Tuesday, 16 December 2025
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क्या विपक्षी एकता बनी रहेगी

इस समय देश एक कठिन राजनीतिक दौर से गुजर रहा है क्योंकि 2014 में जिन वायदों पर सत्ता परिवर्तन हुआ था उनका असली चेहरा अब जनता के सामने उजागर होता जा रहा है। 2014 में भ्रष्टाचार के खिलाफ जिन आंकडों और तथ्यों के सहारे एक वातावरण खड़ा किया गया था उनका खोखलापन अब सबके सामने आ चुका है। कैग की जिस रिपोर्ट के सहारे जी स्पैक्ट्रम का 1,76 000 करोड. का घपला होना जनता में परोसा गया था वह घपला हुआ ही नहीं था यह स्वीकारोक्ति है। उस विनोद राय की जिसने कैग रिपोर्ट का संकलन किया था। आज कैग और आर बी आई की जो रिपोर्ट आ चुकी है उनका आंकड़ा कई गुणा बड़ा है । यह सब आने वाले चुनाव में बड़े मुद्दे होंगे। जो लोग बैंकों का लाखों करोड़ का ऋण लेकर देश छोड़कर जा चुके हैं उनकी वापसी वायदों से आगे नहीं बढ़ी है। जिन लोगों के खिलाफ 2014 में भ्रष्टाचार का एक बड़ा आवरण खड़ा किया गया था उन्हें दस वर्षों में चालान अदालत तक ले जाने के मुकाम पर भी नहीं पहुंचाया जा सका है। यही नहीं अब चुनावों से पहले जन विश्वास विधयेक के माध्यम से 183 धाराओं से जेल की सजा का प्रावधान हटाया गया और उनमें ई डी और सी बी आई भी शामिल है। जबकि ई डी, सी बी आई बीते दस वर्षों में सत्ता के मुख्य सूत्र रहे हैं । आज अकेले अदानी के नाम देश के बैंकों का इतना ऋण है कि यदि किन्हीं कारणो से वह इस ऋण को चुकाने में असमर्थ हो जाए तो पूरे देश के बैंक एक क्षण में डूब जाएंगे और जन विश्वास विधयेक के माध्यम से लाये गये संशोधन से अब बैंक ऋण में डिफाल्टर होने पर जेल का प्रावधान हटा दिया है । इस तरह 2014 से अब तक जो कुछ घटा है यदि उस सब को एक साथ जोड़कर देखा जाए तो आज सवाल देश में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं के भविष्य के सुरक्षित रहने के मुकाम पर पहुंच गया है। पहली बार विपक्षी दलों को इकट्ठे होकर ई डी और सी बी आई के राजनीतिक दुरुपयोग के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय में गुहार लगानी पड़ी है। जो आशंकाएं विपक्ष में व्यक्त की थी वह काफी हद तक सिसोदिया मामले में सामने आ चुके है।
भविष्य के इन सवालों ने ही विपक्षी दलों को एक मंच पर आने के लिए व्यवहारिक रुप से प्रेरित किया और परिणामस्वरुप इण्डिया गठबन्धन सामने आया है। इस इण्डिया गठबन्धन के कारण ही ‘ एक देश एक चुनाव ‘ और महिला आरक्षण जैसी योजनाएं सामने आयी जिन्हे जमीनी हकीकत बनने में लम्बा समय लगेगा। इन्ही योजनाओं के बीच सनातन धर्म का सवाल खड़ा हुआ। इंडिया भारत बना और संविधान की प्रस्तावना से सामाजिक और धर्मनिरपेक्ष शब्द गायब हुए। इन प्रयोगों से स्पष्ट हो जाता है कि सत्तारुढ. गठबन्धन को सत्ता से बेदखल कर पाना बहुत आसान नहीं होगा। यह गठबन्धन लोकसभा चुनावों के लिए बना है और शायद इसी कारण से एक देश के चुनाव को व्यवहारिक रुप नहीं दिया गया । अभी जो पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उसमें इसी इण्डिया गठबन्धन के दल एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं । बल्कि यही चुनाव तय करेंगे कि लोकसभा चुनावों तक इण्डिया कितना एकजुट हो पाता है। सत्तारुढ. भाजपा एन डी ए इन विधानसभा चुनावों में इण्डिया के घटक दलों के आपसी टकराव को देश में एक बड़े स्तर पर प्रचारित और प्रसारित करेगी। क्योंकि सभी राजनीतिक दलों का जन्म एक दूसरे के विरोध से ही तो होता है। फिर इन चुनावों में कौन सा दल मुफ्ती की कितनी घोषणाएं करता है और उनको पूरा करने के लिए कितने कर्ज का बोझ जनता पर डालता है। यह भी इण्डिया का भविष्य तय करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा। क्योंकि इन विधानसभा चुनावों के बाद लोकसभा चुनावों के बीच इतना पर्याप्त समय रह जाता है कि चुनावी घोषणाओं की व्यवहारिकता पूरी स्पष्टता से सामने आ जायेगी। फिर इन विधानसभा चुनावों को प्रभावित करने के लिये विपक्ष में कांग्रेस की किसी राज्य सरकार को अपदस्थ करने तक की व्यूह रचना कर दी जाये। ऐसे में इण्डिया गठबन्धन को कमजोर करने के लिये आने वाले समय में कुछ भी खड़ा हो जाने की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता।

वक्त की जरूरत है जातिगत जनगणना

जातिगत जनगणना इस समय का सबसे बड़ा चुनावी और राजनीतिक मुद्दा बनता नजर आ रहा है। क्योंकि देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस इस पर अलग-अलग राय रख रहे हैं। भाजपा इस गणना को हिन्दू समाज को तोड़ने का प्रयास करार दे रही है। वहीं पर कांग्रेस इसे वक्त की जरूरत बताकर कांग्रेस शासित सभी राज्यों में यह गणना करवाने और उसके बाद आर्थिक सर्वेक्षण करवाने का भी ऐलान कर चुकी है। जाति प्रथा शायद हिन्दू धर्म के अतिरिक्त और किसी भी धर्म में नहीं है। हिन्दू धर्म में तो जातियों की श्रेष्ठता छुआछूत तक जा पहुंची है। नीच जाति के व्यक्ति के छुने भाव से ही बड़ी जाति वाले का धर्म भ्रष्ट हो जाता रहा है। आज भी ऐसे कई इलाके हैं जहां पर हिन्दुओं के मंदिरों में नीच जाति वालों का प्रवेश वर्जित है। कई मंत्री और राष्ट्रपति तक इस वर्जनों का दंश झेल चुके हैं। जबकि कानूनन छुआछूत दण्डनीय अपराध घोषित है। लेकिन व्यवहार में यह जातिगत वर्जनाएं आज भी मौजूद हैं। जातिगत असमानताएं हिन्दू समाज का एक भयानक कड़वा सच रहा है। इसी कड़वे सच के कारण आजादी के बाद 1953 में ही काका कालेलकर आयोग का गठन इन जातियों को मुख्य धारा में लाने के उपाय सुझाने के लिये किया गया था और तब एस.सी. और एस.टी. के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया गया था। मण्डल आयोग में अन्य पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण का प्रावधान किया गया। आर्थिक पिछड़ेपन को भी आरक्षण का आधार बनाया गया। लेकिन इन सारे प्रावधानों का व्यवहारिक रूप से आरक्षित वर्गों पर क्या प्रभाव पड़ा इसके सर्वेक्षण के लिये आज तक कुछ नहीं किया गया। इन आरक्षित वर्गों के ही अति पिछड़े कितने मुख्यधारा में आ पाये हैं इसके कोई स्टीक आंकड़े उपलब्ध नहीं है। इसलिए आज जातिगत जनगणना इस समय की आवश्यकता बन गयी है और यह हो जानी चाहिये।
जहां तक इस गणना से हिन्दू समाज में विभाजन होने का आरोप लगाया जा रहा है वह अपने में ही निराधार है। क्योंकि हिन्दू समाज उच्च वर्गों का ही एक अधिकार नहीं है। पिछले दिनों जब हिन्दू धर्म में व्याप्त मठाधिशता पर कुछ तीखे सवाल आये तब उसे सनातन पर प्रहार के रूप में क्यों देखा गया? इसका तीव्र विरोध करने का आवहान क्यों किया गया? तब धर्म में फैले ब्राह्मणवाद के एकाधिकार पर उठते सवालों से बौखलाहट क्यों फैली? क्या बड़े-बड़े मंदिरों के निर्माण से ही समाज से भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई से निजात मिल पायेगी? शायद नहीं? बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि ऐसे मंदिरवादी प्रयोगों से ही धर्म का ज्यादा ह्रास हो रहा है। नई पीढ़ी को इन भव्य मंदिरों के माध्यम से धर्म से बांधकर रखने के प्रयास फलीभूत नहीं होंगे।
जो लोग इस गणना को चुनावों से जोड़कर देख रहे हैं और इस प्रयोग को हिन्दुओं को विभाजित करने का प्रयास मान रहे हैं उन्हें यह समझना होगा कि यह तर्क किन लोगों की तरफ से आ रहा है? भारत बहु धर्मी बहु जाति और बहु भाषी देश है। इसमें देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने का प्रयास कौन लोग कर रहे हैं? कौन लोग मनुस्मृति को स्कूली पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की वकालत कर रहे हैं? कौन लोग आज देश के मुस्लिम समाज को संसद और विधानसभाओं से बाहर रखने का प्रयास कर रहे हैं? क्या ऐसे प्रयासों से पूरा देश कमजोर नहीं हो रहा है? इंण्डिया से भारत शब्दों के बदलाव से ही नहीं बना जायेगा। उसके लिये  ”वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा पर व्यवहारिक रूप से आचरण करना होगा। संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को हटाने की मानसिकता ने देश में जातिगत जनगणना की आवश्यकता को जन्म दिया है। इस वस्तु स्थिति में यह जनगणना पहली आवश्यकता बन गयी है ताकि यह पता चल सके कि किसके पास कितने संसाधन पहुंचे हैं? देश की शासन-प्रशासन व्यवस्था में किसकी कितनी भागीदारी हो पायी है।

शिक्षा पर आयी विश्व बैंक की रिपोर्ट से उठते सवाल

शिक्षा पर विश्व बैंक की इन दिनों रिपोर्ट आयी है। 12 देशों को लेकर आयी इस रिपोर्ट में भारत दूसरे स्थान पर है। जहां दूसरी कक्षा के बच्चे क ख पढ़ने में असमर्थ है। इस सूची में मलावी पहले स्थान पर है। वर्तमान रिपोर्ट से पहले 2018 में भी विश्व बैंक शिक्षा पर रिपोर्ट जारी कर चुका है। इस रिपोर्ट के साथ ही भारत की राष्ट्रीय स्तर की स्वयंसेवी संस्थाओं की भी शिक्षा पर रिपोर्ट आया थी। इस रिपोर्ट में हिमाचल को लेकर भी टिप्पणियां हैं। जिनमें यह कहा गया है कि हमारे सरकारी स्कूलों के चौथी पांचवी के बच्चे दूसरी तीसरी कक्षा की किताब पढ़ने और हिसाब करने में अटकते हैं। आठवीं और नवीं कक्षा के छात्रों की स्थिति तो और भी चिंताजनक बताई गयी है। इन रिपोर्टों पर सरकार की ओर से कोई खंडन नहीं आया है। इन दिनों मोदी सरकार द्वारा लायी गयी नई शिक्षा नीति को लागू करने पर कदम उठाये जा रहे हैं। शिक्षा रोजगारपरक होनी चाहिए यह मांग है। क्योंकि इस समय पढ़े-लिखे बेरोजगारों का आंकड़ा हर रोज बढ़ता जा रहा है। इसलिए शिक्षा रोजगार में सीधा संबंध होना चाहिए। यह समय की मांग बनता जा रहा है। इस परिप्रेेक्ष में यह समझना आवश्यक हो जाता है की क्या स्कूली शिक्षा से ही शिक्षा रोजगारपरक हो जानी चाहिए या उसके बाद भी यह प्रश्न आना चाहिए यह एक बड़ा विस्तृत सवाल है। यदि स्कूली शिक्षा के बाद शिक्षा और रोजगार में जुड़ाव होना चाहिए तो इसका अर्थ होगा की स्कूली शिक्षा तक सबको एक समान शिक्षा मिलनी चाहिए और यह अनिवार्य होनी चाहिए। यह अनिवार्य शिक्षा माध्यमिक स्तर तक या वरिष्ठ माध्यमिक स्तर तक होनी चाहिए। यह फैसला एक व्यापक विचार विमर्श के बाद होना चाहिए। अनिवार्य शिक्षा तक निजी क्षेत्र का दखल नहीं होना चाहिए।
इस समय नर्सी केेजी से ही निजी से प्राइवेट सेक्टर शिक्षा में बराबर का भागीदार बना हुआ है। हिमाचल जैसे राज्य में भी प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या करीब 45% है। सरकारी स्कूलों में पढ़ने वालों बच्चों की संख्या 55% है। यहीं से शिक्षा में यह विसंगति आनी शुरू हो जाती है। क्योंकि राजनेताओं से लेकर प्रशासकों और शिक्षकों तक के बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इससे सरकारी स्कूलों का प्रबंधन और स्तर प्राइवेट स्कूलों के मुकाबले कमजोर पड़ता जा रहा है। इस समय नई शिक्षा नीति की भूमिका में ही यह कहा गया है की खाड़ी देशों में हेल्परों की बहुत आवश्यकता है और हमारे बच्चों को आसानी से वहां रोजगार मिल जाएगा इसलिए नई शिक्षा नीति में व्यवसायिक प्रशिक्षण को विशेष बल दिया गया है। यह शिक्षा नीति सरकारी स्कूलों में तो शुरू हो जाएगी लेकिन क्या महंगे प्राइवेट स्कूलों में भी लागू हो पायेगी। इसको लेकर कोई स्पष्टता नहीं है। ऐसे में जब स्कूल स्तर पर से ही यह मनोवैज्ञानिक व्यवस्था ऐसी बना दी जायेगी कि गरीब का बच्चा तो हेल्पर बनने की मानसिकता से पढे़गा और अमीर का बच्चा इंजीनियर डॉक्टर और वकील बनने के लिए पढ़ेगा तो तय है कि सरकारी स्कूलों की व्यवहारिक स्थिति इससे भी बत्तर होती जायेगी।
शिक्षा और स्वास्थ्य हर व्यक्ति की बुनियादी आवश्यकताएं बन चुकी है। इसलिए यहां बड़ा बाजार बनती जा रही है। यह बाजारीकरण ही सामाजिक असमानता का मूल बनता जा रहा है। शिक्षा में अटल आदर्श विद्यालय और राजीव गांधी डे बोर्डिंग स्कूल खोलकर राजनीतिक आकाओं के आगे तो स्थान बनाया जा सकता है लेकिन इससे समाज में बढ़ती गैर बराबरी को नहीं रोका जा सकेगा। आने वाले समाज में यह बाजारीकरण सबसे बड़ा मुद्दा बनेगा यह तय है। विश्व बैंक की इन रिपोर्ट का व्यवहारिक संज्ञान लेकर इस वस्तु स्थिति के लिये जिम्मेदार तंत्र को जवाब देह बनाने के लिये अभी से कदम उठाने होंगे अन्यथा हर बार यह रिपोर्ट आती रहेगी और देश प्रदेश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का पात्र बनते रहेंगे।

आपदा राहत पैकेज पर भी राजनीति क्यों?

प्रदेश में आयी आपदा से आकलनों के अनुसार बारह हजार करोड़ का नुकसान हुआ है। आपदा में फंसे लोगों को सुरक्षित निकालना और फिर उनके रहने खाने का प्रबन्ध करना पहली प्राथमिकता थी। राज्य सरकार इस प्राथमिकता पर खरी उतरी है और उसके प्रयासों तथा प्रबंधनो की सभी ने प्रशंसा भी की है। इस आपदा में जनता और कई राज्य सरकारों ने सहायता का हाथ भी बढ़ाया है जिसके फलस्वरुप 254 करोड़ आपदा राहत कोष में आये हैं। इस आपदा में मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खु ने अपने परिवार की ओर से 51 लाख राहत कोष में देकर जो अपनी संवेदनशीलता का व्यवहारिक परिचय दिया है उसके लिये वह सदैव याद रखे जायेंगे। लेकिन इस अवसर पर केंद्र सरकार की ओर से वायदों से ज्यादा कुछ नहीं मिल पाया है और यह सदन के रिकॉर्ड में भी दर्ज हो चुका है। क्योंकि एन डी आर एफ और एस डी आर एफ में जो कुछ मिला है वह पहले का ही देय था। यहां तक कि जब सदन में इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने का प्रस्ताव पारित किया जा रहा था तो भाजपा इसमें भी सक्रिय भागीदार नहीं बन पायी।
इस परिदृश्य में आपदा में फंसे लोगों को राहत प्रदान करना यह राज्य सरकार की प्राथमिकता थी। इस प्राथमिकता को राज्य के संसाधनों से पूरा करना किसी चुनौती से कम नहीं था। इसके लिये सरकार ने विभागों के बजट में कटौती करके 4500 करोड़ का राहत पैकेज घोषित किया है। जिसमें 3500 करोड़ अपने साधनों और 1000 करोड़ मनरेगा से देने की घोषणा की है। सरकार के इन प्रयासों और पहल का स्वागत करने के बजाये एक भाजपा प्रवक्ता द्वारा यह कहना की शीघ्र ही केंद्र की ओर से प्रदेश को एक बड़ा राहत पैकेज में मिलने वाला है। कांग्रेस ने केंद्र से मिलने वाले इस पैकेज की आहट पाते ही चतुराई से पहले ही अपने पैकेज की घोषणा कर दी है। ताकि केंद्र से मिलने वाले पैकेज को प्रदेश सरकार के राहत पैकेज के नाम पर खर्चा जा सके। ऐसे समय में प्रदेश भाजपा की ऐसी प्रतिक्रिया का स्वागत नहीं किया जा सकता। क्योंकि ऐसी प्रतिक्रिया केंद्र का पैकेज आने के बाद उसके खर्च किये जाने के तरीके पर उठनी चाहिये थी यदि उसमें कोई विसंगति होती तो।
इस तरह राहत पैकेज पर जो राजनीति अनचाहे ही खड़ी हो गयी है उसके परिप्रेक्ष्य में यह सवाल भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि यह आपदा कितनी प्राकृतिक थी और कितनी व्यवस्था की लचरता के कारण थी। इस पर एक खुली बहस हो जानी चाहिये। क्योंकि यह आशंका बहुत प्रबल होती जा रही है कि यह विनाश लीला लम्बी जायेगी। ऐसे में जो विशेषज्ञों की राय एन.जी.टी. के 2016 के फैसले में महत्वपूर्ण रही है उस पर बिना किसी पूर्वाग्रह के विचार किया जाना चाहिये। एन.जी.टी. के फैसले के बाद भी हजारों अवैध निर्माण हुए हैं। एन.जी.टी. के निर्देशों पर बनायी गयी शिमला प्लान को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है। एन.जी.टी. नेे कुछ कार्यालयों को किसी भी दूसरे स्थान पर ले जाने का निर्देश दिया हुआ है क्योंकि शिमला की भार वहन क्षमता ओवर हो चुकी है। बल्कि इस आपदा के बाद पहाड़ी क्षेत्रों की भारवहन क्षमता का अध्ययन करने के निर्देश केंद्र दे चुका है। 2016 में राज्य सरकारे पूरे प्रदेश को प्लानिंग के तहत लाने की बात कर चुकी है। परन्तु यह सब होने के बावजूद यह सरकार भी कार्यालयों को शिमला से शिफ्ट करने के लिये तैयार नहीं है। इसलिये इस आपदा से सबक लेते हुए भविष्य के इन प्रश्नों पर राहत एवं पुनर्वास के साथ ही विचार कर लेना लाभदायक रहेगा। क्योंकि राहत भी आम आदमी का ही पैसा है जिसे गलत नीतियों की भेंट चढ़ाना सही नहीं होगा।

 

संविधान की प्रस्तावना से गायब हुए धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद

संसद का विशेष सत्र पुराने भवन में शुरू हुआ और दूसरे ही दिन नये भवन में चला गया। नये भवन में जब सांसदों ने प्रवेश किया तो उन्हें देश के संविधान की एक-एक प्रति दी गयी। संविधान की प्रति को जब खोल कर देखा गया तो उसकी प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द गायब मिले। कुछ सांसदों ने जब इस ओर इंगित किया तो जवाब मिला कि बाबा साहेब अम्बेडकर के मूल प्रतिवेदन में जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था उसमें इन शब्दों का उल्लेख नहीं है। यह शब्द आपातकाल के दौरान 1976 में लाये गये 42वें संविधान संशोधन से इसमें जोड़ गये हैं। नये संसद भवन में प्रवेश से पहले जो जी-20 देशों का शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ था उसमें राष्ट्रपति की ओर से आयोजित राजकीय भोज के जो आमंत्रण पत्र सामने आये थे तो उनमें भी इण्डिया के राष्ट्रपति की जगह भारत का राष्ट्रपति लिखा हुआ था। शब्दों के इस चयन से इण्डिया बनाम भारत का विवाद अनचाहे ही खड़ा हो गया। इसी दौरान सनातन धर्म को लेकर आयी टिप्पणियों पर प्रधानमंत्री ने जिस तर्ज पर अपनी प्रतिक्रिया दी है और अपने सहयोगी मंत्रियों को इसका कड़ा विरोध करने के निर्देश दिये हैं उससे भी कुछ अलग ही संकेत उभरते हैं।
इसी परिदृश्य में हुए संसद के विशेष सत्र को लेकर जो जो क्यास लगाये जा रहे थे उन सबसे हटकर अन्त में महिला आरक्षण विधेयक सामने आया है। इसमें महिलाओं को संसद और राज्यों की विधानसभाओं में 33% स्थान आरक्षित रखने की सिफारिश की गयी है। संसद के दोनों सदनों में यह विधेयक ध्वनि मत से पारित हो गया है। किसी भी दल ने इसका विरोध नहीं किया है। बल्कि इसमें अन्य पिछड़े वर्गों और मुस्लिम महिलाओं को भी इस संशोधन का लाभार्थी बनाने की मांग की है। मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से मुक्ति दिलाने और ओ.बी.सी. समाज की बदनामी के मुद्दे पर राहुल गांधी की सांसदी छीनने वाली सरकार इन वर्गों की महिलाओं को इस आरक्षण के दायरे में क्यों नहीं ला पायी यह सवाल अपने में गंभीर हो जाता है। यह महिला आरक्षण आने वाले लोकसभा चुनाव में लागू नहीं होगा क्योंकि इससे पहले जन गणना और फिर परिसीमन आयोग बैठेंगे। ऐसे में यह सवाल भी प्रमुख हो जाता है की जो प्रावधान अभी लागू ही नही होना है उसे विशेष सत्र बुलाकर पारित करने का औचित्य क्या है? फिर इस में ओ.बी.सी. और मुस्लिम समाज को लेकर जो सवाल खड़े हो गये हैं उनका निराकरण किया जाना भी आवश्यक होगा जो आने वाले समय का बड़ा सवाल होगा।
इस परिप्रेक्ष में यदि इस सब को इकट्ठा मिलाकर देखें तो साफ दिखाई देता है कि आने वाले चुनावों में नये मुद्दे उछालने के लिये ही इण्डिया बनाम भारत और सनातन की रक्षा करने जैसे विषय खड़े करने की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। क्योंकि इण्डिया से भारत करने और संविधान से धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद हटाने के लिये संविधान संशोधनों का मार्ग अपनाने की जगह जो यह भावनात्मक कार्ड उभारने का प्रयास किया गया है इसके परिणाम बहुत गंभीर होंगे। इस आशंका की पुष्टि केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के उस वीडियो से हो जाती है जिसमें वह यह कह रही हैं कि आने वाला चुनाव धर्म और अधर्म के बीच होगा। इसी विशेष सत्र में भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी ने बसपा सांसद दानिश अली के लिये सदन के पटल पर जिस भाषा और तर्ज का इस्तेमाल किया है उसके मायने भी कुछ स्मृति ईरानी के वक्तव्य की ही पुष्टि करते हैं।

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