Thursday, 18 September 2025
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क्या इस चुनाव में पिछले वायदों पर सवाल उठेंगे?

2024 का चुनाव घोषित हो गया है। इस चुनाव के लिये भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने चुनावी घोषणा पत्र भी सांकेतिक रूप से जारी कर दिये हैं। क्या भाजपा के घोषणा पत्र को ही एन.डी.ए. यथारूप स्वीकार कर लेता है या नहीं यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो जायेगा। यही स्थिति कांग्रेस की है क्या इंडिया के घटक दल कांग्रेस के एजैण्डे पर मोहर लगा देंगे। यह सवाल इसलिये प्रसांगिक है क्योंकि भाजपा और कांग्रेस जो भी वायदे लोगों से करेंगे इसका असर राज्यों की सरकारों पर पड़ेगा। इस समय केंद्र और राज्य सरकारों पर जितना कर्ज है उसे सामने रखते हुये इस चुनाव के चुनावी वायदों पर स्वतः ही कई प्रश्न चिन्ह लग जाते हैं। भाजपा एन.डी.ए. ने पिछले चुनाव में जितने रोजगार प्रतिवर्ष उपलब्ध करवाने का वायदा किया था वह कितना पूरा हुआ है? किसानों की आय दोगुना करने का जो वायदा किया था क्या उसके तहत सही में आय बढ़ पायी है? इस दौरान शिक्षा और स्वास्थ्य कितने महंगे हुये हैं? क्या सभी को सस्ता न्याय मिल पाया? क्या संसद और विधानसभायें अपराधियों से मुक्त हो पायी है? ऐसे दर्जनों सवाल हैं जो इस चुनाव में पूछे जाने चाहिए? लेकिन कौन यह सवाल पूछने कहा साहस दिखाएगा?
अभी सर्वाेच्च न्यायालय चुनावी बांड योजना को गैरकानूनी घोषित करके इसके तहत चन्दा देने वालों की सूची स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से तलब की है। अभी तक जो सूची आयी है इसकी पड़ताल पर यह सामने आया है कि ऐसा चुनावी चन्दा देने वाली अधिकांश कंपनीयां वह है जिन पर ई.डी, आईटी और सीबीआई की छापेमारी हो चुकी थी। चुनावी चन्दा देने के बाद यह कारवाइयां बन्द हुई है। चुनावी चन्दा देने वाली कंपनियों में एक कंपनी पाकिस्तान की भी सामने आयी है। जिसने पुलवामा घटने के बाद चन्दा दिया है। उन्नीस लाख ईवीएम मशीने गायब होने और अस्सी हजार करोड़ के नोट गायब हो जाने के मामले इस दौरान घट चुके हैं। इन मामलों में जांच एजेंसियों से लेकर शीर्ष न्यायपालिका तक खामोश रहे हैं। क्या इस चुनावी पर्व में कोई नेता या दल सवाल उठायेगा। इन्हीं बड़े कारनामों का परिणाम है कि देश में महंगाई और बेरोजगारी लगातार बढ़ती जा रही है। सस्ते राशन के डिपो में मिलने वाले अनाज की मात्रा लगातार कम होती जा रही है। क्यों?
सर्वाेच्च न्यायालय और आर.बी.आई. तक ने चुनावों में मुफ्ती की घोषणाएं किये जाने पर तलख टिप्पणी की है। क्या इन चुनावों में ऐसे चुनावी प्रलोभन का संज्ञान लेकर ऐसा करने वालों को दण्डित किये जाने का कोई प्रावधान किया जायेगा? भाजपा इस चुनाव को राम मन्दिर के रथ पर बिठाने का पूरा प्रयास करेगी? उसका हर कदम इस दिशा में लगातार बढ़ रहा है। यह भाजपा की चुनावी आवश्यकता है क्योंकि चुनाव में उठने वाले हर सवाल का जवाब केंद्र में दस वर्ष से सता में होने के नाते उसी को देना है। और वह इन सवालों से बचना चाहती है। आज यह सवाल कांग्रेस को उठाने होंगे। लेकिन यह सवाल उठाते हुये उसे प्रदेशों में कांग्रेस की सरकारों पर उठने वाले सवालों का भी जवाब देना होगा।

हिमाचल बना कांग्रेस हाईकमान की परीक्षा

क्या हिमाचल का घटनाक्रम कांग्रेस हाईकमान के लिये एक चेतावनी है? यह सवाल इसलिये प्रसांगिक है कि हाईकमान ने उसके पास सुक्खू सरकार को लेकर आ रही शिकायतों का समय रहते संज्ञान नहीं लिया। यह संज्ञान न लेने का परिणाम प्रदेश वर्तमान घटनाक्रम है। कांग्रेस जब विपक्ष में थी तब जयराम सरकार के खिलाफ यह आरोप लगाती थी कि इस सरकार ने प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में डाल दिया है। कर्ज के इन आरोपों का अर्थ था कि कांग्रेस को प्रदेश की वित्तीय स्थिति का पूरा ज्ञान था। लेकिन कांग्रेस ने चुनाव जीतने के लिये दस गारंटीया जारी कर दी। सरकार ने इन गारंटीयों पर कोई कदम न उठाने के लिये प्रदेश की जनता के श्रीलंका जैसे हालात होने की चेतावनी दे दी। यह चेतावनी देने के बाद सरकार ने छः सीपीएस और एक दर्जन से अधिक गैर विधायकों को सलाहकार आदि बनाकर अपने खर्च बढ़ा लिये। दूसरी ओर आम आदमी के लिये सेवाओं और वस्तुओं के दाम बढ़ाकर उस पर बोझ डाल दिया। इस तरह सरकार की कथनी और करनी का विरोधाभास साफ सामने आ गया। ऊपर से पार्टी के कार्यकर्ताओं का सरकार में समायोजन न होने से अधिकांश लोग हताश होकर घर बैठ गये। इसी के साथ सरकार ने हर माह एक हजार करोड़ से ज्यादा कर्ज लेना शुरू कर दिया। इस स्थिति ने विपक्षी भाजपा को आक्रामक होने का अवसर दे दिया और उसने आरटीआई के माध्यम से कर्ज के तथ्य जुटाकर सार्वजनिक कर दिये। इस वस्तुस्थिति से कांग्रेस के अन्दर भी विचार-विमर्श चला लेकिन मुख्यमंत्री स्थिति का सही आकलन नहीं कर पाये। जब मुख्यमंत्री के स्तर पर कुछ नहीं हुआ तब शिकायतें हाईकमान के पास पहुंची। लेकिन अंतिम परिणाम वहां भी शून्य रहा। लोकसभा चुनाव के परिदृश्य में सरकार के खिलाफ उभरता रोष हर कांग्रेस जन के लिये चिन्ता का कारण बनता गया। क्योंकि फील्ड से यह स्पष्ट संकेत उभरने लगे की पार्टी चारों सीटों पर हार जायेगी। कोई भी मंत्री लोकसभा चुनाव लड़ने के लिये तैयार नहीं हुआ। क्योंकि सरकार एक भी फैसला जनहित का प्रमाणित नहीं हुआ। यह विभिन्न वर्गाे के धरने प्रदर्शनों से रोज सामने आ रहा था। मुख्यमंत्री व्यवस्था परिवर्तन के जुमले से बाहर नहीं निकल पाये। प्रदेश की इस स्थिति पर हाईकमान पर कुछ सीधे सवाल उठते हैं। क्या दस गारंटीयां जारी करते हुये प्रदेश की वित्तीय स्थिति का ज्ञान नहीं था? क्या इन गारंटीयों को पूरा करने के लिए प्रदेश पर और कर्ज भार बढ़ाने का रास्ता चुना गया था? क्या कर्ज लेने के बाद भी कोई गारंटी पूरी हो पायी है? क्या गारंटीयां अंतिम वर्ष में पूरी करने का वायदा किया गया था। जब प्रदेश की वित्तीय स्थिति ठीक नही थी तो फिर सीपीएस और सलाहकारों का ब्रिगेड खड़ा करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। क्या पार्टी का प्रभारी भी इस वस्तु स्थिति का आकलन नहीं कर पाया? जब हाईकमान के पास प्रदेश को लेकर शिकायतें जा रही थी तो उनका संज्ञान लेकर चीजें सुधारने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? आज प्रदेश की जो परिस्थितियां हैं क्या उनमें कांग्रेस को अपनी राज्य सरकारों पर बराबर नजर नही रखनी चाहिये थी? राज्य सरकारों का आचरण ही हाईकमान की नीतियों का आईना बनता है। पांच राज्यों के चुनाव में भी हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स रिपोर्ट कार्ड चर्चा में रहा है। छत्तीसगढ़ में हिमाचल की गारंटीयों पर विशेष चर्चा हुई है। इस समय प्रदेश की चारों सीटों पर कांग्रेस की हार पुख्त्ता हो गयी है। नाराज विधायकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। आज हाईकमान ने मुख्यमंत्री न बदलकर प्रदेश से कांग्रेस को लम्बे समय के लिये सत्ता से बाहर रखने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। क्या मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री कार्यकर्ताओं को संदेश देने के लिये लोकसभा चुनाव लड़ने को तैयार होंगे? यदि इस संकट के लिये बागी दोषी हैं तो इसका जवाब इन मंत्रियों या इनके परिजनों को लोस उम्मीदवार बनाकर ही दिया जा सकता है अन्यथा नेतृत्व परिवर्तन के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। यदि ऐसा नहीं होता है तो इसका अन्य राज्य पर भी प्रभाव पड़ेगा यह तय है।

कांग्रेस से आयकर वसूलने के मायने

2024 के लोकसभा चुनाव की घोषणा निकट भविष्य में कभी भी हो सकती है। क्योंकि जो कुछ पिछले दिनों में घटा है उससे यही संकेत सामने आते हैं। इन चुनावों के परिणामों का प्रभाव दूरगामी होगा चाहे जीत वर्तमान सता पक्ष की हो या विपक्ष की। वर्तमान परिस्थितियों ने हर संवेदनशील व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। इसी के प्रभाव स्वरूप पूर्व नौकरशाहों के एक बड़े वर्ग ने लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की स्थिति पर एक खुला पत्र सर्वोच्च सत्ता के नाम लिखा है इस परिदृश्य में जो महत्वपूर्ण घटा है उस पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। यह सरकार चुनावी चन्दे के लिये जो चुनावी बाण्ड योजना लेकर आयी थी और उस पर कई सवाल उठे थे। उस योजना को सर्वोच्च न्यायालय ने गैर कानूनी घोषित कर दिया है। शीर्ष अदालत के फैसले के बाद विजय माल्या जैसे कई नाम सामने हैं। जिन्होंने देश से भागने से पहले भारतीय जनता पार्टी को करोड़ों का चन्दा दिया है चंडीगढ़ के मेयर के चुनाव में जिस तरह की धांधली सामने आयी उसे सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में लोकतंत्र की हत्या करार दिया है। इस चुनाव को रद्द करते हुये आप और कांग्रेस के संयुक्त उम्मीदवार को विजयी घोषित करते हुये चुनाव अधिकारी के खिलाफ अवमानना का आपराधिक मामला दर्ज करने के निर्देश दिये हैं। ई वी एम के खिलाफ आन्दोलन कर रहे वकीलों ने ई वी एम को हैक करके बता दिया है। इससे स्पष्ट संदेश गया है कि भाजपा की जीत का बड़ा कारण ई वी एम है। देश में उन्नीस लाख ई वी एम 2019 से गायब हैं और इस पर किसी भी ऐजैन्सी ने कोई कारवाई नहीं की है। ई वी एम प्रकरण शीर्ष अदालत में पहुंच चुका है और माना जा रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय इसका संज्ञान लेगा। इसी के साथ देश में पहली बार आयकर विभाग ने किसी राजनीतिक दल से आयकर वसूला है। आयकर विभाग की यह कारवाई कांग्रेस के खिलाफ की गई है और उसके बैंक खातों से 65 करोड़ से ज्यादा पैसा निकाल लिया गया है। आयकर विभाग ने यह कारवाई भाजपा या किसी और; दल के खिलाफ नहीं की है इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाजपा कांग्रेस से ही डरी हुई है।
वित्तीय मुहाने पर अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष की चेतावनी ने और डरा दिया है। आई एम एफ के मुताबिक भारत का कर्ज जी डी पी का 100% होने जा रहा है। आर्थिकी को समझने वाले जानते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था के लिये यह सबसे बड़ा काला पक्ष है। आने वाले चुनाव में युवाओं की भागीदारी सबसे ज्यादा होगी। हर तीसरा वोटर युवा होगा। सरकार की अपनी रिपोर्ट के मुताबिक तीन युवाओं में से हर दूसरा बेरोजगार है। रिपोर्ट के अनुसार केन्द्र सरकार के विभागों में ही 90 लाख पद खाली हैं और सरकार इन्हें भरने की स्थिति में नहीं है। यही स्थिति सार्वजनिक उपक्रमों की है। कॉर्पोरेट घरानों में भी रोजगार कम होता जा रहा है कुल मिलाकर देश एक गंभीर दौर से गुजर रहा है। प्रधानमंत्री इन मुद्दों को चुनावी मुद्दा नहीं बनने देना चाहते। इसलिये वह धार्मिक ध्रुवीकरण करने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं। विपक्षीय एकता को तोड़ने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं और इसके लिये अगले कुछ दिनों में ई डी, सी बी आई और आयकर जैसी ऐजैन्सीयों की गतिविधियां बढ़ सकती हैं। जिस तरह से आयकर विभाग ने कांग्रेस के खातों से 65 करोड़ से अधिक की रकम आयकर के नाम पर निकाल ली है उससे यह स्पष्ट संकेत उभरता है कि कांग्रेस की राज्य सरकारों को भी अस्थिर करने का पूरा प्रयास किया जायेगा। जहां जो सरकारें अपने ही कारणों से कमजोर हो रही हैं उन पर अस्थिरता का प्रयोग किये जाने की बड़ी संभावना है।

गंभीर होंगे किसान आन्दोलन के परिणाम

किसान फिर आन्दोलन पर हैं। इससे पहले भी तीन कृषि कानूनों के विरोध में एक वर्ष भर किसान आन्दोलन पर रहे हैं। यह आन्दोलन तब समाप्त हुआ था जब प्रधानमंत्री ने यह कानून वापस लेने की घोषणा की थी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किसान तब तक आन्दोलन नहीं छोड़ता जब तक उसकी मांगे मान नहीं ली जाती है। इसलिये अब भी किसान अपनी मांग पूरी करवा कर ही आन्दोलन समाप्त करेंगे। पिछले आन्दोलन को दबाने, असफल बनाने के लिये जो कुछ सरकार ने किया था वही सब कुछ अब किया जा रहा है और किसान न तब डरा था और न ही अब डरेगा। इसलिये यह समझना आवश्यक हो जाता है कि किसानों की मांगे है क्या और कितनी जायज हैं। जब सरकार तीन कृषि विधेयक लायी थी तब कारपोरेट जगत के हवाले कृषि और किसान को करने की मंशा उसके पीछे थी। जैसे ही किसानों को यह मंशा स्पष्ट हुई तो वह सड़कों पर आ गया और उसका परिणाम देश के सामने है। इस वस्तुस्थिति में वर्तमान आन्दोलन को देखने समझने की आवश्यकता है। कृषि क्षेत्र का जीडीपी और रोजगार में सबसे बड़ा योगदान है। यह सरकार की हर रिपोर्ट स्वीकारती है। लेकिन इसी के साथ यह कड़वा सच है कि देश में होने वाली आत्महत्या में भी सबसे बड़ा आंकड़ा किसान का ही है। ऐसे में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि जो अन्नदाता है और जिसकी भागीदारी जीडीपी और रोजगार में सबसे ज्यादा है वह आत्महत्या के कगार पर क्यों पहुंचता जा रहा है। स्वभाविक है कि सरकार की नीतियों और किसान बागवान की व्यवहारिक स्थिति में तालमेल नहीं है। आज सरकार का जितना ध्यान और योगदान कॉरपोरेट उद्योग की ओर है उसका चौथा हिस्सा भी किसान और किसानी के कोर सैक्टर की ओर नहीं है। कोरोना कॉल के लॉकडाउन में जहां उद्योग जगत प्रभावित हुआ वहीं पर किसान और उसकी किसानी भी प्रभावित हुई। कॉरपोरेट जगत को उभारने के लिये सरकार पैकेज लेकर आयी लेकिन कृषि क्षेत्र के लिये ऐसा कुछ नहीं हुआ। कॉरपोरेट घरानों का लाखों करोड़ों का कर्ज़ बट्टे खाते में डाल दिया गया लेकिन किसान का कर्ज माफ नहीं हुआ। आज जब सर्वाेच्च न्यायालय ने चुनावी चन्दा बाण्ड योजना को असंवैधानिक करार देकर इस पर तुरन्त प्रभाव से रोक लगाते हुये चन्दा देने वालों की सूची तलब कर ली है तब यह सामने आया है कि विजय माल्या ने विदेश भागने से पहले 10 करोड़ का चन्दा भाजपा को दिया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार का व्यवहार कॉरपोरेट घरानों के प्रति क्या है और कृषि तथा किसानों के प्रति क्या है। प्रधानमंत्री ने किसानों की आय दो गुनी करने का वादा किया था वह कितना पूरा हुआ है वह हर किसान जानता है। किसानी बागवानी को लेकर पिछले पांच वर्षों में केन्द्र की घोषित योजनाओं का सच यह है कि कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार एक लाख करोड़ से अधिक का धन लैप्स कर दिया गया है। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि कृषि और किसान के प्रति सरकार की कथनी और करनी में दिन रात का अन्तर है। आज आन्दोलनरत किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की मांग कर रहा है। इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में 201 सिफारिशें की थी जिनमें से 175 पर यूपीए के काल में ही अमल हो गया था। लेकिन 26 सिफारिशों पर ही अमल बाकी है। नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब कृषि का समर्थन मूल्य तय करने के लिये सूत्र दिया था आज उसी पर अमल नहीं कर पा रहें हैं। 1960 में न्यूनतम समर्थन मूल्य आवश्यक वस्तुओं के लिये लागू किया गया था। आज किसान इसी समर्थन मूल्य नियम को विस्तारित करके सारी कृषि उपज के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग कर रहा है। इस समर्थन मूल्य को वैधानिक कवच प्रदान करने की मांग है। यह व्यवहारिक सच है कि आज कृषि में हर चीज का लागत मूल्य कई गुना बढ़ चुका है और उसके अनुपात में किसान को अपनी उपज का मूल्य नहीं मिल रहा है। ऐसे में यदि सरकार ने समय रहते किसानों की मांगों को नहीं माना तो इसके परिणाम गंभीर होंगे।

कांग्रेस को अपनों से ही खतरा है

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम मन्दिर प्रमाण प्रतिष्ठा आयोजन के बाद भी चुनावी सफलता को लेकर शंकित है। राजनीतिक विश्लेषण में यह संकेत बिहार झारखण्ड और चण्डीगढ़ के घटनाक्रमों से उभरे हैं। क्योंकि यह सब इण्डिया गठबंधन को चुनाव से पहले तोड़ने के प्रयासों के रूप में देखा जा रहा है। इस गठबंधन में सबसे बड़ा दल कांग्रेस ही है। इसलिये यह प्रायः सीधे कांग्रेस को कमजोर करने के कदम माने जा रहे हैं। ऐसे में यह विश्लेषण आवश्यक हो जाता है कि इसका कांग्रेस पर क्या असर होगा और भाजपा मोदी को क्या लाभ मिलेगा। इस समय 2014 और 2019 में मोदी भाजपा द्वारा जो चुनावी वादे किये गये थे उनका व्यवहारिक परिणाम यही रहा है कि कुछ लोग ही इन नीतियों से व्यक्तिगत रूप से लाभान्वित हुये हैं। जबकि अधिकांश के हिस्से में गरीबी, महंगाई और बेरोजगारी ही आयी है। इसी के परिणाम स्वरूप आज भी 140 करोड़ में से 80 करोड़ सरकारी राशन पर निर्भर हैं। केन्द्र से लेकर राज्यों तक हर सरकार का कर्ज बड़ा है यदि कर्ज न मिल पाये तो शायद सरकारी कर्मचारियों को वेतन भी न दे पाये। हर सरकार चुनावी सफलता के लिये केवल मुफ्ती की घोषणाओं के सहारे टिकी हुयी है। रिजर्व बैंक ने भी मुफ्ती के खतरों के प्रति सचेत किया है। अन्तर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेन्सीयों ने भी गंभीर चेतावनी जारी की हुयी है। लेकिन किसी भी सरकार पर इसका कोई असर नहीं है। चाहे वह भाजपा की सरकार हो या गैर भाजपा दलों की। इस परिदृश्य में मोदी सरकार के पास गंभीर आर्थिक प्रश्नों का कोई जवाब नहीं है। इसलिये मोदी सरकार आने वाले चुनाव को धार्मिकता का रंग देने और इण्डिया गठबंधन को कमजोर करने के प्रयास में लगी हुयी है। पिछले दो लोकसभा चुनाव के परिणाम और उसके बाद सरकारी नीतियों का कार्यन्वयन जिस तरह से हुआ है उससे यह धारणा बलवती हो गयी है कि जब तक विपक्ष इकट्ठा होकर सरकार का सामना नहीं करेगा वह भाजपा को हरा नहीं पायेगा। इसी धारणा के परिणाम स्वरुप इण्डिया का जन्म हुआ जबकि इसके सभी प्रमुख घटक किसी न किसी रूप परोक्ष/अपरोक्ष में ई.डी. और सी.बी.आई. जैसी केन्द्रिय एजैन्सीयों का सामना कर रहे थे। इसी वस्तुस्थिति में राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा शुरू की। इस यात्रा में इण्डिया के घटक दलों का साथ नहीं के बराबर था। शायद सभी को यात्रा के सफल होने का सन्देह था। सरकार ने इस यात्रा को असफल करवाने के लिये हर संभव प्रयास किया। राहुल गांधी की सांसदी तक जाने की स्थिति बन गयी। लेकिन जिस अनुपात में यह यात्रा सफल हुई और मध्य प्रदेश राजस्थान और छत्तीसगढ़ में राहुल गांधी की जनसभा में भीड़ देखने को मिली उससे सभी का गणित गड़बड़ा गये। इसी वस्तुस्थिति ने इण्डिया को जन्म दिया। लेकिन तीनों राज्यों के परिणामों ने फिर मनस्थितियां बदली। केन्द्रीय एजैनसीयों की सक्रियता फिर बड़ी। इसी बीच राहुल ने न्याय यात्रा शुरू कर दी। इस न्याय यात्रा में कैसे व्यवधान खड़े किये गये यह भी सबके सामने है। इस तरह जो परिस्थितियों निर्मित हुयी उनमें कांग्रेस को यह प्रमाणित करना था कि मोदी बीजेपी को हटाने के लिये कोई भी बलिदान देने को तैयार है। कांग्रेस के इस आचरण से सरकार और घटक दल फिर परेशान हो उठे। गठबंधन के साथ औपचारिकताएं पूरी करने की जिम्मेदारी राहुल को छोड़कर बाकी नेताओं पर डाल दी गयी। राहुल संगठन को सशक्त बनाने के लिये न्याय यात्रा के माध्यम से फिर जनमानस के बीच उतर गये। केन्द्रीय एजैन्सियां अपने काम में लग गयी। बिहार में नीतिश फिर भाजपा के हो गये। लेकिन नीतिश के पासा बदलने से जो नुकसान नीतिश का हुआ है उससे ज्यादा मोदी शाह का हुआ है। चण्डीगढ़ के घटनाक्रम ने फिर मोदी सरकार पर लोकतंत्र और उसकी व्यवस्थाओं को कमजोर करने का आप पुख्ता कर दिया है। इण्डिया को तोड़ने का आरोप कांग्रेस की बजाये घटक दलों पर आ रहा है। ऐसे में राहुल की न्याय यात्रा के बाद कांग्रेस को कोई नुकसान होने की संभावना नहीं के बराबर रह जाती है। बल्कि लाभ ही मिलने की स्थिति हो जाती है। ऐसे में मोदी का प्रयास अब कांग्रेस को भीतर से तोड़ने का रह जाता है। इसलिये कांग्रेस को अन्य दलों से नहीं वरना कांग्रेसियों से ही खतरा है।

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