Thursday, 18 September 2025
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प्रशासनिक ट्रिब्यूनल क्या वक्त की जरूरत है

हिमाचल सरकार ने प्रशासनिक ट्रिब्यूनल को फिर से बहाल करने का निर्णय लिया है क्योंकि 2022 के विधानसभा चुनावों में ऐसा आश्वासन प्रदेश के कर्मचारियों को दिया गया था। प्रदेश में प्रशासनिक ट्रिब्यूनल की स्थापना 1986 में की गयी थी। 1986 के बाद इसे दो बार बन्द किया गया। संयोगवश बन्द करने का फैसला दोनों बार भाजपा शासन के दौरान ही लिया गया। जुलाई 2019 में पूर्व जयराम ठाकुर की सरकार के दौरान कर्मचारियों के ही आग्रह पर लिया गया था। आज इसे दोबारा खोलने का फैसला क्या इसलिये लिया जा रहा है कि बन्द करने का फैसला पूर्व सरकार ने लिया था। 2022 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने प्रदेश की जनता को दस गारंटीयां भी दी थी। लाखों युवाओं को रोजगार देने का वायदा भी किया गया था। लेकिन जब इन गारंटीयों को पूरा करने की बात आयी तब प्रदेश के सामने राज्य की कठिन वित्तीय स्थिति का राग अलाप कर श्रीलंका जैसे हालात होने की चेतावनी दे डाली। इसके बाद प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र लाकर 92 हजार करोड़ की देनदारी विरासत में मिलने की बात कर दी। इस कर्ज की विरासत के नाम पर कितनी बार कितनी सेवाओं और वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि कर दी गई है यह सिर्फ उपभोक्ता ही जानता है। इस कठिन वितिय स्थिति के नाम पर ही सरकार ने अब तक 12000 करोड़ का कर्ज ले लिया है। जो स्थितियां आज प्रदेश की चल रही है उनके मद्देनजर यह स्पष्ट है कि सरकार आम जनता से किया गया कोई भी वायदा पूरा नहीं कर पायेगी। क्योंकि सरकार भ्रष्टाचार से लगातार समझौता करती जा रही है। बल्कि भ्रष्टाचार अब सरकार के एजैन्डे पर ही नहीं है। इस परिदृश्य में प्रशासनिक ट्रिब्यूनल दोबारा खोलकर प्रदेश पर सौ करोड़ का बोझ डालना कितना हितकारी होगा यह आम सवाल बन गया है। जब जुलाई 2019 में ट्रिब्यूनल को बन्द कर दिया गया था और कर्मचारी मामले प्रदेश उच्च न्यायालय को ट्रांसफर कर दिये गये थे तब इन मामलों के आंकड़ों पर ही उच्च न्यायालय से न्यायाधीशों की संख्या में बढ़ौतरी की गयी थी। मुख्य न्यायालय में जजों की संख्या 13 से 17 कर दी गयी थी। अब फिर इस संख्या को 17 से 21 करने का प्रस्ताव विचाराधीन है। अब जब ट्रिब्यूनल फिर से खोल दिया जायेगा तो कर्मचारियों के मामले वहां से ट्रांसफर होकर ट्रिब्यूनल में वापस आएंगे और इसका असर उच्च न्यायालय पर पड़ेगा और उसके विस्तार का रास्ता रुक जायेगा। दूसरी ओर ट्रिब्यूनल के लिये एक अलग भवन की व्यवस्था करनी पड़ेगी। क्योंकि पुराना भवन अब उच्च न्यायालय के पास नहीं है। ऐसे में यह अहम सवाल हो जाता है कि क्या कर्ज लेकर ऐसी व्यवस्था करना आवश्यक है। इस समय कर्मचारियों के कई मामले लंबित पड़े हुये हैं। 2016 में जो वेतनमानों में संशोधन हुआ था उसके मुताबिक सरकार अभी तक सरकारी कर्मचारियों को भुगतान नहीं कर पायी है। सेवानिवृत कर्मचारी इन लाभों के लिये उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं। दर्जनों मामलों पर उच्च न्यायालय कर्मचारियों को यह भुगतान 6% ब्याज सहित करने के आदेश कर चुका हैै लेकिन सरकार इन फसलों पर अमल नहीं कर पा रही है। ऐसी करोडों की देनदारियां सरकार के नाम खड़ी हो गयी है और कर्मचारियों में रोष फैलता जा रहा है। इस वस्तुस्थिति में ट्रिब्यूनल की बहाली कुछ सेवानिवृत्ति बड़े अधिकारियों के पुनः रोजगार का साधन बनने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पायेगा। बल्कि कर्मचारियों को जो न्याय आज तक उच्च न्यायालय से मिल रहा है उसके मिलने का रास्ता भी लम्बा हो जायेगा। यह ट्रिब्यूनल पुनः खोलने से पहले सरकार को यह आंकड़ा जारी करना चाहिये की जब यह संस्थान खोला गया था तब कितने मामले इसके पास आये थे। प्रतिवर्ष औसतन कितने मामलों का फैसला हुआ है। उच्च न्यायालय में कर्मचारियों के कितने मामले प्रतिवर्ष निपटाये गये? आज इसे खोलने की आवश्यकता क्यों आयी है? इस पर प्रतिवर्ष कितना खर्च होगा और उसका साधन क्या होगा। सरकार जब तक तार्किक तरीके से अपना पक्ष जनता में नहीं रखेगी तब तक इस प्रयास को कर्ज लेकर घी पीने का जुगाड़ ही माना जायेगा।

किसके पक्ष में जाएंगे यह चुनाव परिणाम

पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के परिणाम क्या रहेंगे यह तो परिणाम आने के बाद ही पूरी तरह स्पष्ट हो पायेगा। लेकिन जिस तरह राजनीतिक व्यवहार राजनीतिक दलों का सामने आता जा रहा है उससे यह संकेत उभर रहे हैं कि इन चुनावों में भाजपा को बड़ा नुकसान होने जा रहा है। भाजपा का यह नुकसान कांग्रेस का ही लाभ रहेगा यह पूरी स्पष्टता से नहीं कहा जा सकता क्योंकि दूसरे दल भी चुनाव में हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि यह परिणाम देश की राजनीति पर एक गहरा और दुर्गामी प्रभाव डालेंगे। क्योंकि इस समय देश 1975 के आपातकाल जैसी स्थितियों से गुजर रहा है। उस समय का आपातकाल घोषित था और आज का अघोषित है। वह आपातकाल 1975 में शुरू होकर 1977 के आम चुनाव में समाप्त हो गया था। परन्तु आज का आपात 2014 के सत्ता परिवर्तन से शुरू होकर आज तक चला आ रहा है। उस समय के आपातकाल में देश की आर्थिकी मजबूत हुई थी और आज के अघोषित आपात में आर्थिकी ही सबसे ज्यादा कमजोर हुई है। क्योंकि योजनाबद्ध तरीके से सारे अदारे निजी क्षेत्र के हवाले कर दिये गये हैं। इसमें आम आदमी के हिस्से में केवल कर्ज आया है। 2014 के सत्ता परिवर्तन के समय केंद्र सरकार का कुल कर्ज 55000 करोड़ था जो 2023 में बढ़कर 1.5 लाख करोड़ से भी ज्यादा हो गया है। राज्य सरकारों का ही कर्ज 70 लाख करोड़ से ज्यादा हो गया है। जिस अनुपात में कर्ज बड़ा है उसी अनुपात में महंगाई और बेरोजगारी भी बड़ी है। सत्ता परिवर्तन से लेकर अब तक जो कुछ घटा है वह सब आज चर्चा का विषय बना हुआ है। केंद्र सरकार को अपनी अब तक की सारी उपलब्धियां जनता तक पहुंचाने के लिए विकसित भारत संकल्प यात्रा प्रशासन के सहयोग से आयोजित करनी पड़ रही है। कुल मिलाकर देश के सामने एक ऐसी स्थिति निर्मित हो गई है जहां प्रत्येक नागरिक को भविष्य के हित में एक सुविचारित फैसला लेने की घड़ी आ गई है। इस फैसले के लिए यह ध्यान में रखना होगा कि यदि आर्थिकी बची रहेगी तो दूसरी चीजें देर सवेर संभल जायेंगी। इस समय सत्ता जिस तरह से आर्थिकी के सवाल को मन्दिर-मस्जिद और हिन्दू-मुस्लिम के आवरणों से ढकने का प्रयास कर रही है क्या वह किसी भी गणित से एक लाभकारी प्रयोग हो सकता है। आज जिस देश की आधी से अधिक आबादी को सरकार के मुफ्त राशन पर जीने के कगार पर पहुंचा दिया गया हो उस देश का भविष्य क्या होगा यह सोचने का विषय है। जिन नीतियों और योजनाओं के कारण महंगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार बढ़ा हो क्या उसका समर्थन किया जा सकता है। इस समय हर राज्य सरकार का आकलन कर्ज और मुफ्ती के बिन्दुओं पर करना होगा चाहे वह किसी भी दल की सरकार हो। क्योंकि मुफ्ती के वायदे केवल कर्ज के सहारे ही पूरे किये जा सकते हैं और बढ़ता कर्ज किसी भी विकास का कोई मानदण्ड नहीं होता है। इसलिए इन चुनावों में मतदाताओं को इन बिन्दुओं का आकलन करके ही मतदाता का फैसला लेना होगा।

अब अधिकारी होंगे रथ प्रभारी

मोदी सरकार अपने नौ वर्ष के कार्यकाल की उपलब्धियां को लेकर एक विकसित भारत संकल्प यात्रा कर रही है। यह यात्रा देश के 765 जिलों की 2.69 लाख पंचायतों से होकर गुजरेगी। 2014 से अब तक जो उपलब्धियां इस सरकार की रही है उन्हें इस यात्रा के माध्यम से देश के सामने रखा जाएगा। हर रथ एक उपलब्धि का वाहक होगा और उसका प्रभारी एक भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी होगा। अक्तूबर 2022 में इस योजना की रूपरेखा तैयार की गयी थी। अब अक्तूबर 2023 में एक प्रपत्र के माध्यम से इन प्रभारियों के नाम मांगे गये। इसमें उपनिदेशक से लेकर संयुक्त सचिव स्तर तक के अधिकारियों को रथ प्रभारी नामित किया जाएगा। इससे पूर्व रक्षा मंत्रालय ने भी छुट्टी पर जाने वाले सैनिकों से भी कहा है कि उन्हें राष्ट्रीय निर्माण के कार्य में हिस्सा लेना चाहिए इसके लिए स्थानीय समुदाय से जुड़कर सरकारी योजनाओं का प्रचार करना चाहिए। यह यात्रा 25 नवम्बर 2023 से 25 जनवरी 2024 तक जारी रहेगी। कई राजनीतिक दलों ने इस योजना का विरोध करते हुए इसे अधिकारियों का राजनीतिकरण किया जाने की संज्ञा दी है। चुनाव आयोग ने भी इसका संज्ञान लेकर जिन राज्यों में अभी चुनाव हो रहे हैं और वहां पर आचार संहिता लागू हो चुकी है वहां पर इसके प्रवेश पर रोक लगा दी है। अब इस मुद्दे पर एक अलग बहस छिड़ गई है क्योंकि जहां कांग्रेस और अन्य दल इसका विरोध कर रहे हैं वहीं पर भाजपा इसका पुरजोर समर्थन कर रही है। जब सरकार पिछले एक वर्ष से इस योजना की रूपरेखा तैयार कर रही है तो निश्चित है कि यह लागू होगी। भले ही रथ प्रभारी के स्थान पर इन अधिकारियों को नोडल अधिकारी का पदनाम दे दिया जाये। यहां पर यह भी स्मरणीय है कि मोदी सरकार ने निजी क्षेत्र से तीन दर्जन से भी अधिक कॉर्पाेरेट अधिकारियों को यू.पी.एस.सी. पास किए बिना ही सीधे आई.ए.एस. संयूक्त सचिव नामित कर दिया और उस पर आई.ए.एस. द्वारा कोई प्रतिक्रिया तक नहीं दी गई थी। क्योंकि सरकार ऐसा कर सकती है। शायद इसी मौन का परिणाम है कि आज आई.ए.एस. अधिकारियों को सरकारी योजनाओं के प्रचार प्रसार के लिए रथ प्रभारी नामित किया जा रहा है। संभव है कि इसके बाद देश प्रतिबद्ध कार्यपालिका की ओर भी बढ़ जाये। सविधान में कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका तीनों को स्वतंत्र रखा गया है। कार्यपालिका के लिए तो सेवा नियम 1964 अलग से परिभाषित है और अपेक्षा की जाती है कि कार्यपालिका राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रहे। क्योंकि राजनीतिक सता तो हर पांच वर्ष बाद बदल जाती है। इसीलिए कार्यपालिका को 60 वर्ष की आयु तक का कार्यकाल दिया गया है ताकि उसकी निरन्तरता में सता बदलने का कोई प्रभाव न पड़े। इसलिए नीति और नियम बनाने का काम व्यवस्थापिका को दिया गया है। इन नीति नियमों की अनुपालना कार्यपालिका के जिम्मे है। ऐसे में जब राजनीतिक सरकार द्वारा बनाई गई योजनाओं के प्रचार प्रसार की ऐसी जिम्मेदारी अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को दी जाएगी तो उनकी निष्पक्षता कितनी बनी रह पाएगी यह अपने में ही एक बड़ा सवाल बन जाएगा। सरकार के ऐसे फैसलों पर वरिष्ठ नौकरशाही की ओर से ऐतराज़ आना चाहिए था। लेकिन जब कैबिनेट सचिव स्तर से लेकर कई राज्यों के मुख्य सचिव तक सेवा विस्तारों पर चल रहे हो तो फिर कार्यपालिका की निष्पक्षता कैसे सुरक्षित रह पाएगी?

क्या विपक्षी एकता बनी रहेगी

इस समय देश एक कठिन राजनीतिक दौर से गुजर रहा है क्योंकि 2014 में जिन वायदों पर सत्ता परिवर्तन हुआ था उनका असली चेहरा अब जनता के सामने उजागर होता जा रहा है। 2014 में भ्रष्टाचार के खिलाफ जिन आंकडों और तथ्यों के सहारे एक वातावरण खड़ा किया गया था उनका खोखलापन अब सबके सामने आ चुका है। कैग की जिस रिपोर्ट के सहारे जी स्पैक्ट्रम का 1,76 000 करोड. का घपला होना जनता में परोसा गया था वह घपला हुआ ही नहीं था यह स्वीकारोक्ति है। उस विनोद राय की जिसने कैग रिपोर्ट का संकलन किया था। आज कैग और आर बी आई की जो रिपोर्ट आ चुकी है उनका आंकड़ा कई गुणा बड़ा है । यह सब आने वाले चुनाव में बड़े मुद्दे होंगे। जो लोग बैंकों का लाखों करोड़ का ऋण लेकर देश छोड़कर जा चुके हैं उनकी वापसी वायदों से आगे नहीं बढ़ी है। जिन लोगों के खिलाफ 2014 में भ्रष्टाचार का एक बड़ा आवरण खड़ा किया गया था उन्हें दस वर्षों में चालान अदालत तक ले जाने के मुकाम पर भी नहीं पहुंचाया जा सका है। यही नहीं अब चुनावों से पहले जन विश्वास विधयेक के माध्यम से 183 धाराओं से जेल की सजा का प्रावधान हटाया गया और उनमें ई डी और सी बी आई भी शामिल है। जबकि ई डी, सी बी आई बीते दस वर्षों में सत्ता के मुख्य सूत्र रहे हैं । आज अकेले अदानी के नाम देश के बैंकों का इतना ऋण है कि यदि किन्हीं कारणो से वह इस ऋण को चुकाने में असमर्थ हो जाए तो पूरे देश के बैंक एक क्षण में डूब जाएंगे और जन विश्वास विधयेक के माध्यम से लाये गये संशोधन से अब बैंक ऋण में डिफाल्टर होने पर जेल का प्रावधान हटा दिया है । इस तरह 2014 से अब तक जो कुछ घटा है यदि उस सब को एक साथ जोड़कर देखा जाए तो आज सवाल देश में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं के भविष्य के सुरक्षित रहने के मुकाम पर पहुंच गया है। पहली बार विपक्षी दलों को इकट्ठे होकर ई डी और सी बी आई के राजनीतिक दुरुपयोग के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय में गुहार लगानी पड़ी है। जो आशंकाएं विपक्ष में व्यक्त की थी वह काफी हद तक सिसोदिया मामले में सामने आ चुके है।
भविष्य के इन सवालों ने ही विपक्षी दलों को एक मंच पर आने के लिए व्यवहारिक रुप से प्रेरित किया और परिणामस्वरुप इण्डिया गठबन्धन सामने आया है। इस इण्डिया गठबन्धन के कारण ही ‘ एक देश एक चुनाव ‘ और महिला आरक्षण जैसी योजनाएं सामने आयी जिन्हे जमीनी हकीकत बनने में लम्बा समय लगेगा। इन्ही योजनाओं के बीच सनातन धर्म का सवाल खड़ा हुआ। इंडिया भारत बना और संविधान की प्रस्तावना से सामाजिक और धर्मनिरपेक्ष शब्द गायब हुए। इन प्रयोगों से स्पष्ट हो जाता है कि सत्तारुढ. गठबन्धन को सत्ता से बेदखल कर पाना बहुत आसान नहीं होगा। यह गठबन्धन लोकसभा चुनावों के लिए बना है और शायद इसी कारण से एक देश के चुनाव को व्यवहारिक रुप नहीं दिया गया । अभी जो पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उसमें इसी इण्डिया गठबन्धन के दल एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं । बल्कि यही चुनाव तय करेंगे कि लोकसभा चुनावों तक इण्डिया कितना एकजुट हो पाता है। सत्तारुढ. भाजपा एन डी ए इन विधानसभा चुनावों में इण्डिया के घटक दलों के आपसी टकराव को देश में एक बड़े स्तर पर प्रचारित और प्रसारित करेगी। क्योंकि सभी राजनीतिक दलों का जन्म एक दूसरे के विरोध से ही तो होता है। फिर इन चुनावों में कौन सा दल मुफ्ती की कितनी घोषणाएं करता है और उनको पूरा करने के लिए कितने कर्ज का बोझ जनता पर डालता है। यह भी इण्डिया का भविष्य तय करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा। क्योंकि इन विधानसभा चुनावों के बाद लोकसभा चुनावों के बीच इतना पर्याप्त समय रह जाता है कि चुनावी घोषणाओं की व्यवहारिकता पूरी स्पष्टता से सामने आ जायेगी। फिर इन विधानसभा चुनावों को प्रभावित करने के लिये विपक्ष में कांग्रेस की किसी राज्य सरकार को अपदस्थ करने तक की व्यूह रचना कर दी जाये। ऐसे में इण्डिया गठबन्धन को कमजोर करने के लिये आने वाले समय में कुछ भी खड़ा हो जाने की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता।

वक्त की जरूरत है जातिगत जनगणना

जातिगत जनगणना इस समय का सबसे बड़ा चुनावी और राजनीतिक मुद्दा बनता नजर आ रहा है। क्योंकि देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस इस पर अलग-अलग राय रख रहे हैं। भाजपा इस गणना को हिन्दू समाज को तोड़ने का प्रयास करार दे रही है। वहीं पर कांग्रेस इसे वक्त की जरूरत बताकर कांग्रेस शासित सभी राज्यों में यह गणना करवाने और उसके बाद आर्थिक सर्वेक्षण करवाने का भी ऐलान कर चुकी है। जाति प्रथा शायद हिन्दू धर्म के अतिरिक्त और किसी भी धर्म में नहीं है। हिन्दू धर्म में तो जातियों की श्रेष्ठता छुआछूत तक जा पहुंची है। नीच जाति के व्यक्ति के छुने भाव से ही बड़ी जाति वाले का धर्म भ्रष्ट हो जाता रहा है। आज भी ऐसे कई इलाके हैं जहां पर हिन्दुओं के मंदिरों में नीच जाति वालों का प्रवेश वर्जित है। कई मंत्री और राष्ट्रपति तक इस वर्जनों का दंश झेल चुके हैं। जबकि कानूनन छुआछूत दण्डनीय अपराध घोषित है। लेकिन व्यवहार में यह जातिगत वर्जनाएं आज भी मौजूद हैं। जातिगत असमानताएं हिन्दू समाज का एक भयानक कड़वा सच रहा है। इसी कड़वे सच के कारण आजादी के बाद 1953 में ही काका कालेलकर आयोग का गठन इन जातियों को मुख्य धारा में लाने के उपाय सुझाने के लिये किया गया था और तब एस.सी. और एस.टी. के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया गया था। मण्डल आयोग में अन्य पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण का प्रावधान किया गया। आर्थिक पिछड़ेपन को भी आरक्षण का आधार बनाया गया। लेकिन इन सारे प्रावधानों का व्यवहारिक रूप से आरक्षित वर्गों पर क्या प्रभाव पड़ा इसके सर्वेक्षण के लिये आज तक कुछ नहीं किया गया। इन आरक्षित वर्गों के ही अति पिछड़े कितने मुख्यधारा में आ पाये हैं इसके कोई स्टीक आंकड़े उपलब्ध नहीं है। इसलिए आज जातिगत जनगणना इस समय की आवश्यकता बन गयी है और यह हो जानी चाहिये।
जहां तक इस गणना से हिन्दू समाज में विभाजन होने का आरोप लगाया जा रहा है वह अपने में ही निराधार है। क्योंकि हिन्दू समाज उच्च वर्गों का ही एक अधिकार नहीं है। पिछले दिनों जब हिन्दू धर्म में व्याप्त मठाधिशता पर कुछ तीखे सवाल आये तब उसे सनातन पर प्रहार के रूप में क्यों देखा गया? इसका तीव्र विरोध करने का आवहान क्यों किया गया? तब धर्म में फैले ब्राह्मणवाद के एकाधिकार पर उठते सवालों से बौखलाहट क्यों फैली? क्या बड़े-बड़े मंदिरों के निर्माण से ही समाज से भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई से निजात मिल पायेगी? शायद नहीं? बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि ऐसे मंदिरवादी प्रयोगों से ही धर्म का ज्यादा ह्रास हो रहा है। नई पीढ़ी को इन भव्य मंदिरों के माध्यम से धर्म से बांधकर रखने के प्रयास फलीभूत नहीं होंगे।
जो लोग इस गणना को चुनावों से जोड़कर देख रहे हैं और इस प्रयोग को हिन्दुओं को विभाजित करने का प्रयास मान रहे हैं उन्हें यह समझना होगा कि यह तर्क किन लोगों की तरफ से आ रहा है? भारत बहु धर्मी बहु जाति और बहु भाषी देश है। इसमें देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने का प्रयास कौन लोग कर रहे हैं? कौन लोग मनुस्मृति को स्कूली पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की वकालत कर रहे हैं? कौन लोग आज देश के मुस्लिम समाज को संसद और विधानसभाओं से बाहर रखने का प्रयास कर रहे हैं? क्या ऐसे प्रयासों से पूरा देश कमजोर नहीं हो रहा है? इंण्डिया से भारत शब्दों के बदलाव से ही नहीं बना जायेगा। उसके लिये  ”वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा पर व्यवहारिक रूप से आचरण करना होगा। संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को हटाने की मानसिकता ने देश में जातिगत जनगणना की आवश्यकता को जन्म दिया है। इस वस्तु स्थिति में यह जनगणना पहली आवश्यकता बन गयी है ताकि यह पता चल सके कि किसके पास कितने संसाधन पहुंचे हैं? देश की शासन-प्रशासन व्यवस्था में किसकी कितनी भागीदारी हो पायी है।

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