Thursday, 18 September 2025
Blue Red Green
Home सम्पादकीय

ShareThis for Joomla!

क्या मोदी ‘‘राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा’’ के बाद भी शंकित है

राम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन के बाद जो कुछ बिहार झारखण्ड और चण्डीगढ़ में घटा है उसने संवेदनशील नागरिकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। यह सवाल उठ है कि जिस तरह से चण्डीगढ़ के मेयर का चुनाव भाजपा ने जीता है क्या उसी तरह का आचरण लोकसभा चुनावों में भी देखने को मिलेगा? यह आशंका इसलिये महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि ई.वी.एम. पर हर चुनाव के बाद उठते सवाल आज वकीलों के आन्दोलन तक पहुंच गये है। उन्नीस लाख के लगभग ई.वी.एम. मशीने गायब होने का खुलासा आर.टी.आई. के माध्यम से सामने आ चुका है। ई.वी.एम. हैक हो सकती है इसका प्रमाण दिल्ली विधानसभा के पटल पर किया जा चुका है। चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय पर इस सबका कोई असर नही हो रहा है। संभव है कि इस बार ई.वी.एम. के खिलाफ उठा आन्दोलन बहुत दूर तक जाये। इस समय महंगाई, बेरोजगारी और बढ़ती गरीबी पर उठते सवालों का कोई जवाब सरकार नही दे रही है। देश की आर्थिकी पर परोसे जा रहे दावों और आंकड़ों पर सवाल उठाना संभव नही रह गया है। जी.डी.पी. की बढ़ौतरी स्थिर मूल्य पर है या चालू कीमतों पर इसका कोई जवाब सरकार के पास नही है। सारे आंकड़ें बढ़ते कर्ज पर आधारित हैं। जी.डी. पी. का 80 प्रतिशत कर्ज है और यह कर्ज चुकाने के बाद क्या बचेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इतने कर्ज के बाद भी जब देश की 80 करोड़ जनता सरकार के सस्ते राशन के सहारे जिन्दा है तो इसी से प्रति व्यक्ति की बढ़ती आय का सच सामने आ जाता है। यह चित्र एक व्यवहारिक सच है जो हर चुनाव के बाद और नंगा होकर आम आदमी के सामने आता जा रहा है। यही सच आम आदमी की चिन्ता और चिन्तन का केंद्र बनता जा रहा है।
लेकिन यह भी एक प्रमाणित सच है कि रात चाहे कितनी भी काली और लम्बी क्यों न हो पर सवेरा आकर ही रहता है। इस समय सारे गंभीर प्रश्नों से ध्यान हटाने का जो प्रयोग धर्म और जातियों में आपसी टकराव खड़ा करके किया जा रहा था उसका एक चरम अभी राम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा के रूप में सामने आ चुका है। इस आयोजन पर शंकराचार्यों से लेकर अन्य विश्लेषको ने जो सवाल उठाये हैं उससे शायद सत्ता को कुछ झटका लगा है। इसलिये इस आयोजन के बाद राहुल गांधी के न्याय यात्रा को असफल करने के लिये हर राज्य में अड़चने पैदा करने का प्रयास किया गया है। इसी के लिये ‘‘इण्डिया’’ गठबन्धन को तोड़ने के सारे प्रयास शुरू हो गये हैं। जिस तरह से गठबन्धन के बड़े घटक दल अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस को सीटे देने के लिये तैयार नही हो रहे हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि चुनावों से पहले ही यह गठबन्धन दम तोड़ देगा। सभी दल अलग-अलग चुनाव लड़ने की बाध्यता पर आ जायेंगे।
राम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा आयोजन ने हर दल को प्रभावित किया है। बल्कि हर दल में वह लोग स्पष्ट रूप से चिन्हित हो गये हैं जो धर्म की राजनीति में संघ भाजपा के जाल में पूरी तरह फंस चुके हैं। ऐसे में यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि जो राजनीतिक लोग या दल धर्म और राजनीति में ईमानदारी से अन्तर मानते हैं उन्हें बड़े जोर से यह कहना पड़ेगा की राम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा का जो आयोजन हुआ है वह शुद्ध रूप से संघ भाजपा का एक राजनीतिक कार्यक्रम था। इस आयोजन के बाद भाजपा के ही अन्दर उठने वाले सवालों को लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न देकर चुप करवाने का प्रयास किया गया है। लेकिन इस आयोजन के बाद जो कुछ बिहार, झारखण्ड और चण्डीगढ़ में घटा है उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि मोदी अभी भी शंकित हैं कि क्या अकेला राम मन्दिर ही उनको सफलता दिला पायेगा? इसी शंका ने उनको ‘‘इण्डिया’’ को तोड़ने के प्रयासों में लगा दिया है। ‘‘इण्डिया’’ में नीतीश कुमार, ममता बैनर्जी, अखिलेश यादव और केजरीवाल की सीट शेयरिंग को लेकर जिस तरह का आचरण सामने आ रहा है उसका भाजपा और कांग्रेस पर क्या प्रभाव पड़ेगा इस पर अगले अंक में आकलन किया जायेगा। लेकिन जो कुछ मोदी ने किया है वहां निश्चित रूप से उनके डर का ही प्रमाण है।

क्या राम मन्दिर असफलताओं को छुपाने का माध्यम बनेगा?

क्या राम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा एक राजनीतिक आयोजन था? क्या राम से जुड़ी आस्था का राजनीतिक करण था यह आयोजन? क्या देश के सारे राजनीतिक दल न चाहते हुये भी इसमें एक पक्ष बन गये हैं? यह और ऐसे कई सवाल आने वाले समय में उठेंगे। क्योंकि देश का संविधान अभी भी धर्मनिरपेक्षता पर केंद्रित है। यह देश बहु धर्मी और बहु भाषी है। ऐसे में सरकार का घोषित/अघोषित समर्थन किसी एक धर्म के लिये जायज नहीं ठहराया जा सकता। राम मन्दिर आन्दोलन पर अगर नजर डाली जाये तो इस पर शुरू से लेकर आखिर तक संघ परिवार और उसके अनुषंगिक संगठनों का ही वर्चस्व रहा है। यही कारण रहा है कि आज संघ-भाजपा में ही इसके प्रणेता हाशिये पर चले गये और वर्तमान नेतृत्व इसका सर्वाे सर्वा होकर भगवान विष्णु के अवतार होने के संबोधन तक पहुंच गया। इस स्थिति का संघ/भाजपा के भीतर ही क्या प्रभाव पड़ेगा यह भी आने वाले दिनों में सामने आयेगा यह तय है। क्योंकि पूरा आयोजन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गिर्द केन्द्रित हो गया था। भाजपा के अन्य शीर्ष नेता इस आयोजन में या तो आये ही नहीं या उन पर कैमरे की नजर ही नहीं पडी।
राम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा को लेकर देश के शीर्ष धर्मगुरुओं चारों शंकराचार्यों ने यह सवाल उठाया था कि अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती। ऐसा करना कई अनिष्टों का कारण बन जाता है। शंकराचार्यों का यह प्रश्न इस आयोजन में अनुत्तरित रहा है। लेकिन आने वाले समय में यह सवाल हर गांव में उठेगा। क्योंकि हर जगह मन्दिर निर्माण होते ही रहते हैं। इसी आयोजन में प्राण प्रतिष्ठा से पहले साढ़े सात करोड़ से निर्मित दशरथ दीपक का जलकर राख हो जाना क्या किसी अनिष्ट का संकेत नहीं माना जा सकता? स्वर्ण से बनाये गये दरवाजे पर उठे सवालों को कितनी देर नजरअन्दाज किया जा सकेगा? प्राण प्रतिष्ठा के बाद शीशे का न टूटना सवाल बन चुका है। आज मौसम जिस तरह की अनिष्ट सूचक होता जा रहा है क्या उसे आने वाले दिनों में अतार्किक आस्था अगर इन सवालों का प्रतिफल मानने लग जाये तो उसे कैसे रोका जा सकेगा। हिन्दू एक बहुत बड़ा समाज है जिसमें मूर्ति पूजक भी हैं और निराकार के पूजक भी हैं। राम की पूजा करने वाले भी हैं और रावण के पूजक भी हैं। आर्य समाज ने तो हिन्दू धर्म के समान्तर एक अपना समाज खड़ा कर दिया है। आर्य समाजियों के अनुसार वेद का कोई मन्त्र यह प्रमाणित नहीं करता कि मूर्ति में प्राण डाले जा सकते हैं? राधा स्वामी कितना बड़ा वर्ग है क्या उसे राम की मूर्ति की पूजा के लिये बाध्य किया जा सकता है। संविधान निर्माता डॉ. अम्बेदकर क्यों बौद्ध बने थे? ऐसे अनेकों सवाल हैं जो इस आयोजन के बाद उठेंगे उसमें हिन्दू समाज की एकता पर किस तरह का प्रभाव पड़ेगा यह देखना रोचक होगा।
इस आयोजन ने हर राजनीतिक दल और नेता को इसमें एक पक्ष लेने की बाध्यता पर लाकर खड़ा कर दिया है। यही इस आयोजन के आयोजकों की सफलता रही है। इस आयोजन के बाद लोकसभा का चुनाव समय से पूर्व करवाने के संकेत स्पष्ट हो चुके हैं। इस चुनाव में राम मन्दिर निर्माण और उसकी प्राण प्रतिष्ठा को केन्द्रिय मुद्दा बनाया जायेगा। सारे सवालों को नजर अन्दाज करते हुये प्राण प्रतिष्ठा को अंजाम देना प्रधानमंत्री की बड़ी उपलब्धि माना जायेगा। इस उपलब्धि के साये में देश की आर्थिकी, बेरोजगारी और महंगाई पर उठते सवालों को राम विरोध करार दिया जायेगा। जिन गैर भाजपा राज्य सरकारों ने इस आयोजन के दौरान भाजपा की तर्ज पर ही कई कार्यक्रम और आयोजन आयोजित किये हैं वह लोकसभा चुनावों में भाजपा को मात दे पाते हैं या देखना भी रोचक होगा। क्योंकि हर सरकार राम मन्दिर के आचरण में अपनी असफलताओं को छुपाने का प्रयास करेंगे।

‘‘सरकार गांव के द्वार’’ कितना सार्थक होगा यह प्रयोग

हिमाचल सरकार ने ‘सरकार गांव के द्वार’ कार्यक्रम शुरू किया है। मुख्यमंत्री के मुताबिक इस कार्यक्रम के माध्यम से सरकार के परिवर्तनकारी निर्णय और उनके सकारात्मक परिणामों से लोगों को अवगत करवाया जा रहा है। सरकार यदि गांव के द्वार पहुंचने का प्रयास करती हैं तो इससे अच्छा फैसला कोई नहीं हो सकता क्योंकि सरकार के हर फैसले हर योजना का परीक्षा स्थल गांव ही है। ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि सरकार जब गांव के द्वार पर जाये तो उसका जाना केवल लाभार्थियों से ही संवाद तक सीमित होकर न रह जाये। ऐसे कार्यक्रम की सार्थकता तभी प्रमाणित हो पायेगी यदि सही में यह आम आदमी का संवाद बन पाये। इसके लिये आवश्यक है कि अब भी सरकार इस कार्यक्रम के तहत गांव जाये तो उसके पास उन सारी योजनाओं और फैसलों की जानकारी हो जो पिछले दस वर्षों में पूर्व सरकारों ने इसी आम आदमी को केंद्र में रख कर लिये थे। यह व्यवहारिक रूप से देखा जाये कि इसमें से कितने फैसले जमीनी हकीकत बन पाये हैं और कितने बजट के अभाव में केवल कागजी होकर रह गये हैं। ऐसे दर्जनों फैसले मिल जायेंगे जो बजट पत्रों में दर्ज हो गये और उनके आधार पर सरकारों को श्रेष्ठता के अवार्ड भी मिल गये लेकिन चुनावों में जनता को उन सरकारों को नकार दिया। यदि पिछले कुछ दशकों में लिये गये फैसले सही में जनहित परक होते तो आज प्रदेश लगातार कर्ज और बेरोजगारी के दल दल में धंस्ता नहीं चला जाता।
इस समय ‘सरकार गांव के द्वार’ कार्यक्रम के तहत पिछले दिनों आयोजित की गयी राजस्व लोक अदालतों के लाभार्थी और आपदा में मकान आदि के लिये मिलने वाली आर्थिक सहायता पाने वाले दो वर्ग ही सामने आ रहे हैं। जबकि राजस्व अदालतों में इंतकाल आदि के लंबित मामले शुद्ध रूप से प्रशासनिक असफलता का प्रमाण है। यह अदालत आयोजित करके लोगों को राहत देने से ज्यादा भ्रष्ट तंत्र को ढकने का ज्यादा प्रयास है। क्योंकि क्या हर सरकार ऐसे मामलों को निपटाने के लिये ऐसी अदालतें आयोजित करके अपनी पीठ थपथपाती रहेगी। इसके लिये स्थायी व्यवस्था कौन करेगा। कायदे से तो ऐसे तंत्र के विरुद्ध कड़ी कारवाई की जानी चाहिये थी। पिछले दिनों प्रदेश उच्च न्यायालय ने प्रशासनिक दायित्व के साथ ही न्यायिक कार्य कर रहे अधिकारियों के काम काज पर जब अप्रसन्नता व्यक्त की तब सरकार ने यह आयोजन शुरू किया।
आज हिमाचल के लिये कर्ज और बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या बनती जा रही है। प्रदेश का जो कर्ज भार 2013-14 में 31442.56 करोड़ दिखाया गया था वह आज एक दशक में एक लाख करोड़ के पास क्यों पहुंच गया है। यह सारा कर्ज विकास कार्यों के नाम पर लिया गया है क्योंकि राजस्व व्यय के लिये सरकारें कर्ज नहीं ले सकती। क्या सरकार अपने कार्यक्रमों में जनता को यह जानकारी देगी कि यह कर्ज कौन से कार्यों के लिये लिया गया और उससे कितना राजस्व प्राप्त हुआ है। इस समय जो अधीनस्थ सेवा चयन आयोग भंग कर दिया गया था उसकी जे.ओए.आई.टी. कोड की परीक्षा पास किये हुये बच्चे पिछले चार वर्षों से परिणाम की प्रतीक्षा में बैठे अब यह मांग करने पर आ गये हैं कि ‘हमें नौकरी दो या जहर दे दो’। क्या सरकार गांव के द्वार पर जाकर इन बच्चों और उनके अभिभावकों के प्रश्नों का जवाब दे पायेगी? इसी तरह एस.एम.सी. शिक्षकों और गेस्ट टीचरों के मसलों पर जनता का सामना कर पायेगी? यही स्थिति मल्टीपरपज के नाम पर भर्ती कियें गये 6000 युवाओं की है क्या वह 4500 रुपए में अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर पायेंगे? क्या इन सवालों को केंद्र से सहायता न मिल पाने के नाम पर लम्बे समय के लिये टाला जा सकेगा? क्या जनता इन सवालों पर मुख्य संसदीय सचिवों और एक दर्जन से अधिक सलाहकारों और विशेष कार्य अधिकारियों की नियुक्तियों के औचित्य पर सवाल नहीं पूछेगी?

 

क्या अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा हो सकती है

राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद का इतिहास सैकड़ो वर्षों का रहा है। इस विवाद के पन्ने अब पलटने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि इसमें हजारों लोगों का बलिदान दर्ज है। बाबरी मस्जिद गिराई गयी थी तब भी कई लोगों की शहादत हुई है। भाजपा की चार राज्यों की सरकारें इस आन्दोलन की भेंट चढ़ी है। यह सही है कि इस आन्दोलन का राजनीतिक लाभ केवल भाजपा को मिला है। क्योंकि इस आन्दोलन में संघ और उसके अनुषगिक संगठनों की भूमिका अग्रणी रही है। 8 अप्रैल 1984 को दिल्ली में संत महात्माओं और हिन्दू नेताओं ने अयोध्या के श्री राम जन्मभूमि स्थल की मुक्ति और ताला खुलवाने का निर्णय लिया था। 1989 के प्रयाग कुंभ मेले के दौरान मन्दिर निर्माण के लिये गांव-गांव शिलापूजन करवाने का फैसला लिया और इसके बाद यह एक आन्दोलन बन गया। सौ वर्षों से अधिक तक यह मामला अदालतों में रहा। 2019 में जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तब अदालती लड़ाई का अन्त हुआ। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ही राम मन्दिर निर्माण ट्रस्ट का 2020 में गठन हुआ।
राम मन्दिर आन्दोलन में देश के साधु संतों और हिन्दू नेताओं की अग्रिम भूमिका रही है। कांग्रेस और भाजपा सभी सरकारों का इसमें योगदान रहा है। क्योंकि भगवान राम सबके पूज्य हैं। बहुत लोगों ने इसके निर्माण के लिये यथासंभव आर्थिक योगदान भी किया है। मन्दिर के निर्माण के बाद इसमें मूर्ति की स्थापना और मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा इसके अभिन्न अंग है। लेकिन इस समय जो 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा का आयोजन किया जा रहा है उसको लेकर मन्दिर ट्रस्ट के साथ बहुत लोगों का गंभीर वैचारिक मतभेद उभर गया है क्योंकि मन्दिर का निर्माण इस वर्ष के अन्त तक पूरा हो पायेगा। जब तक मन्दिर पर गुंबद और ध्वजा की स्थापना न हो जाये तब तक मन्दिर के निर्माण को पूरा नहीं माना जाता। अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा का हमारे धर्म ग्रंथो में कोई प्रावधान ही नहीं है। क्योंकि गुंबद और ध्वजा के निर्माण के लिये तो मंदिर पर चढ़ना पड़ेगा। लेकिन मूर्ति स्थापना के बाद ईश्वर के सिर पर पैर नहीं रखे जाते। इसी अधूरे निर्माण पर चारों शंकराचार्यों का विरोध है और शंकराचार्योंं से बड़ा कोई धर्मगुरु नहीं है।
प्राण प्रतिष्ठा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका अग्रणी है। इस अग्रणी भूमिका को राजनीतिक तराजू में तोल कर देखा जा रहा है। इस निर्माण का श्रेय वह स्वयं लेना चाहते हैं और आने वाले लोकसभा चुनावों में यह उनका सबसे बड़ा चुनावी हथियार होगा। प्रधानमंत्री इस आयोजन के अग्रणी पुरुष होंगे इसीलिये विभिन्न राजनीतिक दलों में इसमें शामिल होने को लेकर आन्तरिक विवाद उभरने लग पड़े हैं। यह विवाद ही इस आयोजन का प्रसाद माना जा रहा है। लेकिन जिस स्तर पर शंकराचार्यों ने इस प्राण प्रतिष्ठा में शामिल होने से इन्कार कर दिया है। साधु महात्माओं का एक वर्ग इसके विरोध में खड़ा हो गया है। इस विरोध से यह सवाल खड़ा हो गया है की जो प्रधानमंत्री अधूरे मन्दिर की ही प्राण प्रतिष्ठा करवाने जा रहे हैं उन्हें धर्म का संरक्षक कैसे मान लिया जाये। इस अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद जो सवाल उठेंगे वह संघ भाजपा के लिये नुकसानदेह होंगे यह तय है।

बिजली बोर्ड क्यों नहीं दे पाया समय पर वेतन और पैन्शन

हिमाचल सरकार का सार्वजनिक उपक्रम राज्य विद्युत बोर्ड अपने कर्मचारियों और पैन्शनरों की इस बार समय पर वेतन तथा पैन्शन का भुगतान नहीं कर पाया है। ऐसा बोर्ड के इतिहास में पहली बार हुआ है। बोर्ड का वेतन और पेैन्शन का करीब 190 करोड़ प्रति माह का खर्च है जबकि इसका मासिक राजस्व इससे दो गुना है। बिजली बोर्ड से पहले पथ परिवहन निगम में भी ऐसी स्थिति आ चुकी है। सरकार कर्मचारियों के पिछले बकाया का भी भुगतान नहीं कर पायी है। महंगाई भत्ता भी प्रशनित चल रहा है। इस स्थिति से आम जनता में यह सन्देश गया है की सरकार की आर्थिक सेहत ठीक नहीं है। इस अनचाहे सन्देश से यह आशंका बहुत बलवती हो गयी है की जो सरकार अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन और पैन्शन ही नहीं दे पा रही है वह जनता को दी हुई गारंटियां कैसे पूरा कर पायेगी। इस परिदृश्य में यह चिन्तन और चिन्ता करना स्वभाविक हो जाता है कि जो उपक्रम राजस्व का अपने में ही बड़ा स्त्रोत है उनके ही कर्मचारियों को समय पर भुगतान न हो पाने की स्थिति क्यों और कैसे आ खड़ी हुई? स्वभाविक है कि इसके लिये उपक्रम का प्रबन्धन और सरकार की नीतियों के अतिरिक्त और कोई जिम्मेदार नहीं हो सकता।
बिजली बोर्ड के प्रबन्धन को लेकर इसका कर्मचारी संगठन पिछली सरकार के समय से ही इस पर गंभीर सवाल उठता रहा है। लेकिन कर्मचारी संगठन के आरोप पर न तब की सरकार ने कोई ध्यान दिया और न अब की सरकार ने। बल्कि अब तो उसी नेतृत्व को और महिमा मण्डित कर दिया गया है। अब जो नेतृत्व बोर्ड को दिया गया है उसको लेकर भी कर्मचारी संगठन के गंभीर आरोप हैं। यह आरोप रहा है कि बोर्ड नेतृत्व में बोर्ड के हितों के स्थान पर सरकार में बैठे राजनीतिक आकांओं के हितों की ज्यादा रक्षा की। इसलिये आज के संकट के लिये भी कर्मचारी संगठन बोर्ड के प्रबन्धन को ज्यादा जिम्मेदार ठहरा रहा है।
प्रबन्धन की नाकामी के साथ ही यह भी सामने आया है की पिछली सरकार ने जो 125 यूनिट फ्री बिजली देने का फैसला लिया था उसमें इस घाटे की भरपाई सरकार को करनी थी। लेकिन इस समय मुफ्त बिजली देने के बदले जो पैसा सरकार ने बिजली बोर्ड को देना था उसे यहां सरकार नहीं दे पायी है। इस समय फ्री बिजली का 170 करोड़ सरकार ने बोर्ड को देना है। यदि इस पैसे का भुगतान सरकार कर देती तो शायद यह संकट न आता। इस परिप्रेक्ष में यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने तो चुनावों में 300 यूनिट फ्री बिजली देने की गारंटी दी है। यदि सरकार 125 यूनिट की भरपाई ही नहीं कर पा रही है तो 300 यूनिट की भरपाई कैसे कर पायेगी? आज मुफ्ती की जितनी गारंटीयां सरकार ने चुनावों के दौरान जनता को दे रखी हैं क्या उनकी भरपाई हो पायेगी? इन गारंटीयों को पूरा करने के लिये जो खर्च आयेगा वह कहां से पूरा होगा? क्या उसके लिये कर्ज लेने या जनता पर करो का बोझ डालने के अतिरिक्त और कोई विकल्प है? मुफ्ती के लाभार्थियों की संख्या से उन लोगों की संख्या ज्यादा है जो इस लाभ के दायरे से बाहर है और मुफ्ती की अपरोक्ष में भरपाई करते हैं। आज जो मुफ्ती की गारंटरयां सरकार ने दे रखी है क्या उनकी भरपाई पर जो खर्च आयेगा उसका आंकड़ा सरकार जारी करेगी? क्या यह बताया जायेगा कि यह खर्च कहां से आयेगा? इस समय 125 यूनिट फ्री बिजली देने के बाद वर्तमान सरकार ने भी दो बार बिजली की दरें बढ़ाई है और फिर भी समय पर वेतन तथा पैन्शन का भुगतान न हो पाना अपने में सरकार की नीतियों पर एक गंभीर सवाल है। बिजली बोर्ड की स्थिति ने इस सवाल को जनता के सामने पूरी नग्नता के साथ रख दिया है की क्या कर्ज लेकर मुफ्ती के वायदे पूरे किए जाने चाहिये?

Facebook



  Search