संसद के मानसून सत्र में सरकार एक सामान्य नागरिक संहिता का कानून ला सकती है। उत्तराखंड सरकार ने तो एलान कर दिया है कि वह इस कानून को सबसे पहले लागू करेगी। यह कानून विपक्ष की एकजुटता के प्रयासों को रोकने का सबसे बड़ा साधन माना जा रहा है। इस कानून के आने से मुस्लिम पर्सनल लॉ सबसे ज्यादा प्रभावित होगा और इस समय मुस्लिम वोटों का सबसे बड़ा लाभार्थी गैर भाजपा विपक्ष माना जा रहा है। कुछ मुस्लिम संगठनों ने इसका विरोध करने का ऐलान भी कर दिया है। सभी राजनीतिक दलों को इस प्रस्तावित विधेयक पर अपना-अपना स्टैंड स्पष्ट करना होगा। इस कड़ी में नीतीश कुमार और केजरीवाल ने तो इसका समर्थन करने का ऐलान कर दिया है। उद्धव ठाकरे भी इसके समर्थन की घोषणा कर सकते हैं क्योंकि वह इसकी मांग तो पहले से ही करते रहे हैं। ऐसी धारणा बनाई जा रही है जो दल इस प्रस्तावित विधेयक का समर्थन करेंगे उनकी मुस्लिम वोटों की दावेदारी उतनी ही कमजोर होती जायेगी। सारा मुस्लिम बोर्ड संगठित रूप से किसी एक दल को नहीं जायेगा और इसी से भाजपा का बड़ा नुकसान होने से बच जायेगा। इस परिपेक्ष में एक सम्मान नागरिक संहिता से जुड़े कुछ मूल प्रश्नों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
देश का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था और इसके तहत पहला आम चुनाव 1952 को हुआ था। देश की 1952 से पहले की सरकार और संविधान सभा में सभी दलों के सदस्य थे। संविधान सभा के प्रमुख डॉ. अम्बेडकर थे। संविधान के राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत धारा 44 में निर्देश है "The state shall endeavour to secure the citizen uniform civil code throughout the territory of India" देने की आवश्यकता क्यों हुई थी इसके लिये कहा गया है कि the object behind this article is to effect an integration of India by bringing all communities on common platform on matters which are governed by divorce personal laws but do not form the essence of any religion e.g. divorce, maintenance for divorced wife." संविधान के इस उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता उस समय भी मानी गयी थी। लेकिन ऐसा कानून तब बनाया नही गया और इसे भविष्य के लिये छोड़ दिया गया। क्योंकि विस्थापन से उभरी समस्याएं प्राथमिकता थी। यह एक स्थापित सत्य है कि हर धर्म और समाज में जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक अपने-अपने संस्कार और मान्यता होती है। हर धर्म अपने को दूसरे से श्रेष्ठ मानता है। इसीलिए भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया था। सब धर्म को एक समान माना गया है।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि देश की परिस्थितियां उस समय एक समान नागरिक संहिता लाने की नही थी तो क्या आज बन गयी हैं। उस समय यह आवश्यकता तलाक और तलाकशुदा औरतों के भरण-पोषण की समस्या के परिदृश्य में सामने आयी थी। आज गैर मुस्लिम समाज के लिये तलाक और भरण-पोषण दोनों के लिये कानून उपलब्ध है। मुस्लिम समाज के लिये भी तीन तलाक समाप्त कर दिया गया है। विवाह तलाक और तलाकशुदा का भरण पोषण सब कानून के दायरे में आ चुका है। इसलिए आज जिस तरह से एक देश एक कानून को जनसभाओं में जनता के बीच रखा जा रहा है यह पूछा जा रहा है कि एक देश में एक कानून होना चाहिए या नही। इससे स्वतः ही राजनीतिक गंध आनी शुरू हो गयी है। यही सन्देश जा रहा है कि यह सब मुस्लिम समाज के खिलाफ किया जा रहा है। क्योंकि यह स्पष्ट नहीं किया जा रहा है कि कौन से मुद्दे ऐसे हैं जिनके लिये एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है। इस प्रस्तावित विधेयक को लाने से पहले आम नागरिक के सामने इसकी अनिवार्यता स्पष्ट की जानी चाहिए। क्योंकि सत्तारूढ़ सरकार और भाजपा के खिलाफ यह धारणा बन चुकी है कि वह मुस्लिम विरोधी है तथा राजनीतिक प्रशासनिक भागीदारी से इस इतने बड़े समाज को बाहर रखना चाहती है।
आज देश के हर जाति और धर्म के संस्कारों में भिन्नता है। अभी हरियाणा की ही कुछ खाप पंचायतों से यह मांग आयी है कि उनके समाज में एक गोत्र और एक ही गांव में शादी वर्जित है और इसे कानूनी मान्यता दी जानी चाहिए। कई मंदिरों और धार्मिक स्थलों में महिलाओं और शूद्रों का प्रवेश वर्जित है। क्या एक समान नागरिक संहिता लाकर इन सारे सवालों को हल कर लिया जायेगा? क्या इससे इसका जवाब मिल जायेगा कि केदारनाथ के गर्भगृह से लाखों का सोना पीतल कैसे हो गया? इस पर कोई अधिकारिक रूप से स्पष्टीकरण क्यों जारी नहीं किया जा रहा है। भाजपा 2014 में सत्ता में आने से पहले से ही एक देश एक कानून की मांग करती रही है। फिर उसे आज 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इस विधेयक को लाने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? क्या इसकी आड़ में महंगाई और बेरोजगारी पर उठते सवालों से बचने का प्रयास किया जायेगा? लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थानों को कमजोर करने के सवालों से बचने की कवायद होगा यह विधेयक? हिण्डनवर्ग रिपोर्ट और अदाणी-मोदी के रिश्तों पर उठते सवालों से ऐसे बचा जा सकेगा?






मोदी प्रधानमंत्री बनने से पहले गुजरात के पंद्रह वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे हैं। मोदी संघ के प्रचारक रहे हैं और संघ की अनुमति सहमति से ही सक्रिय राजनीति में आये हैं। संघ की सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक सोच की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि संघ भारत को हिन्दू राष्ट्र मानता और धर्मनिरपेक्षता का पक्षधर नहीं है। उसकी नजर में गैर हिन्दू देश के प्रथम नागरिक नहीं हो सकते। श्रेष्ठ को ही सत्ता का अधिकार है और उसमें भी चयन के स्थान पर मनोनयन होना चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये भामाशाही की अवधारणा की तर्ज पर प्राकृतिक संसाधनों पर व्यक्ति का स्वामित्व होना चाहिये। संघ की इस विचारधारा का परिचय उस कथित भारतीय संविधान से मिल जाता है जो डॉ. मोहन भागवत के नाम से वायरल होकर सामने आया है। इसी विचारधारा का परिणाम है कि भाजपा शासित राज्यों में कोई मुस्लिम मंत्री नहीं है। आज भाजपा किसी भी मुस्लिम को विधानसभा या लोकसभा के लिये अपना प्रत्याशी नहीं बनाती है। इस सोच का परिणाम है कि इन नौ वर्षों में कुछ लोगों के हाथों में देश की अधिकांश संपत्ति केन्द्रित हो गयी है। भारत बहुधर्मी, बहुजातीय और बहुभाषी देश है। मुस्लिम देश की दूसरी बड़ी जनसंख्या है। इस जनसंख्या को सत्ता में भागीदारी से वंचित रखना क्या व्यवहारिक और संभव हो सकता है शायद नहीं। लोकतन्त्र में मतभेद आवश्यक है। लोकतन्त्र में सत्ता से तीखे सवाल पूछना आवश्यक है।
लेकिन आज सत्ता से मतभेद अपराध बन गया है। अमेरिका में प्रधानमंत्री से सवाल पूछने पर किस तरह एक मुस्लिम पत्रकार को भाजपा के आईटी सैल ने ट्रोल किया है उसकी कड़ी निन्दा राष्ट्रपति जो बाइडेन को करनी पड़ी है। इस तरह भारत में लोकतन्त्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म करने के जो आरोप लग रहे हैं वह स्वतः ही प्रमाणित हो जाते हैं। इसी के साथ इन नौ वर्षों में महंगाई और बेरोजगारी जिस चरम पर पहुंची है उससे भी आम आदमी त्रस्त हो चुका है। इन्हीं सारी परिस्थितियों ने कांग्रेस को मजबूती प्रदान की है। कांग्रेस नेतृत्व लगातार सत्ता से लड़ता आ रहा है और आज राहुल गांधी से सत्ता डरने लग गयी है। इसी डर के कारण राहुल की सांसदी छीनी गयी है। इसलिये इन नौ वर्षों में जो कुछ घटा है और उसमें जिस तरह कांग्रेस सत्ता के सामने खड़ी रही है उसको बड़े उसको सामने रखते हुये आज विपक्षी एकता में कांग्रेस को बड़े भाई की भूमिका दे दी जानी चाहिये। वैसे तो जो दल अपना राष्ट्रीय दर्जा खो चुके हैं उन्हें इस समय राष्ट्रहित में कांग्रेस में विलय कर जाना चाहिये।






इस समय सरकार के अनावश्यक खर्चो और प्राथमिकताओं पर चर्चा करने से पहले कुछ तथ्यों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि सरकार का कर्ज भार एक लाख करोड़ तक पहुंच चुका है। 2016 में जब कर्मचारियों के वेतनमान में संशोधन किया गया था तब उसके फलस्वरूप अर्जित हुआ एरियर भी आज तक नहीं दिया जा सका है। एक समय यह प्रदेश नौकरी देने वालों में सिक्कम के बाद देश का दूसरा बड़ा राज्य बन गया था। तब कर्मचारियों की संख्या में कटौती करने के कदम उठाये गये थे। इसके लिए दीपक सानन की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन हुआ था। लेकिन आज प्रदेश बेरोजगारी के लिये देश के छः राज्यों की सूची में आ गया है। इस प्रदेश को एक समय बिजली राज्य की संज्ञा देते हुये यह दावा किया गया था कि अकेले बिजली उत्पादन से ही प्रदेश की वितीय आवश्यकताएं पूरी हो जायेंगी। बिजली के नाम पर ही उद्योगों को आमन्त्रित किया गया था। लेकिन आज हिमाचल का प्राइवेट क्षेत्र लोगों को सरकार के बराबर रोजगार उपलब्ध नहीं करवा पाया है। प्राइवेट क्षेत्र को जितनी सब्सिडी सरकार दे चुकी है उसके ब्याज के बराबर भी प्राइवेट क्षेत्र सरकार को राजस्व नहीं दे पाया है। आज जो कर्ज भार प्रदेश पर है उसका बड़ा हिस्सा तो प्राइवेट सैक्टर को आधारभूत ढांचा उपलब्ध करवाने में ही निवेशित हुआ है। लेकिन उद्योगों के सहारे किये गये दावों से हकीकत में प्रदेश के आम आदमी को बहुत कुछ नहीं मिल पाया है। इसलिये उद्योगों से उम्मीद करने से पहले उद्योग नीति पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है।
पिछले चालीस वर्षों में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में जितना संख्यात्मक विकास प्रदेश में हुआ है उसमें यदि और आंकड़े न जोड़कर इन संस्थानों में गुणात्मक सुधार लाने का प्रयास किया जाये तो उसकी आवश्यकता है न कि बिना अध्यापक के स्कूल और बिना डॉक्टर के अस्पताल की। आज लोगों को मुफ्त बिजली का प्रलोभन देने के बजाये बिजली सस्ती करके सबको उसका बिल भरने योग्य बनाना आवश्यक है। जो गारंटीयां सरकार पूरी करने का प्रयास और दावा कर रही है क्या वह सब कर्ज लेकर किया जाना चाहिये। शायद नहीं। आज गांवों में हर परिवार को डिपों के सस्ते राशन पर आश्रित कर दिया गया है और सस्ते राशन की कीमत कर लेकर चुकाई जा रही है। आज यदि सर्वे किया जाये तो गावों में 80% से ज्यादा खेत बंजर पड़े हुए हैं। इस समय मुफ्ती की मानसिकता को सस्ती में बदलने की आवश्यकता है। यदि दो-तीन वर्ष बजट में नयी घोषणाएं करने के बजाये पुरानी की व्यवहारिकता को परख उसे पूरा करने की मानसिकता सरकार की बन जाये तो बहुत सारी समस्याएं स्वतः ही हल हो जाती हैं। कर्ज लेने की बजाये भारत सरकार की तर्ज पर संपत्तियों के मौद्रीकरण पर विचार किया जाना चाहिये। इसके लिए एक समय पंचायतों से जानकारी मांगी गयी थी उस पर काम किया जाना चाहिये।






देश 1947 में आजाद हुआ। 1950 में संविधान लागू हुआ। 1952 में देश में पहला आम चुनाव हुआ। 1952 से मई 1964 तक स्व.पंडित जवाहर लाल नेहरू बारह वर्ष तक देश के प्रधानमंत्री रहे कांग्रेस सत्ता में रही लेकिन हर चुनाव में जनसंघ और दूसरे दल कांग्रेस को चुनावी चुनौति भी देते रहे। उस समय का मतदाता प्रत्यक्ष रूप से जानता था की आजादी की लड़ाई में किसका क्या योग योगदान रहा है। इतिहास को लेकर जो सवाल आज उठाये जा रहे हैं यह उस समय नहीं थे। क्योंकि उस समय की जनता उस समय का स्वंय ही इतिहास थी। लेकिन उस दौर में भी जब रियासतों के एकीकरण के बाद कृषि सुधारों की बात आयी थी जब भी सी राजगोपालाचार्य जैसे नेताओं ने इन सुधारों का विरोध किया था। इसी विरोध की पृष्ठभूमि थी कि स्व. इन्दिरा गांधी जी को सत्ता संभालने के लिये कांग्रेस में विघटन तक का सामना करना पड़ा। बैंकों के राष्ट्रीयकरण को उस समय सुप्रीम कोर्ट में स्व.प्रो.बलराज मधोक और अन्य ने चुनौती दी थी। जिसे संविधान में संशोधन करके प्रस्तुत किया गया था। 1964 से 1975 तक का राजनीतिक परिदृश्य किस तरह का रहा है यह भी आम आदमी जानता है। इसी काल में कई राज्यों में संबिद्ध सरकारों का भी गठन हुआ था। आपातकाल के बाद कांग्रेस कितना और विपक्ष कितना केन्द्र की सत्ता पर काबिज रहा है यह सब जानते हैं। 2014 तक कांग्रेस और अन्यों के सत्ता काल में ज्यादा अन्तर व्यवहारिक रुप से नहीं रहा है यह एक स्थापित सत्य है।
1948 से आज तक आर.एस.एस. ने देश में अपने को किस तरह स्थापित किया। कितने उसके सहयोगी संगठन बने और कितने उसकी विचारधारा के स्नातक बनकर निकले हैं उसकी पूरी जानकारी भले ही अधिकांश को न रही हो लेकिन 2014 के बाद आयी भाजपा नीत सरकार के व्यवहारिक पक्ष से सबके सामने आ गयी है। भारत जैसे बहुभाषी और बहुधर्मी देश में इस तरह की विचारधारा की वैचारिक स्वीकारोक्ति कितनी हो सकती हैं यह सामने आ चुका है। क्योंकि विचारधारा के प्रसार के लिए जिस तरह का सामाजिक और आर्थिक परिवेश खड़ा करने का प्रयास किया गया वह अब लगातार अस्वीकार्य होता जा रहा है। 2014 का चुनाव जिन नारों पर लड़ा गया था जो वायदे उस समय किये गये थे वह 2019 के लोकसभा और इस दौरान हुये विधानसभा चुनाव में कैसे बदले गये हैं यह देश देख चुका है। एक भी मुस्लिम को टिकट न देकर भाजपा तो मुस्लिम मुक्त हो सकती है लेकिन देश नहीं। राहुल गांधी को पप्पू प्रचारित प्रसारित करने में जितना समय और संसाधन लगा दिये गये हैं उन्हीं के कारण आज मोदी का राजनीतिक कद अब हल्का पड़ता जा रहा है। महंगाई और बेरोजगारी ने हर आदमी को सरकार की कथनी और करनी को समझने के मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है। जिस तरह की राजनीतिक वस्तुस्थिति 2014 में कांग्रेस के लिए निर्मित हो गयी थी वहीं आज भाजपा और मोदी की होती जा रही है। विदेशों में बैठे भारतीयों को जिस मोदी ने एक समय हथियार बनाया था अब राहुल भी उसी हथियार का प्रयोग करते जा रहे हैं और इसी से सारी राजनीतिक लड़ाई स्वतः ही मोदी बनाम राहुल होती जा रही है।






बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ दो वर्ष पहले ही ऐसे आरोपों की एक शिकायत प्रधानमंत्री के पास आ चुकी थी यह स्पष्ट हो चुका है। जब प्रधानमंत्री इन आरोपों पर खामोश रहे तो खेल मंत्री से लेकर अन्य भाजपा नेताओं में यह साहस कैसे हो सकता था कि कोई भी इस पर जुबान खोलता। इन महिला पहलवानों को जन्तर मन्तर के धरना प्रदर्शन से लेकर कैसे सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाकर इस मामले में एफ आई आर दर्ज करवाने तक पहुंचना पड़ा है यह पूरे देश को स्पष्ट हो चुका है। यह एक सामान्य समझ की बात है कि एक महिला को यौन शोषण का आरोप लगाने से पूर्व किस मनोदशा से गुजरना पड़ता है। इन बेटियों को किस मानसिकता के साथ अदालत और धरने प्रदर्शन तक आना पड़ा होगा यह सोचकर ही आम आदमी सिहर उठता है। अब 28 अप्रैल को जो दो एफ.आई.आर. इस प्रकरण में दर्ज हुई है उनका विवरण पढ़कर ही रौंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन यह एफ.आई.आर. दर्ज होने के बाद भी जब पूरी भाजपा इस प्रकरण पर खामोश रहे तो समझ आ जाता है कि चुनावी लाभ के लिये यह लोग कुछ भी दाव पर लगा सकते हैं। इस व्यक्ति को अभी तक पार्टी से बाहर न कर पाना शीर्ष से लेकर नीचे तक की बहुत सारी कहानी ब्यान कर देता है।
यह सही है कि अदालत एफ.आई.आर. दर्ज करने के निर्देश दे सकती हैं लेकिन किसी को गिरफ्तार करने के नहीं। परन्तु सरकारें नियमों कानूनों के साथ लोकलाज से भी चलती हैं। आज यदि अन्तर्राष्ट्रीय पदक विजेता महिला पहलवानों को भी न्याय मांगने के लिये इस तरह का संघर्ष करना पड़े तो आम आदमी की स्थिति क्या होगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है। आज पूरे समाज का दायित्व बन जाता है कि वह इन महिला पहलवानों के साथ खड़ा होकर इनकी लड़ाई लड़े। क्योंकि यह बेटियां पूरे समाज की है। जब यह बेटियां अपने पदक मां गंगा में प्रवाहित करने जा रही थी तब इनकी हताशा और निराशा का अन्दाजा लगाया जा सकता है। इसी के साथ यह सोचने का भी अवसर है कि जो सरकार चुनावी लाभ के लिये ऐसी बेटियों की इज्जत की भी रक्षा करने और उन्हें न्याय दिलाने का साहस न दिखा पाये उसके उन आश्वासनों पर कैसे भरोसा किया जा सकता है कि वह संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवायेगी।