Tuesday, 16 December 2025
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क्या चुनावी बॉण्डज खुलासे को विपक्ष भूना पायेगा?

क्या चुनावी बॉण्ड में हुआ खुलासा चुनावी मुद्दा बन पायेगा? यह सवाल इसलिये प्रसांगिक और महत्वपूर्ण है कि इसमें हुए खुलासे के बाद नैतिकता के आधार पर स्वतःही बहुत कुछ घट जाना चाहिये था। क्योंकि इस माध्यम से चुनावी चन्दा देने वाली अधिकांश कम्पनियों के खिलाफ केन्द्रीय जांच एजेंसियों की कारवाई सवालों के घेरे में आ गयी है। दिल्ली सरकार के खिलाफ जिस कथित शराब घोटाले को लेकर हुई कारवाई में मनीष सिसोदिया, अरविन्द केजरीवाल गिरफ्तार हुये हैं उस शराब कम्पनी के ठेकेदार ने चुनावी बॉण्ड के माध्यम से केन्द्र में सतारूढ़ भाजपा को करीब साठ करोड़ चन्दा दिया है। जबकि इस काण्ड की जांच के दौरान आप नेताओं के यहां मनी लॉंडरिंग के कोई बड़े साक्ष्य सामने नहीं आये हैं। सर्वाेच्च न्यायालय तक यह प्रश्न कर चुका है की मनिट्रेल कहां है। अब जब इसी शराब कम्पनी के मालिक द्वारा भाजपा को चुनावी चन्दा देने का साक्ष्य बाहर आ गया है तो स्वतः ही सारा परिदृश्य बदल जाता है। इसी तरह कांग्रेस के बैंक खातों का सीज किया जाना और चुनावों के दौरान आयकर का नोटिस आना यह प्रमाणित करता है कि कांग्रेस को चुनावों के दौरान साधनहीन करने की एक सुनियोजित बड़ी योजना पर काम किया जा रहा है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ कारवाई होनी चाहिये। इसके गुनहगारों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। लेकिन जब ऐसी कारवाई चुनावों के दौरान होगी तो निश्चित रूप से सरकार और जांच एजेंसियों की नियत और नीति पर सवाल उठेंगे ही। आज केजरीवाल की गिरफ्तारी और कांग्रेस के खिलाफ हो रही आयकर की कारवाई पर जर्मनी अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र महासंघ के महासचिव की प्रतिक्राओं ने देश के नागरिकों के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय जगत भारत पर नजर रख रहा है। यदि चुनावी बॉण्ड का खुलासा सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से सामने न आता तो विदेशीयों की इन प्रतिक्रियाओं को देश के आंतरिक मामलों में दखल देना करार दिया जा सकता था। लेकिन चुनावी बॉण्ड के इस खुलासे ने देश की जनता के सामने एक बड़ा सवाल रख दिया है जिस पर जनता को अपनी प्रतिक्रिया एक दिन तो देश के सामने रखनी ही होगी। क्योंकि कम्पनियों के इसी चन्दे के खेल का सीधा असर आम जनता पर महंगाई और बेरोजगारी के रूप में पड़ रहा है। कम्पनियां इस चन्दे की वसूली अपने उत्पाद महंगे करके जनता से वसूलती है।
लेकिन यहीं पर यह सवाल भी सामने आता है की जनता कोई संगठित इकाई तो है नहीं और अकेले व्यक्ति की प्रतिक्रिया तो ‘‘नक्कार खाने में तूती की आवाज’’ बनकर रह जायेगी। ऐसे में यह जिम्मेदारी विपक्ष में बैठे राजनीतिक दलों को निभानी होगी। इसके लिये इन राजनीतिक दलों को अपनी-अपनी सरकारों की परफॉरमैन्स को कसौटी पर लाना होगा और संगठन के भीतर भी एक खुले संवाद की जमीन तैयार करनी होगी। क्योंकि किसी भी सरकारी संगठन की नीतियों की व्यवहारिक परीक्षा उसकी जनता में परफॉरमैन्स बनती है। इस समय विपक्ष के रूप में इण्डिया गठबन्धन सामने है और उसको कमजोर करने के लिये उसके नेताओं को गठबंधन से दूर रखने के लिये कैसी रणनीति सरकार ने अपनायी है वह सामने आ चुकी है। ऐसे में इस समय सबसे बड़ी जिम्मेदारी कांग्रेस पर आती है। लेकिन जिस तरह से उसके नेता भाजपा में शामिल हो रहे हैं उस पर भी केन्द्रीय नेतृत्व को ध्यान देना होगा। बड़ी निष्पक्षता से अपने राज्यों के नेतृत्व का तुरन्त प्रभाव से हल तलाशना होगा। केवल नेता के चश्मे से ही जनता और संगठन का आकलन करना घातक होगा। इस समय चुनावी चन्दा बाण्डज से जो खुलासा देश के सामने आ चुका है उससे बड़ा प्रमाणिक मुद्दा और कोई नहीं मिलेगा यह तय है।

देश में अमीर और गरीब का अन्तराल क्यों बढ़ रहा है

एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के मुताबिक़ भारत की कुल दौलत का चालीस प्रतिश्त केवल एक प्रतिशत लोगों के पास है। एक व्यक्ति के पास सौ में से चालीस हो जाये और शेष निनावे लोगों के एक रूपये से भी कम प्रति व्यक्ति संपत्ति हो तो उस देश में अमीर और गरीब के बीच में बढ़ते अन्तराल का अंदाजा लगाया जा सकता है। केंद्र से राज्यों तक हर सरकार प्रतिवर्ष आर्थिक सर्वेक्षण करती है। इस सर्वेक्षण में प्रतिव्यक्ति आय और ऋण का आंकड़ा जारी किया जाता है। इस आंकड़े के मुताबिक भारत में प्रतिव्यक्ति निवल राष्ट्रीय आय वर्ष 2023-24 में 1,85,854 रूपये अनुमानित है। हिमाचल में प्रतिव्यक्ति आय 2022-23 में 2,18,788 रुपए रही है। आंकड़ों के अनुसार भारत विश्व की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था है। आय के इन आंकड़ों को झूठलाया नहीं जा सकता। लेकिन क्या व्यवहार में यह आंकड़े कहीं मेल खाते हैं? केंद्र और राज्य के आंकड़ों को एक साथ रखकर हिमाचल में प्रतिव्यक्ति आय चार लाख से बढ़ जाती है। इसमें यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जिस प्रदेश में प्रतिव्यक्ति आय चार लाख हो उस प्रदेश की सरकार को विकास के लिये कर्ज लेने की आवश्यकता क्यों होगी। लेकिन आज हिमाचल में प्रति व्यक्ति कर्ज का आकड़ा भी लगभग आय के बराबर ही हो गया है।
ऐसा इसलिये है कि आंकड़ों की इस गणना का आम आदमी के साथ व्यवहारिक रूप से कोई सीधा संबंध ही नहीं है। कोई भी सरकार व्यवहारिक रूप से दस प्रतिशत लोगों के लिये ही काम करती है। आम आदमी के विकास के नाम पर कर्ज लेकर केवल दस प्रतिश्त के लाभ के लिये ही काम किया जाता है। एक उद्योगपति के बड़े निवेश से राज्य की जीडीपी बढ़ जाता है। उसके लाभ से ही प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा बढ़ जाता है। आय और कर्ज के बढ़ते आंकड़ों के इस खेल में सरकारों में स्थायी और नियमित रोजगार के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं। चुनावों में मुफ्ती की घोषणाओं के साथ समाज में लाभार्थियों के छोटे-छोटे वर्ग खड़े किए जा रहे हैं। आज कर्ज विश्व बैंक, आईएमएफ जैसी अंतरराष्ट्रीय एजैन्सियों से सरकारें बाहय सहायता प्राप्त योजनाओं के नाम पर ले रही है। जिन योजनाओं के लिये यह कर्ज लिया जा रहा है उनके कार्यन्वयन के लिये ग्लोबल टैन्डर की शर्तें रहती हैं। अभी शिमला में 24 घंटे जलापूर्ति के लिये विश्व बैंक से 460 करोड़ की योजना स्वीकृत हुई थी और इसमें ग्लोबल टैंडरिंग के नाम पर उसका ठेका एक विदेशी कंपनी को शायद 870 करोड़ में दे दिया गया। इसमें कैसे क्या हुआ का प्रसंग छोड़ भी दिया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है की किस तरह से आम आदमी के नाम पर कर्जा बढ़ाया जा रहा है। ऐसे सैकड़ो उदाहरण केंद्र से लेकर राज्यों तक उपलब्ध हैं।
आज केंद्र से लेकर राज्यों तक की सभी योजनाओं पर यह सवाल उठाता है कि आम आदमी के नाम पर लिये जा रहे कर्ज के लाभार्थी कुछ मुठी भर लोग क्यों हो रहे हैं। केंद्र से लेकर राज्यों तक कोई भी सरकार रोजगार के वायदों को पूरा क्यों नहीं कर पा रही है? मुफ्त राशन पाने वालों का आंकड़ा लगातार क्यों बढ़ता जा रहा है। राजनीतिक दलों को सत्ता प्राप्ति के लिए मुफ्ती की घोषणाओं और धार्मिकता का सहारा क्यों लेना पड़ रहा है? आज सरकार को नई शिक्षा नीति लाते हुये उसकी भूमिका में ही क्यों लिखना पड़ रहा है कि इस शिक्षा के बाद खाडी के देशों में बतौर मजदूर हमारे युवाओं को रोजगार के बड़े अवसर उपलब्ध होंगे। क्या आज देश के नीति नियन्ताओं से यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये की अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के अनुसार देश में गरीब और अमीर के बीच का अंतराल लगातार बढ़ता क्यों जा रहा है? इस बढ़त का अंतिम परिणाम क्या होगा?

क्या इस चुनाव में पिछले वायदों पर सवाल उठेंगे?

2024 का चुनाव घोषित हो गया है। इस चुनाव के लिये भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने चुनावी घोषणा पत्र भी सांकेतिक रूप से जारी कर दिये हैं। क्या भाजपा के घोषणा पत्र को ही एन.डी.ए. यथारूप स्वीकार कर लेता है या नहीं यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जायेगा। यही स्थिति कांग्रेस की है क्या इंडिया के घटक दल कांग्रेस के एजैण्डे पर मोहर लगा देंगे। यह सवाल इसलिये प्रसांगिक है क्योंकि भाजपा और कांग्रेस जो भी वायदे लोगों से करेंगे इसका असर राज्यों की सरकारों पर पड़ेगा। इस समय केंद्र और राज्य सरकारों पर जितना कर्ज है उसे सामने रखते हुये इस चुनाव के चुनावी वायदों पर स्वतः ही कई प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं। भाजपा एन.डी.ए. ने पिछले चुनाव में जितने रोजगार प्रतिवर्ष उपलब्ध करवाने का वायदा किया था वह कितना पूरा हुआ है? किसानों की आय दोगुना करने का जो वायदा किया था क्या उसके तहत सही में आय बढ़ पायी है? इस दौरान शिक्षा और स्वास्थ्य कितने महंगे हुये हैं? क्या सभी को सस्ता न्याय मिल पाया? क्या संसद और विधानसभायें अपराधियों से मुक्त हो पायी है? ऐसे दर्जनों सवाल हैं जो इस चुनाव में पूछे जाने चाहिए? लेकिन कौन यह सवाल पूछने कहा साहस दिखाएगा?
अभी सर्वाेच्च न्यायालय चुनावी बांड योजना को गैरकानूनी घोषित करके इसके तहत चन्दा देने वालों की सूची स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से तलब की है। अभी तक जो सूची आयी है इसकी पड़ताल पर यह सामने आया है कि ऐसा चुनावी चन्दा देने वाली अधिकांश कंपनीयां वह है जिन पर ई.डी, आईटी और सीबीआई की छापेमारी हो चुकी थी। चुनावी चन्दा देने के बाद यह कारवाइयां बन्द हुई है। चुनावी चन्दा देने वाली कंपनियों में एक कंपनी पाकिस्तान की भी सामने आयी है। जिसने पुलवामा घटने के बाद चन्दा दिया है। उन्नीस लाख ईवीएम मशीने गायब होने और अस्सी हजार करोड़ के नोट गायब हो जाने के मामले इस दौरान घट चुके हैं। इन मामलों में जांच एजेंसियों से लेकर शीर्ष न्यायपालिका तक खामोश रहे हैं। क्या इस चुनावी पर्व में कोई नेता या दल सवाल उठायेगा। इन्हीं बड़े कारनामों का परिणाम है कि देश में महंगाई और बेरोजगारी लगातार बढ़ती जा रही है। सस्ते राशन के डिपो में मिलने वाले अनाज की मात्रा लगातार कम होती जा रही है। क्यों?
सर्वाेच्च न्यायालय और आर.बी.आई. तक ने चुनावों में मुफ्ती की घोषणाएं किये जाने पर तलख टिप्पणी की है। क्या इन चुनावों में ऐसे चुनावी प्रलोभन का संज्ञान लेकर ऐसा करने वालों को दण्डित किये जाने का कोई प्रावधान किया जायेगा? भाजपा इस चुनाव को राम मन्दिर के रथ पर बिठाने का पूरा प्रयास करेगी? उसका हर कदम इस दिशा में लगातार बढ़ रहा है। यह भाजपा की चुनावी आवश्यकता है क्योंकि चुनाव में उठने वाले हर सवाल का जवाब केंद्र में दस वर्ष से सता में होने के नाते उसी को देना है। और वह इन सवालों से बचना चाहती है। आज यह सवाल कांग्रेस को उठाने होंगे। लेकिन यह सवाल उठाते हुये उसे प्रदेशों में कांग्रेस की सरकारों पर उठने वाले सवालों का भी जवाब देना होगा।

हिमाचल बना कांग्रेस हाईकमान की परीक्षा

क्या हिमाचल का घटनाक्रम कांग्रेस हाईकमान के लिये एक चेतावनी है? यह सवाल इसलिये प्रसांगिक है कि हाईकमान ने उसके पास सुक्खू सरकार को लेकर आ रही शिकायतों का समय रहते संज्ञान नहीं लिया। यह संज्ञान न लेने का परिणाम प्रदेश वर्तमान घटनाक्रम है। कांग्रेस जब विपक्ष में थी तब जयराम सरकार के खिलाफ यह आरोप लगाती थी कि इस सरकार ने प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में डाल दिया है। कर्ज के इन आरोपों का अर्थ था कि कांग्रेस को प्रदेश की वित्तीय स्थिति का पूरा ज्ञान था। लेकिन कांग्रेस ने चुनाव जीतने के लिये दस गारंटीया जारी कर दी। सरकार ने इन गारंटीयों पर कोई कदम न उठाने के लिये प्रदेश की जनता के श्रीलंका जैसे हालात होने की चेतावनी दे दी। यह चेतावनी देने के बाद सरकार ने छः सीपीएस और एक दर्जन से अधिक गैर विधायकों को सलाहकार आदि बनाकर अपने खर्च बढ़ा लिये। दूसरी ओर आम आदमी के लिये सेवाओं और वस्तुओं के दाम बढ़ाकर उस पर बोझ डाल दिया। इस तरह सरकार की कथनी और करनी का विरोधाभास साफ सामने आ गया। ऊपर से पार्टी के कार्यकर्ताओं का सरकार में समायोजन न होने से अधिकांश लोग हताश होकर घर बैठ गये। इसी के साथ सरकार ने हर माह एक हजार करोड़ से ज्यादा कर्ज लेना शुरू कर दिया। इस स्थिति ने विपक्षी भाजपा को आक्रामक होने का अवसर दे दिया और उसने आरटीआई के माध्यम से कर्ज के तथ्य जुटाकर सार्वजनिक कर दिये। इस वस्तुस्थिति से कांग्रेस के अन्दर भी विचार-विमर्श चला लेकिन मुख्यमंत्री स्थिति का सही आकलन नहीं कर पाये। जब मुख्यमंत्री के स्तर पर कुछ नहीं हुआ तब शिकायतें हाईकमान के पास पहुंची। लेकिन अंतिम परिणाम वहां भी शून्य रहा। लोकसभा चुनाव के परिदृश्य में सरकार के खिलाफ उभरता रोष हर कांग्रेस जन के लिये चिन्ता का कारण बनता गया। क्योंकि फील्ड से यह स्पष्ट संकेत उभरने लगे की पार्टी चारों सीटों पर हार जायेगी। कोई भी मंत्री लोकसभा चुनाव लड़ने के लिये तैयार नहीं हुआ। क्योंकि सरकार एक भी फैसला जनहित का प्रमाणित नहीं हुआ। यह विभिन्न वर्गाे के धरने प्रदर्शनों से रोज सामने आ रहा था। मुख्यमंत्री व्यवस्था परिवर्तन के जुमले से बाहर नहीं निकल पाये। प्रदेश की इस स्थिति पर हाईकमान पर कुछ सीधे सवाल उठते हैं। क्या दस गारंटीयां जारी करते हुये प्रदेश की वित्तीय स्थिति का ज्ञान नहीं था? क्या इन गारंटीयों को पूरा करने के लिए प्रदेश पर और कर्ज भार बढ़ाने का रास्ता चुना गया था? क्या कर्ज लेने के बाद भी कोई गारंटी पूरी हो पायी है? क्या गारंटीयां अंतिम वर्ष में पूरी करने का वायदा किया गया था। जब प्रदेश की वित्तीय स्थिति ठीक नही थी तो फिर सीपीएस और सलाहकारों का ब्रिगेड खड़ा करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। क्या पार्टी का प्रभारी भी इस वस्तु स्थिति का आकलन नहीं कर पाया? जब हाईकमान के पास प्रदेश को लेकर शिकायतें जा रही थी तो उनका संज्ञान लेकर चीजें सुधारने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? आज प्रदेश की जो परिस्थितियां हैं क्या उनमें कांग्रेस को अपनी राज्य सरकारों पर बराबर नजर नही रखनी चाहिये थी? राज्य सरकारों का आचरण ही हाईकमान की नीतियों का आईना बनता है। पांच राज्यों के चुनाव में भी हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स रिपोर्ट कार्ड चर्चा में रहा है। छत्तीसगढ़ में हिमाचल की गारंटीयों पर विशेष चर्चा हुई है। इस समय प्रदेश की चारों सीटों पर कांग्रेस की हार पुख्त्ता हो गयी है। नाराज विधायकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। आज हाईकमान ने मुख्यमंत्री न बदलकर प्रदेश से कांग्रेस को लम्बे समय के लिये सत्ता से बाहर रखने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। क्या मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री कार्यकर्ताओं को संदेश देने के लिये लोकसभा चुनाव लड़ने को तैयार होंगे? यदि इस संकट के लिये बागी दोषी हैं तो इसका जवाब इन मंत्रियों या इनके परिजनों को लोस उम्मीदवार बनाकर ही दिया जा सकता है अन्यथा नेतृत्व परिवर्तन के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता है तो इसका अन्य राज्य पर भी प्रभाव पड़ेगा यह तय है।

कांग्रेस से आयकर वसूलने के मायने

2024 के लोकसभा चुनाव की घोषणा निकट भविष्य में कभी भी हो सकती है। क्योंकि जो कुछ पिछले दिनों में घटा है उससे यही संकेत सामने आते हैं। इन चुनावों के परिणामों का प्रभाव दूरगामी होगा चाहे जीत वर्तमान सता पक्ष की हो या विपक्ष की। वर्तमान परिस्थितियों ने हर संवेदनशील व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। इसी के प्रभाव स्वरूप पूर्व नौकरशाहों के एक बड़े वर्ग ने लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थिति पर एक खुला पत्र सर्वोच्च सत्ता के नाम लिखा है इस परिदृश्य में जो महत्वपूर्ण घटा है उस पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। यह सरकार चुनावी चन्दे के लिये जो चुनावी बाण्ड योजना लेकर आयी थी और उस पर कई सवाल उठे थे। उस योजना को सर्वोच्च न्यायालय ने गैर कानूनी घोषित कर दिया है। शीर्ष अदालत के फैसले के बाद विजय माल्या जैसे कई नाम सामने हैं। जिन्होंने देश से भागने से पहले भारतीय जनता पार्टी को करोड़ों का चन्दा दिया है चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में जिस तरह की धांधली सामने आयी उसे सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में लोकतंत्र की हत्या करार दिया है। इस चुनाव को रद्द करते हुये आप और कांग्रेस के संयुक्त उम्मीदवार को विजयी घोषित करते हुये चुनाव अधिकारी के खिलाफ अवमानना का आपराधिक मामला दर्ज करने के निर्देश दिये हैं। ई वी एम के खिलाफ आन्दोलन कर रहे वकीलों ने ई वी एम को हैक करके बता दिया है। इससे स्पष्ट संदेश गया है कि भाजपा की जीत का बड़ा कारण ई वी एम है। देश में उन्नीस लाख ई वी एम 2019 से गायब हैं और इस पर किसी भी ऐजैन्सी ने कोई कारवाई नहीं की है। ई वी एम प्रकरण शीर्ष अदालत में पहुंच चुका है और माना जा रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय इसका संज्ञान लेगा। इसी के साथ देश में पहली बार आयकर विभाग ने किसी राजनीतिक दल से आयकर वसूला है। आयकर विभाग की यह कारवाई कांग्रेस के खिलाफ की गई है और उसके बैंक खातों से 65 करोड़ से ज्यादा पैसा निकाल लिया गया है। आयकर विभाग ने यह कारवाई भाजपा या किसी और; दल के खिलाफ नहीं की है इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा कांग्रेस से ही डरी हुई है।
वित्तीय मुहाने पर अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष की चेतावनी ने और डरा दिया है। आई एम एफ के मुताबिक भारत का कर्ज जी डी पी का 100% होने जा रहा है। आर्थिकी को समझने वाले जानते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था के लिये यह सबसे बड़ा काला पक्ष है। आने वाले चुनाव में युवाओं की भागीदारी सबसे ज्यादा होगी। हर तीसरा वोटर युवा होगा। सरकार की अपनी रिपोर्ट के मुताबिक तीन युवाओं में से हर दूसरा बेरोजगार है। रिपोर्ट के अनुसार केन्द्र सरकार के विभागों में ही 90 लाख पद खाली हैं और सरकार इन्हें भरने की स्थिति में नहीं है। यही स्थिति सार्वजनिक उपक्रमों की है। कॉर्पोरेट घरानों में भी रोजगार कम होता जा रहा है कुल मिलाकर देश एक गंभीर दौर से गुजर रहा है। प्रधानमंत्री इन मुद्दों को चुनावी मुद्दा नहीं बनने देना चाहते। इसलिये वह धार्मिक ध्रुवीकरण करने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। विपक्षीय एकता को तोड़ने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं और इसके लिये अगले कुछ दिनों में ई डी, सी बी आई और आयकर जैसी ऐजैन्सीयों की गतिविधियां बढ़ सकती हैं। जिस तरह से आयकर विभाग ने कांग्रेस के खातों से 65 करोड़ से अधिक की रकम आयकर के नाम पर निकाल ली है उससे यह स्पष्ट संकेत उभरता है कि कांग्रेस की राज्य सरकारों को भी अस्थिर करने का पूरा प्रयास किया जायेगा। जहां जो सरकारें अपने ही कारणों से कमजोर हो रही हैं उन पर अस्थिरता का प्रयोग किये जाने की बड़ी संभावना है।

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