Tuesday, 16 December 2025
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गंभीर होंगे किसान आन्दोलन के परिणाम

किसान फिर आन्दोलन पर हैं। इससे पहले भी तीन कृषि कानूनों के विरोध में एक वर्ष भर किसान आन्दोलन पर रहे हैं। यह आन्दोलन तब समाप्त हुआ था जब प्रधानमंत्री ने यह कानून वापस लेने की घोषणा की थी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किसान तब तक आन्दोलन नहीं छोड़ता जब तक उसकी मांगे मान नहीं ली जाती है। इसलिये अब भी किसान अपनी मांग पूरी करवा कर ही आन्दोलन समाप्त करेंगे। पिछले आन्दोलन को दबाने, असफल बनाने के लिये जो कुछ सरकार ने किया था वही सब कुछ अब किया जा रहा है और किसान न तब डरा था और न ही अब डरेगा। इसलिये यह समझना आवश्यक हो जाता है कि किसानों की मांगे है क्या और कितनी जायज हैं। जब सरकार तीन कृषि विधेयक लायी थी तब कारपोरेट जगत के हवाले कृषि और किसान को करने की मंशा उसके पीछे थी। जैसे ही किसानों को यह मंशा स्पष्ट हुई तो वह सड़कों पर आ गया और उसका परिणाम देश के सामने है। इस वस्तुस्थिति में वर्तमान आन्दोलन को देखने समझने की आवश्यकता है। कृषि क्षेत्र का जीडीपी और रोजगार में सबसे बड़ा योगदान है। यह सरकार की हर रिपोर्ट स्वीकारती है। लेकिन इसी के साथ यह कड़वा सच है कि देश में होने वाली आत्महत्या में भी सबसे बड़ा आंकड़ा किसान का ही है। ऐसे में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि जो अन्नदाता है और जिसकी भागीदारी जीडीपी और रोजगार में सबसे ज्यादा है वह आत्महत्या के कगार पर क्यों पहुंचता जा रहा है। स्वभाविक है कि सरकार की नीतियों और किसान बागवान की व्यवहारिक स्थिति में तालमेल नहीं है। आज सरकार का जितना ध्यान और योगदान कॉरपोरेट उद्योग की ओर है उसका चौथा हिस्सा भी किसान और किसानी के कोर सैक्टर की ओर नहीं है। कोरोना कॉल के लॉकडाउन में जहां उद्योग जगत प्रभावित हुआ वहीं पर किसान और उसकी किसानी भी प्रभावित हुई। कॉरपोरेट जगत को उभारने के लिये सरकार पैकेज लेकर आयी लेकिन कृषि क्षेत्र के लिये ऐसा कुछ नहीं हुआ। कॉरपोरेट घरानों का लाखों करोड़ों का कर्ज़ बट्टे खाते में डाल दिया गया लेकिन किसान का कर्ज माफ नहीं हुआ। आज जब सर्वाेच्च न्यायालय ने चुनावी चन्दा बाण्ड योजना को असंवैधानिक करार देकर इस पर तुरन्त प्रभाव से रोक लगाते हुये चन्दा देने वालों की सूची तलब कर ली है तब यह सामने आया है कि विजय माल्या ने विदेश भागने से पहले 10 करोड़ का चन्दा भाजपा को दिया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार का व्यवहार कॉरपोरेट घरानों के प्रति क्या है और कृषि तथा किसानों के प्रति क्या है। प्रधानमंत्री ने किसानों की आय दो गुनी करने का वादा किया था वह कितना पूरा हुआ है वह हर किसान जानता है। किसानी बागवानी को लेकर पिछले पांच वर्षों में केन्द्र की घोषित योजनाओं का सच यह है कि कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार एक लाख करोड़ से अधिक का धन लैप्स कर दिया गया है। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि कृषि और किसान के प्रति सरकार की कथनी और करनी में दिन रात का अन्तर है। आज आन्दोलनरत किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की मांग कर रहा है। इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में 201 सिफारिशें की थी जिनमें से 175 पर यूपीए के काल में ही अमल हो गया था। लेकिन 26 सिफारिशों पर ही अमल बाकी है। नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब कृषि का समर्थन मूल्य तय करने के लिये सूत्र दिया था आज उसी पर अमल नहीं कर पा रहें हैं। 1960 में न्यूनतम समर्थन मूल्य आवश्यक वस्तुओं के लिये लागू किया गया था। आज किसान इसी समर्थन मूल्य नियम को विस्तारित करके सारी कृषि उपज के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग कर रहा है। इस समर्थन मूल्य को वैधानिक कवच प्रदान करने की मांग है। यह व्यवहारिक सच है कि आज कृषि में हर चीज का लागत मूल्य कई गुना बढ़ चुका है और उसके अनुपात में किसान को अपनी उपज का मूल्य नहीं मिल रहा है। ऐसे में यदि सरकार ने समय रहते किसानों की मांगों को नहीं माना तो इसके परिणाम गंभीर होंगे।

कांग्रेस को अपनों से ही खतरा है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम मन्दिर प्रमाण प्रतिष्ठा आयोजन के बाद भी चुनावी सफलता को लेकर शंकित है। राजनीतिक विश्लेषण में यह संकेत बिहार झारखण्ड और चण्डीगढ़ के घटनाक्रमों से उभरे हैं। क्योंकि यह सब इण्डिया गठबंधन को चुनाव से पहले तोड़ने के प्रयासों के रूप में देखा जा रहा है। इस गठबंधन में सबसे बड़ा दल कांग्रेस ही है। इसलिये यह प्रायः सीधे कांग्रेस को कमजोर करने के कदम माने जा रहे हैं। ऐसे में यह विश्लेषण आवश्यक हो जाता है कि इसका कांग्रेस पर क्या असर होगा और भाजपा मोदी को क्या लाभ मिलेगा। इस समय 2014 और 2019 में मोदी भाजपा द्वारा जो चुनावी वादे किये गये थे उनका व्यवहारिक परिणाम यही रहा है कि कुछ लोग ही इन नीतियों से व्यक्तिगत रूप से लाभान्वित हुये हैं। जबकि अधिकांश के हिस्से में गरीबी, महंगाई और बेरोजगारी ही आयी है। इसी के परिणाम स्वरूप आज भी 140 करोड़ में से 80 करोड़ सरकारी राशन पर निर्भर हैं। केन्द्र से लेकर राज्यों तक हर सरकार का कर्ज बड़ा है यदि कर्ज न मिल पाये तो शायद सरकारी कर्मचारियों को वेतन भी न दे पाये। हर सरकार चुनावी सफलता के लिये केवल मुफ्ती की घोषणाओं के सहारे टिकी हुयी है। रिजर्व बैंक ने भी मुफ्ती के खतरों के प्रति सचेत किया है। अन्तर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेन्सीयों ने भी गंभीर चेतावनी जारी की हुयी है। लेकिन किसी भी सरकार पर इसका कोई असर नहीं है। चाहे वह भाजपा की सरकार हो या गैर भाजपा दलों की। इस परिदृश्य में मोदी सरकार के पास गंभीर आर्थिक प्रश्नों का कोई जवाब नहीं है। इसलिये मोदी सरकार आने वाले चुनाव को धार्मिकता का रंग देने और इण्डिया गठबंधन को कमजोर करने के प्रयास में लगी हुयी है। पिछले दो लोकसभा चुनाव के परिणाम और उसके बाद सरकारी नीतियों का कार्यन्वयन जिस तरह से हुआ है उससे यह धारणा बलवती हो गयी है कि जब तक विपक्ष इकट्ठा होकर सरकार का सामना नहीं करेगा वह भाजपा को हरा नहीं पायेगा। इसी धारणा के परिणाम स्वरुप इण्डिया का जन्म हुआ जबकि इसके सभी प्रमुख घटक किसी न किसी रूप परोक्ष/अपरोक्ष में ई.डी. और सी.बी.आई. जैसी केन्द्रिय एजैन्सीयों का सामना कर रहे थे। इसी वस्तुस्थिति में राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा शुरू की। इस यात्रा में इण्डिया के घटक दलों का साथ नहीं के बराबर था। शायद सभी को यात्रा के सफल होने का सन्देह था। सरकार ने इस यात्रा को असफल करवाने के लिये हर संभव प्रयास किया। राहुल गांधी की सांसदी तक जाने की स्थिति बन गयी। लेकिन जिस अनुपात में यह यात्रा सफल हुई और मध्य प्रदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ में राहुल गांधी की जनसभा में भीड़ देखने को मिली उससे सभी का गणित गड़बड़ा गये। इसी वस्तुस्थिति ने इण्डिया को जन्म दिया। लेकिन तीनों राज्यों के परिणामों ने फिर मनस्थितियां बदली। केन्द्रीय एजैनसीयों की सक्रियता फिर बड़ी। इसी बीच राहुल ने न्याय यात्रा शुरू कर दी। इस न्याय यात्रा में कैसे व्यवधान खड़े किये गये यह भी सबके सामने है। इस तरह जो परिस्थितियों निर्मित हुयी उनमें कांग्रेस को यह प्रमाणित करना था कि मोदी बीजेपी को हटाने के लिये कोई भी बलिदान देने को तैयार है। कांग्रेस के इस आचरण से सरकार और घटक दल फिर परेशान हो उठे। गठबंधन के साथ औपचारिकताएं पूरी करने की जिम्मेदारी राहुल को छोड़कर बाकी नेताओं पर डाल दी गयी। राहुल संगठन को सशक्त बनाने के लिये न्याय यात्रा के माध्यम से फिर जनमानस के बीच उतर गये। केन्द्रीय एजैन्सियां अपने काम में लग गयी। बिहार में नीतिश फिर भाजपा के हो गये। लेकिन नीतिश के पासा बदलने से जो नुकसान नीतिश का हुआ है उससे ज्यादा मोदी शाह का हुआ है। चण्डीगढ़ के घटनाक्रम ने फिर मोदी सरकार पर लोकतंत्र और उसकी व्यवस्थाओं को कमजोर करने का आप पुख्ता कर दिया है। इण्डिया को तोड़ने का आरोप कांग्रेस की बजाये घटक दलों पर आ रहा है। ऐसे में राहुल की न्याय यात्रा के बाद कांग्रेस को कोई नुकसान होने की संभावना नहीं के बराबर रह जाती है। बल्कि लाभ ही मिलने की स्थिति हो जाती है। ऐसे में मोदी का प्रयास अब कांग्रेस को भीतर से तोड़ने का रह जाता है। इसलिये कांग्रेस को अन्य दलों से नहीं वरना कांग्रेसियों से ही खतरा है।

क्या मोदी ‘‘राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा’’ के बाद भी शंकित है

राम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन के बाद जो कुछ बिहार झारखण्ड और चण्डीगढ़ में घटा है उसने संवेदनशील नागरिकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। यह सवाल उठ है कि जिस तरह से चण्डीगढ़ के मेयर का चुनाव भाजपा ने जीता है क्या उसी तरह का आचरण लोकसभा चुनावों में भी देखने को मिलेगा? यह आशंका इसलिये महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि ई.वी.एम. पर हर चुनाव के बाद उठते सवाल आज वकीलों के आन्दोलन तक पहुंच गये है। उन्नीस लाख के लगभग ई.वी.एम. मशीने गायब होने का खुलासा आर.टी.आई. के माध्यम से सामने आ चुका है। ई.वी.एम. हैक हो सकती है इसका प्रमाण दिल्ली विधानसभा के पटल पर किया जा चुका है। चुनाव आयोग और सर्वोच्च न्यायालय पर इस सबका कोई असर नही हो रहा है। संभव है कि इस बार ई.वी.एम. के खिलाफ उठा आन्दोलन बहुत दूर तक जाये। इस समय महंगाई, बेरोजगारी और बढ़ती गरीबी पर उठते सवालों का कोई जवाब सरकार नही दे रही है। देश की आर्थिकी पर परोसे जा रहे दावों और आंकड़ों पर सवाल उठाना संभव नही रह गया है। जी.डी.पी. की बढ़ौतरी स्थिर मूल्य पर है या चालू कीमतों पर इसका कोई जवाब सरकार के पास नही है। सारे आंकड़ें बढ़ते कर्ज पर आधारित हैं। जी.डी. पी. का 80 प्रतिशत कर्ज है और यह कर्ज चुकाने के बाद क्या बचेगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इतने कर्ज के बाद भी जब देश की 80 करोड़ जनता सरकार के सस्ते राशन के सहारे जिन्दा है तो इसी से प्रति व्यक्ति की बढ़ती आय का सच सामने आ जाता है। यह चित्र एक व्यवहारिक सच है जो हर चुनाव के बाद और नंगा होकर आम आदमी के सामने आता जा रहा है। यही सच आम आदमी की चिन्ता और चिन्तन का केंद्र बनता जा रहा है।
लेकिन यह भी एक प्रमाणित सच है कि रात चाहे कितनी भी काली और लम्बी क्यों न हो पर सवेरा आकर ही रहता है। इस समय सारे गंभीर प्रश्नों से ध्यान हटाने का जो प्रयोग धर्म और जातियों में आपसी टकराव खड़ा करके किया जा रहा था उसका एक चरम अभी राम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा के रूप में सामने आ चुका है। इस आयोजन पर शंकराचार्यों से लेकर अन्य विश्लेषको ने जो सवाल उठाये हैं उससे शायद सत्ता को कुछ झटका लगा है। इसलिये इस आयोजन के बाद राहुल गांधी के न्याय यात्रा को असफल करने के लिये हर राज्य में अड़चने पैदा करने का प्रयास किया गया है। इसी के लिये ‘‘इण्डिया’’ गठबन्धन को तोड़ने के सारे प्रयास शुरू हो गये हैं। जिस तरह से गठबन्धन के बड़े घटक दल अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस को सीटे देने के लिये तैयार नही हो रहे हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि चुनावों से पहले ही यह गठबन्धन दम तोड़ देगा। सभी दल अलग-अलग चुनाव लड़ने की बाध्यता पर आ जायेंगे।
राम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा आयोजन ने हर दल को प्रभावित किया है। बल्कि हर दल में वह लोग स्पष्ट रूप से चिन्हित हो गये हैं जो धर्म की राजनीति में संघ भाजपा के जाल में पूरी तरह फंस चुके हैं। ऐसे में यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि जो राजनीतिक लोग या दल धर्म और राजनीति में ईमानदारी से अन्तर मानते हैं उन्हें बड़े जोर से यह कहना पड़ेगा की राम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा का जो आयोजन हुआ है वह शुद्ध रूप से संघ भाजपा का एक राजनीतिक कार्यक्रम था। इस आयोजन के बाद भाजपा के ही अन्दर उठने वाले सवालों को लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न देकर चुप करवाने का प्रयास किया गया है। लेकिन इस आयोजन के बाद जो कुछ बिहार, झारखण्ड और चण्डीगढ़ में घटा है उससे यह भी स्पष्ट हो गया है कि मोदी अभी भी शंकित हैं कि क्या अकेला राम मन्दिर ही उनको सफलता दिला पायेगा? इसी शंका ने उनको ‘‘इण्डिया’’ को तोड़ने के प्रयासों में लगा दिया है। ‘‘इण्डिया’’ में नीतीश कुमार, ममता बैनर्जी, अखिलेश यादव और केजरीवाल की सीट शेयरिंग को लेकर जिस तरह का आचरण सामने आ रहा है उसका भाजपा और कांग्रेस पर क्या प्रभाव पड़ेगा इस पर अगले अंक में आकलन किया जायेगा। लेकिन जो कुछ मोदी ने किया है वहां निश्चित रूप से उनके डर का ही प्रमाण है।

क्या राम मन्दिर असफलताओं को छुपाने का माध्यम बनेगा?

क्या राम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा एक राजनीतिक आयोजन था? क्या राम से जुड़ी आस्था का राजनीतिक करण था यह आयोजन? क्या देश के सारे राजनीतिक दल न चाहते हुये भी इसमें एक पक्ष बन गये हैं? यह और ऐसे कई सवाल आने वाले समय में उठेंगे। क्योंकि देश का संविधान अभी भी धर्मनिरपेक्षता पर केंद्रित है। यह देश बहु धर्मी और बहु भाषी है। ऐसे में सरकार का घोषित/अघोषित समर्थन किसी एक धर्म के लिये जायज नहीं ठहराया जा सकता। राम मन्दिर आन्दोलन पर अगर नजर डाली जाये तो इस पर शुरू से लेकर आखिर तक संघ परिवार और उसके अनुषंगिक संगठनों का ही वर्चस्व रहा है। यही कारण रहा है कि आज संघ-भाजपा में ही इसके प्रणेता हाशिये पर चले गये और वर्तमान नेतृत्व इसका सर्वाे सर्वा होकर भगवान विष्णु के अवतार होने के संबोधन तक पहुंच गया। इस स्थिति का संघ/भाजपा के भीतर ही क्या प्रभाव पड़ेगा यह भी आने वाले दिनों में सामने आयेगा यह तय है। क्योंकि पूरा आयोजन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गिर्द केन्द्रित हो गया था। भाजपा के अन्य शीर्ष नेता इस आयोजन में या तो आये ही नहीं या उन पर कैमरे की नजर ही नहीं पडी।
राम मन्दिर प्राण प्रतिष्ठा को लेकर देश के शीर्ष धर्मगुरुओं चारों शंकराचार्यों ने यह सवाल उठाया था कि अधूरे मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती। ऐसा करना कई अनिष्टों का कारण बन जाता है। शंकराचार्यों का यह प्रश्न इस आयोजन में अनुत्तरित रहा है। लेकिन आने वाले समय में यह सवाल हर गांव में उठेगा। क्योंकि हर जगह मन्दिर निर्माण होते ही रहते हैं। इसी आयोजन में प्राण प्रतिष्ठा से पहले साढ़े सात करोड़ से निर्मित दशरथ दीपक का जलकर राख हो जाना क्या किसी अनिष्ट का संकेत नहीं माना जा सकता? स्वर्ण से बनाये गये दरवाजे पर उठे सवालों को कितनी देर नजरअन्दाज किया जा सकेगा? प्राण प्रतिष्ठा के बाद शीशे का न टूटना सवाल बन चुका है। आज मौसम जिस तरह की अनिष्ट सूचक होता जा रहा है क्या उसे आने वाले दिनों में अतार्किक आस्था अगर इन सवालों का प्रतिफल मानने लग जाये तो उसे कैसे रोका जा सकेगा। हिन्दू एक बहुत बड़ा समाज है जिसमें मूर्ति पूजक भी हैं और निराकार के पूजक भी हैं। राम की पूजा करने वाले भी हैं और रावण के पूजक भी हैं। आर्य समाज ने तो हिन्दू धर्म के समान्तर एक अपना समाज खड़ा कर दिया है। आर्य समाजियों के अनुसार वेद का कोई मन्त्र यह प्रमाणित नहीं करता कि मूर्ति में प्राण डाले जा सकते हैं? राधा स्वामी कितना बड़ा वर्ग है क्या उसे राम की मूर्ति की पूजा के लिये बाध्य किया जा सकता है। संविधान निर्माता डॉ. अम्बेदकर क्यों बौद्ध बने थे? ऐसे अनेकों सवाल हैं जो इस आयोजन के बाद उठेंगे उसमें हिन्दू समाज की एकता पर किस तरह का प्रभाव पड़ेगा यह देखना रोचक होगा।
इस आयोजन ने हर राजनीतिक दल और नेता को इसमें एक पक्ष लेने की बाध्यता पर लाकर खड़ा कर दिया है। यही इस आयोजन के आयोजकों की सफलता रही है। इस आयोजन के बाद लोकसभा का चुनाव समय से पूर्व करवाने के संकेत स्पष्ट हो चुके हैं। इस चुनाव में राम मन्दिर निर्माण और उसकी प्राण प्रतिष्ठा को केन्द्रिय मुद्दा बनाया जायेगा। सारे सवालों को नजर अन्दाज करते हुये प्राण प्रतिष्ठा को अंजाम देना प्रधानमंत्री की बड़ी उपलब्धि माना जायेगा। इस उपलब्धि के साये में देश की आर्थिकी, बेरोजगारी और महंगाई पर उठते सवालों को राम विरोध करार दिया जायेगा। जिन गैर भाजपा राज्य सरकारों ने इस आयोजन के दौरान भाजपा की तर्ज पर ही कई कार्यक्रम और आयोजन आयोजित किये हैं वह लोकसभा चुनावों में भाजपा को मात दे पाते हैं या देखना भी रोचक होगा। क्योंकि हर सरकार राम मन्दिर के आचरण में अपनी असफलताओं को छुपाने का प्रयास करेंगे।

‘‘सरकार गांव के द्वार’’ कितना सार्थक होगा यह प्रयोग

हिमाचल सरकार ने ‘सरकार गांव के द्वार’ कार्यक्रम शुरू किया है। मुख्यमंत्री के मुताबिक इस कार्यक्रम के माध्यम से सरकार के परिवर्तनकारी निर्णय और उनके सकारात्मक परिणामों से लोगों को अवगत करवाया जा रहा है। सरकार यदि गांव के द्वार पहुंचने का प्रयास करती हैं तो इससे अच्छा फैसला कोई नहीं हो सकता क्योंकि सरकार के हर फैसले हर योजना का परीक्षा स्थल गांव ही है। ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि सरकार जब गांव के द्वार पर जाये तो उसका जाना केवल लाभार्थियों से ही संवाद तक सीमित होकर न रह जाये। ऐसे कार्यक्रम की सार्थकता तभी प्रमाणित हो पायेगी यदि सही में यह आम आदमी का संवाद बन पाये। इसके लिये आवश्यक है कि अब भी सरकार इस कार्यक्रम के तहत गांव जाये तो उसके पास उन सारी योजनाओं और फैसलों की जानकारी हो जो पिछले दस वर्षों में पूर्व सरकारों ने इसी आम आदमी को केंद्र में रख कर लिये थे। यह व्यवहारिक रूप से देखा जाये कि इसमें से कितने फैसले जमीनी हकीकत बन पाये हैं और कितने बजट के अभाव में केवल कागजी होकर रह गये हैं। ऐसे दर्जनों फैसले मिल जायेंगे जो बजट पत्रों में दर्ज हो गये और उनके आधार पर सरकारों को श्रेष्ठता के अवार्ड भी मिल गये लेकिन चुनावों में जनता को उन सरकारों को नकार दिया। यदि पिछले कुछ दशकों में लिये गये फैसले सही में जनहित परक होते तो आज प्रदेश लगातार कर्ज और बेरोजगारी के दल दल में धंस्ता नहीं चला जाता।
इस समय ‘सरकार गांव के द्वार’ कार्यक्रम के तहत पिछले दिनों आयोजित की गयी राजस्व लोक अदालतों के लाभार्थी और आपदा में मकान आदि के लिये मिलने वाली आर्थिक सहायता पाने वाले दो वर्ग ही सामने आ रहे हैं। जबकि राजस्व अदालतों में इंतकाल आदि के लंबित मामले शुद्ध रूप से प्रशासनिक असफलता का प्रमाण है। यह अदालत आयोजित करके लोगों को राहत देने से ज्यादा भ्रष्ट तंत्र को ढकने का ज्यादा प्रयास है। क्योंकि क्या हर सरकार ऐसे मामलों को निपटाने के लिये ऐसी अदालतें आयोजित करके अपनी पीठ थपथपाती रहेगी। इसके लिये स्थायी व्यवस्था कौन करेगा। कायदे से तो ऐसे तंत्र के विरुद्ध कड़ी कारवाई की जानी चाहिये थी। पिछले दिनों प्रदेश उच्च न्यायालय ने प्रशासनिक दायित्व के साथ ही न्यायिक कार्य कर रहे अधिकारियों के काम काज पर जब अप्रसन्नता व्यक्त की तब सरकार ने यह आयोजन शुरू किया।
आज हिमाचल के लिये कर्ज और बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या बनती जा रही है। प्रदेश का जो कर्ज भार 2013-14 में 31442.56 करोड़ दिखाया गया था वह आज एक दशक में एक लाख करोड़ के पास क्यों पहुंच गया है। यह सारा कर्ज विकास कार्यों के नाम पर लिया गया है क्योंकि राजस्व व्यय के लिये सरकारें कर्ज नहीं ले सकती। क्या सरकार अपने कार्यक्रमों में जनता को यह जानकारी देगी कि यह कर्ज कौन से कार्यों के लिये लिया गया और उससे कितना राजस्व प्राप्त हुआ है। इस समय जो अधीनस्थ सेवा चयन आयोग भंग कर दिया गया था उसकी जे.ओए.आई.टी. कोड की परीक्षा पास किये हुये बच्चे पिछले चार वर्षों से परिणाम की प्रतीक्षा में बैठे अब यह मांग करने पर आ गये हैं कि ‘हमें नौकरी दो या जहर दे दो’। क्या सरकार गांव के द्वार पर जाकर इन बच्चों और उनके अभिभावकों के प्रश्नों का जवाब दे पायेगी? इसी तरह एस.एम.सी. शिक्षकों और गेस्ट टीचरों के मसलों पर जनता का सामना कर पायेगी? यही स्थिति मल्टीपरपज के नाम पर भर्ती कियें गये 6000 युवाओं की है क्या वह 4500 रुपए में अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर पायेंगे? क्या इन सवालों को केंद्र से सहायता न मिल पाने के नाम पर लम्बे समय के लिये टाला जा सकेगा? क्या जनता इन सवालों पर मुख्य संसदीय सचिवों और एक दर्जन से अधिक सलाहकारों और विशेष कार्य अधिकारियों की नियुक्तियों के औचित्य पर सवाल नहीं पूछेगी?

 

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