हिमाचल सरकार ने प्रशासनिक ट्रिब्यूनल को फिर से बहाल करने का निर्णय लिया है क्योंकि 2022 के विधानसभा चुनावों में ऐसा आश्वासन प्रदेश के कर्मचारियों को दिया गया था। प्रदेश में प्रशासनिक ट्रिब्यूनल की स्थापना 1986 में की गयी थी। 1986 के बाद इसे दो बार बन्द किया गया। संयोगवश बन्द करने का फैसला दोनों बार भाजपा शासन के दौरान ही लिया गया। जुलाई 2019 में पूर्व जयराम ठाकुर की सरकार के दौरान कर्मचारियों के ही आग्रह पर लिया गया था। आज इसे दोबारा खोलने का फैसला क्या इसलिये लिया जा रहा है कि बन्द करने का फैसला पूर्व सरकार ने लिया था। 2022 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने प्रदेश की जनता को दस गारंटीयां भी दी थी। लाखों युवाओं को रोजगार देने का वायदा भी किया गया था। लेकिन जब इन गारंटीयों को पूरा करने की बात आयी तब प्रदेश के सामने राज्य की कठिन वित्तीय स्थिति का राग अलाप कर श्रीलंका जैसे हालात होने की चेतावनी दे डाली। इसके बाद प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र लाकर 92 हजार करोड़ की देनदारी विरासत में मिलने की बात कर दी। इस कर्ज की विरासत के नाम पर कितनी बार कितनी सेवाओं और वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि कर दी गई है यह सिर्फ उपभोक्ता ही जानता है। इस कठिन वितिय स्थिति के नाम पर ही सरकार ने अब तक 12000 करोड़ का कर्ज ले लिया है। जो स्थितियां आज प्रदेश की चल रही है उनके मद्देनजर यह स्पष्ट है कि सरकार आम जनता से किया गया कोई भी वायदा पूरा नहीं कर पायेगी। क्योंकि सरकार भ्रष्टाचार से लगातार समझौता करती जा रही है। बल्कि भ्रष्टाचार अब सरकार के एजैन्डे पर ही नहीं है। इस परिदृश्य में प्रशासनिक ट्रिब्यूनल दोबारा खोलकर प्रदेश पर सौ करोड़ का बोझ डालना कितना हितकारी होगा यह आम सवाल बन गया है। जब जुलाई 2019 में ट्रिब्यूनल को बन्द कर दिया गया था और कर्मचारी मामले प्रदेश उच्च न्यायालय को ट्रांसफर कर दिये गये थे तब इन मामलों के आंकड़ों पर ही उच्च न्यायालय से न्यायाधीशों की संख्या में बढ़ौतरी की गयी थी। मुख्य न्यायालय में जजों की संख्या 13 से 17 कर दी गयी थी। अब फिर इस संख्या को 17 से 21 करने का प्रस्ताव विचाराधीन है। अब जब ट्रिब्यूनल फिर से खोल दिया जायेगा तो कर्मचारियों के मामले वहां से ट्रांसफर होकर ट्रिब्यूनल में वापस आएंगे और इसका असर उच्च न्यायालय पर पड़ेगा और उसके विस्तार का रास्ता रुक जायेगा। दूसरी ओर ट्रिब्यूनल के लिये एक अलग भवन की व्यवस्था करनी पड़ेगी। क्योंकि पुराना भवन अब उच्च न्यायालय के पास नहीं है। ऐसे में यह अहम सवाल हो जाता है कि क्या कर्ज लेकर ऐसी व्यवस्था करना आवश्यक है। इस समय कर्मचारियों के कई मामले लंबित पड़े हुये हैं। 2016 में जो वेतनमानों में संशोधन हुआ था उसके मुताबिक सरकार अभी तक सरकारी कर्मचारियों को भुगतान नहीं कर पायी है। सेवानिवृत कर्मचारी इन लाभों के लिये उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं। दर्जनों मामलों पर उच्च न्यायालय कर्मचारियों को यह भुगतान 6% ब्याज सहित करने के आदेश कर चुका हैै लेकिन सरकार इन फसलों पर अमल नहीं कर पा रही है। ऐसी करोडों की देनदारियां सरकार के नाम खड़ी हो गयी है और कर्मचारियों में रोष फैलता जा रहा है। इस वस्तुस्थिति में ट्रिब्यूनल की बहाली कुछ सेवानिवृत्ति बड़े अधिकारियों के पुनः रोजगार का साधन बनने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पायेगा। बल्कि कर्मचारियों को जो न्याय आज तक उच्च न्यायालय से मिल रहा है उसके मिलने का रास्ता भी लम्बा हो जायेगा। यह ट्रिब्यूनल पुनः खोलने से पहले सरकार को यह आंकड़ा जारी करना चाहिये की जब यह संस्थान खोला गया था तब कितने मामले इसके पास आये थे। प्रतिवर्ष औसतन कितने मामलों का फैसला हुआ है। उच्च न्यायालय में कर्मचारियों के कितने मामले प्रतिवर्ष निपटाये गये? आज इसे खोलने की आवश्यकता क्यों आयी है? इस पर प्रतिवर्ष कितना खर्च होगा और उसका साधन क्या होगा। सरकार जब तक तार्किक तरीके से अपना पक्ष जनता में नहीं रखेगी तब तक इस प्रयास को कर्ज लेकर घी पीने का जुगाड़ ही माना जायेगा।
जहां तक इस गणना से हिन्दू समाज में विभाजन होने का आरोप लगाया जा रहा है वह अपने में ही निराधार है। क्योंकि हिन्दू समाज उच्च वर्गों का ही एक अधिकार नहीं है। पिछले दिनों जब हिन्दू धर्म में व्याप्त मठाधिशता पर कुछ तीखे सवाल आये तब उसे सनातन पर प्रहार के रूप में क्यों देखा गया? इसका तीव्र विरोध करने का आवहान क्यों किया गया? तब धर्म में फैले ब्राह्मणवाद के एकाधिकार पर उठते सवालों से बौखलाहट क्यों फैली? क्या बड़े-बड़े मंदिरों के निर्माण से ही समाज से भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई से निजात मिल पायेगी? शायद नहीं? बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि ऐसे मंदिरवादी प्रयोगों से ही धर्म का ज्यादा ह्रास हो रहा है। नई पीढ़ी को इन भव्य मंदिरों के माध्यम से धर्म से बांधकर रखने के प्रयास फलीभूत नहीं होंगे।
जो लोग इस गणना को चुनावों से जोड़कर देख रहे हैं और इस प्रयोग को हिन्दुओं को विभाजित करने का प्रयास मान रहे हैं उन्हें यह समझना होगा कि यह तर्क किन लोगों की तरफ से आ रहा है? भारत बहु धर्मी बहु जाति और बहु भाषी देश है। इसमें देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने का प्रयास कौन लोग कर रहे हैं? कौन लोग मनुस्मृति को स्कूली पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की वकालत कर रहे हैं? कौन लोग आज देश के मुस्लिम समाज को संसद और विधानसभाओं से बाहर रखने का प्रयास कर रहे हैं? क्या ऐसे प्रयासों से पूरा देश कमजोर नहीं हो रहा है? इंण्डिया से भारत शब्दों के बदलाव से ही नहीं बना जायेगा। उसके लिये ”वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा पर व्यवहारिक रूप से आचरण करना होगा। संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को हटाने की मानसिकता ने देश में जातिगत जनगणना की आवश्यकता को जन्म दिया है। इस वस्तु स्थिति में यह जनगणना पहली आवश्यकता बन गयी है ताकि यह पता चल सके कि किसके पास कितने संसाधन पहुंचे हैं? देश की शासन-प्रशासन व्यवस्था में किसकी कितनी भागीदारी हो पायी है।