सरकार के खिलाफ इतने मुद्दे होने के बावजूद भी सत्ता पक्ष का पहले से ज्यादा ताकतवर होकर हर चुनाव में निकलना अपने में ही कई सवाल खड़े करता है । यह सबसे चिनतनीय विषय हो जाता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है। सत्ता पक्ष हर चुनाव में परोक्ष अपरोक्ष रूप से मुफ्ती के नये नये वायदे लेकर चुनाव में आता है और विपक्ष भी उसी तर्ज पर मुफ्ती के वायदे लेकर आज आने लग गया है। हिमाचल में कांग्रेस की दस गारटीयां भाजपा पर भारी पड़ी और उसे सत्ता मिल गयी लेकिन यही गारटीयां पूरी न हो पाना इन राज्यों के चुनाव में हार का एक बड़ा कारण भी बनी। अब रिजर्व बैंक में जिस तरह से राज्यों को ओ पी एस पर चेतावनी दी है उस से स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस या कोई भी दूसरा विपक्षी दल इस दिशा में मोदी सरकार का मुकाबला नहीं कर सकता ऐसे में मुफ्ती के वायदों के सहारे मोदी से सत्ता छीन पाना संभव नहीं होगा।
इस समय मोदी सरकार के खिलाफ इतने मुद्दे हैं जिन पर यदि देश को जागृत किया जाये तो इस सरकार को हराना कठिन नहीं है लेकिन क्या कांग्रेस इन मुद्दे को सूचीबद्ध करके अपने ही कार्य कर्ताओं को इस लड़ाई के लिए तैयार कर पा रही है शायद नहीं। कांग्रेस के ही पदाधिकारीयों को यह ज्ञान नहीं है कि 2014 से लेकर आज तक मोदी सरकार ने देश के सामने क्या-क्या परोसा और उनसे कितना पूरा हुआ। हर चुनाव के बाद ईवीएम पर सवाल उठे हैं और इन सवालों की शुरुआत एक समय भाजपा नेतृत्व में ही की है। आज ई वी एम पर उठते सवालों का आकार और प्रकार दोनों बढ़ गये है।। आम आदमी भी अब सवाल उठाने लग पड़ा है। ऐसे में यदि एक जन आंदोलन ई वी एम हटाने से लेकर देश में खड़ा हो जाये और यह कह दिया जाये कि ई वी एम के रहते चुनाव में हिस्सा नहीं लिया जायेगा । एक चुनाव विपक्ष की भागीदारी के बिना ही होने दिया जाने के हालात पैदा कर दिये जाये तो शायद सर्वाेच्च न्यायालय और चुनाव आयोग दोनों ही कुछ सोचने पर विवश हो जाये इसी के साथ कांग्रेस ने जिस तरह से संगठन में फेरबदल किया है उसी तर्ज पर जहां उसकी सरकारें हैं वहीं पर उसे ऑपरेशन करने होंगे।
यह घटना उस समय घटी जब संसद का सत्र चल रहा था। इसलिए इस घटना पर संसद में गृह मंत्री के वक्तव्य की सांसदों द्वारा मांग किया जाना किसी भी तरह नाजायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन सांसदों की इस मांग पर उनके आचरण को असंसदीय करार देकर संसद से निलंबित कर देना अपने में ही मामले को और गंभीर बना देता है। यदि सांसद गृह मंत्री से घटना पर वक्तव्य की मांग नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? यदि सांसदों की मांग ही नहीं मानी जा रही है तो किसी अन्य की मांग मान ली जायेगी इसकी अपेक्षा कैसे की जा सकती है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है की सुरक्षा में सेंध लगाने वालों के ‘‘पास’’ एक भाजपा सांसद प्रताप सिम्हा की संस्तुति पर बनाये गये है इसलिये इस घटना पर प्रधानमंत्री या गृहमंत्री कोई भी ब्यान नहीं दे रहा है। जिस तरह का राजनीतिक वातावरण आज देश के भीतर है उसमें यदि इन लोगों के ‘‘पास’’ कांग्रेस या किसी अन्य विपक्षी दल के सांसद के माध्यम से बने होते तो परिदृश्य क्या होता? क्या अब तक उस सांसद के खिलाफ भी मामला न बना दिया गया होता? ऐसे सवाल उठने लग पड़े हैं।
अभी पांच राज्यों में हुये विधानसभा चुनावों में जिस तरह की जीत भाजपा को मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हासिल हुई है उससे उत्साहित होकर प्रधानमंत्री ने यह घोषित कर दिया कि वही अगली सरकार बनाने जा रहे हैं। इसे प्रधानमंत्री का अतिउत्साह कहा जाये या अभियान पाठक इसका स्वयं निर्णय कर सकते हैं। इन चुनाव परिणामों के बाद ई.वी.एम. मशीनों और चुनाव आयुक्तों की चयन प्रक्रिया पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। चयन प्रक्रिया पर जो सवाल एक समय वरिष्ठतम भाजपा नेता एल.के.आडवाणी ने तब के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर उठाये थे वही सवाल अब उठ रहे हैं। ई.वी.एम. मशीनों की विश्वसनीयता पर भी सबसे पहले सन्देह भाजपा ने ही उठाया था। ई.वी.एम. का मुद्दा नये रूप में सर्वाेच्च न्यायालय में जा रहा है। एक ऐसी स्थिति निर्मित हो गयी है जहां हर चीज स्वतः ही सन्देह के घेरे में आ खड़ी हुई है। लेकिन लोकप्रिय प्रधानमंत्री इन जनसन्देहों को लगातार नजरअन्दाज करते जा रहे हैं।
ऐसे परिदृश्य में क्या देश का शिक्षित बेरोजगार युवा अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये इस तरह के आचरण के लिये बाध्य नहीं हो जायेगा? आज का युवा सरकार की नीतियों का आकलन करने में सक्षम है। वह जानता है कि किस तरह से देश के संसाधन निजी क्षेत्र को सौंपे जा रहे हैं। इन नीतियों से कैसे हर क्षेत्र में रोजगार के साधन कम होते जा रहे हैं। यदि इस ओर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो युवाओं का ऐसा आचरण एक राष्ट्रीय मुद्दा बन जायेगा यह तय है।
लेकिन इस चुनावी हार के बाद राहुल गांधी के लिये अवश्य ही कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठ जाते हैं क्योंकि राहुल गांधी ने जिस ईमानदारी से देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं और परंपराओं के ह्यस का प्रश्न उठाया। जिस तरह से देश के संसाधनों को कॉरपोरेट घरानों के हाथों बेचे जाने के बुनियादी सवाल उठाये और समाज को नफरती ब्यानों द्वारा बांटे जाने का सवाल उठाया। इन सवालों पर देश को जोड़ने के लिये कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा निकाली और जनता ने उसका स्वागत किया। उससे लगा था कि राहुल गांधी नरेंद्र मोदी का विकल्प हो सकते हैं। लेकिन इन चुनावों में कांग्रेस की हार का सबसे बड़ा नुकसान राहुल गांधी की छवि को होगा। क्योंकि इन चुनावों की धूरी कांग्रेस में वही बने हुये थे। इसलिये इस हार से उठते सवाल भी उन्हीं को संबोधित होंगे। इस समय केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारों तक सभी भारी कर्ज के बोझ तले दबे हैं। राज्य सरकारों पर ही 70 लाख करोड़ का कर्जा है। ऐसे में क्या कोई भी राज्य सरकार बिना कर्ज लिये कोई भी गारन्टी वायदा पूरा कर सकती है। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बने हुये एक वर्ष हो गया है। प्रदेश सरकार हर माह 1000 करोड़ का कर्ज ले रही है। दस गारंटीयां चुनावों में दी थी जिनमें से किसी एक पर अमल नहीं हुआ है। भाजपा ने इसे मुद्दा बनाकर इन राज्यों में खूब उछाला। इसी कारण हिमाचल कांग्रेस का कोई बड़ा नेता या मंत्री इन राज्यों में चुनाव प्रचार के लिये नहीं आ पाया। क्या हिमाचल सरकार की इस असफलता का कांग्रेस की विश्वसनीयता पर असर नहीं पड़ेगा? जब तक कांग्रेस अपनी राज्य सरकारों के कामकाज पर नजर नहीं रखेगी तब तक सरकारों की विश्वसनीयता नहीं बन पायेगी।
आने वाले लोकसभा चुनावों के लिये जो जनता से वायदे किये जायें उन्हें पूरा करने के लिये आम आदमी पर कर्ज का बोझ नहीं डाला जायेगा जब तक यह विश्वास आम आदमी को नहीं हो जायेगा तब तक कोई भी चुनावी सफलता आसान नहीं होगी। इसलिए अब जब यह देखा खोजा जा रहा है कि कांग्रेस क्यों हारी तो सबसे पहले प्रत्यक्ष रूप से हिमाचल का नाम आ रहा जिसने गारंटीयों से अपनी जीत तो हासिल कर ली परन्तु और जगह हार का बड़ा कारण भी बन गयी।