Wednesday, 17 December 2025
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मंदिरों में वीआईपी प्रयोग

पिछले दिनों मां चिंतपूर्णी के दरबार में 1100 रूपए की पर्ची कटवाकर श्रद्धालुओं को वी आई पी दर्शन करवाने की सुविधा प्रदान की गई है। बुजुर्गों और अपंगों के लिए 50 रूपये की पर्ची से यह सुविधा मिलेगी । हर वर्ग के लिए अलग-अलग शुल्क के साथ पर्ची काटी जाएगी। इस फरमान का विपक्षी दल भाजपा ने कड़ा विरोध किया है। महावीर दल ने इस आशय का एक ज्ञापन प्रदेश भाजपा प्रभारी अविनाश राय खन्ना के माध्यम से प्रदेश के राज्यपाल को भी सौंपा है। पूर्व मंत्री विक्रम ठाकुर ने भी इस फरमान को वापस लेने की मांग की है । लेकिन इस पर कांग्रेस की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री जिनके पास यह विभाग है उनकी भी कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। इससे यही प्रमाणित होता है कि सरकार ने राजस्व बढ़ाने की नीयत से यह प्रयोग शुरू किया है। यह प्रयोग मां चिंतपूर्णी से शुरू होकर सरकार द्वारा अधिग्रहण किये जा चुके अन्य मंदिरों तक भी जाएगा क्योंकि सरकार का नियम सभी जगह एक सम्मान लागू होता है।
हिमाचल में मंदिरों का अधिग्रहण 1984 में विधानसभा में इस आशय का एक विधेयक लाकर किया गया था। उस समय सदन में इसका विरोध केवल जनता पार्टी के विधायक राम रतन शर्मा ने किया था। क्योंकि वह स्वयं दियोथ सिद्ध मंदिर के पुजारियों में से एक थे । उसे समय यह आक्षेप लग रहे थे की इन मंदिरों में जितनी आय हो रही है उसके अनुरूप यहां आने वाले श्रद्धालुओं के लिए आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो रही है। मंदिरों के पैसों का दुरुपयोग हो रहा है। इन आक्षेपों से सभी ने सहमति जताई और यह विधेयक पारित हो गया। उसे समय केवल 11 मंदिरों का अधिग्रहण हुआ था और इन मंदिरों से 8 से 10 करोड़ की आय अनुमानित की गई थी। लेकिन विधेयक का आगे आने वाले समय में विस्तार किए जाने का प्रावधान भी रखा गया था और इस विस्तार का प्रस्ताव जनता पार्टी की विधायक स्व. श्यामा शर्मा की ओर से आया था । यह कहा गया था कि मंदिरों की आय का उपयोग शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में किया जाएगा।
इसी विस्तार का परिणाम है कि आज प्रदेश के 35 मंदिरों का प्रबंधन सरकार के पास है और 2018 में विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री के एक प्रश्न के उत्तर में आयी जानकारी के अनुसार इन मंदिरों में क्विंटलों के हिसाब से सोना और चांदी जमा है। कैश और एफडी के नाम पर सैकड़ों करोड़ जमा है । प्रदेश उच्च न्यायालय में आयी एक याचिका के जवाब में इन मंदिरों के पास 2018 में 361.43 करोड़ रूपया होने की जानकारी दी गई है। किन्नौर को छोड़कर प्रदेश के शेष सभी जिलों में यह मंदिर स्थित हैं। इनके प्रबंधन के लिए जिलाधीशों के तहत ट्रस्ट गठित है । सभी मंदिरों में मंदिर अधिकारी तैनात हैं। सभी कर्मचारी सरकारी अधिकारी हैं । अधिनियम के अनुसार ट्रस्ट का मुखिया हिंदू ही होगा। यदि किसी जिले में गैर हिंदू को जिलाधीश लगा दिया जाता है तो उसे मंदिर के ट्रस्ट की जिम्मेदारी नहीं दी जाती है।
इस परिदृश्य में आज की स्थितियों पर विचार किया जाये तो यह सवाल उठता है कि इन मंदिरों के पास जितनी संपत्ति है क्या उसके अनुरूप वहां आने वालों के लिए मंदिर प्रबंधनों द्वारा सुविधा उपलब्ध करवाई गई है । क्या प्रबंधनों ने अपने स्तर पर आवासीय सुविधा सुरजीत की हुई हैॽ कितने मंदिर अपने यहां संस्कृत के अतिरिक्त अन्य विषयों का शिक्षण प्रदान कर रहे हैं। इस मंदिर पर्यटन के नाम पर एक बड़ा व्यवसाय इन परिसरों के गिर्द खड़ा होता जा रहा है। क्या मंदिरों को पर्यटक स्थलों के रूप में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं के बिना विकसित करना श्रेयस्कर होगाॽ क्या मंदिरों और पर्यटक की संस्कृति एक सम्मान हो सकती हैॽ मंदिर श्रद्धा और आस्था का केंद्र है। यह धारणा है कि भगवान के पास सब एक बराबर होते हैं । वहां कोई बड़ा या छोटा नहीं होता। ऊंची और नीचे जाति कोई नहीं होती। वहां पर कोई अधिकारी या सेवक का वर्गीकरण नहीं होता। सबको एक ही लाइन में लगकर दर्शन और पूजा अर्चना करनी होती है। मंदिरों में जब पैसे खर्च करके वीआईपी की सुविधा उपलब्ध करवाने की बात आएगी तो क्या उससे आम आदमी की आस्था प्रभावित नहीं होगीॽ निश्चित रूप से होगी और तब आम आदमी का विश्वास ऐसी व्यवस्था बनाने वालों के प्रति कितना सम्मानजनक रह जाएगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। आस्था को पैसों के तराजू पर तोलना घातक होगा।

यह राहुल की जीत है या मोदी भाजपा की हार

सर्वाेच्च न्यायालय ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को गुजरात के सी.जे.एम. की अदालत से मानहानि के मामले में मिली दो वर्ष की सजा को अन्तिम फैसला आने तक स्थगित कर दिया है। राहुल को यह राहत सैशन कोर्ट और गुजरात उच्च न्यायालय से भी नहीं मिली थी। दो साल की सजा मिलने से उनकी सांसदी और इस नाते मिला हुआ सरकारी आवास भी छिन गया था। यह सजा मिलने के बाद इस फैसले की अपील सत्र न्यायालय में की गयी जो अब तक लंबित है। इसी के साथ इसमें मिली सजा को स्थगित रखने की याचिका भी दायर की गयी थी। जिसको सत्र न्यायालय और गुजरात उच्च न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया और अब सर्वाेच्च न्यायालय से यह राहत मिली है। यह राहत मिलने से राहुल की संसद सदस्यता और आवास दोनों बहाल हो जायेंगे। राहुल के खिलाफ सदस्यता और आवास छीनने की कारवाई को 24 घंटे के भीतर अन्जाम दे दिया गया था लेकिन अब बहाली में वही तेजी नहीं दिखाई जा रही है। जब सजा का फैसला आया था तब जिस तरह की प्रतिक्रियाएं भाजपा नेताओं की आयी थी और वह बहाली में लगाई जा रही देरी से यह सन्देश जाने लगा है कि सर्वाेच्च न्यायालय का फैसला राहुल की जीत से ज्यादा यह मोदी भाजपा की हार तो नहीं बन गया है।
भारतीय दण्ड संहिता निर्माताओं ने हर अपराध की गंभीरता को आंकते हुए उसमें अधिकतम दण्ड का प्रावधान किया हुआ है जो आजीवन कारावास और मृत्यु दण्ड तक का है। मानहानि के मामले में अधिकतम सजा दो वर्ष की है। किसी भी अपराध में जब कोई न्यायधीश अधिकतम सजा सुनाता है तब उसमें वह यह कारण भी दर्ज करता है कि अधिकतम सजा क्यों दी जा रही है। लेकिन सर्वाेच्च न्यायालय ने यह साफ कहा है कि ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में अधिकतम सजा के आधारों की व्याख्या ही नहीं की है। जब राहुल सत्र न्यायालय और फिर गुजरात उच्च न्यायालय में अपील में गये तो वहां भी मान्य अदालतों ने इस पक्ष का संज्ञान ही नहीं लिया। यदि राहुल गांधी को इस मामले में दो वर्ष से एक दिन की भी सजा कम होती तो उनकी संसद सदस्यता न जाती। इसलिए आम आदमी में यह धारणा बनती जा रही है कि राहुल को संसद से बाहर रखने के लिये यह मामला बनाया गया था। इस सजा के बाद ही गुजरात में मोदी समाज का अधिवेशन हुआ और गृह मन्त्री अमित शाह उसमें शामिल हुए। इस सम्मेलन में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को समाज का रत्न कहा गया। राहुल के खिलाफ मानहानि का मामला करने वाले पूर्णेश मोदी को महिमामण्डित किया। इस मामले में जो कुछ घटा है उससे यह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि आज प्रधानमन्त्री से लेकर पूरी भाजपा तक राहुल से डरी हुई है।
2014 में जब से मोदी ने सत्ता संभाली है तब से लेकर आज तक राहुल और नेहरू-गांधी परिवार को घेरने के लिये जो कुछ भी इस सरकार ने किया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी स्वतः ही राहुल से हल्के पड़ते जा रहे हैं। एक नेता को संसद से बाहर रखने के लिये इस सीमा तक जाना कई सन्देशो और आशंकाओं की आहट मानी जा रही है। 2024 के चुनावों को टालने से लेकर कुछ भी घट सकता है। क्योंकि इस समय जो बहुमत संसद में भाजपा को हासिल है उसके सहारे हिंदुत्व को लाने के लिये सरकार किसी भी हद तक जा सकती है। संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत के नाम से जो भारत का नया संविधान कुछ अरसे से वायरल होकर बाहर आया है उस पर संघ से लेकर भारत सरकार तक सबकी चुप्पी अपने में बहुत कुछ कह जाती है। हिंदुत्व को संवैधानिक तौर पर लागू करने के जो निर्देश एक समय मेघालय उच्च न्यायालय के फैसले के माध्यम से भारत सरकार तक 2019 में आ चुका है उस पर भी अभी तक की खमोसी अर्थ पूर्ण लगती है।

मणिपुर क्यों जल रहा है

मणिपुर लम्बे अरसे से जल रहा है। वहां की हिंसा बर्बरता की सारी सीमाएं लांघ गयी है। देश के गृहमंत्री वहां का दौरा कर चुके हैं। लेकिन उनके सारे प्रयास हिंसा को रोक नहीं पाये हैं। जबकि चालीस हजार सैनिक, अर्ध सैनिक और पुलिस बल वहां पर तैनात हैं। प्रधानमंत्री मणिपुर की हिंसा पर मौन रहे हैं। अब जब संसद सत्र शुरू होने पर मणिपुर हिंसा का एक वीडियो वायरल होकर सामने आया जिसमें महिलाओं को निर्वस्त्र करके नंगा घुमाया गया और बलात्कार किया गया तब प्रधानमंत्री की पहली प्रतिक्रिया आयी है। प्रधानमंत्री ने इस घटना को देश को शर्मसार करने वाली घटना करार देकर दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिये जाने की बात की है। मणिपुर को लेकर संसद हर रोज स्थगित हो रही है। विपक्ष इस पर बहस की मांग कर रहा है तो सत्तापक्ष इसके साथ बंगाल और राजस्थान की घटनाओं को उठा रहा है। ऐसी हिंसा और महिलाओं के साथ ऐसी बर्बरता कहीं भी हो वह निन्दनीय है। जो भी सरकार ऐसे अपराधों पर कारवाई करनें में चूक करे उसे सत्ता में रहने का अधिकार नहीं है। मणिपुर का यह अपराध मई माह में हुआ है। पुलिस की मौजूदगी में हुआ है। लेकिन इसका वीडियो अब संसद सत्र के शुरू होने पर वायरस होकर बाहर आया है।
मणिपुर में हिंसा रूक नहीं रही है या रोकी नहीं जा रही है। इस सवाल की पड़ताल करने के लिये मणिपुर की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति को समझना आवश्यक हो जाता है। यहां पर मैंतेई, कुकी और नगा मिलिशिया तीन समुदाय रहते है। मैतेई समुदाय की संख्या 53% और कुकी समुदाय 43% और शेष अन्य है। मणिपुर की 60 सदस्यों की विधानसभा में से 40 सीटों पर मैतेई समुदाय का कब्जा है। मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह भी मैतेई है। अधिकांश में यह लोग हिन्दू हैं और मणिपुर के मैदानी इलाकों में रहते हैं। जबकि कुकी पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं। कुकी समुदाय को एस.टी. का दर्जा हासिल है। संविधान की धारा 371 (C) के अनुसार पहाड़ी क्षेत्रों के विकास के लिये विधानसभा में इनके सदस्यों की एक कमेटी गठित की जाती है जो यहां के विकास को देखती है और सीधे राज्यपाल के नियंत्रण में होती है। पहाड़ी क्षेत्रों के विकास के लिये धन का प्रावधान भी अलग से रहता है। इसकी रिपोर्ट सीधे राष्ट्रपति को जाती है। संविधान के अनुसार Manipur, which has become a State under North-Eastern Areas (reorganisation) Act, 1971, shall have a committee in its Legislative Assembly, to look after the interests of the Hill Areas in the State. अब मैतेई समुदाय के लोग भी कुकीयों की तर्ज पर अपने लिये एस.टी. का दर्जा दिये जाने की मांग कर रहे हैं। यह मांग ही दोनों समुदाय में झगड़े का कारण बनी हुई है।

कुकी अधिकांश में ईसाई और मैतेई हिन्दू हैं और बहुमत में हैं। मैतेई इम्फाल घाटी के मैदानी क्षेत्र में रहते हैं। कुकी समुदाय को लगता है कि यदि मैतेई समुदाय को भी एस.टी. का दर्जा दे दिया जाता है तो उनका हर चीज में दखल बढ़ जायेगा। मई में हिंसा फैलने से पहले एक अफवाह फैली कि कुकी मिलिशिया मैन द्वारा एक महिला के साथ दुष्कर्म किया गया है। इस फर्जी रिपोर्ट के बाद भड़की हिंसा अब तक रुकने का नाम नहीं ले रही है। मणिपुर में भाजपा की सरकार है लेकिन यह सरकार हिंसा रोकने में असफल रह रही हैं। केन्द्र सरकार वहां पर राष्ट्रपति शासन लगाने से हिचकचा रही है। यह माना जा रहा है कि राष्ट्रपति शासन लगाकर ही हालात पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। मैतेई समुदाय की मांग संविधान के अनुसार यदि मानी जा सकती है तो प्रदेश और केन्द्र में दोनों जगह भाजपा की सरकारें होने से इसे क्यों नहीं माना जा रहा है? यदि यह मांग संविधान सम्मत नहीं है तो प्रदेश सरकार अपने लोगों को समझा क्यों नहीं पा रही हैं। आज यह मुद्दा अंतरराष्ट्रीय आकार लेने लगा है। अमेरिका की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया आ चुकी है। ऐसे में यदि राष्ट्रपति शासन लगा कर हिंसा को रोका जा सकता है तो तुरन्त प्रभाव से ऐसा कर दिया जाना चाहिये।  मणिपुर की जिम्मेदारी से बंगाल और राजस्थान का नाम लेकर नहीं बचा जा सकता।

क्या विकास की कीमत है यह विनाश

हिमाचल में इस बार भारी बारिश के कारण जो बाढ़ और भूस्खलन देखने को मिला है उससे यह सवाल भी खड़ा हो गया है कि यह सब विकास की कीमत की किस्त तो नहीं है। क्योंकि प्रदेश में बारिश के कारण इतनी मौतें पहली बार देखने को मिली है। जो माली नुकसान हुआ है उसका सरकारी आकलन आठ हजार करोड़ है। संभव है यह आंकड़ा और बढ़ेगा। जितनी सड़कें पेयजल योजनाएं और पुल टूटे हैं उन्हें फिर से बनाने में लम्बा समय लगेगा। क्योंकि सरकार पहले ही वित्तीय संकट से गुजर रही है मुख्यमंत्री और उसके सहयोगी मंत्री आपदा स्थलों का दौरा कर आये हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रदेश के केंद्रीय मंत्री और नेता प्रतिपक्ष भी इन क्षेत्रों का दौरा कर आये हैं। प्रदेश के मंत्री ने इस विनाश के लिये अवैध खनन को दोषी ठहराया है तो दूसरे मंत्री ने इस ब्यान को ही बचकाना करार दिया है। इन ब्यानों और दौरों से हटकर कुछ तथ्यों पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि थुगान के बाजार में आये पानी में जिस तरह से लकड़ी बड़ी मात्रा में आयी है उस पर नेता प्रतिपक्ष चुप रहे हैं जबकि यह उनका चुनाव क्षेत्र है।
अभी शिमला के कच्चे घाटी क्षेत्र में नगर निगम ने एक पांच मंजिला भवन को गिराने के आदेश पारित किये हैं। क्योंकि यह निर्माण अवैध था। शिमला में कई हजार अवैध निर्माण उच्च न्यायालय तक के संज्ञान में लाये जा चुके हैं। जोकि एनजीटी के आदेशों के बाद बने हैं। स्मरणीय है कि हिमाचल में ग्रामीण एवं नगर नियोजन विभाग 1978 में बना था 1979 में एक अंतरिम प्लान भी जारी हुआ था। जो अब तक फाइनल नहीं हो पाया है। लेकिन अब तक नौ बार रिटेंशन पॉलिसीयां जारी हो चुकी हैं और हर बार अवैध निर्माणों को नियमित किया गया है। हिमाचल उच्च न्यायालय एन.जी.टी. और सर्वोच्च न्यायालय तक अवैधताओं पर सरकारों को फटकार लगाते हुये दोषियों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने के निर्देश दे चुके हैं। अदालत ने दोषियों को नामतः चिन्हित भी कर रखा है। लेकिन इसके बावजूद किसी के खिलाफ कोई कारवाई नहीं हुई है। हर सरकार ने अवैधताआें को बढ़ावा देने का काम किया है। अभी सरकार के एस.डी.पी. को सर्वोच्च न्यायालय ने अगले आदेशों तक रोक रखा है। यह प्लान अभी तक फाइनल नही है। लेकिन वर्तमान सरकार ने भी अदालत के आदेशों को अंगूठा दिखाते हुये एटिक को रिहाईशी बनाने और बेसमैन्ट को खोलने के आदेश कर रखे हैं। जबकि यह एन.जी.टी. के आदेशों की अवहेलना है।
इस बारिश में जहां-जहां ज्यादा नुकसान हुआ है वह ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें अदालत अवैध निर्माणों का संज्ञान लेकर निर्माणों पर रोक लगाने के आदेश पारित कर चुके हैं। कसौली का गोलीकांड इसका गवाह है। कुल्लू-मनाली के कसोल में तो एक पूर्व मंत्री के होटल में अवैध निर्माण का आरोप लग चुका है और मंत्री सर्वोच्च न्यायालय में अवैध निर्माण को स्वयं गिराने का शपथ पत्र दे चुका है। लेकिन इस शपथ पत्र पर कितना अमल हुआ इसकी कोई रिपोर्ट नहीं है। धर्मशाला में बस अड्डे का अवैध निर्माण भी सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद टूटा है। जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण को लेकर चम्बा से किन्नौर तक कई जगह स्थानीय लोग विरोध जता चुके हैं। चम्बा में रावि पर बनी हैडरेल परियोजना में 65 किलोमीटर तक रावि अपना मूल स्वरूप हो चुकी है। यह जो फोरलेनिंग सड़क परियोजनाएं प्रदेश में चल रही हैं इसका लाभ किस पीढ़ी को मिलेगा यह तो कोई नहीं जानता। लेकिन जितना नुकसान इनसे संसाधनों का हो रहा है उसकी भरपायी कई पीढ़ियों को करनी पड़ेगी यह तय है। कालका-शिमला जब से बन रहा है तब से हर सीजन में इसका नुकसान हो रहा है। अब किरतपुर-मनाली फोरलेन भी उसी नुकसान की चपेट में आ गया है।
इस परिदृश्य में यह सोचना आवश्यक है कि क्या पहाड़ी क्षेत्रों में भी मैदानों की तर्ज पर सड़क निर्माण किया जा सकता है। यह चेतावनी आ चुकी है कि ग्लेशियर पिघल रहे हैं। एक समय इन जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पानी नहीं मिल पायेगा। हिमाचल को पर्यटन की दृष्टि से विकसित करने के लिये भी यह सोचना पड़ेगा कि जल ताण्डव की जो पहली किश्त आयी है इस की दृष्टि में पर्यटन कितना सुरक्षित व्यवसाय रह पायेगा। प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्र भी बाढ़ की चपेट में आ गये हैं। ऊना के स्वां में अवैध खनन का संज्ञान तो सर्वोच्च न्यायालय तक ले चुका है। इसके ऊपर जांच भी आदेशित है। इसलिये आज भी समय है कि ठेकेदारी की मानसिकता से बाहर निकल कर वस्तुस्थिति का व्यवहारिक संज्ञान लेकर भविष्य को बचाने का प्रयास किया जाये।

 

राहुल को राहत नहीं क्योंकि 10 मामले लंबित हैं

राहुल गांधी को मानहानि मामले में राहत नहीं मिली है। उच्च न्यायालय ने कहा है कि सजा को स्थगित न करने से प्रार्थी के साथ कोई अन्याय नहीं होगा। सजा स्थगित करने के कोई पर्याप्त आधार नहीं है। अदालत ने यह भी कहा है कि राहुल गांधी के खिलाफ ऐसे ही दस मामले लंबित हैं। एक शिकायत कैंब्रिज में वीर सावरकर के पोते ने राहुल गांधी के खिलाफ दायर कर रखी है। किसी मामले में प्रार्थी को राहत देना या न देना यह मान्य न्यायधीश का एकाधिकार है। ऐसा करने के लिये संदर्भित मामले के क्या गुण दोष मान्य न्यायधीश के विवेकानुसार उसके सामने हैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं की जा सकती है। लेकिन जब न्यायधीश यह तर्क दे कि प्रार्थी के खिलाफ ऐसे दस मामले लंबित हैं और एक मामला तो वीर सावरकर के पोते ने कैंब्रिज में दायर कर रखा है इसलिये यह राहत का हकदार नहीं है तो पूरा परिदृश्य ही बदल जाता है। क्योंकि लंबित मामलों से संदभित मामला कैसे प्रभावित होता है इस पर कुछ नहीं कहा गया है। क्या मान्य न्यायधीश यह मानकर चलें हैं कि लंबित मामलों में भी राहुल गांधी को सजा ही होगी। इसलिये अभी उसे राहत क्यों दी जाये। शायद न्यायिक इतिहास में यह पहला मामला होगा जिसमें प्रार्थी को इसलिये राहत नहीं मिली क्योंकि उसके खिलाफ ऐसे ही दस मामले लंबित हैं।

(Gandhi) is seeking a stay on conviction on absolutely non-existent grounds. Stay on conviction is not a rule. As many as 10 cases are pending against (Gandhi). It is needed to have purity in politics... A complaint has been filed against (Gandhi) by the grandson of Veer Savarkar at Cambridge... Refusal to stay conviction would not result in injustice to the applicant. There are no reasonable grounds to stay conviction. The conviction is just proper and legal.

गुजरात हाईकोर्ट के इस फैसले को गांधी सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देते हैं या जेल जाना चाहते हैं यह अगले कुछ दिनों में स्पष्ट हो जायेगा। लेकिन इस फैसले पर हर आदमी अपने-अपने तौर पर विचार करेगा कि क्या न्याय में ऐसा भी होता है। न चाहते हुये भी यह माना जायेगा कि जज पर राजनीतिक दबाव रहा है। यह कहना कि वीर सावरकर के पोते ने भी आपके खिलाफ मामला दायर कर रखा है अपने में एक लम्बी बहस का विषय बन जाता है। सर्वोच्च न्यायालय इन टिप्पणियों का क्या संज्ञान लेता है यह देखना रोचक होगा। क्योंकि वीर सावरकर के साथ वैचारिक मतभेद होने का यह अर्थ नहीं हो सकता कि उसके परिजन द्वारा आप के खिलाफ मामला दायर किया जाने से आप न्यायिक राहत के पात्र ही नहीं रह जाते हैं इस फैसले के राजनीतिक परिणाम बहुत गंभीर होंगे यह तय है।
क्या महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के साथ वैचारिक मतभेद होने पर उनके खिलाफ टिप्पणी नहीं की जा सकती। ऐसी टिप्पणियां करने वाले के खिलाफ यदि इनका कोई परिजन कोई मामला दायर कर देता है तो क्या ऐसा मामला दायर होने के बाद टिप्पणी करने वाले को अन्य मामलों में भी राहत नहीं मिल सकती। क्या उच्च न्यायालय के इस फैसले से कई सवाल नहीं उठ खड़े होंगे। आज तक प्रधानमंत्री और दूसरे भाजपा नेताओं ने नेहरू, गांधी परिवार के खिलाफ जितनी भी ब्यानबाजी कर रखी है अब वह सारी ब्यानबाजी नये सिरे से चर्चा में आयेगी यह तय है। पूरी न्यायिक व्यवस्था पर एक नई बहस को जन्म देगा यह फैसला। मानहानि बाहर के देशों में एक सिविल अपराध है क्रिमिनल नहीं। क्योंकि सार्वजनिक जीवन में आपका हर व्यवहार वैयक्तिक होने से पहले सार्वजनिक होता है इसलिये सार्वजनिक मंचों से एक दूसरे के खिलाफ आक्षेप लगाये जाते हैं। इसलिये इस फैसले के बाद इस पर भी बहस हो जानी चाहिए कि मानहानि क्रिमिनल मामला होना चाहिये या नहीं। मानहानि को क्रिमिनल अपराध के दायरे में लाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी अंकुश लग जाता है। राहुल गांधी के खिलाफ आये इस फैसले से जो राजनीतिक बहस आगे बढ़ेगी उससे भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी को राजनीतिक नुकसान होना तय है। क्योंकि गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले को हर आदमी राजनीतिक से प्रेरित मानेगा।

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