसमैन्ट का फैसला लिया है। जब सरकार के अपने भवन ही असुरक्षित होने लग जायें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि शिमला कितना सुरक्षित रह गया है। इस विनाश के बाद शिमला की सुरक्षा को लेकर हर मंच पर सवाल उठ रहे हैं। पिछले चार दशको में हुए शिमला के विकास ने आज जहां लाकर खड़ा कर दिया है उसके बाद यह सामान्य सवाल उठने लग गया है कि भविष्य को सामने रखते अब राजधानी को शिमला से किसी दूसरे स्थान पर ले जाने पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है। एन.जी.टी. ने कुछ कार्यालय शिमला से बाहर ले जाने के निर्देश दिए हुए हैं। लेकिन अब कार्यालयों की जगह राजधानी को ही शिफ्ट करने पर विचार किया जाना चाहिए।
भारतीय दण्ड संहिता निर्माताओं ने हर अपराध की गंभीरता को आंकते हुए उसमें अधिकतम दण्ड का प्रावधान किया हुआ है जो आजीवन कारावास और मृत्यु दण्ड तक का है। मानहानि के मामले में अधिकतम सजा दो वर्ष की है। किसी भी अपराध में जब कोई न्यायधीश अधिकतम सजा सुनाता है तब उसमें वह यह कारण भी दर्ज करता है कि अधिकतम सजा क्यों दी जा रही है। लेकिन सर्वाेच्च न्यायालय ने यह साफ कहा है कि ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में अधिकतम सजा के आधारों की व्याख्या ही नहीं की है। जब राहुल सत्र न्यायालय और फिर गुजरात उच्च न्यायालय में अपील में गये तो वहां भी मान्य अदालतों ने इस पक्ष का संज्ञान ही नहीं लिया। यदि राहुल गांधी को इस मामले में दो वर्ष से एक दिन की भी सजा कम होती तो उनकी संसद सदस्यता न जाती। इसलिए आम आदमी में यह धारणा बनती जा रही है कि राहुल को संसद से बाहर रखने के लिये यह मामला बनाया गया था। इस सजा के बाद ही गुजरात में मोदी समाज का अधिवेशन हुआ और गृह मन्त्री अमित शाह उसमें शामिल हुए। इस सम्मेलन में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को समाज का रत्न कहा गया। राहुल के खिलाफ मानहानि का मामला करने वाले पूर्णेश मोदी को महिमामण्डित किया। इस मामले में जो कुछ घटा है उससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि आज प्रधानमन्त्री से लेकर पूरी भाजपा तक राहुल से डरी हुई है।
2014 में जब से मोदी ने सत्ता संभाली है तब से लेकर आज तक राहुल और नेहरू-गांधी परिवार को घेरने के लिये जो कुछ भी इस सरकार ने किया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी स्वतः ही राहुल से हल्के पड़ते जा रहे हैं। एक नेता को संसद से बाहर रखने के लिये इस सीमा तक जाना कई सन्देशो और आशंकाओं की आहट मानी जा रही है। 2024 के चुनावों को टालने से लेकर कुछ भी घट सकता है। क्योंकि इस समय जो बहुमत संसद में भाजपा को हासिल है उसके सहारे हिंदुत्व को लाने के लिये सरकार किसी भी हद तक जा सकती है। संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत के नाम से जो भारत का नया संविधान कुछ अरसे से वायरल होकर बाहर आया है उस पर संघ से लेकर भारत सरकार तक सबकी चुप्पी अपने में बहुत कुछ कह जाती है। हिंदुत्व को संवैधानिक तौर पर लागू करने के जो निर्देश एक समय मेघालय उच्च न्यायालय के फैसले के माध्यम से भारत सरकार तक 2019 में आ चुका है उस पर भी अभी तक की खमोसी अर्थ पूर्ण लगती है।