राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद का इतिहास सैकड़ो वर्षों का रहा है। इस विवाद के पन्ने अब पलटने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि इसमें हजारों लोगों का बलिदान दर्ज है। बाबरी मस्जिद गिराई गयी थी तब भी कई लोगों की शहादत हुई है। भाजपा की चार राज्यों की सरकारें इस आन्दोलन की भेंट चढ़ी है। यह सही है कि इस आन्दोलन का राजनीतिक लाभ केवल भाजपा को मिला है। क्योंकि इस आन्दोलन में संघ और उसके अनुषगिक संगठनों की भूमिका अग्रणी रही है। 8 अप्रैल 1984 को दिल्ली में संत महात्माओं और हिन्दू नेताओं ने अयोध्या के श्री राम जन्मभूमि स्थल की मुक्ति और ताला खुलवाने का निर्णय लिया था। 1989 के प्रयाग कुंभ मेले के दौरान मन्दिर निर्माण के लिये गांव-गांव शिलापूजन करवाने का फैसला लिया और इसके बाद यह एक आन्दोलन बन गया। सौ वर्षों से अधिक तक यह मामला अदालतों में रहा। 2019 में जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तब अदालती लड़ाई का अन्त हुआ। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ही राम मन्दिर निर्माण ट्रस्ट का 2020 में गठन हुआ।
राम मन्दिर आन्दोलन में देश के साधु संतों और हिन्दू नेताओं की अग्रिम भूमिका रही है। कांग्रेस और भाजपा सभी सरकारों का इसमें योगदान रहा है। क्योंकि भगवान राम सबके पूज्य हैं। बहुत लोगों ने इसके निर्माण के लिये यथासंभव आर्थिक योगदान भी किया है। मन्दिर के निर्माण के बाद इसमें मूर्ति की स्थापना और मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा इसके अभिन्न अंग है। लेकिन इस समय जो 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन किया जा रहा है उसको लेकर मन्दिर ट्रस्ट के साथ बहुत लोगों का गंभीर वैचारिक मतभेद उभर गया है क्योंकि मन्दिर का निर्माण इस वर्ष के अन्त तक पूरा हो पायेगा। जब तक मन्दिर पर गुंबद और ध्वजा की स्थापना न हो जाये तब तक मन्दिर के निर्माण को पूरा नहीं माना जाता। अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा का हमारे धर्म ग्रंथो में कोई प्रावधान ही नहीं है। क्योंकि गुंबद और ध्वजा के निर्माण के लिये तो मंदिर पर चढ़ना पड़ेगा। लेकिन मूर्ति स्थापना के बाद ईश्वर के सिर पर पैर नहीं रखे जाते। इसी अधूरे निर्माण पर चारों शंकराचार्यों का विरोध है और शंकराचार्योंं से बड़ा कोई धर्मगुरु नहीं है।
प्राण प्रतिष्ठा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका अग्रणी है। इस अग्रणी भूमिका को राजनीतिक तराजू में तोल कर देखा जा रहा है। इस निर्माण का श्रेय वह स्वयं लेना चाहते हैं और आने वाले लोकसभा चुनावों में यह उनका सबसे बड़ा चुनावी हथियार होगा। प्रधानमंत्री इस आयोजन के अग्रणी पुरुष होंगे इसीलिये विभिन्न राजनीतिक दलों में इसमें शामिल होने को लेकर आन्तरिक विवाद उभरने लग पड़े हैं। यह विवाद ही इस आयोजन का प्रसाद माना जा रहा है। लेकिन जिस स्तर पर शंकराचार्यों ने इस प्राण प्रतिष्ठा में शामिल होने से इन्कार कर दिया है। साधु महात्माओं का एक वर्ग इसके विरोध में खड़ा हो गया है। इस विरोध से यह सवाल खड़ा हो गया है की जो प्रधानमंत्री अधूरे मन्दिर की ही प्राण प्रतिष्ठा करवाने जा रहे हैं उन्हें धर्म का संरक्षक कैसे मान लिया जाये। इस अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद जो सवाल उठेंगे वह संघ भाजपा के लिये नुकसानदेह होंगे यह तय है।






बिजली बोर्ड के प्रबन्धन को लेकर इसका कर्मचारी संगठन पिछली सरकार के समय से ही इस पर गंभीर सवाल उठता रहा है। लेकिन कर्मचारी संगठन के आरोप पर न तब की सरकार ने कोई ध्यान दिया और न अब की सरकार ने। बल्कि अब तो उसी नेतृत्व को और महिमा मण्डित कर दिया गया है। अब जो नेतृत्व बोर्ड को दिया गया है उसको लेकर भी कर्मचारी संगठन के गंभीर आरोप हैं। यह आरोप रहा है कि बोर्ड नेतृत्व में बोर्ड के हितों के स्थान पर सरकार में बैठे राजनीतिक आकांओं के हितों की ज्यादा रक्षा की। इसलिये आज के संकट के लिये भी कर्मचारी संगठन बोर्ड के प्रबन्धन को ज्यादा जिम्मेदार ठहरा रहा है।
प्रबन्धन की नाकामी के साथ ही यह भी सामने आया है की पिछली सरकार ने जो 125 यूनिट फ्री बिजली देने का फैसला लिया था उसमें इस घाटे की भरपाई सरकार को करनी थी। लेकिन इस समय मुफ्त बिजली देने के बदले जो पैसा सरकार ने बिजली बोर्ड को देना था उसे यहां सरकार नहीं दे पायी है। इस समय फ्री बिजली का 170 करोड़ सरकार ने बोर्ड को देना है। यदि इस पैसे का भुगतान सरकार कर देती तो शायद यह संकट न आता। इस परिप्रेक्ष में यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने तो चुनावों में 300 यूनिट फ्री बिजली देने की गारंटी दी है। यदि सरकार 125 यूनिट की भरपाई ही नहीं कर पा रही है तो 300 यूनिट की भरपाई कैसे कर पायेगी? आज मुफ्ती की जितनी गारंटीयां सरकार ने चुनावों के दौरान जनता को दे रखी हैं क्या उनकी भरपाई हो पायेगी? इन गारंटीयों को पूरा करने के लिये जो खर्च आयेगा वह कहां से पूरा होगा? क्या उसके लिये कर्ज लेने या जनता पर करो का बोझ डालने के अतिरिक्त और कोई विकल्प है? मुफ्ती के लाभार्थियों की संख्या से उन लोगों की संख्या ज्यादा है जो इस लाभ के दायरे से बाहर है और मुफ्ती की अपरोक्ष में भरपाई करते हैं। आज जो मुफ्ती की गारंटरयां सरकार ने दे रखी है क्या उनकी भरपाई पर जो खर्च आयेगा उसका आंकड़ा सरकार जारी करेगी? क्या यह बताया जायेगा कि यह खर्च कहां से आयेगा? इस समय 125 यूनिट फ्री बिजली देने के बाद वर्तमान सरकार ने भी दो बार बिजली की दरें बढ़ाई है और फिर भी समय पर वेतन तथा पैन्शन का भुगतान न हो पाना अपने में सरकार की नीतियों पर एक गंभीर सवाल है। बिजली बोर्ड की स्थिति ने इस सवाल को जनता के सामने पूरी नग्नता के साथ रख दिया है की क्या कर्ज लेकर मुफ्ती के वायदे पूरे किए जाने चाहिये?












सरकार के खिलाफ इतने मुद्दे होने के बावजूद भी सत्ता पक्ष का पहले से ज्यादा ताकतवर होकर हर चुनाव में निकलना अपने में ही कई सवाल खड़े करता है । यह सबसे चिनतनीय विषय हो जाता है कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है। सत्ता पक्ष हर चुनाव में परोक्ष अपरोक्ष रूप से मुफ्ती के नये नये वायदे लेकर चुनाव में आता है और विपक्ष भी उसी तर्ज पर मुफ्ती के वायदे लेकर आज आने लग गया है। हिमाचल में कांग्रेस की दस गारटीयां भाजपा पर भारी पड़ी और उसे सत्ता मिल गयी लेकिन यही गारटीयां पूरी न हो पाना इन राज्यों के चुनाव में हार का एक बड़ा कारण भी बनी। अब रिजर्व बैंक में जिस तरह से राज्यों को ओ पी एस पर चेतावनी दी है उस से स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस या कोई भी दूसरा विपक्षी दल इस दिशा में मोदी सरकार का मुकाबला नहीं कर सकता ऐसे में मुफ्ती के वायदों के सहारे मोदी से सत्ता छीन पाना संभव नहीं होगा।
इस समय मोदी सरकार के खिलाफ इतने मुद्दे हैं जिन पर यदि देश को जागृत किया जाये तो इस सरकार को हराना कठिन नहीं है लेकिन क्या कांग्रेस इन मुद्दे को सूचीबद्ध करके अपने ही कार्य कर्ताओं को इस लड़ाई के लिए तैयार कर पा रही है शायद नहीं। कांग्रेस के ही पदाधिकारीयों को यह ज्ञान नहीं है कि 2014 से लेकर आज तक मोदी सरकार ने देश के सामने क्या-क्या परोसा और उनसे कितना पूरा हुआ। हर चुनाव के बाद ईवीएम पर सवाल उठे हैं और इन सवालों की शुरुआत एक समय भाजपा नेतृत्व में ही की है। आज ई वी एम पर उठते सवालों का आकार और प्रकार दोनों बढ़ गये है।। आम आदमी भी अब सवाल उठाने लग पड़ा है। ऐसे में यदि एक जन आंदोलन ई वी एम हटाने से लेकर देश में खड़ा हो जाये और यह कह दिया जाये कि ई वी एम के रहते चुनाव में हिस्सा नहीं लिया जायेगा । एक चुनाव विपक्ष की भागीदारी के बिना ही होने दिया जाने के हालात पैदा कर दिये जाये तो शायद सर्वाेच्च न्यायालय और चुनाव आयोग दोनों ही कुछ सोचने पर विवश हो जाये इसी के साथ कांग्रेस ने जिस तरह से संगठन में फेरबदल किया है उसी तर्ज पर जहां उसकी सरकारें हैं वहीं पर उसे ऑपरेशन करने होंगे।






यह घटना उस समय घटी जब संसद का सत्र चल रहा था। इसलिए इस घटना पर संसद में गृह मंत्री के वक्तव्य की सांसदों द्वारा मांग किया जाना किसी भी तरह नाजायज नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन सांसदों की इस मांग पर उनके आचरण को असंसदीय करार देकर संसद से निलंबित कर देना अपने में ही मामले को और गंभीर बना देता है। यदि सांसद गृह मंत्री से घटना पर वक्तव्य की मांग नहीं करेंगे तो और कौन करेगा? यदि सांसदों की मांग ही नहीं मानी जा रही है तो किसी अन्य की मांग मान ली जायेगी इसकी अपेक्षा कैसे की जा सकती है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है की सुरक्षा में सेंध लगाने वालों के ‘‘पास’’ एक भाजपा सांसद प्रताप सिम्हा की संस्तुति पर बनाये गये है इसलिये इस घटना पर प्रधानमंत्री या गृहमंत्री कोई भी ब्यान नहीं दे रहा है। जिस तरह का राजनीतिक वातावरण आज देश के भीतर है उसमें यदि इन लोगों के ‘‘पास’’ कांग्रेस या किसी अन्य विपक्षी दल के सांसद के माध्यम से बने होते तो परिदृश्य क्या होता? क्या अब तक उस सांसद के खिलाफ भी मामला न बना दिया गया होता? ऐसे सवाल उठने लग पड़े हैं।
अभी पांच राज्यों में हुये विधानसभा चुनावों में जिस तरह की जीत भाजपा को मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हासिल हुई है उससे उत्साहित होकर प्रधानमंत्री ने यह घोषित कर दिया कि वही अगली सरकार बनाने जा रहे हैं। इसे प्रधानमंत्री का अतिउत्साह कहा जाये या अभियान पाठक इसका स्वयं निर्णय कर सकते हैं। इन चुनाव परिणामों के बाद ई.वी.एम. मशीनों और चुनाव आयुक्तों की चयन प्रक्रिया पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। चयन प्रक्रिया पर जो सवाल एक समय वरिष्ठतम भाजपा नेता एल.के.आडवाणी ने तब के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर उठाये थे वही सवाल अब उठ रहे हैं। ई.वी.एम. मशीनों की विश्वसनीयता पर भी सबसे पहले सन्देह भाजपा ने ही उठाया था। ई.वी.एम. का मुद्दा नये रूप में सर्वाेच्च न्यायालय में जा रहा है। एक ऐसी स्थिति निर्मित हो गयी है जहां हर चीज स्वतः ही सन्देह के घेरे में आ खड़ी हुई है। लेकिन लोकप्रिय प्रधानमंत्री इन जनसन्देहों को लगातार नजरअन्दाज करते जा रहे हैं।
ऐसे परिदृश्य में क्या देश का शिक्षित बेरोजगार युवा अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये इस तरह के आचरण के लिये बाध्य नहीं हो जायेगा? आज का युवा सरकार की नीतियों का आकलन करने में सक्षम है। वह जानता है कि किस तरह से देश के संसाधन निजी क्षेत्र को सौंपे जा रहे हैं। इन नीतियों से कैसे हर क्षेत्र में रोजगार के साधन कम होते जा रहे हैं। यदि इस ओर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो युवाओं का ऐसा आचरण एक राष्ट्रीय मुद्दा बन जायेगा यह तय है।