कर्नाटक में कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की है। देश इस समय जिस तरह की राजनीतिक परिस्थितियों से गुजर रहा है उनमें इस जीत का अर्थ और महत्व दोनों बड़े हो जाते हैं। क्योंकि इस समय लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं का अस्तित्व खतरे में है यह पूरा विपक्ष अपने-अपने तौर पर कह चुका है। केंद्र सरकार किस तरह जांच एजैन्सीयों का दुरुपयोग कर रही है इसका खुलासा चौदह दलों द्वारा इस आश्य की एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में ले जाने से हो जाता है। भले ही इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने नकार दिया लेकिन जब शीर्ष अदालत ने सीबीआई निदेशक को सरकार द्वारा तीसरी बार सेवा विस्तार देने पर सवाल उठाये तो स्वतः ही इन चौदह दलों की आपत्ति को स्वीकार्यतः मिल गयी। फिर इसी दौरान अदानी प्रकरण पर संसद में उठा गतिरोध और सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस संद्धर्भ में जांच बैठाना तथा सैबी को जांच के लिये अतिरिक्त छः माह का समय देने के आग्रह को अस्वीकार करना राहुल गांधी के मानहानि मामले में हुयी कारवाई पर उठते सवाल इसी के साथ हिन्डन वर्ग रिपोर्ट पर शरद पवार का ब्यान और अदानी का शरद पवार से मिलना तथा गुलाम नबी आजाद का राहुल के खिलाफ मुखर होना यह सब कर्नाटक चुनाव से पूर्व घटना इस चुनाव को एक अलग ही जमीन पर लाकर खड़ा कर देता है।
इस परिदृश्य में हुये कर्नाटक चुनावों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा तथा संघ परिवार के लिये इन चुनावों का अर्थ क्या था। यह चुनाव एक तरह से राहुल बनाम मोदी बन गये थे। क्योंकि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद यह दूसरा चुनाव था। कर्नाटक से पहले हुये हिमाचल के चुनाव में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह और राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा प्रचार में आये थे और असफल रहे। हिमाचल से मिली हार कर्नाटक में भी जारी रही। बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि यह हार प्रधानमंत्री मोदी और संघ भाजपा के उस एजैण्डे की है जिसमें कांग्रेस मुक्त भारत का लक्ष्य रखा गया था। कर्नाटक की हार ने भाजपा के हिन्दू एजैण्डा की भी हवा निकाल दी है। हनुमान चालीसा का पाठ चुनाव प्रचार में इस एजैण्डे की पराकाष्ठा था। इस हार ने 2014 से 2023 तक भाजपा के हर फैसले और घोषणा को आकलन के लिये एक जन चर्चा का विषय बना दिया है। जिसके व्यवहारिक परिणाम अब हर दिन देखने को मिलेंगे। क्योंकि इससे महंगाई और बेरोजगारी पर कोई नियंत्रण नहीं हो पाया है।
इसी परिदृश्य में इस जीत ने कांग्रेस की जिम्मेदारियां भी बढ़ा दी हैं। क्योंकि लोकसभा चुनावों तक हिमाचल और कर्नाटक सरकारों की परफॉरमैन्स कांग्रेस के आकलन का आधार बन जायेगी। हिमाचल में कांग्रेस की सरकार बने पांच महीने से ज्यादा का समय हो गया है। सरकार बदलने का व्यवहारिक संदेश अभी तक जनता में नहीं जा पाया है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यदि आज हिमाचल में भी किसी भी कारण से पुनः चुनावों की स्थिति पैदा हो जाये तो कांग्रेस के लिये स्थितियां कोई ज्यादा सुखद नहीं होंगी। जो चल रहा है यदि उसमें सुधार न हुआ तो चारों सीटों में जीत मिलना आसान नहीं होगा। यह कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व की जिम्मेदारी होगी कि वह सरकार पर सरकारी रिपोर्टों से हटकर भी नजर रखने का प्रयास करे। कर्नाटक की हार के बाद भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व ऑपरेशन कमल को बदले हुए कलेवर में अमली शक्ल देने का प्रयास करेगी यह तय है।
इस परिपेक्ष में प्रदेश की जनता को यह जानने का हक है की इतना बड़ा कर्जदार कैसे खड़ा हो गया है? यह कर्ज लेने की आवश्यकता कब और क्यों पड़ी? यह कर्ज कहां-कहां निवेश हुआ है और उससे कब-कब कितनी आय बढी? इस समय कैग रिपोर्टों के मुताबिक कर्ज का ब्याज चुकाने के लिये भी कर्ज लेना पड़ रहा है। राज्य की समेकित निधि से अधिक खर्च किया जा रहा है जो कि संविधान की अवहेलना है। और कई कई वर्षों तक ऐसा खर्च नियमित नहीं हो पाता है। हर वर्ष की रिपोर्ट में इसका जिक्र रहता है। बजट दस्तावेजों में किसी समय राज्य की आकस्मिक निधि का आंकड़ा दर्ज रहता था जो अब गायब है।
राज्य सरकार हर वर्ष बजट में राजस्व आय का आंकड़ा रखती है। राजस्व आय के साथ इतना बड़ा कर्जदार कैसे खड़ा हो गया आज जब वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र तैयार किया ही जा रहा है तो यह पूरी स्पष्टता के साथ की सरकार जनता को राहत देने के नाम पर कर्ज लेकर घी पीने को ही चरितार्थ तो नहीं करती रही है। क्योंकि बेरोजगारी में प्रदेश देश के पहले छः राज्यों में आ चुका है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों का आंकड़ा भी लगातार बढ़ता जा रहा है। यह सब तब हो रहा है जब कुछ उद्योगपतियों के सहारे जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा भी बढ़ता जा रहा है। यह सब आंकड़े योजनाओं के अन्त विरोध के परिचायक होते हैं। इनके सहारे कुछ लोगों को कुछ समय के लिये ही बहकाया जा सकता है लेकिन स्थाई तौर पर नहीं। इसलिये श्वेत पत्र के सारे पक्ष सामने आने चाहिये ताकि लोग उस पर विश्वास कर सकें।
अनुराग और आनंद शर्मा का प्रसंग उठना इसलिये प्रसांगिक है कि यह दोनों नेता हिमाचल से ताल्लुक रखते हैं। यदि प्रदेश में इन पर सवाल उठेंगे तो यह जवाब देने के लिये उपलब्ध होंगे। इस समय राहुल के खिलाफ हो रही कारवाई को भाजपा और उसके मित्र जायज ठहरा रहे हैं। ऐसे में यदि तथ्यों पर आधारित कांग्रेस शासित राज्यों में भी सवाल नहीं उठाये जाएंगे तो जनता राहुल के समर्थन में कैसे आगे आ पायेगी। जिन बुनियादी सवालों पर राहुल आम आदमी की लड़ाई लड़ रहे हैं यदि उन पर कांग्रेस शासित राज्यों में ही जन आन्दोलन न खड़ा हो पाये तो यह लड़ाई कैसे जीती जायेगी। आज यदि कांग्रेस नेतृत्व कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों की कार्यशैली पर ही नजर नहीं रख पायेगा तो 2024 की लड़ाई जितना कठिन हो जायेगा। जो आरोप भाजपा सरकारों पर लगते आये हैं यदि कांग्रेस की सरकारें भी उन्हीं आरोपों से घिर जायेगी तो जनता क्यों कांग्रेस पर विश्वास करेंगी।
अनुराग और आनंद शर्मा का प्रसंग उठना इसलिये प्रसांगिक है कि यह दोनों नेता हिमाचल से ताल्लुक रखते हैं। यदि प्रदेश में इन पर सवाल उठेंगे तो यह जवाब देने के लिये उपलब्ध होंगे। इस समय राहुल के खिलाफ हो रही कारवाई को भाजपा और उसके मित्र जायज ठहरा रहे हैं। ऐसे में यदि तथ्यों पर आधारित कांग्रेस शासित राज्यों में भी सवाल नहीं उठाये जाएंगे तो जनता राहुल के समर्थन में कैसे आगे आ पायेगी। जिन बुनियादी सवालों पर राहुल आम आदमी की लड़ाई लड़ रहे हैं यदि उन पर कांग्रेस शासित राज्यों में ही जन आन्दोलन न खड़ा हो पाये तो यह लड़ाई कैसे जीती जायेगी। आज यदि कांग्रेस नेतृत्व कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारों की कार्यशैली पर ही नजर नहीं रख पायेगा तो 2024 की लड़ाई जितना कठिन हो जायेगा। जो आरोप भाजपा सरकारों पर लगते आये हैं यदि कांग्रेस की सरकारें भी उन्हीं आरोपों से घिर जायेगी तो जनता क्यों कांग्रेस पर विश्वास करेंगी।
मलिक ने अपने साक्षात्कार ने यह भी कहा है कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इस चूक से अवगत करवाया था परन्तु उन्हें प्रधानमंत्री और सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने अपनी जुबान बन्द रखने के लिये कहा था। अब जब मलिक का यह साक्षात्कार सामने आया है तब इस पर पूर्व सैनिक अधिकारियों की प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। पूर्व सेना प्रमुख जनरल शंकर राय चौधरी ने इसकी जांच किये जाने की मांग की है। बहुत सारे पूर्व सैनिक अधिकारी इस पर प्रधानमंत्री से सवाल पूछ रहे हैं क्योंकि अपनी ही चूक से अपने ही जवानों की जान चली जाये तो निश्चित रूप से इसका सेना के मनोबल पर असर पड़ेगा। प्रधानमंत्री इस पर चुप हैं। गृहमन्त्री अमित शाह की यह प्रतिक्रिया आयी है की मलिक जब राज्यपाल थे तब क्यों चुप रहे। मलिक का ब्यान कोई राजनीतिक ब्यान नही है वह तब के राज्यपाल हैं। इस पर सीधा जवाब आना चाहिये कि यह सच या झूठ है। यह देश और सेना दोनों की सुरक्षा से जुड़ा मामला है और इस पर प्रधानमंत्री की चुप्पी कई और सवाल खड़े कर देती है।
मलिक के इस साक्षात्कार के बाद जिस तरह से सीबीआई ने एक इन्शयोरैन्स के मामले में उन्हें तलब किया है और उनके यहां एक गैर राजनीतिक आयोजन पर जिस तरह दिल्ली पुलिस ने कारवाई की है उससे न चाहते हुए भी यह सन्देश चला गया है कि सरकार उनसे डर रही है। क्योंकि मलिक किसान आन्दोलन के दौरान कितने मुखर थे यह पूरा देश जानता है। अभी उनके आवास पर पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की खाप पंचायतों के नेता और दूसरे किसान नेता आये थे उससे उनकी लोकप्रियता का अन्दाजा लगाया जा सकता है। मलिक के ब्यान का जवाब सीबीआई की सक्रियता नहीं हो सकती न ही इस पर ज्यादा देर तक चुप रहा जा पायेगा।