नरेंद्र मोदी तीसरी बार लगातार प्रधानमंत्री बनने वाले स्व. पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद पहले नेता हैं। इसके लिये वह निश्चित रूप से बधाई के पात्र हैं। लेकिन इस बार वह एक गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। क्योंकि भाजपा को अपने दम सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं मिल पाया है। इसलिये माना जा रहा है कि इस बार वह लगातार अपने सहयोगियों के दबाव में रहेंगे। इस बार भी चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़े गये। हर चुनावी वायदे को मोदी की गारंटी बनाकर परोसा गया। लेकिन यह गारंटियां भी पहले जितनी सफलता नहीं दिला पायी। ऐसा क्यों हुआ और इस पर भाजपा की समीक्षा के बाद क्या जवाब आयेगा इसका पता आने वाले दिनों में लगेगा। मोदी ने देश की सता 2014 में संभाली थी। 2014 और 2019 में जो वायदे देश के साथ मोदी भाजपा और एनडीए ने किये थे यह 2024 का चुनाव इन वायदों की परीक्षा था और उस परीक्षा में निश्चित रूप से यह सरकार सफल नही हो पायी है। इस बार विपक्ष भी पहले से कहीं ज्यादा सशक्त होकर उभरा है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि इस बार जनता ने एक सशक्त विपक्ष के लिये मतदान किया है। विपक्ष ने चुनाव प्रचार के दौरान जो तीखे सवाल सरकार से पूछे और सरकार उन सवालों का जब जवाब नहीं दे पायी उससे जनता का विश्वास विपक्ष पर बना तथा एक ताकतवर विपक्ष देश को मिला। जिस विपक्ष पर यह तंज कसा जाता था कि इस बार वह संख्या में पहले से भी कम होगा तो वह विपक्ष इस बार दो गुना होकर उभरा है। इसलिये यह माना जा रहा है कि इस बार विपक्ष की आवाज को सदन के भीतर दबाना आसान नहीं होगा। क्योंकि मतदान के अंतिम चरण के साथ ही जब एग्जिट पोल के परिणाम आये और उनकी खुशी में प्रधानमंत्री गृह मंत्री और वित्त मंत्री ने शेयर बाजार में अप्रत्याशित बढ़त आने के अनुमान लगाये तो उससे बाजार में बढ़त देखने को मिली। लेकिन जैसे ही वास्तविक चुनाव परिणाम आये तो शेयर बाजार धड़ाम से नीचे बैठ गया और एक दिन में ही निवेशकों का तीस लाख करोड़ डूब गया। शेयर बाजार के इस उतार चढ़ाव पर राहुल गांधी ने सवाल उठा दिये। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंच गया है और शीर्ष अदालत में इसका संज्ञान लेते हुए संबद्ध पक्षों से जवाब भी मांग लिया है। यही स्थिति नीट की परीक्षा को लेकर सामने आयी हैं और शीर्ष अदालत ने इस पर भी सवाल पूछ लिये हैं। पैगासैस पर संयुक्त संसदीय कमेटी की जांच की मांग उठ चुकी है। उम्मीद की जा रही है कि 2014 से लेकर आज तक जो भी गंभीर राष्ट्रीय मुद्दे संसद के शोर में दबकर रह गये हैं उन पर अब संसद में चर्चा अवश्य होगी। नीरव मोदी, मेहुल चौकसी और विजय माल्या जैसे लोग अब तक विदेश से क्यों वापस नहीं लाये जा सके हैं इसका जवाब देश की जनता के सामने आयेगा। इसी कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण स्थिति तो संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत के ब्यान से उभरी है। इस चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा में संघ भाजपा के रिश्तों के बीच जो लकीर खींचने का प्रयास किया था संघ प्रमुख के ब्यान को उस लकीर का जवाब माना जा रहा है। इस बार जिस तर्ज पर विपक्ष के लोगों को तोड़कर भाजपा में शामिल करने का अभियान चलाया गया और इस अभियान में ज्यादा फोकस कांग्रेस पर था। यदि इस अभियान के माध्यम से कांग्रेस को कमजोर दिखाने की रणनीति न रही होती तो शायद एनडीए मिलकर भी सरकार बनाने की स्थिति में न आ पाता। लेकिन इस रणनीति से जो भाजपा का वैचारिक धरातल पर नुकसान हुआ है उसकी भरपाई निकट भविष्य में संभव नहीं है। संघ प्रमुख का ब्यान इसी बिन्दु से जुड़े सवाल माना जा रहा है। क्योंकि इस ब्यान में उठाये गये सवाल एक लंबे अरसे से जवाब मांग रहे थे जिन्हें अब तक सशक्त स्वर नहीं मिला है।






मोदी पिछले दस वर्षों से केंद्र की सत्ता पर काबिज है। इसलिये इन दस वर्षों में जो भी महत्वपूर्ण घटा है और उससे आम आदमी कितना प्रभावित हुआ है उसका प्रभाव निश्चित रूप से इन चुनावों पर पड़ा है। महत्वपूर्ण घटनाओं में नोटबंदी, कृषि कानून और उनसे उपजा किसान आंदोलन तथा फिर करोना काल का लॉकडाउन ऐसी घटनाएं हैं जिन्होंने हर आदमी को प्रभावित किया है। इसी परिदृश्य में काले धन की वापसी से हर आदमी के खाते में पन्द्रह-पन्द्रह लाख आने का दावा भी आकलन का एक मुद्दा रहा है। हर चुनाव में किये गये वायदे कितने पूरे हुये हैं यह भी सरकार की समीक्षा का मुख्य आधार रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में इस चुनाव में हर चरण के बाद मोदी ने मुद्दे बदले हैं। कांग्रेस पर वह आरोप लगाये हैं जो उसके घोषणा पत्र में कहीं दर्ज ही नहीं थे। बल्कि मोदी के आरोपों के कारण करोड़ों लोगों ने कांग्रेस के घोषणा पत्र को डाउनलोड करके पड़ा है। राम मंदिर को इन चुनावों में केंद्रीय मुद्दा नहीं बनाया जा सका। इसी तरह इस चुनाव में आरएसएस और भाजपा में बढ़ता आंतरिक रोष जिस ढंग से भाजपा अध्यक्ष नड्डा के साक्षात्कार के माध्यम से सामने आया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस बार भाजपा का आंकड़ा पहले से निश्चित रूप से कम होगा। क्योंकि जिन राज्यों में पिछली बार पूरी पूरी सीटें भाजपा को मिली है वहां अब कम होंगी और उसकी भरपाई अन्य राज्यों से हो नहीं पायेगी।
इसी तर्ज पर इंडिया गठबंधन पर यदि नजर डाली जाये तो इस गठबंधन में कांग्रेस ही सबसे बड़ा दल है। तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार हैं। लेकिन इन राज्यों में भी कांग्रेस सारी सारी सीटें जीतने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि इन सरकारों की परफॉर्मेंस अपने-अपने राज्यों में ही संतोषजनक नहीं रही है। फिर चुनाव के दौरान कांग्रेस के घोषित प्रत्याशियों का चुनाव लड़ने से इन्कार और भाजपा में शामिल हो जाना ऐसे बिन्दु हैं जिसके कारण कांग्रेस अपने को मोदी भाजपा का विकल्प स्थापित नहीं कर पायी है। इसलिए इण्डिया गठबंधन के सरकार बनाने के दावों पर विश्वास नहीं बन पा रहा है। जो स्थितियां उभरती नजर आ रही है उससे लगता है कि विपक्ष पहले से ज्यादा मजबूत और प्रभावी भूमिका में रहेगा।












लेकिन जैसे-जैसे चुनाव प्रचार और मतदान चरण दर चरण आगे बढ़ता गया तो उसी के साथ प्रधानमंत्री का तथ्य और कथ्य भी बदलता गया। कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र पर जिस तरह की आक्रामकता प्रधानमंत्री ने अपनायी और उन मुद्दों पर कांग्रेस को घरने का प्रयास किया जो उसके घोषणा पत्र में थे ही नहीं। प्रधानमंत्री की आक्रामकता का चरण तब सामने आ गया जब उन्होंने देश की जनता से कहा कि यदि कांग्रेस सत्ता में आयी तो राम मन्दिर पर बुलडोजर चलवा देगी। जब प्रधानमंत्री जैसा नेता इस तरह का तथ्य जनता के सामने रखेगा तो उसका क्या अर्थ लगाया जायेगा। यह अपने में ही एक बड़ा सवाल बन जाता है। क्योंकि राम मन्दिर पर बुलडोजर चलाने की कल्पना देश में किसी भी राजनीतिक दल से नहीं की जा सकती चाहे सत्ता पर कोई भी काबिज क्यों न हो। यह एक सामान्य समझ रखने वाला व्यक्ति भी जानता है। परन्तु फिर भी प्रधानमंत्री ने जब ऐसा आरोप देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल पर लगाया है तो उसके निहितार्थ बदल जाते हैं। मोदी के नेतृत्व में ही कांग्रेस मुक्त भारत का नारा लगा था। भले ही आज भाजपा स्वयं कांग्रेस युक्त हो चुकी है दूसरे दलों से आये नेता जो वहां पर भ्रष्टाचार के आरोप झेल रहे थे भाजपा में आकर आरोप मुक्त हो गये हैं।
बल्कि इन्हीं लोगों के सहारे आज भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष यह कह पाने का साहस कर पाये हैं कि आज भाजपा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहयोग समर्थन और सलाह की आवश्यकता नहीं है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का यह विचार उनका अपना नहीं वरन् प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का संघ को सन्देश माना जा रहा है। संघ भाजपा में यह संभावित टकराव क्या परिणाम लायेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष के इस वक्तव्य के परिणाम दूरगामी होंगे। संघ भाजपा में यह स्थिति एकदम पैदा नहीं हुई है। जब इन चुनावों में संघ का वह वीडियो वायरल हुआ था जिसमें भाजपा को समर्थन न देने का आहवान किया गया था तभी यह आशंका सामने आ गई थी कि इस बार देश के राजनीतिक पटल पर कुछ बड़ा घटना वाला है। इस वस्तुस्थिति में भी प्रधानमंत्री द्वारा 400 पार के दावे को पूरे विश्वास के साथ दोहराना स्वतः ही ईवीएम मशीनों की ओर भी गंभीर संकेत करता है।






लेकिन जब सरकार ने मंत्रिमण्डल विस्तार से पहले ही छः मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां कर दी तब आम आदमी सरकार की कार्यप्रणाली पर नजर रखने लगा। मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों के बाद जब सरकार में नियुक्त हुये सलाहकारों और विशेष कार्यधिकारियों की संख्या करीब दो दर्जन के पास पहुंच गयी तब पार्टी के भीतर बैठे नेताओं और दूसरे लोगों ने भी इसका संज्ञान लेना शुरू कर दिया। पार्टी अध्यक्षा और दूसरे कुछ विधायकों ने इस पर चिन्ता व्यक्त करना शुरू कर दी। पार्टी के कार्यकर्ताओं को उचित मान सम्मान नहीं मिलने के आरोप हार्हकमान तक जा पहुंचे। हाईकमान ने सरकार और संगठन में तालमेल के लिये कमेटी तक का गठन कर दिया। लेकिन यह कमेटी भी पूरी तरह निष्क्रिय होकर रह गयी। आम आदमी को राहत के नाम पर केवल व्यवस्था परिवर्तन का जुमला सुनने को मिला। बेरोजगार युवा रोजगार के लिये धरने प्रदर्शनों तक आ गये। विधानसभा में इस आशय के आये हर सवाल का एक ही जवाब आया की सूचना एकत्रित की जा रही है।
जिस वित्तीय स्थिति पर प्रदेश को चेतावनी तक दी गयी उसमें विपक्ष ने आरटीआई के माध्यम से आंकड़े जुटा कर यह आरोप लगा दिया कि यह सरकार पन्द्रह माह में 25000 करोड़ का कर्ज ले चुकी है। सरकार इस आरोप का कोई जवाब नहीं दे पायी है। पूर्व की भाजपा सरकार पर वित्तीय कुप्रबंधन का आरोप लगाकर उसके खिलाफ श्वेत पत्र भी लायी लेकिन इस पर आज तक कोई सार्वजनिक बहस नहीं हो पायी है। 25 हजार करोड़ का कर्ज़ करके भी कर्मचारियों को उनके देय वितिय लाभों का भुगतान नहीं हो पाया है। ओ पी एस लागू करने के लिये बिजली बोर्ड जैसे अदारे अरसे से मांग करते-करते अब चनावों का बहिष्कार करने की चेतावनी देने पर आ गये हैं। इस पूरी वस्तुस्थिति में यह सवाल खड़ा होता जा रहा है कि जब सरकार अपने खर्चों पर लगाम लगाने के लिये तैयार नहीं है तो फिर आम आदमी पर बोझ क्यों डाला जा रहा है। विभिन्न सेवाओं और वस्तुओं के दामों में वृद्धि करके सरकार दो हजार करोड़ से अधिक का राजस्व अर्जित कर चुकी है। राजस्व बढ़ाने के लिये जल उपकर लगाने जैसे सारे उपाय अदालती परीक्षा में सफल नहीं हो पाये हैं। लेकिन सरकार किसी भी मुद्दे पर सार्वजनिक बहस के लिये तैयार नहीं हो रही है।
ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि क्या सरकार इसी सहारे चुनावी वैतरणी पार कर लेगी कि उसकी सरकार धन बल के सहारे गिराने का प्रयास हो रहा है। क्या इस आरोप की आड़ में अन्य मुद्दे गौण हो जायेंगे।