Tuesday, 16 December 2025
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घातक होंगे करोना वैक्सीन पर उठते सवाल

लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। इन चुनावों में कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र पर जिस तरह की आक्रामकता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने दिखाई है उससे कांग्रेस के घोषणा पत्र का पाठक बढ़ा है क्योंकि जो सवाल इस घोषणा पत्र पर उठाये जा रहे हैं उन मुद्दों का इस घोषणा पत्र में कोई जिक्र तक नहीं है। प्रधानमंत्री की आक्रामकता ने भाजपा और मोदी द्वारा पिछले दो चुनावों में किये गये वायदों की ओर देश का ध्यान आकर्षित कर लिया है। पिछले दो चुनावों में किये गये वायदों के अलावा इस दौरान घटी दो मुख्य घटनाओं की ओर भी आकर्षित कर लिया है। इस दौरान के नोटबंदी और फिर लॉकडाउन दो ऐसे घटनाक्रम है जिनका प्रभाव लंबे अरसे तक देश पर रहेगा। 2014 में सत्ता परिवर्तन अन्ना आंदोलन का एक बड़ा प्रतिफल रहा है। इस आंदोलन में तब की मनमोहन सरकार को भ्रष्टाचार का पर्याय बताकर लोकपाल की नियुक्ति अपनी मुख्य मांग बना दिया था। इस मांग के परिणाम स्वरुप लोकपाल विधेयक डॉ मनमोहन सिंह की सरकार में ही पारित हो गया था और उस पर अमल मोदी सरकार में हुआ। लेकिन उस समय 176000 करोड़ का जो 2जी स्कैन बड़ा मुद्दा बना था उस पर उसी विनोद राय ने जिसने यह स्कैम देश के सामने रखा था अदालत में इस कथित स्कैम पर यह कहां है कि यह स्कैम घटा ही नहीं था और इसमें आकलन की गलती लग गयी थी। विनोद एक सवैघानिक पद पर आसीन थें इसलिये उनके खिलाफ कोई करवाई नहीं हो सकी थी।
इसी तरह नोटबंदी के घोषित लाभों पर आज तक सवाल उठ रहे हैं। लेकिन इसी दौरान आयी करोना महामारी ने देश को दो वर्ष तक लॉकडाउन में रखा। इस महामारी में अस्पताल तक खाली हो गये थे क्योंकि लोगों से सर्जरी तक को टालने की राय दी गयी थी। यह राय एक तरह का निर्देश बन गयी थी। महामारी को टालने के लिये लोगों ने ताली और थाली तक बजाने का प्रयोग किया। इस महामारी से बचने के लिए करोना वैक्सीन के दो दो टीके लोगों ने लगवाये। इन टीकों पर उस समय उठे सवाल सर्वाेच्च न्यायालय तक पहुंचे थे। यह टीके लगवाना कितना आवश्यक कर दिया गया था यह आम आदमी जानता है। लेकिन सर्वाेच्च न्यायालय में केंद्र सरकार ने यह कहा कि उसने यह वैक्सीन लगवाना अनिवार्य नहीं किया है। यह ऐच्छिक था और लोगों ने अपनी इच्छा से इसे लगवाया है। अब ब्रिटेन की एक अदालत में टीका बनाने वाली कंपनी ने यह स्वीकार किया है कि इस टीके से हार्ट अटैक और ब्रेन स्ट्रोक होने के खतरे हैं। कंपनी द्वारा स्वयं यहां साइड इफेक्ट होना स्वीकारने से एक नया विवाद खड़ा हो गया है। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की उत्तराखंड इकाई ने राष्ट्रपति को मजिस्ट्रेट के माध्यम से एक ज्ञापन भेज कर इसकी निष्पक्ष जांच किये जाने की मांग की है। यह तथ्य सामने आने के बाद जिन लोगों ने यह टीका लगवाया उनमें एक डर का वातावरण फैल गया है। इस समय लोकसभा चुनावों के दौरान यह सामने आना एक नयी समस्या खड़ी करने का माध्यम बन सकता है। इस नयी आशंका पर अभी तक केंद्र सरकार की ओर से कोई वक्तव्य जारी नहीं हुआ है।

कांग्रेस के घोषणा पत्र पर क्यों उठ रहे सवाल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर नीचे तक भाजपा का हर बड़ा छोटा नेता कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र को लेकर आक्रामक हो उठा है। कुछ लोगों ने तो इसे मुस्लिम लीग का घोषणा पत्र करार दे दिया है। आरोप लग रहा है कि कांग्रेस सत्ता में आयी तो वह आपकी संपत्ति छीन कर मुस्लिमों में बांट देगी। इस आरोप को सैम पित्रोदा के एक टीवी चैनल में आये एक वक्तव्य के साथ जोड़कर उठाया जा रहा है। सैम पित्रोदा कांग्रेस के विदेश विभाग के अध्यक्ष हैं। वह टी.वी. चैनल की बहस में विदेशों में संपत्ति कर के बारे में जिक्र कर रहे थे और इसमें यह कह गये कि भारत में ऐसा कर नहीं है। उन्होंने अपने वक्तव्य में यह नहीं कहा है कि भारत में भी ऐसा कर होना चाहिये। सम पित्रोदा के वक्तव्य पर जब देश के प्रधानमंत्री आक्रामक हो जाये तो इस आरोप का समझना और कांग्रेस के घोषणा पत्र को पड़ना पत्रकारिता का धर्म तथा कर्म दोनों हो जाता है। फिर जब कांग्रेस के नेता इस आरोप पर चुप्पी साध ले तो स्थिति और भी गंभीर हो जाती है। इस समय चुनाव चल रहे हैं और इसके परिणाम देश के भविष्य पर दूरगामी प्रभाव डालेंगे क्योंकि बहुत सारे नेता प्रधानमंत्री को ईश्वरीय अवतार की संज्ञा देने लग पड़े हैं। यह स्वभाविक है कि जब एक व्यक्ति को इस तरह के संबोधनों से संबोधित किया जाने लग पड़ता है तो वहां पर तर्क शून्य होकर रह जाता है। कांग्रेस के घोषणा पत्र में जातिगत और आर्थिक सर्वेक्षण करवाने की बात कही गयी है। जातिगत जनगणना बिहार में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने करवाई थी और इस जनगणना को सर्वाेच्च न्यायालय की भी हरी झण्डी हासिल है। इस जनगणना के जब आंकड़े सार्वजनिक हुये तब यह सामने आया कि 80 प्रतिशत गरीब दलित, पिछड़े वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग में से आते हैं। बिहार के इन आंकड़ों पर भाजपा ने एतराज उठाया था और राज्य में नीतीश भाजपा की सरकार टूटने में यह एक बड़ा कारण बना था। परन्तु आज फिर भाजपा और नीतीश चुनाव में इकटठे हैं। बिहार के आंकड़ों के बाद देश के कई भागों से जातिगत जनगणना की मांग उठी है। शायद इन्हीं आंकड़ों के कारण आर्थिक सर्वेक्षण की आवश्यकता समझी गयी है। क्योंकि पिछले दिनों में एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में यह सामने आया है कि भारत की कुल संपत्ति के चालीस प्रतिशत पर केवल एक प्रतिशत का कब्जा है। इस अध्ययन में स्पष्ट चेतावनी दी गयी है कि आने वाले समय में भारत में आर्थिक असमानता एक बहुत बड़ा मुद्दा बन जायेगा। भारत में 1953 में विरासत कर लगाया गया था। जिसे 1985 में स्व.राजीव गांधी के कार्यकाल में वापस लिया गया था। उसके बाद गिफ्ट टैक्स 1998 में और 2015 में वैल्थ टैक्स वापस लिया गया था। लेकिन इसी दौरान वियना स्थित ग्लोबल पॉलिसी सेंटर के निदेशक जैफरी आन्ज का सुझाव आया था कि भारत को विरासत कर फिर से लगाना चाहिए। इस सुझाव पर 2019 में यह टैक्स फिर से लगाने की संभावना बन गयी थी। मोदी सरकार के दस वर्ष के कार्यकाल में जिस तरह सार्वजनिक उपक्रमों और अन्य संसाधनों को निजी क्षेत्र के हवाले किया गया है और बड़े घरानों की ऋण माफी हुई है। उसके चलते आर्थिक सर्वेक्षण शायद अब समय की मांग बन जायेगी। ऐसे में आर्थिक सर्वेक्षण के सुझाव को संपत्ति छीनने का प्रयास करार देना सामान्य समझ से बाहिर की बात है और इसे हताशा की संज्ञा दी जाने लगी है।

सह प्रभारी का पलायन प्रदेश के लिए बड़ा संकेत

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव और हिमाचल के सह प्रभारी तेजिन्द्र बिट्टू कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गये हैं। वैसे तो इन चुनावों से कई राज्यों में कई नेता कांग्रेस छोड़कर भाजपा या अन्य दलों में शामिल हो गये हैं। नेताओं का इस तरह दल बदलना अपने में कई सवाल खड़े कर जाता है। एक समय यह निश्चित रूप से दलों के लिये कई बौद्धिक सवाल खड़े करेगा। इस समय इन लोकसभा चुनावों में भाजपा ने दूसरे दलों से सेन्ध लगाकर करीब एक लाख लोगों को भाजपा में शामिल करने का लक्ष्य रखा है। कांग्रेस मुक्त भारत का नारा तो बहुत अच्छे से भाजपा में चल रहा है। एक देश एक चुनाव का जो वायदा इस बार भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में कर रखा है उसे अब आने वाले दिनों में एक दल और एक नेता की ओर बढ़ने का पहला कदम माना जा रहा है। भाजपा की इस नीति का कालान्तर में देश पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन इस सम्भावित परिदृश्य में आज क्या कदम उठाये जाने चाहिए यह विचार करना महत्वपूर्ण हो जाता है। दूसरे दलों में सेन्ध लगाने का जो घोषित लक्ष्य रखा गया है उसे पूरा करने के लिये दूसरे दलों की सरकारें गिराना भी इस नीति का एक चरण हो सकता है। क्योंकि जब दूसरे दल स्थिर सरकारें ही नहीं दे पायेंगे तो लोगों का उनसे मोह भंग होना स्वभाविक है।
भारत एक बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुजातीय देश है। इतने बड़े देश में एक ही दल की एक ही नेता के तहत सरकार की कल्पना तक करना भयावह लगता है। क्योंकि एक ही नेता सर्वज्ञ नहीं हो सकता और जब एक नेता को ईश्वरीय संज्ञाओं से अलंकृत करने का चलन शुरू हो जाये तो वह अनिष्ट का पहला संकेत माना जाता है। इस समय प्रधानमंत्री मोदी को बहुत लोग ईश्वरीय संबोधन से संबोधित करने लग पड़े हैं। स्वभाविक है कि जब एक नेता को ऐसे संबोधित किया जाने लग जायेगा तब दूसरे दलों में पलायन का मार्ग प्रशस्त होना शुरू हो जायेगा। चुनावों के बीच हो रहा पलायन कुछ इसी तरह के संकेत दे रहा है। ऐसे पलायन को रोकना दलों के शीर्ष नेतृत्व का दायित्व हो जाता है। इस समय भाजपा और कांग्रेस ही देश में दो सबसे बड़े दल हैं और यह इनके शीर्ष नेतृत्व की जिम्मेदारी हो जाती है कि यह अपने यहां हो रहे पलायन को रोकें।
यह पलायन रोकने के लिए पलायन करने आने वाले नेताओं द्वारा अपने-अपने दलों के नेतृत्व पर लगाये जा रहे आरोपों को जानना और समझना आवश्यक हो जाता है। इसके लिये यदि कांग्रेस छोड़कर गये नेताओं के आरोपों को सामने रखा जाये तो स्थिति कुछ सरलता से सामने आ सकती है। अभी तेजिन्द्र बिट्टू ने कांग्रेस छोड़ी है और उसने आरोप लगाया है कि संगठन में चार-पांच सत्ता केंद्र हो गये हैं और उनमें आपसी तालमेल का अभाव है। हिमाचल में भी छः विधायक कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गये हैं। यह लोग लम्बे अरसे से संगठन के भीतर अपने सवाल रख रहे थे। जब संगठन में उनकी बात नहीं सुनी गयी तब मीडिया मंचों के माध्यम से भी इन्होंने अपनी बात सार्वजनिक की। लेकिन तब भी दिल्ली से लेकर शिमला तक किसी ने उनकी बात नहीं सुनी और परिणाम सामने आ गया। यहां भी समानांतर सत्ता केंद्र स्थापित होने तथा उनमें तालमेल का अभाव रहने का आरोप था। यह सत्ता केंद्र अभी भी यथास्थिति कायम हैं। यदि समय रहते स्थितियों में सुधार न हुआ तो परिणाम भयानक हो सकते हैं। तेजिन्द्र बिट्टू का पलायन प्रदेश के लिये एक बड़ा संकेत है।
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किसके वायदों पर भरोसा किया जाना चाहिये

इस लोकसभा चुनाव के लिये कांग्रेस और भाजपा दोनों के चुनाव घोषणा पत्र आ गये हैं। दोनों घोषणा पत्रों में वायदों का अंबार है। यह वायदे कैसे पूरे होंगे और इनके लिये संसाधन कहां से आयेंगे? क्या यह सब कुछ कर्ज लेकर पूरा किया जायेगा या इसके लिए आम आदमी के सिर पर और कर्ज भार डाला जायेगा इसको लेकर कुछ नहीं कहा गया है। सभी दलों के ऐसी ही घोषणाओं को लेकर उनके भी घोषणा पत्र आयेंगे और संभव है कि उनमें भी संसाधन जुटाने को लेकर कुछ नहीं कहा जायेगा। आज देश जिस आर्थिक दौर से गुजर रहा है उसमें राज्य सरकारों और केंद्र सरकार का बढ़ता कर्ज सबसे बड़ी चिंता और चिंतन का विषय बनता जा रहा है। कई अध्ययन और रिपोर्टे इस ओर संकेत कर चुकी हैं बल्कि चेतावनी तक दे चुकी हैं। जिस तरह वोट के लिये छोटे- बड़े राजनीतिक दल मुफ्ती की घोषणाएं करते आये हैं उसको लेकर रिजर्व बैंक से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक चिंता व्यक्त करते हुए इस चलन को बंद करने की सलाह दे चुके हैं। सर्वाेच्च न्यायालय में तो इस आश्य की एक याचिका भी लंबित चल रही है।
इस परिदृश्य में यदि दोनों प्रमुख दलों भाजपा और कांग्रेस के घोषणा पत्रों के कुछ बिंदुओं पर नजर डाली जाये तो स्थिति और स्पष्ट हो जायेगी। दोनों दलों में महिलाओं को लेकर एक जैसी ही बड़ी आर्थिक घोषणाएं कर रखी हैं। कांग्रेस ने हर महिला को एक वर्ष में एक लाख रूपये देने की घोषणा की है। भाजपा ने भी तीन करोड़ महिलाओं को लखपति दीदी बनाने की घोषणा की है। लेकिन किसी ने भी स्पष्ट नहीं किया है कि संसाधन कैसे जुटाया जायेगा। पिछले दस वर्ष से केंद्र की सत्ता पर भाजपा का कब्जा है। इसलिये सरकार में होने के कारण भाजपा से उसके पुराने वायदों को लेकर सवाल पूछने बनते हैं। भाजपा ने 2014 के चुनाव में देश के हर आदमी के बैंक खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख आने का वायदा किया था। इस वायदे का आधार विदेशों में भारतीयों के जमा काले धन को वापस लाना बताया गया था। काले धन के लम्बे-लम्बे आंकड़े परोसे गये थे। लेकिन न यह काला धन वापस आया और न ही पन्द्रह लाख बैंक खाते में आये। बल्कि इस दौरान विदेशों में भारतीयों के काले धन का आंकड़ा और बढ़ गया। परिणाम स्वरुप पन्द्रह लाख खाते में आने को चुनावी जुमला कहकर टाल दिया गया। इसलिये कब किसी वायदे को चुनावी जुमला बताकर बात को टाल दिया जाये इसकी संभावना लगातार बनी हुई है।
इसी केंद्र सरकार ने किसान की आय दोगुनी करने का वायदा किया था जो पूरा नहीं हुआ। इसी तरह दो करोड़ नौकरियां देने का वायदा किया गया था। आज देश को तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बनाने की बात की जा रही है और इसी के साथ अस्सी करोड लोगों को आगे भी मुफ्त राशन की सुविधा जारी रखने का वायदा किया गया है। क्या यहां यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि जिस देश की आधी से भी अधिक जनसंख्या अपने लिये राशन न जुटा पा रही हो उस देश का आर्थिक शक्ति बनने का दावा कितना भरोसे लायक हो सकता है। राम देश की आस्था है लेकिन राम मंदिर के गिर्द राजनीति को घूमाना कितना सही हो सकता है इसका विचार हरेक को अपने-अपने स्तर पर करना होगा। भाजपा-मोदी के पिछले दस वर्षों के वायदे आज उनकी कसौटी बनेंगे। इसी तरह कांग्रेस के वायदे की परख उसकी राज्य सरकारों की परफॉर्मेंस के आधार पर करनी होगी क्योंकि वह दस वर्ष से केंद्र की सत्ता से बाहर है। आज मोदी-भाजपा ने एक देश एक चुनाव और कामन मतदाता सूची का वायदा किया है। क्या व्यवहारिक रूप से इसका अर्थ एक दल और एक ही नेता का नहीं हो जाता ? आज देश के सर्वाेच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के इक्वीस पूर्व न्यायाधीशों ने सर्वाेच्च न्यायपालिका को कमजोर करने के प्रयासों की ओर मुख्य न्यायाधीश का ध्यान आकर्षित किया है। छः सौ वरिष्ठ वकीलों ने भी इस आशय का पत्र लिखा है। इसलिए आज मतदान करने से पहले इन प्रश्नों के माईने हर नागरिक को तलाशने होंगे और फिर फैसला लेना होगा कि कौन आपके मत का सही हकदार है।

चुनाव की विश्वसनीयता के लिये वी.वी.पैट की शत प्रतिशत गिनती होनी चाहिये

भाजपा ने इस लोकसभा चुनाव के लिये अब की बार चार सौ पार का नारा लगाया हुआ है। इसी के साथ दूसरे दलों के एक लाख लोगों को भाजपा में शामिल करने का लक्ष्य रखा है। अब तक अस्सी हजार लोगों को शामिल करवा लिये जाने का दावा किया जा रहा है। अब तक किस दल से कितने पूर्व मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद और पूर्व विधायक तथा अन्य पदाधिकारी भाजपा में शामिल हो चुके हैं इसकी सूचियां प्रसारित की जा रही हैं। यदि सही में भाजपा के प्रति इस स्तर की कोई वैचारिक स्वीकृति बनती जा रही है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिये। यदि ऐसा केन्द्रीय जांच एजैन्सीयों के राजनीतिक दुरुपयोग से हो रहा है तो यह निश्चित रूप से सभी के लिये आने वाले समय में घातक सिद्ध होगा। पिछले दोनों आम चुनावों में भाजपा की जीत का आंकड़ा हर बार बढ़ा है। हर चुनाव के दौरान दूसरे दलों में तोड़फोड़ हुई है। हर चुनाव के लिये एक आंकड़ा पहले ही उछाल दिया जा रहा है। और फिर हर संभव मंच से उसका प्रसार करवाया जाता रहा है ताकि परिणाम के दिन किसी को यह अजीब सा न लगे। लेकिन हर चुनाव के बाद ई.वी.एम. मशीनों की विश्वसनीयता पर सवाल भी उठते रहे हैं। यह आरोप लगते रहे हैं कि ई.वी.एम. हैक हो सकती है बल्कि इन्हीं आरोपों के साये में आयी डॉ. स्वामी की याचिका के बाद इन मशीनों में वी.वी.पैट का प्रावधान किया गया। ई.वी.एम को लेकर एक दर्जन से भी अधिक याचिकाएं विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वाेच्च न्यायालय में आ चुकी हैं। बल्कि इसी दौरान उन्नीस लाख ई.वी.एम. मशीनों के गायब होने का सच भी आर.टी.आई. के माध्यम से बाहर आ चुका है। जिस पर अभी तक कोई निर्णायक कारवाई नहीं हो पायी है। जब किसी चयन प्रक्रिया पर सवाल उठने शुरू हो जाते हैं तो उस चयन के परिणामों की विश्वसनीयता स्वतः ही प्रश्नित हो जाती है। 2019 के चुनाव में 542 लोकसभा चुनाव क्षेत्रों में से 373 चुनाव क्षेत्रों में कुल डाले गये वोटो और गिने गये वोटो में बड़ा अन्तराल पाया गया था। लेकिन परिणाम भाजपा के घोषित और प्रचारित आंकड़े के करीब रहे। स्वभाविक है कि जब 542 में से 373 चुनाव क्षेत्रों में इस तरह की विसंगति सामने आयेगी तो कोई भी व्यक्ति ऐसे परिणाम पर विश्वास कैसे कर पायेगा। यदि चुनाव परिणामों की अपनी विश्वसनियता ही सन्देह के दायरे में आयेगी तो ऐसे परिणाम के आधार पर बनाई गयी सरकार की स्वीकार्यता कैसे बन पायेगी। स्वभाविक है कि ऐसी बनी सरकार को उसकी एजैन्सीयों के दुरुपयोग करने से नहीं रोका जा सकता। चुनाव में यदि विश्वसनीयता की कमी होगी तो उसके परिणाम किसी भी गणित से देश के लिये शुभ नहीं हो सकते। इस समय सर्वाेच्च न्यायालय के पास ए.डी.आर और इंडिया गठबंधन की याचिका विचाराधीन चल रही है। इसमें यह मांग की गयी है कि वी.वी.पैट की पर्ची को स्वयं मतदाता चुनाव बॉक्स में डालें। इसका प्रावधान किया जाये। दूसरी मांग यह है कि शत प्रतिशत वी.वी.पैट की गणना सुनिश्चित की जाये जो अभी 5% ही है। इस मांग पर चुनाव आयोग का यह ऐतराज है कि इससे मतगणना और परिणाम घोषित करने में पांच-छः दिन का और समय लग जायेगा। जब पहले ही चुनाव प्रक्रिया इतनी लंबी कर दी गयी है तो उसमें छः दिन का और समय लग जाने से कोई अन्तर नहीं आयेगा। चुनाव की विश्वसनीयता स्थापित करने के लिये सर्वाेच्च न्यायालय को यह मांग स्वीकार कर लेनी चाहिये और चुनाव आयोग को भी इसका विरोध नहीं करना चाहिये।

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