Tuesday, 16 December 2025
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गठबंधन के साथ कांग्रेस को अपने राज्यों पर भी नजर रखनी होगी

संसद के विशेष सत्र में क्या घटता है इस पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में एक देश एक चुनाव के लिये गठित कमेटी से चुनावो को लेकर क्यास लगने शुरू हो गये हैं। इन्हीं क्यासों के बीच जी-20 के शिखर सम्मेलन की पूर्व संध्या पर इण्डिया बनाम भारत का मुद्दा आ गया। इसी मुद्दे के बीच सनातन का मुद्दा आ गया। सनातन को लेकर तमिलनाडु के दो नेताओं के ब्यान से यह मुद्दा उभरा और इसमें सीधे प्रधानमंत्री शामिल हो गये। प्रधानमंत्री ने सनातन पर उठते सवालों का पूरी कड़ाई के साथ जवाब देने का आह्वान किया है। अभी संघ की हुई शीर्ष बैठक में देश का नाम भारत करने की वकालत की है। सनातन पर जो ब्यान उदय निधि स्टालिन और ए राजा के आये हैं उन बयानों से कांग्रेस ने किनारा कर लिया है। शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति द्वारा दिये गये राजकीय भोज का निमंत्रण राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे को न दिए जाने पर कांग्रेस के तीन मुख्यमंत्रीयों का न जाना और केवल एक हिमाचल के मुख्यमंत्री का जाना कांग्रेस के अन्दर की राजनीति पर सवाल उठता है परन्तु इण्डिया के घटक दलों में से कुछ का इसमें शामिल होना और कुछ का गैर हाजिर रहना गठबन्धन के अन्दर की राजनीति पर सवाल उठाता है। इसी बीच इण्डिया गठबन्घन की मुंबई बैठक में राहुल गांधी के पत्रकार सम्मेलन में एनडीटीवी चैनल के ब्यूरो प्रमुख का आने से पहले ही चैनल से त्यागपत्र देना और उसके कारणों के बाहर आने इण्डिया गठबन्धन का नफरती एंकरों के बहिष्कार का फैसला आना अपने में एक महत्वपूर्ण घटना है।
पिछले कुछ ही दिनों में जो यह सब कुछ घटा है यदि उस सबको एक साथ मिलाकर देखा और समझा जाये तो एक बड़ी तस्वीर ऊभर कर सामने आती है। इण्डिया बनाम भारत के मुद्दे पर संघ की टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है कि इस विशेष सत्र में इण्डिया का नाम बदलकर भारत करने का प्रयास अवश्य किया जायेगा। इस नाम बदलने के साथ ही कुछ और भी बदलने का प्रयास किया जा सकता है। यह और क्या होगा इसका अनुमान लगाना आसान नहीं होगा। इस बदलाव पर जो प्रतिक्रियाएं उभरेगी उन्हें सनातन धर्म का विरोध करार देकर विपक्षी गठबंधन में शामिल हर दल को अपना अपना स्टैण्ड लेने के लिये बाध्य किया जायेगा। इस तरह एक ऐसी बहस का वातावरण खड़ा करने का प्रयास किया जायेगा जिसमें अन्य मुद्दे गौण होकर रह जायेंगे। विपक्षी एकता राज्यों और लोकसभा के चुनावों के मुद्दे पर ही अपनी अपनी हिस्सेदारी के नाम पर बांटने के कगार पर आ जायेगी। क्योंकि कुछ दलों की महत्वाकांक्षा अपने-अपने विस्तार के लिये कांग्रेस को अपने राह की सबसे बड़ी रुकावट मानेंगे। क्योंकि सतारूढ़ भाजपा दलों के इस द्वन्द्व को अवश्य उभारेगी ताकि विपक्षी एकता की गंभीरता को लेकर जनता में सवाल खड़े किये जा सके। सनातन पर आयी कुछ नेताओं की टिप्पणियां इसी परिप्रेक्ष में देखी जा रही है।
दूसरी और आज मोदी सरकार के खिलाफ देश की आर्थिकी को लेकर जितने सवाल हैं यदि वह सारे सवाल पूरी गंभीरता और तथ्यों के साथ देश की जनता के सामने एक साथ लाकर खड़े कर दिये जायें तो इस सरकार के पास कोई आधार ही नहीं बचता है। परन्तु इस समय ऐसे कोई सवाल योजनाबद्ध तरीके से उठाये नहीं जा रहे हैं। इण्डिया गठबन्धन में कांग्रेस सबसे बड़ा दल है। गठबन्धन के प्रति अपनी गंभीरता और प्रतिबद्धता दिखाते हुए राहुल गांधी ने अपने को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार होने से लेकर इण्डिया की हर कमेटी से अपने को बाहर रखा है ताकि गठबन्धन की किसी भी असफलता का कारण उन्हें न बना दिया जाये। राहुल का यह फैसला एक बहुत ही सुलझे हुये नेता का फैसला है। लेकिन इसी के साथ कांग्रेस को अपनी राज्य सरकारों पर नजर रखनी होगी। क्योंकि यदि कांग्रेस को अपने ही राज्यों से लोकसभा में सारी सीटें न मिली तो इसका सीधा असर भी राहुल और प्रियंका के नेतृत्व पर ही पड़ेगा। क्योंकि इस समय हाईकमान इन्हें ही माना जा रहा है। हिमाचल को लेकर कांग्रेस के अपने सर्वे में ही यह आ चुका है कि यहां की चारों सीटों पर कांग्रेस कमजोर है। इस कमजोरी की जिम्मेदारी हाईकमान के नाम लगेगी क्योंकि कार्यकर्ताओं की नजर अन्दाजी और नाराजगी वहां तक पहुंचा दी गयी है।

क्या सनातन और भारत पर उठा विवाद हिन्दु राष्ट्र का संकेत है

संसद के विशेष सत्र में क्या होने जा रहा है इस पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई है। क्योंकि इस सत्र का एजेंडा अभी तक देश और विपक्ष के सामने नहीं रखा गया है। इस सत्र में प्रश्न काल नहीं होगा। इससे रहस्य और भी गहरा जाता है। क्योंकि विपक्ष को भी यह बताया गया है की समय आने पर कार्य सूची जारी कर दी जाएगी। ऐसे में अटकलें का दौर बढ़ जाता है। इसलिए पिछले कुछ समय में जो कुछ घटा है उस पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। संसद के पिछले सत्र में सरकार ने जन विश्वास विधेयक पारित किया है। इसमें 42 अधिनियमों की 183 धाराओं को जेल की सजा के प्रावधान से बाहर कर दिया गया है इनमें अब जुर्माने का ही प्रावधान रह गया है। इनमें ई.डी, वन, पर्यावरण, बैंकिंग कर्ज, देशद्रोह आदि उन्नीस मंत्रालयों में संशोधन किया गया है। यह संशोधन जीवन यापन और व्यवसाय को सुगम बनाने के लिये किये गये हैं। समरणीय है कि पिछले नौ वर्षों में सरकार जिन कानून के सहारे विरोधियों को घेरती आयी है सरकारें तक गिरायी गयी उनमें अब यह संशोधन इस कार्यकाल के अन्त में क्यों किये गये?
अभी जब विपक्षी दलों ने इक्ठे होकर इंडिया नाम से एक गठबंधन खड़ा कर लिया और इसमें शामिल हर दल और नेता विपक्षी एकता के लिये कोई भी त्याग करने को तैयार हो गया तो इस गठबंधन की गंभीरता स्वतः ही स्पष्ट हो गयी। यह गठबंधन सामने आने के बाद जी-20 सम्मेलन के राष्ट्रीय अध्यक्षों के नाम राष्ट्रपति की ओर से जो निमंत्रण पत्र भोज के लिए गया उस पर प्रैजीडैण्ट ऑफ इंडिया की जगह प्रैजीडेण्ट ऑफ भारत लिखा गया। अन्य भी सारी संवद्ध सामग्री पर इंडिया के स्थान पर भारत लिखा गया। इस लिखने से इंडिया और भारत पर विवाद छिड़ गया। भारत लिखने की वकालत शुरू हो गयी। यह वकालत शुरू करने वाले यह भूल गये कि जब स्व.मुलायम सिंह यादव इस आश्य का प्रस्ताव उत्तर प्रदेश विधानसभा में लाये थे तब भाजपा ने ही इसका विरोध किया था। यही नहीं 2016 में सर्वाेच्च न्यायालय में आयी इस आश्य की याचिका का यह कह कर केंद्र सरकार विरोध कर चुकी है कि अभी ऐसे हालात नहीं पैदा हुये हैं की इण्डिया का नाम भारत कर दिया जाये। इस आश्य का संविधान संशोधन करने की अभी आवश्यकता नहीं है। ऐसे में अब ऐसा क्या हुआ है कि यही सरकार इण्डिया की जगह भारत लिखने पर आ गयी है। स्वभाविक है कि इस आश्य का संविधान संशोधन भी कर दिया जायेगा
जब इण्डिया बनाम भारत का विवाद शुरू हुआ तभी तमिलनाडु के मंत्री उदय निधि का सनातन को लेकर ब्यान आ गया। यह ब्यान किस संद्धर्भ में आया इसकी चर्चा किये बिना ही इसे सनातन धर्म पर हमला करार दे दिया गया। प्रधानमंत्री ने अपने मंत्रियों को निर्देश दिये हैं कि वह इस ब्यान का कड़ा विरोध करें। प्रधानमंत्री के इस निर्देश के बाद यह वाक्युद्ध और तेज हो गया है। संभव है कि जी-20 के सम्मेलन के बाद इस विवाद का उग्र रूप भी देखने को मिले। इसी विवाद के बीच एक देश एक चुनाव को लेकर भी पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित कर दी गयी है और यह चर्चा चल पड़ी है कि शायद चुनाव ही हो जायें। भारत नाम बदला जाये य सारे चुनाव एक साथ करवाये जायें दोनों ही स्थितियों में संविधान में संशोधन करना ही पड़ेगा। एक देश एक चुनाव की संभावनाएं बहुत कम है। क्योंकि जिस तरह से देश में तोड़फोड़ करके सरकारें गिरने की संस्कृति चल निकली है उसके चलते एक चुनाव की व्यवहारिकता बहुत कम रह जाती है। क्योंकि कल यदि कोई सरकार कार्यकाल पूरा किये बिना ही किसी कारण से गिर जाती है तब चुनाव कैसे होगा यह बड़ा सवाल होगा। ऐसे में यही संभावना रह जाती है कि इस विशेष सत्र में हिंदू राष्ट्र की ओर कोई कदम उठाया जाये। क्योंकि .आर.एस.एस. को लेकर एक मामला अदालत में चल ही रहा है और उसके परिणाम भी गंभीर हो सकते हैं। सनातन और भारत पर उठा विवाद इस ओर ज्यादा संकेत कर रहा है।

संसद का विशेष सत्र क्यों

मोदी सरकार ने संसद का विशेष सत्र बुलाकर पूरे देश को अटकलों के भंवर में लाकर खड़ा कर दिया है। क्योंकि विशेष सत्र का अर्थ ही यह है कि सरकार कुछ ऐसा विशेष करने जा रही है जिसके लिए नियमित सत्र का इंतजार नहीं किया जा सकता। ऐसे में यह अटकलें लगना स्वभाविक है कि यह विशेष क्या हो सकता है। लोकसभा का आम चुनाव सामान्य स्थितियों में मई 2024 में होना है। ऐसे में यह देखना और समझना आवश्यक हो जाता है कि मोदी सरकार ने ऐसा कौन सा वायदा परोक्ष/अपरोक्ष में देश के साथ कर रखा है जिसे पूरा करने के लिए विशेष सत्र आहूत करना आवश्यक हो गया है। मोदी के नेतृत्व में भाजपा मई 2014 में केंद्र की सत्ता पर काबिज हुई थी और 2019 के चुनावों में पहले से भी ज्यादा बहुमत हासिल किया यह एक हकीकत है। लेकिन 2014 में भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस लोकपाल की स्थापना के मुद्दे पर सत्ता परिवर्तन हुआ था उसका व्यवहारिक सच यह है कि जिन नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे वह अब भाजपा में जाकर बिना किसी जांच के पाक साफ हो गये हैं। इसलिये भ्रष्टाचार से जुड़ा कोई मुद्दा विशेष सत्र का विषय नहीं हो सकता भले ही 183 अपराधों को जेल की सजा के दायरे से बाहर कर दिया हो।
मोदी सरकार ने जान विश्वास विधायक पारित करके व्यवसाय और जीवन ज्ञापन को सुगम बनाने का प्रयास करने का दावा किया है। क्योंकि मोदी मूल सूत्र मेक इन इंडिया है। इस सूत्र के तहत विदेश की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यहां बुलाकर देश के संसाधन उन्हें उपलब्ध करवाकर देश के निर्माण करने के लिए आमंत्रित किया है। इस व्यवसायिक सुगमता के लिये ही यहां के हर संसाधन की प्राइवेट सैक्टर को उपलब्धतता सुनिश्चित करने के लिये बड़े पैमाने पर निजीकरण को बढ़ावा दिया गया है। इससे यह बहुराष्ट्रीय कंपनियां हमारे ही संसाधनों से लाभ कमा कर अपने देश में ले जा रहे हैं। क्योंकि सरकार मेड इन इंडिया की बजाये मेक इन इंडिया को सूत्र बनाकर चल रही है। इसलिये इस संद्धर्भ में भी कुछ अप्रत्याशित लाने के लिये यह विशेष सत्र नहीं हो रहा है यह तय है।
मोदी सरकार हर चुनाव में अपना एजेंडा बदलती रही है यह अब तक का रिकॉर्ड रहा है। हर चुनाव नये नारे पर ही लड़ा गया है। इसलिये इस चुनाव के लिये भी कुछ नया लाने का प्रयास रहेगा यह तय है। मोदी सरकार ने विधानसभा से लेकर संसद तक को अपराधियों से मुक्त करवाने और एक देश एक चुनाव की बात भी संसद के संयुक्त सत्र में की थी। इसलिये इस विशेष सत्र में इस आश्य का संशोधन लाये जाने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। क्योंकि पिछले दोनों चुनावों में विपक्ष बिखरा हुआ था जो कि अब इकट्ठा होता जा रहा है। जिस राहुल गांधी को पप्पू प्रचारित करने के लिये लाखों का निवेश किया गया था वह राहुल गांधी भारत छोड़ो यात्रा के बाद मोदी से बहुत आगे निकल चुका है। लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि भाजपा संघ परिवार की एक राजनीतिक इकाई है। संघ का मूल सूत्र हिन्दु राष्ट्र की स्थापना है। संघ की सारी ईकाईयां इस दिशा में प्रयासरत रही हैं। इस समय संसद में जो बहुमत मोदी भाजपा को हासिल है इतना बड़ा बहुमत पुनः मिल पाना संभव नहीं है। हिन्दु राष्ट्र को लेकर देश की राजनीतिक प्रतिक्रिया क्या रहेगी इसके लिये दो स्तरों पर प्रयास हुये हैं। मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टीस सेन का हिन्दु राष्ट्र को लेकर दिया गया फैसला पहला प्रयास था। भले ही मेघालय उच्च न्यायालय की बड़ी पीठ ने एकल पीठ के फैसले को बाद में पलट दिया है लेकिन यह पलटना तब हुआ जब इस पर सर्वाेच्च न्यायालय में एक याचिका आ गयी। यह फैसला राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक सब स्तरों पर सर्व हो चुकने के बाद पलटा गया है। परन्तु इस पर केंद्र सरकार और संघ की कोई प्रतिक्रिया तक नहीं आयी है। जबकि संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने के नाम से भारत का नया संविधान तक वायरल हो चुका है और इस पर भी संघ और सरकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है। मोदी सरकार आर्थिक क्षेत्र में बुरी तरह असफल रही है। महंगाई और बेरोजगारी ने हर आदमी की कमर तोड़कर रख दी है। इनके अनुपात में आम आदमी की आय नहीं बढ़ी है। बेरोजगार और गरीब के लिये चन्द्रयान की उपलब्धि अपनी महंगाई और बेरोजगारी के बाद आती है। इसलिये संभव है कि सरकार संघ के दबाव में हिन्दु राष्ट्र को लेकर इस विशेष सत्र में फैसला ले लें।

विनाश में भविष्य का फैसला वर्तमान की परीक्षा होगी

प्रदेश भर में इस मानसून सत्र से जो तबाही हुई है उससे कुछ बुनियादी सवाल भी उठ खड़े हुये हैं। सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि इस विनाश के लिये क्या प्रकृति ही जिम्मेदार है या सरकार की नीतियों और हमारा लालच भी बराबर का जिम्मेदार रहा है। मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है की सरकार की नीतियां लालच से ज्यादा जिम्मेदार रही है। क्योंकि जब नीतियों में ढील दी जाती है तो उससे लालच बढ़ता जाता है। हिमाचल में गैर कृषक गैर हिमाचली को जमीन खरीदने पर मूलतः प्रबंध रहा है। इस प्रतिबंध में ढील देने के लिये भू राजस्व अधिनियम की धारा 118 में सरकारी अनुमति का प्रभावधान करके इस खरीद का मार्ग प्रशस्त किया गया। इस प्रावधान का इतना दुरूपयोग हुआ है की सरकारों पर हिमाचल को बेचने के आरोप लगे। बेनामी खरीदो पर चार बार जांच आयोग बैठाये गये। हर जांच रिपोर्ट में सैकड़ो मामले सामने आ चुके हैं। लेकिन किसी भी रिपोर्ट पर कोई अंतिम कारवाई नहीं हो पायी है। इसी का परिणाम है कि हर एक पर्यटक स्थल पर गैर हिमाचली गैर कृषक व्यवसायिक परिसर बनाकर बैठे हुये है। प्रदेश में कार्यरत गैर हिमाचली गैर कृषक अधिकारियों ने भी जब यहां जमीन खरीदनी शुरू की तब यह भी प्रावधान नहीं किया गया की एक व्यक्ति को धारा 118 के तहत कितनी बार जमीन खरीद की अनुमति मिल सकती है।

जमीन खरीद पर प्रतिबंध के साथ ही लैंड सीलिंग एक्ट के तहत अधिकतम भूमि सीमा का भी प्रतिबंध है । इस प्रतिबंध के तहत 161 बीघा या 300 कनाल से अधिक जमीन नहीं खरीदी जा सकती। लेकिन जल विद्युत परियोजनाओं और सीमेंट उद्योगों के लिए यह सीमा में छूट दे दी गयी। यही नहीं राधा स्वामी सत्संग व्यास के लिये भी इसमें छूट दे दी गयी और इस संस्था को कृषक का दर्जा भी अदालत के माध्यम से दिला दिया गया और इस फैसले की कोई अपील तक नहीं की गयी। इसी का परिणाम है की राधा स्वामी सत्संग ब्यास के पास आज हजारों बिघा जमीन है। अब तो 1974 में पारित लैंड सीलिंग एक्ट में भी संशोधन करके एक नया आयाम स्थापित कर दिया गया है। इस संशोधन के लाभार्थी कौन होंगे यह नई चर्चा का विषय बन जायेगा। रियल स्टेट प्रदेश में एक पूरा उद्योग बन गया जबकि नये स्थापित उद्योगिक क्षेत्रों में लेबर को आवासीय सुविधा उपलब्ध करवाने के लिये ऐसे निर्माणों के अनुमति दी गई थी।

इसी तरह भवन निर्माण के लिए जो स्थाई पॉलिसी 1979 में बनाई जानी थी वह आज 2023 में भी अंतरिम आधार पर ही चल रही है। क्योंकि स्थाई योजना एनजीटी के आदेश के बाद केवल शिमला के लिये ही बन पायी और वह सर्वाेच्च न्यायालय में विचाराधीन चल रही है। भवन निर्माणों में अवैधताओं को कैसे लालच का रूप लेने दिया गया इसका खुलासा अब तक लायी गयी रिटेंशन पॉलिसीयों से हो जाता है। जिस विकास के नाम पर इन अवैधताओं को बढ़ावा दिया जाता रहा है उसे सब का सामूहिक परिणाम है यह विनाश। इस विनाश में जहां प्रभावितों को तुरंत राहत पहुंचना प्राथमिकता है तो उसी के साथ यह पुनर्निर्माण भी आवश्यक है। निर्माण की अनिवार्यता और राहत की तात्कालिक आवश्यकता के साथ ही भविष्य की संभावनाओं को भी ध्यान में रखकर अगले फैसले लेने होंगे। यह निष्पक्षता से विचार करना होगा की क्या शिमला राजधानी के तौर पर भविष्य की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं को पूरा कर पायेगा। जो लोग कल तक किन्हीं कारणों से एनजीटी के फैसले का विरोध कर रहे थे उन्हें अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर खुले मन से इस विनाश के परिपेक्ष में फैसला लेना होगा। यह फैसला आज की राजनीतिक और प्रशासनिक पीढ़ियां की परीक्षा भी साबित होगी।

 

क्या अब राजधानी बदलने का वक्त आ गया है

इस मानसून में जिस तरह की तबाही पूरे प्रदेश में देखने को मिली है उससे कुछ ऐसे बुनियादी सवाल उठ खड़े हुये हैं जिन्हें भविष्य को सामने रखते हुए नजरअंदाज करना संभव नहीं होगा। यह तबाही प्रदेश के हर जिले में हुई है और इसके बाद प्रदेश को लेकर अब तक हुये सारे भूगर्भीय अध्ययन भी चर्चा में आ खड़े हुये हैं। इन सारे अध्ययनों में यह कहा गया है की पूरा प्रदेश भूकंप क्षेत्र में आता है। एक वर्ष में ऊना को छोड़कर अन्य सभी जिलों में हुये 87 भूकंपों का आंकड़ा सामने आ चुका है। इन भूकंपो से भूस्खलन, पहाड़ों में लैंडस्लाइड, बाढ़ आदि होना यह अध्ययनों में आ चुका है। इसका कारण पहाड़ों में बनी जल विद्युत परियोजनाओं और यहां बनाई गई सड़कों को कहा गया है। इन जल विद्युत परियोजनाओं और सड़कों के निर्माण से पर्यटन का विकास हुआ। यह सारा विकास पिछले तीन दशकों की जमा पूंजी है। इस सारे विकास से जो आर्थिक लाभ प्रदेश को पहुंचा है उसी का परिणाम है प्रदेश पर खड़ा एक लाख करोड़ के करीब का कर्ज और इतना ही इसके लिये दिया गया उपदान। लेकिन इतनी कीमत चुकाकर खड़ा किया गया यह विकास कितनी देर टिक पायेगा।
1971 में किन्नौर में आये भूकंप का असर शिमला के रिज और लक्कड़ बाजार क्षेत्र में आज भी देखा जा सकता है। आज तक रिज अपने पुराने मूल रूप में नहीं आ सका है। हर वर्ष रिज के जख्म हरे हो जाते हैं। इसी विनाश के कारण 1979 में यह माना गया कि प्रदेश के सुनियोजित विकास के लिए नगर एवं ग्रामीण नियोजन विभाग चाहिए और परिणामतयः टीसीपी विभाग का गठन हुआ। प्रदेश के नगरीय और ग्रामीण विकास के लिये एक स्थाई विकास योजना तैयार करने की जिम्मेदारी इस विभाग की थी। लेकिन राजनीति के चलते यह विभाग ग्रामीण क्षेत्र तो दूर शहरों के लिये भी कोई स्थाई योजना नहीं बना पाया है। राजधानी नगर शिमला के लिये ऐसी स्थाई योजना की एकदम आवश्यकता थी लेकिन 1979 में जो अंतरिम योजना जारी हुई उसमें भी एन.जी.टी. का फैसला आने तक 9 बार रिटैन्शन पॉलिसीयां जारी हुई और हर पॉलिसी में अवैधता का अनुमोदन किया। यहां तक की एन.जी.टी. का फैसला आने के बाद भी हजारों अवैध निर्माण खड़े हो गये। सरकार स्वयं फैसले के उल्लंघनकर्ताओं में शामिल है। शायद सरकार के किसी भी निर्माण का नक्शा कहीं से भी पारित नहीं है। जबकि टी.सी.पी. नियमों के अनुसार हर सरकारी भवन का नक्शा पास होना आवश्यक है।
राजधानी नगर शिमला के कई हिस्से स्लाइडिंग और सिंकिंग जोन घोषित हैं। इनमें कायदे से कोई निर्माण नहीं होना चाहिए था। लेकिन यहां निर्माण हुए हैं। पहाड़ में 35 डिग्री से ज्यादा के ढलान पर निर्माण नहीं होना चाहिए। लेकिन सरकारी निर्माण भी हुये हैं। जब सरकारी भवन ही कई-कई मंजिलों के बन गये तो प्राइवेट सैक्टर को कैसे रोका जा सकता था। ऐसे बहुमंजिला भवनों की एक लंबी सूची विधानसभा के पटल पर भी आ चुकी है लेकिन वह रिकार्ड का हिस्सा बनकर ही रह गई है। आज शिमला में जो तबाही हुई है उसका एक मात्र कारण निर्माण की अवैधताएं हैं जिन्हें रोक पाना शायद किसी भी सरकार के बस में नहीं रह गया है। सुक्खू सरकार ने भी इसी दबाव में आकर ऐटिक और बेसमैन्ट का फैसला लिया है। जब सरकार के अपने भवन ही असुरक्षित होने लग जायें तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि शिमला कितना सुरक्षित रह गया है। इस विनाश के बाद शिमला की सुरक्षा को लेकर हर मंच पर सवाल उठ रहे हैं। पिछले चार दशको में हुए शिमला के विकास ने आज जहां लाकर खड़ा कर दिया है उसके बाद यह सामान्य सवाल उठने लग गया है कि भविष्य को सामने रखते अब राजधानी को शिमला से किसी दूसरे स्थान पर ले जाने पर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है। एन.जी.टी. ने कुछ कार्यालय शिमला से बाहर ले जाने के निर्देश दिए हुए हैं। लेकिन अब कार्यालयों की जगह राजधानी को ही शिफ्ट करने पर विचार किया जाना चाहिए।

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