जातिगत जनगणना इस समय का सबसे बड़ा चुनावी और राजनीतिक मुद्दा बनता नजर आ रहा है। क्योंकि देश के सबसे बड़े राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस इस पर अलग-अलग राय रख रहे हैं। भाजपा इस गणना को हिन्दू समाज को तोड़ने का प्रयास करार दे रही है। वहीं पर कांग्रेस इसे वक्त की जरूरत बताकर कांग्रेस शासित सभी राज्यों में यह गणना करवाने और उसके बाद आर्थिक सर्वेक्षण करवाने का भी ऐलान कर चुकी है। जाति प्रथा शायद हिन्दू धर्म के अतिरिक्त और किसी भी धर्म में नहीं है। हिन्दू धर्म में तो जातियों की श्रेष्ठता छुआछूत तक जा पहुंची है। नीच जाति के व्यक्ति के छुने भाव से ही बड़ी जाति वाले का धर्म भ्रष्ट हो जाता रहा है। आज भी ऐसे कई इलाके हैं जहां पर हिन्दुओं के मंदिरों में नीच जाति वालों का प्रवेश वर्जित है। कई मंत्री और राष्ट्रपति तक इस वर्जनों का दंश झेल चुके हैं। जबकि कानूनन छुआछूत दण्डनीय अपराध घोषित है। लेकिन व्यवहार में यह जातिगत वर्जनाएं आज भी मौजूद हैं। जातिगत असमानताएं हिन्दू समाज का एक भयानक कड़वा सच रहा है। इसी कड़वे सच के कारण आजादी के बाद 1953 में ही काका कालेलकर आयोग का गठन इन जातियों को मुख्य धारा में लाने के उपाय सुझाने के लिये किया गया था और तब एस.सी. और एस.टी. के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान किया गया था। मण्डल आयोग में अन्य पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण का प्रावधान किया गया। आर्थिक पिछड़ेपन को भी आरक्षण का आधार बनाया गया। लेकिन इन सारे प्रावधानों का व्यवहारिक रूप से आरक्षित वर्गों पर क्या प्रभाव पड़ा इसके सर्वेक्षण के लिये आज तक कुछ नहीं किया गया। इन आरक्षित वर्गों के ही अति पिछड़े कितने मुख्यधारा में आ पाये हैं इसके कोई स्टीक आंकड़े उपलब्ध नहीं है। इसलिए आज जातिगत जनगणना इस समय की आवश्यकता बन गयी है और यह हो जानी चाहिये। जहां तक इस गणना से हिन्दू समाज में विभाजन होने का आरोप लगाया जा रहा है वह अपने में ही निराधार है। क्योंकि हिन्दू समाज उच्च वर्गों का ही एक अधिकार नहीं है। पिछले दिनों जब हिन्दू धर्म में व्याप्त मठाधिशता पर कुछ तीखे सवाल आये तब उसे सनातन पर प्रहार के रूप में क्यों देखा गया? इसका तीव्र विरोध करने का आवहान क्यों किया गया? तब धर्म में फैले ब्राह्मणवाद के एकाधिकार पर उठते सवालों से बौखलाहट क्यों फैली? क्या बड़े-बड़े मंदिरों के निर्माण से ही समाज से भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और महंगाई से निजात मिल पायेगी? शायद नहीं? बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि ऐसे मंदिरवादी प्रयोगों से ही धर्म का ज्यादा ह्रास हो रहा है। नई पीढ़ी को इन भव्य मंदिरों के माध्यम से धर्म से बांधकर रखने के प्रयास फलीभूत नहीं होंगे। जो लोग इस गणना को चुनावों से जोड़कर देख रहे हैं और इस प्रयोग को हिन्दुओं को विभाजित करने का प्रयास मान रहे हैं उन्हें यह समझना होगा कि यह तर्क किन लोगों की तरफ से आ रहा है? भारत बहु धर्मी बहु जाति और बहु भाषी देश है। इसमें देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने का प्रयास कौन लोग कर रहे हैं? कौन लोग मनुस्मृति को स्कूली पाठयक्रम का हिस्सा बनाने की वकालत कर रहे हैं? कौन लोग आज देश के मुस्लिम समाज को संसद और विधानसभाओं से बाहर रखने का प्रयास कर रहे हैं? क्या ऐसे प्रयासों से पूरा देश कमजोर नहीं हो रहा है? इंण्डिया से भारत शब्दों के बदलाव से ही नहीं बना जायेगा। उसके लिये ”वसुधैव कुटुम्बकम्” की अवधारणा पर व्यवहारिक रूप से आचरण करना होगा। संविधान की प्रस्तावना से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को हटाने की मानसिकता ने देश में जातिगत जनगणना की आवश्यकता को जन्म दिया है। इस वस्तु स्थिति में यह जनगणना पहली आवश्यकता बन गयी है ताकि यह पता चल सके कि किसके पास कितने संसाधन पहुंचे हैं? देश की शासन-प्रशासन व्यवस्था में किसकी कितनी भागीदारी हो पायी है।