Tuesday, 16 December 2025
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सरकार और मीडिया के रिश्तों पर उठते सवाल

इस समय हिमाचल वित्तीय अस्थिरता के एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसका असर राजनीतिक स्थिरता पर भी पढ़ सकता है। अब तक के कार्यकाल में यह सरकार डेढ़ हजार करोड़ का ऋण प्रतिमाह ले चुकी है। वित्तीय कठिनाई की बात इस सरकार ने सत्ता संभालने के तुरन्त बाद ही प्रदेश की जनता के सामने भी रख दी थी। प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर यह सरकार श्वेत पत्र भी लायी है। इस श्वेत पत्र के माध्यम से वित्तीय संकट के लिए पूर्व सरकार को जिम्मेदार ठहराया गया। लेकिन कठिन वित्तीय स्थितियों के बीच जब इस सरकार ने पूर्व सरकार से हटकर छः मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां कर डाली। इसी के साथ सलाहकारों और विशेषाअधिकारियों की एक लम्बी लाइन खड़ी कर ली तो पहली बार सरकार की नियत और नीति पर शंकाएं ऊभरी। जब ऐसी नियुक्तियां कैबिनेट रैंक में होने लगी तो शंकाएं पख्ता होने लगी। विपक्ष ने आरटीआई के माध्यम से कर्ज के आंकड़े जुटाकर जनता के सामने रख दिये। सरकार का कौन सा खर्च वित्तीय समझ के दायरे से बाहर हो रहा है इसकी ठोस जानकारी सबसे पहले सचिवालय के गलियारों में चर्चा में आती है और उसके बाद मीडिया के माध्यम से जनता के पास पहुंचती है।
इस संद्धर्भ में इस सरकार का सबसे नाजुक सवाल चुनावों के दौरान जनता को बांटी गई गारन्टीयां हैं। इन गारन्टीयों को यथा घोषित रूप में पूरा कर पाना मौजूदा वित्तीय स्थिति में संभव ही नहीं है। इन मुद्दों पर शुरू में ही सवाल न उठ जाये इसके लिए व्यवस्था परिवर्तन का सूत्र लोगों को पिलाया गया। इसी सूत्र के प्रभाव तले लोकसभा चुनावों तक प्रशासन के हर स्तर पर तबादलों की संस्कृति पर अमल नहीं किया गया। जब प्रशासन को सरकार के भीतर का खोखलापन समझ आया तो। उसका परिणाम भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के रूप में सामने आया। वैसे भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के मामले में पूर्व सरकार का आचरण भी इस सरकार से कतई भिन्न नहीं रहा है। कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों के दौरान पूर्व सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का एक आरोप पत्र सीधे जनता की अदालत में जारी किया था। वैसे पहले ऐसे आरोप पत्र हर विपक्ष सत्ता पक्ष के खिलाफ राजभवन को सौंपता रहा है। वैसे ऐसे आरोप पत्रों पर खुद सरकार में आकर कभी किसी ने कोई ठोस कारवाई नहीं की है। लेकिन जब कांग्रेस ने राज भवन का रूट न लेकर सीधे जनता का रूख किया था तब कुछ अलग उम्मीद बंधी थी जो सही साबित नहीं हुई। बल्कि इस सरकार ने इस संद्धर्भ में एक नई संस्कृति को जन्म दिया है।
इस सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार को लेकर जब पहला पत्र बम्ब वायरल हुआ था तब उस भ्रष्टाचार की कोई जांच करने के बजाये उस पत्र पर कुछ पत्रकारों के खिलाफ मामला बनाकर उस चर्चा को दबा दिया गया। उसी दौरान मुख्यमंत्री के स्वास्थ्य को लेकर चर्चाएं उठी और उस पर कांग्रेस के सचिव ने एसपी शिमला को पत्र लिखकर ऐसे लोगों के खिलाफ मामला दर्ज करने की मांग की थी। उसके बाद एक पत्रकार के खिलाफ मंत्रिमण्डल की बैठक की रिपोर्टिंग को लेकर एफआईआर दर्ज की गयी। अब शिमला और हमीरपुर के दो पत्रकारों के खिलाफ झूठी खबरें चलाने के लिये एफ.आई.आर. किये गये हैं। धर्मशाला में दो पत्रकारों को एक निजी स्कूल से उगाई करते हुए विजिलैन्स ने गिरफ्तार किया है। सरकार के मीडिया सलाहकार ने ब्यानजारी करके झूठी खबरें चलाने वालों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करने का ऐलान किया है। झूठी खबरें छापना चलाना अपराध है उगाही करना तो और भी बड़ा अपराध है। ऐसे कृत्यों की निंदा होनी चाहिए। ऐसी उगाई करने वालों को दण्ड मिलना चाहिए।
झूठी गलत खबरें छापने पर मानहानि का मामला दायर करने का प्रावधान है। ऐसी खबरों का खण्डन भी उसी प्रमुखता के साथ छापना/प्रसारित करना बाध्यता है। लेकिन बिना कोई खण्डन जारी किये या मानहानि का नोटिस दिये बिना सरकार द्वारा सीधे पुलिस कारवाई पर आना कहीं न कहीं कुछ अलग ही संकेत देता है। इस सरकार ने प्रदेश से छपने वाले साप्ताहिक समाचार पत्रों के विज्ञापन बन्द कर रखे हैं। जिन पत्रकारों के पास सरकारी आवास है उनका किराया पांच गुना बढ़ा दिया गया है। 65 वर्ष से अधिक की आयु वाले पत्रकारों से आवास खाली करवाने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। देशभर की राज्य सरकारें पत्रकारों को सुविधाएं देने की घोषणाएं कर रही है। लेकिन हिमाचल सरकार इस तरह के हथकण्डे अपना कर मीडिया को गोदी मीडिया बनाने के प्रयासों में लगी है। आज सरकार नहीं चाहती कि उससे कोई पत्रकार तीखे सवाल पूछे। प्रदेश में ईडी और आयकर की छापेमारी हो रही है और उसमें कुछ सरकारी विभागों की कारगुजारियां भी संदेह के घेरे में आयी हैं। सरकार नहीं चाहती कि इस पर उससे सवाल पूछा जाये। जब कोई सरकार मीडिया को दबाने के लिये इस हद तक उतर आये तो उसके परिणाम क्या निकलेंगे? आम आदमी के साथ मीडिया कितना खड़ा रह पायेगा? यह सवाल भविष्य के लिए भी महत्वपूर्ण है।
 
 

आउटसोर्स के माध्यम से शिक्षकों की भर्ती घातक होगी

हिमाचल सरकार छः हजार प्री प्राईमरी शिक्षक आउटसोर्स के माध्यम से भर्ती करने जा रही है। इसकी अधिसूचना जारी हो गयी है। इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन को यह भर्तीयां करने का काम सौपा गया है। दो वर्ष का एन.टी.टी. डिप्लोमा धारक इन भर्तीयों के लिये पात्र होंगे। इन लोगों को दस हजार का मानदेय देना तय हुआ है। लेकिन इस मानदेय में से एजैन्सी चार्जेस जी.एस.टी. और ई.पी.एफ. की कटौती के बाद इन अध्यापकों को करीब सात हजार नकद प्रतिमाह मिलेंगे। प्रदेश के 6297 प्री प्राईमरी स्कूलों में करीब साठ हजार बच्चे पंजीकृत हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा की अवधारण लागू की गयी है। यह माना गया है कि बच्चों के मस्तिष्क का 85% विकास छः वर्ष की अवस्था से पूर्व ही हो जाता है। बच्चों के मस्तिष्क के उचित विकास और शारीरिक वृद्धि को सुनिश्चित करने के लिए उसके आरम्भिक छः वर्षों को महत्वपूर्ण माना जाता है। इस विकास के लिए एनसीईआरटी द्वारा आठ वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिए दो भागों में प्रारम्भिक बाल्यावस्था के शिक्षा के लिए 0-3 वर्ष और 3-8 वर्ष के लिए दो अलग-अलग सबफ्रेमवर्क विकसित किये गये हैं। नई शिक्षा नीति में यहां बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा एक मूल आधार है। इस आधार पर ही अगली ईमारत खड़ी होगी। नई शिक्षा नीति को लागू करने के लिए पिछले दो वर्षों से तैयारी की जा रही है लेकिन इस तैयारी के बाद जो सामने आया है वह यह है कि इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को निभाने के लिए आउटसोर्स के माध्यम से प्री प्राईमरी शिक्षक नियुक्त किये जा रहे हैं जिनकी पगार एक मनरेगा मजदूर से भी कम होगी। आउटसोर्स के माध्यम से रखे जा रहे इन शिक्षकों को कभी भी सरकारी कर्मचारी का दर्जा नहीं मिल पायेगा। इस समय सरकार के विभिन्न विभागों में करीब 45000 कर्मचारी आउटसोर्स के माध्यम से नियुक्त हैं जो अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं है।
जब एक सरकार शिक्षा जैसे क्षेत्र में आउटसोर्स के माध्यम से शिक्षकों की भर्ती करने पर आ जाये तो उसकी भविष्य के प्रति संवेदनशीलता का पता चल जाता है। निश्चित है कि आउटसोर्स के माध्यम से नियुक्त किये जा रहे इन प्री प्राईमरी शिक्षकों का अपना ही भविष्य सुरक्षित और सुनिश्चित नहीं होगा तो वह उन बच्चों के साथ कितना न्याय कर पायेंगे।
जिनकी जिम्मेदारी उन्हें सौंपी जायेगी। यह प्री प्राईमरी शिक्षक अवधारणा नयी शिक्षा नीति का बुनियादी आधार है और इस आधार के प्रति ही इस तरह की धारणा होना कितना हितकर होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सरकार एक ओर अटल आदर्श विद्यालय और राजीव गांधी र्डे-बोर्डिंग स्कूल हर विधानसभा क्षेत्र में खोलने की घोषणा कर रही है। स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षण की योजनाएं जनता में परोस रही है। जबकि दूसरी ओर आज भी स्कूलों में शिक्षकों के सैकड़ो पद खाली चल रहे हैं। दर्जनों स्कूलों का बोर्ड परीक्षाओं का परिणाम शून्य रहा है। इसके लिये अध्यापकों के खिलाफ सख्ती बरतने का फैसला लिया जा रहा है। लेकिन इसका कोई लक्ष्य नहीं रखा गया है कि कब तक शिक्षकों के खाली पद भर दिये जायेंगे।
इस समय प्रदेश में पांच इंजीनियरिंग कॉलेज कार्यरत है इसमें प्लस टू के बाद जेईई परीक्षा के बाद दाखिला लेते हैं। लेकिन इन सभी कॉलेजों में सभी विषयों के शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं। इन संस्थानों में शिक्षकों के खाली पद कब भरे जायेंगे इस ओर भी सरकार की कोई गंभीरता सामने नहीं आयी है। इस तरह शिक्षा के हर स्तर पर सरकार के पास कोई ठोस कार्य योजना नहीं है। इससे यही स्पष्ट होता है कि शिक्षा के क्षेत्र के प्रति सरकार की गंभीरता केवल भाषणों तक ही सीमित है। व्यवहार में शिक्षा सरकार के प्राइमरी ऐजेण्डा के बाहर है। शिक्षा जैसे क्षेत्र में आउटसोर्स के माध्यम से शिक्षकों की भर्ती होना अपने में ही हास्यपद लगता है। इस तरह के प्रयोगों से नयी शिक्षा नीति कितनी सफल हो पायेगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

क्या कर्ज बढ़ाने के लिए कांग्रेस को सत्ता दी थी?

इस समय प्रदेश की वित्तीय स्थिति यह हो गयी है कि सरकार को हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है। अब तक यह सरकार करीब तीस हजार करोड़ का कर्ज ले चुकी है। कर्ज का ब्याज चुकाने के लिये भी कर्ज लेने की बाध्यता बन गयी है। कैग अपनी रिपोर्ट में इस पर चिन्ता व्यक्त करते हुए सरकार को चेतावनी भी जारी कर चुका है। इस सरकार ने जब सत्ता संभाली थी तब प्रदेश की स्थिति श्रीलंका जैसी होने की आशंका व्यक्त करते हुये चेतावनी जारी की थी। इस चेतावनी के परिपेक्ष में आते ही डीजल और पेट्रोल पर वैट बढ़ाया। बिजली, पानी की दरें बढ़ाई। विधानसभा चुनावों के दौरान जो गारंटीयां जनता को दी थी उन पर अमल स्थगित किया। युवाओं को रोजगार देने का वायदा किया था उस पर अमल नहीं किया जा सका। विधानसभा में रोजगार के संबंध में पूछे गये हर सवाल में सूचना एकत्रित की जा रही है का ही जवाब आया है। बेरोजगारी में प्रदेश देश के पहले पांच राज्यों की सूची में आ चुका है। सस्ते राशन की दरें बढ़ाने के साथ ही उसकी मात्रा में भी कमी कर दी गई है। सत्ता में आते ही सरकार ने विभिन्न सरकारी कार्यालय में खाली पदों का पता लगाने के लिए एक मंत्री कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के सरकारी विभागों में ही सतर हजार पद खाली है। अकेले शिक्षा विभाग में ही बाईस हजार पद खाली है। आज शिक्षा विभाग में स्कूलों में जो परीक्षा परिणाम आये हैं उनके बाद अध्यापकों पर सख्ती बढ़ाने और उनसेे जवाब देही मांगने की बातें हो रही हैं। लेकिन इन खाली पदों में कितने इस दौरान भरे जा सके हैं इसकी कोई जानकारी नहीं आ पायी है। विभाग में पांच आउटसोर्स के माध्यम से नई भर्तियां किये जाने का फैसला लिया गया है। स्वास्थ्य विभाग में एनएचएम के कर्मचारी इसी प्रक्रिया के तहत भरे गये हैं इसका भविष्य प्रश्नित है। इस समय सरकार नियमित रूप से स्थाई भर्तीयां करने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि सरकार की आर्थिक सेहत नाजुक मोड़ पर पहुंच चुकी है।
इस वस्तुस्थिति में जो सवाल खड़े होते हैं उन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। पहला सवाल यह खड़ा होता है कि प्रदेश की स्थिति के लिये जिम्मेदार कौन है। निश्चित रूप से प्रदेश में रही सरकारें और उनकी नीतियां ही इसके लिये जिम्मेदार रही हैं। उन नीतियों पर निष्पक्षता से विचार करने की आवश्यकता है। प्रदेश में उद्योग क्षेत्र स्थापित करने के लिये आधारभूत ढांचा खड़ा करने के लिये जो निवेश किया गया है और उद्योगों को आमंत्रित करने के लिये जो वित्तीय सुविधा उनको समय-समय पर दी गयी हैं उनके बदले में जो कर और गैर कर राजस्व तथा रोजगार इसमें मिला है आज इसका निष्पक्ष आकलन करने की आवश्यकता है। इन उद्योगों की सुविधा के लिये स्थापित किये संस्थाओं वित्त निगम, एसआईडीसी, खादी बोर्ड आदि आज किस हालत में हैं। प्रदेश को बिजली राज्य प्रचारित करके उद्योग आमंत्रित किये गये बिजली परियोजनाएं स्थापित की गयी। लेकिन क्या आज प्रदेश का बिजली बोर्ड और उसके साथ खड़े किये गये दूसरे संस्थान आत्मनिर्भर हो पाये हैं। उनसे कितना राजस्व प्रदेश को मिल रहा है और प्रदेश के सार्वजनिक संस्थाओं का कर्जभार कितना है कितना ब्याज उनको चुकाना पड़ रहा है। क्या इसका एक निष्पक्ष आकलन किये जाने की आज आवश्यकता नहीं है। क्या यह एक स्थापित सच नहीं है कि उद्योगों की मूल आवश्यकता उसके लिये आवश्यक कच्चा माल और उपभोक्ता दोनों में से एक का उपलब्ध होना जरूरी होता है। कितने उद्योगों के लिये प्रदेश इस मानक पर खरा उतरता है यह सब आज जवाब मांग रहा है।
यह एक बुनियादी सच है कि जब आर्थिक संसाधनों की कमी हो जाये तो घर के प्रबंधकों को अपने खर्चाे पर लगाम लगानी पड़ती है। क्या इस समय के प्रबंधक ऐसा कर पा रहे हैं? क्या जनता ने उसके सिर पर कर्ज भार बढ़ाने के लिये अपना समर्थन दिया था? इस समय सरकार के प्रबंधन पर नजर डाली जाये तो क्या यह नहीं झलकता की कर्ज लेकर घी पीने के चार्वाक दर्शन पर अमल किया जा रहा है। इस समय का सबसे बड़ा सवाल है कि इस कर्ज का निवेश कहां पर हो रहा है। यह जानने का जनता को हक हासिल है। विपक्ष की पहली जिम्मेदारी है यह सवाल उठाना लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। जब चुनाव के मौके पर भी पक्ष और विपक्ष इस बुनियादी सवाल से दूर भाग जायें तो क्या यह सवाल अदालत के माध्यम से नहीं पूछा जाना चाहिए? क्योंकि वित्तीय स्थिति पर एक चेतावनी जनता को पिला दी गयी। एक श्वेत पत्र की रस्म अदायगी हो गयी। पक्ष और विपक्ष चार दिन इस पर शोर मचाने की औपचारिकता के बाद चुप हो गये। तो क्या अब इस मुद्दे पर अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया जाना चाहिए? क्योंकि यदि यही स्थिति चलती रही तो प्रदेश का भविष्य क्या हो जायेगा? क्या जनता ने कर्ज की कीमत पर गारंटीयां मांगी थी? शायद नहीं। प्रदेश में आयी आपदा पर किस तरह से राहत का आकार बढ़ाकर सरकार ने अपनी पीठ थपथपायी थी और उसका सच अब पहली बारिश में सामने आ गया है।

राहुल गांधी का नेता प्रतिपक्ष होना

इस बार संसद में एक सशक्त विपक्ष देखने को मिलेगा यह स्पष्ट हो गया है। विपक्ष की संख्या देखकर यह भी लगने लगा है कि आने वाले दिनों में यदि सरकार सही से अपने कार्यों का निष्पादन नहीं कर पायी तो उसे हराया भी जा सकता है। स्थिर सरकार और सशक्त विपक्ष दोनों एक साथ होना लोकतंत्र की पहली और बड़ी आवश्यकता है। इस बार विपक्ष को इस संख्या बल तक पहुंचने का सबसे बड़ा श्रेय कांग्रेस नेता राहुल गांधी को जाता है। यह उनकी दोनों यात्राओं का प्रतिफल है कि एक लंबे अंतराल के बाद कांग्रेस आधिकारिक रूप से नेता प्रतिपक्ष के पद की पात्र हो गयी है। कांग्रेस ने राहुल गांधी को नेता प्रतिपक्ष के पद के लिये नामजद करके एक सही फैसला लिया है। नेता प्रतिपक्ष के नाते वह एक तरह से प्रधानमंत्री के समकक्ष हो जाते हैं। क्योंकि अब राहुल गांधी और प्रधानमंत्री के बीच आधिकारिक वार्तालाप होता रहेगा। दोनों नेताओं को एक दूसरे को वैचारिक स्तर पर समझने का मौका मिलेगा। पिछले 10 वर्षों में कोई सशक्त विपक्ष न होने के कारण प्रधानमंत्री और सरकार दोनों एक तरह से निरंकुश हो गये थे। क्योंकि मोदी भाजपा संगठन से ऊपर हो गये थे और इसका प्रमाण तब सामने आया जब चुनावों के दौरान भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने आरएसएस को उसकी सीमाओं का स्मरण कराया। आज राहुल गांधी सार्वजनिक जीवन में एक सार्वजनिक पद पर आसीन हो गये हैं। अब उनकी सोच और कार्यशैली की आधिकारिक समीक्षा होगी और सार्वजनिक रूप से सबके सामने रहेगी।
एक समय देश कोबरा स्टिंग ऑपरेशन के माध्यम से यह देख चुका है कि उनको पप्पू प्रचारित करने के लिए कैसे और किस स्तर तक निवेश किया गया था। पिछले दस वर्षों में विपक्ष और देश ने जो कुछ जिया भोगा है उस सबके गुणात्मक आकलन का अवसर अब आया है। इस दौरान कैसे प्रभावशाली लोगों का लाखों करोड़ का ऋण माफ हो गया? कैसे सार्वजनिक संस्थान एक के बाद एक निजी क्षेत्र के हवाले होते चले गये? दस वर्षों में दो बार नोटबंदी की नौबत क्यों आयी? क्यों सरकार में सरकारी रोजगार के अवसर कम होते चले गये? ईडी के दुरुपयोग को लेकर विपक्ष को क्यों सर्वाेच्च न्यायालय का रुख करना पड़ा? जहां शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय सर्वसुलभ और निःशुल्क होने चाहिये वहीं पर यह आम आदमी की पहुंच से बाहर क्यों होते जा रहे हैं। पेपर लीक हर परीक्षा में हर राज्य में क्यों होने लग गया है? जितने सवाल देश के सामने आज तक उठाये गये हैं अब उनके सही जवाब देश के सामने लाना एक बड़ी जिम्मेदारी और आवश्यकता होगी। पिछली बार किस आंकड़े तक विपक्ष के सांसदों का निलंबन हो गया था यह देश ने देखा है। तीन अपराधिक कानूनों का मानसून सत्र के अंतिम दिन कैसे बिना बहस के पारण हो गया यह देश देख चुका है। अब यह संशोधित कानून पहली जुलाई से लागू होने जा रहे हैं।
अब इन कानूनों पर संसद में खुली बहस किये जाने की मांग टीएमसी नेता ममता बनर्जी की ओर से आ गयी है। यह कानून पूरे देश और उसके भविष्य को प्रभावित करेंगे। देश के सौ से अधिक पूर्व नौकरशाहों ने महामहिम राष्ट्रपति को खुला पत्र लिखकर इन कानूनों पर अमल रोकने और इन पर संसद में बहस की मांग उठाई है। क्योंकि पिछली बार सौ से अधिक सांसद निलंबित थे। इसलिए इन पर एक विस्तृत बहस देश हित में आवश्यक है। नई संसद के पहले सत्र में ही देश के सामने आ जायेगा कि विपक्ष और सत्ता पक्ष में किस तरह का तालमेल होने जा रहा है। नेता प्रतिपक्ष और प्रधानमंत्री किस तरह से इस अहम मुद्दे का हल निकालते हैं। इसी से यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि सरकार और विपक्ष में आने वाले समय में रिश्ते कैसे रहते हैं। राहुल गांधी को यह प्रमाणित करने का अवसर होगा कि वह विकल्प है। इसी तरह प्रधानमंत्री के लिये भी यह सबका विकास और सबका साथ का टेस्ट होगा। गठबंधन के नेता के तौर पर यह मोदी का भी टेस्ट होगा।

क्या नीट और जेईई का विकल्प नहीं हो सकता

इस बार नीट की परीक्षा को लेकर मामला सर्वाेच्च न्यायालय तक जा पहुंचा है। आरोप लग रहा है कि शायद इस परीक्षा का पेपर लीक हुआ है। आरोप का आधार एक अभ्यार्थी अंजलि पटेल की प्लस टू की वायरल हुई अंक तालिका है। वायरल अंक तालिका के मुताबिक अंजलि प्लस टू के कैमिस्ट्री और फिजिक्स पेपरों में फेल है जबकि नीट में उसका स्कोर 720 में से 705 रहा है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी नीट की परीक्षा पर उठते सवालों की जांच की मांग की है। देश के इंजीनियरिंग संस्थानों में प्रवेश के लिये जेईई और मेडिकल संस्थानों में प्रवेश के लिये नीट की परीक्षाएं केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा वर्ष 2009 से आयोजित की जा रही है और इन परीक्षाओं के संचालन के लिए वर्ष 2017 से एनटीए का गठन किया गया है। जब से इन संयुक्त प्रवेश परीक्षाओं का चलन शुरू हुआ है उसी के साथ इन परीक्षाओं के लिये कोचिंग संस्थानों का चलन भी आ गया है।
देश के हर कोने में कोचिंग संस्थान या इनकी ब्रांचें उपलब्ध हैं। इन संस्थानों में इन परीक्षाओं की कोचिंग के लिये बच्चों से लाखों की फीस ली जा रही है। इन दिनों इन परीक्षाओं में कोचिंग के लिये दाखिला लेने के लिये इन संस्थाओं के विज्ञापनों से अखबारों के पन्ने भरे हुये मिल जायेंगे। हर संस्थान का यह दावा मिल जायेगा कि उसके संस्थान से इतने बच्चे परीक्षा के टॉप में पास होकर प्रवेश ले चुके हैं। यह दावे कितने सही होते हैं इसकी पड़ताल करने का समय कितने अभिभावकों या बच्चों के पास होता है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। क्योंकि हर अभिभावक और बच्चा कोचिंग लेकर इंजीनियर या डॉक्टर बनना चाहता है। कई बार बच्चों पर यह परीक्षा पास करने का इतना मनोवैज्ञानिक दबाव और तनाव होता है कि बच्चे आत्महत्या तक करने पर आ जाते हैं। राजस्थान के कोटा में शायद कोचिंग संस्थानों का हब है ओर वहीं से सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले सामने आये हैं। एक बार राजस्थान विधानसभा में भी यह मामला गूंज चुका है और प्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री ने इस पर कई सनसनी खेज खुलासे करते हुये परीक्षा और कोचिंग संस्थानों पर एक बड़े फर्जीवाड़े के आरोप लगाये थे। अब जब यह मामला सर्वाेच्च न्यायालय में जा पहुंचा है और इसमें सीबीआई की गहन जांच की मांग की जा रही है तब इसके विकल्पों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
इंजीनियरिंग और मेडिकल संस्थानों में प्रवेश का आधार प्लस टू पास होना रखा गया है। इन संस्थानों में भी प्लस टू ही कोचिंग का आधार है। लेकिन बहुत सारे कोचिंग संस्थान ऐसे भी हैं जो प्लस टू के बिना ही कोचिंग में प्रवेश दे देते हैं। ऐसे प्रवेश को डम्मी प्रवेश की संज्ञा दी जाती है। बच्चा किसी स्कूल से प्लस टू करने के बजाये डम्मी प्रवेश लेकर ऐसे कोचिंग संस्थानों से ही प्लस टू का प्रमाण पत्र हासिल कर लेता है। क्योंकि इन संसथानों ने किसी न किसी मान्यता प्राप्त स्कूल से टाईअप कर रख होता है। इसलिये पहला फर्जीवाड़ा किसी मान्यता प्राप्त स्कूल में दाखिला लिये बिना ही प्लस टू पास करने का प्रमाण पत्र हासिल करना हो जाता है। यह कोचिंग संस्थान किसी शिक्षा बोर्ड द्वारा प्रमाणित शैक्षणिक संस्थान तो होते नहीं हैं। फिर इनके द्वारा डम्मी प्रवेश से रेगुलर प्लस टू का प्रमाण पत्र मिल जाना अपने में ही फर्जीवाड़ा सिद्ध हो जाता है। ऐसे डम्मी प्रवेशों की गहन जांच किया जाना बहुत आवश्यक है।
इसलिये इस समस्या का एक निश्चित हल खोजा जाना आवश्यक हो जाता है। इंजीनियरिंग और मेडिकल में प्रवेश का मूल आधार प्लस टू पास होना है। ऐसा नहीं है कि कोई बच्चा प्लस टू किये बिना ही संयुक्त प्रवेश परीक्षा पास करके ही प्रवेश का पात्र बन जाये। जब ऐसा नहीं है तो फिर संयुक्त प्रवेश परीक्षा पास करने का वैधानिक लाभ क्या है? यह प्रवेश परीक्षा तो अपनी सुविधा के लिये एक साधन मात्र है। जब 2012 तक ऐसी संयुक्त प्रवेश परीक्षा का कोई प्रावधान था ही नहीं तो उसके बाद इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? संयुक्त प्रवेश परीक्षा पास करने पर क्या एन ए टी कोई सर्टिफिकेट जारी करता है शायद नहीं। ऐसे में जब मूलआधार ही प्लस टू है तब क्या यह आवश्यक नहीं हो जाता कि देशभर में प्लस टू का पाठयक्रम एक बराबर करके पूरे देश में एक जैसे ही प्रश्न पत्र जारी किये जायें। इस तरह प्लस टू का जब देश भर में पाठयक्रम और परीक्षा प्रश्न पत्र एक जैसे ही होंगे तो फिर संयुक्त प्रवेश परीक्षा की आवश्यकता ही क्यों रह जायेगी। उसी की मेरिट के आधार पर प्रवेश मिल जायेगा इसमें कोई पेपर लीक या फर्जीवाड़े की गुंजाइश ही नहीं रह जायेगी। यह सुझाव एक सार्वजनिक बहस और सर्व सहमति के लिये दिया जा रहा है। आज की परिस्थितियों में इस पर व्यापक विमर्श की आवश्यकता है।

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