हरियाणा में कांग्रेस की हार बहुत लोगों के लिये अप्रत्याशित है क्योंकि चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों और आकलनों में किसी ने भी इस हार के प्रति इंगित नहीं किया था। जब प्रधानमंत्री ने हिमाचल की सुक्खू सरकार की असफलताओं को हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में चुनावी मुद्दा बनाकर उछाला तब शैल को यह आशंका हो गयी थी कि चुनाव परिणाम उम्मीदों के विपरीत होंगे। शैल के पाठक जानते हैं कि हमने 16 सितम्बर के अंक में पूरे विस्तार से लिखा था कांग्रेस केंद्र में सत्ता में नहीं है। केवल हिमाचल, कर्नाटक और तेलंगाना राज्य में उसकी सरकारें हैं। इसलिये कांग्रेस जब भी किसी राज्य के चुनाव में अपने घोषणा पत्र के माध्यम से उस राज्य के लिये अपने वायदे रखेगी तो उन वायदों की पड़ताल उसकी राज्य सरकारों की परफारमैन्स से की जायेगी यह स्वभाविक है। हिमाचल हरियाणा का पड़ोसी राज्य है। 1966 में पंजाब पुनर्गठन से हरियाणा और वर्तमान हिमाचल निकला है। भाखड़ा विस्थापितों का पुनर्वास भी हरियाणा में हुआ है। लगभग एक दर्जन विधानसभा सीटों पर इन विस्थापितों का निर्णायक प्रभाव है। यह विस्थापित हिमाचल से हर समय जुड़े हुये हैं। इसलिये हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स के लिये इन्हें किसी अन्य के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं रहती। हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स अपने ही कारणों से अपनी ही दी हुई गारंटीयों के आईने में पूरी तरह असफल रही है। इस असफलता के कारण हरियाणा का मतदाता कांग्रेस के वायदों पर विश्वास नहीं कर पाया। कर्नाटक में मुख्यमंत्री स्वयं विवादों में धिरे हुये हैं। इसलिये कांग्रेस पर विश्वसनीयता बना पाने में आम आदमी निर्णायक नहीं हो पा रहा है।
हरियाणा में कांग्रेस की हार निश्चित रूप से राष्ट्रीय स्तर पर एक गंभीर मुद्दा है। हरियाणा में भाजपा ने भी मुफ्ती की घोषणाओं के सहारे सत्ता पायी है। मुफ्ती के वायदों पर आरटीआई से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक का जो रुख रहा है उसका हरियाणा के चुनाव पर कोई असर नहीं दिखा है। भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों ने आरबीआई और सर्वाेच्च न्यायालय को खुलकर अंगूठा दिखाया है। मुफ्ती के वायदों को भाजपा कैसे पूरा करती है और उसका हरियाणा की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है यह आने वाला समय ही बतायेगा। इस समय हरियाणा बेरोजगारी में शायद देश में पहले स्थान पर है। किसान आन्दोलन का केंद्र हरियाणा रहा है। शायद इसी के कारण यह माना जा रहा था कि अब भाजपा प्रदेश की सत्ता से बाहर हो जायेगी। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। क्योंकि जब नरेन्द्र मोदी का रथ लोक सभा चुनाव में चार सौ पार के नारे के बाद दो सौ चालीस पर रुक गया और नीतीश तथा चन्द्रबाबू नायडू के सहारे सत्ता तक पहुंचे तब यह स्पष्ट हो गया था कि अब जिस भी राज्य में विधानसभा चुनाव होंगे उन्हें येनकेन प्रकरेण भाजपा जीतने का प्रयास करेगी। हरियाणा में चुनाव से पहले मुख्यमंत्री का बदला जाना भी इसी रणनीति का हिस्सा था। इसी रणनीति के तहत वक्फ संशोधन विधेयक लाना और उस पर राष्ट्रीय बहस चलवाना तथा इसी बीच एक देश एक चुनाव की रिपोर्ट आना कुछ ऐसे संकेत बन जाते हैं जिन से भविष्य का बहुत कुछ समझा जा सकता है। कांग्रेस के रणनीतिकार और विश्लेषक इसका आकलन नहीं कर पाये।
इस समय जो राजनीतिक वातावरण निर्मित हो रहा है उसमें अधिकांश दलों में और विशेषकर कांग्रेस के अन्दर ऐसे लोगों की संख्या बहुत है जो अनचाहे और बिना समझे ही हिन्दू एजैण्डे के ध्वजवाहक बने हुये हैं। जबकि यह एजैण्डा एक राजनीतिक एजैण्डा बनकर रह गया है। इस स्थिति को समझने की आवश्यकता है। सारा एजैण्डा आर्थिक मुद्दों से ध्यान हटाने की रणनीति है। इसलिये आज कांग्रेस को अपनी विश्वसनीयता बनाने की आवश्यकता है। इसके लिये राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स पर ध्यान देने की आवश्यकता है। क्योंकि कांग्रेस को लोग राहुल गांधी के ब्यानों से ज्यादा पार्टी की राज्य सरकारों की परफारमैन्स से आंकेंगे। क्योंकि जब से आरटीआई और सर्वाेच्च न्यायालय ने मुफ्ती की घोषणाओं पर कड़ा रुख दिखाया है तब से आम आदमी सरकारों की कर्ज संस्कृति पर भी नजर रख रहा है। आज हिमाचल में सरकार जिस तरह से प्रदेश को कर्ज के चक्रव्यूह में डालकर घी पीने का काम कर रही है उसे आम आदमी पसन्द नहीं कर रहा है। इसलिये हरियाणा की हार को ईवीएम गड़बड़ी करार देने से पहले कांग्रेस को अपनी राज्य सरकारों की जन स्वीकार्यता का आकलन करना होगा। क्योंकि हरियाणा की हार की कीमत महाराष्ट्र और झारखंड में चुकानी पड़ सकती है। इंडिया के सहयोगी दल भी कांग्रेस के प्रति अलग राय बनने पर विवश हो जाएंगे। जब तक राज्यों में विश्वसनीय नेतृत्व नहीं आ पाता है तब तक कांग्रेस के लिये भविष्य आसान नहीं होगा।


वित्तीय संकट के मामले में बीस माह के कार्यकाल में 27,000 करोड़ का कर्ज लेने का आंकड़ा पूर्व केंद्रीय मंत्री और हमीरपुर के सांसद अनुराग ठाकुर ने जारी किया है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि केन्द्र के सहयोग के बिना यह सरकार एक दिन नहीं चल सकती। केन्द्र द्वारा दी गयी आपदा राहत में घपले किये जाने का आरोप कंगना रनौत से लेकर नड्डा तक लगा चुके हैं। अब तो कांग्रेस के नेता भी इस पर मुखर होने लग गये हैं। वित्तीय संकट के नाम पर इतना वित्तीय बोझ आम आदमी पर डाल दिया गया है कि आम आदमी इस डर में जी रहा है कि सरकार कब कौन सा टैक्स किस कारण से लगा दे इसका अन्दाजा लगाना ही असंभव हो गया है। लेकिन जनता पर इतना वित्तीय बोझ डालने और हर माह एक हजार करोड़ से अधिक का कर्ज लेने के बाद भी यह सरकार समय पर वेतन और पैन्शन का भुगतान क्यों नहीं कर पा रही है। आज हिमाचल सरकार की परफॉरमैन्स हरियाणा विधानसभा के चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री और अन्य भाजपा नेताओं के हाथ में कांग्रेस के खिलाफ एक बड़ा हथियार आ गया है। इस हथियार से कांग्रेस का नुकसान होना तय है। परफॉरमैन्स के लिहाज से हिमाचल में कांग्रेस बीस वर्ष तक पिछड़ गयी है।
ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि कांग्रेस हाईकमान हिमाचल के हालात का संज्ञान लेकर कोई सुधारात्मक कदम क्यों नहीं उठा पा रही है। आज हिमाचल से लोकसभा और राज्यसभा में कोई भी सांसद न होना एक बड़ा कारण बन गया है। क्योंकि हर पार्टी का हाईकमान किसी भी राज्य की जानकारी के लिये उस प्रदेश से आये सांसदों और मंत्रियों यदि केंद्र में उस पार्टी की सरकार हो तो उनकी राय पर बहुत निर्भर रहता है। लेकिन प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद संसद में प्रदेश से कोई कांग्रेस सांसद नहीं है। सांसदों के बाद पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष की राय को अधिमान दिया जाता है। यहां पर पार्टी अध्यक्ष को पहले ही विवादित बना दिया गया है। पार्टी अध्यक्ष के बाद प्रैस की सूचनाओं पर निर्भरता की बात आती है। इस दिशा में इस सरकार ने प्रैस का गला ऐसे घोंट कर रखा है कि कहीं कोई आवाज बची ही नहीं है। इस सरकार ने 1971 से लागू हुये लैण्ड सीलिंग एक्ट को 2023 में संशोधित करके उन संशोधनों को 1971 से ही लागू करने की सिफारिश की है। आज पचास वर्ष बाद ऐसे संशोधन की आवश्यकता क्यों आ खड़ी हुई? क्या आज भी प्रदेश में ऐसे लोग हैं जिनके पास लैण्ड सीलिंग सीमा से अधिक जमीन है? इस मुद्दे पर न तो विपक्षी दल भाजपा ने कोई सवाल उठाया है और न ही मीडिया ने। जहां इस तरह की स्थितियां हो वहां पर अन्दाजा लगाया जा सकता है की सरकार के व्यवस्था परिवर्तन सूत्र ने क्या कुछ बदल दिया होगा। ऐसे हालात का प्रदेश की जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा और सत्तारूढ़ दल उससे कितना मजबूत होगा यह सामान्य समझ का विषय है।





भाजपा और संघ के रिश्ते न चाहते हुये भी पिछले लोकसभा चुनावों से जन चर्चा का विषय बन गये हैं। इन्हें जन चर्चा में लाने के लिये भाजपा अध्यक्ष ज.ेपी. नड्डा का वह ब्यान जिम्मेदार है जिसमें उन्होंने कहा था कि भाजपा को संघ के मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है। तब यह उम्मीद थी की राम मंदिर की पृष्ठभूमि में भाजपा अकेले ही चुनावों में चार सौ का आंकड़ा छू लेगी। लेकिन चुनाव परिणामों ने सारा परिदृश्य ही बदल दिया। भाजपा अकेले सरकार बनाने लायक बहुमत नहीं ला पायी। अब भाजपा अगला राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने में ही उलझ गयी है। इसमें भाजपा और संघ का टकराव न चाहते हुये भी सार्वजनिक चर्चा में आ गया है। ऐसे में इन दो राज्यों में हो रहे चुनाव प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के लिये अपने को प्रमाणित करने का अवसर बन गये हैं कि उनके बिना भाजपा का भविष्य सुरक्षित नहीं है। इन दोनों राज्यों में भाजपा को केवल कांग्रेस से ही चुनौती है। इस चुनौती में कांग्रेस की राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स को प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों ही बड़ा मुद्दा बनाकर उछाल रहे हैं।
हिमाचल के वित्तीय संकट के परिदृश्य में कांग्रेस द्वारा चुनावों में दी गयी गारंटीयां और प्रदेश सरकार द्वारा लिये जा रहे फैसले स्वतः ही व्यवहारिक अविश्वसनीयता का शिकार होते जा रहे हैं। कर्नाटक में मुख्यमंत्री के अपने खिलाफ जांच के आदेश हो चुके हैं। मामला गंभीर है। लेकिन इसी बीच कर्नाटक की ही एक अदालत चुनावी बाण्डज़ प्रकरण में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, कर्नाटक भाजपा के नेता और ई डी अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने से जो स्थिति निर्मित हुई है उसका वांच्छित राजनीतिक लाभ मिल पाना इतना आसान नहीं होगा। भले ही यह एफ आई आर पूरी कानूनी प्रक्रिया से गुजर कर हुई है और यह राष्ट्रीय स्तर पर एक समय इसके मायने बहुत गंभीर हो जायेंगे यह भी तय है। लेकिन यह एफ आई आर मुख्यमंत्री के अपने खिलाफ आये जांच आदेशों के बाद हुई है। इसलिये तात्कालिक रूप से इसका चुनावी परिदृश्य पर कोई बड़ा असर पढ़ने की संभावनाएं बहुत कम हैं। इस परिदृश्य में इन दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम कांग्रेस से ज्यादा भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व पर ज्यादा प्रभाव डालेंगे। कांग्रेस शासित राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स का यदि केंद्रीय नेतृत्व कड़ा संज्ञान लेकर कोई कारवाई नहीं करता है तो उसका असर इसके बाद आने वाले राज्यों के चुनावों पर पड़ेगा।





राहुल गांधी के अमेरिका में जिस वक्तव्य पर भाजपा में इतनी तीव्र प्रतिक्रियाएं उभरी है उस ब्यान को और स्पष्ट करते हुये राहुल ने हर व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता की बात की है। हर व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता हासिल होनी चाहिये चाहे वह कोई भी हो। सिद्धांत रूप से इस पर कोई दो राय नहीं हो सकती। धार्मिक स्वतंत्रता की वकालत करना कोई अपराध नहीं है। इन प्रतिक्रियाओं का प्रतिफल क्या होगा? यह प्रतिक्रियाएं इस भाषा में क्यों आयी हैं? केवल राजनीतिक लोगों ने ही ऐसी प्रतिक्रियाएं क्यों दी हैं यह समझना आवश्यक है। ऐसी प्रतिक्रियाएं राजनीतिक वातावरण का ही प्रतिफल होती हैं यह एक स्थापित सच है। इस समय केंद्र में मोदी की सरकार उसके सहयोगियों पर ही निर्भर है। मोदी इस निर्भरता से बाहर निकलना चाहते हैं। इसके लिये अपने दम अकेले भाजपा का बहुमत बनाने के लिये या दूसरे दलों को तोड़कर उनका विलय अपने में किया जाये या फिर किसी कारण से देश में नये चुनावों की परिस्थितियों पैदा की जायें। इस समय राष्ट्रीय दलों के नाम पर कांग्रेस-भाजपा के अतिरिक्त कोई तीसरा नहीं है। शायद लोकसभा चुनावों में यह उम्मीद ही नहीं थी कि कांग्रेस अपने दम पर नेता प्रतिपक्ष तक पहुंच जाएगी।
मोदी सरकार के पिछले दोनों कार्यकालों में चिन्तन और चिन्ता का सबसे बड़ा मुद्दा सरकारी उपक्रमों को योजनाबद्ध तरीके से निजी क्षेत्र के हवाले करने का रहा है। राहुल गांधी और पूरा विपक्ष इस मुद्दे पर मुखर था। रुपया डॉलर के मुकाबले लगातार कम होता गया है। आज विदेशी कर्ज 205 लाख करोड़ हो गया है। आईएमएफ ने स्पष्ट कहा है कि यदि इसी रफ्तार से विदेशी कर्ज बढ़ता रहा तो यह शीघ्र ही जी.डी.पी. का सौ प्रतिशत हो जायेगा और यह कर्ज चुका पाना कठिन हो जायेगा। इस मुद्दे पर उठे सवालों का ही परिणाम है कि केंद्र में भाजपा को अपने दम पर बहुमत नहीं मिल पाया। आज भी स्थितियां सुधरी नहीं है। इन स्थितियों पर कोई बड़ा सार्वजनिक संवाद न खड़ा हो जाये और भाजपा को अपने दम पर बहुमत भी हासिल हो जाये यह इस समय की आवश्यकता है। यह संवाद छेड़ने की क्षमता इस समय राहुल गांधी के अतिरिक्त किसी दूसरे नेता में शायद नहीं है। नरेंद्र मोदी ने भी कांग्रेस के खिलाफ राजनीतिक वातावरण तैयार करने के लिए विदेश यात्राओं का ही सहारा लिया था और आज राहुल भी इस लाइन पर चल रहे हैं। इसलिये राहुल गांधी को विवादित बनाना मोदी सरकार की शायद आवश्यकता है। इसी के साथ हिन्दू कार्ड को उभारने के लिये वक्फ संशोधन विधेयक के नाम पर एक मुद्दा खड़ा कर दिया गया जो पूरे देश में फैलता जा रहा है। हिमाचल जैसे राज्य में भी सरकार के कमजोर आकलन के कारण पूरे प्रदेश में यह मुद्दा खड़ा हो गया है। सरकार के मंत्री न चाहते हुये भी इसमें पार्टी बन गये हैं।
इसी समय एक देश एक चुनाव को लेकर गठित कमेटी की रिपोर्ट जारी कर दी गयी है। इस रिपोर्ट की चर्चाओं में यह उभारने का प्रयास किया जा रहा है कि यह तुरन्त प्रभाव से लागू कर दिया जाना चाहिये। केंद्रीय मंत्रिमण्डल ने इस रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया है। इसके लिये जो आवश्यक संविधान संशोधन चाहिये वह संसद के अगले सत्र में किये जा सकते हैं। इस तरह प्रस्तावित वक्फ संशोधन विधेयक और एक देश एक चुनाव ऐसे मुद्दे हैं जिन पर आम राज्यों में कांग्रेस की सरकारें हैं उनकी परफॉरमैन्स से आम आदमी खुश नहीं है। ऐसे राजनीतिक वातावरण में यदि मोदी भाजपा चुनावों का फैसला ले लेते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा। बल्कि कांग्रेस की राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स से इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस में बड़े स्तर पर तोड़फोड़ के हालात बन जायें। इस परिदृश्य में यह लगता है कि राहुल की अमेरिका यात्रा पर उठी प्रतिक्रियाओं का एक बड़ा राजनीतिक मकसद है।





इस समय स्थिति यहां पहुंच गयी है की कर्ज लेकर कब तक गुजारा किया जा सकता है। जब कर्ज लेने की सीमा पूरी हो जायेगी तब क्या किया जायेगा? जो कर्ज अब तक लिया गया है उसका निवेश कहां हुआ है? जब विधानसभा में पारित बजट के अनुसार वर्ष 10783.87 करोड़ के घाटे से बन्द हो रहा था तो फिर इससे अधिक कर्ज लेने की आवश्यकता क्यों पड़ गयी? क्या बजट आकलनों में कोई गड़बड़ हो गयी है? क्योंकि आम जनता की जेब पर भार डालकर ज्यादा समय तक चला नहीं जा सकता। आज आम आदमी इस बात पर नजर जमाये हुये हैं कि सरकार अपने खर्चों में कब और क्या कटौती करती है। यदि सरकार के अपने खर्चों में कोई कटौती न हुई तो इससे सरकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लग जाएगा।
यदि यह मान लिया जाये कि पूर्ववर्ती सरकारों ने जो योजनाएं बनायी है और कर्ज लिया जिसके चलते आज स्थिति यहां तक पहुंच गयी है तो उस पर भी एक खुली बहस होनी चाहिए। यदि पूर्व का प्रबंधन वर्तमान स्थितियों के लिए जिम्मेदार है तो आज का प्रबंधन तो कहीं चर्चा में ठहरता ही नहीं है। क्योंकि मित्रों की सरकार का तमगा इसी सरकार के नाम लगा है। मित्रों को जितने कैबिनेट रैंक इस सरकार ने बांटे हैं इतने पहले नहीं बंटे हैं। बल्कि सरकार के खर्चों से यह लगता ही नहीं की प्रदेश में कोई वित्तीय संकट है। यह तो मुख्यमंत्री द्वारा सदन में यह जानकारी रखने से की दो माह के लिए मंत्रियों के वेतन भत्ते विलंबित किए जा रहे हैं वितीय संकट रिकॉर्ड पर आया है। वैसे तो यह जानकारी सदन में रखने के बाद मुख्यमंत्री ने यह भी कहा है कि कोई संकट नहीं है यह फैसला व्यवस्था सुधारने के लिये लिया गया है। इस परिदृश्य में यह सवाल और रोचक हो जाता है कि क्या ऐसे फैसलों से सही में व्यवस्था सुधर जायेगी? जब कोई वित्तीय प्रबंधन किन्ही कारणों से बिगड़ जाता है तो हर आदमी ऐसी स्थिति का आकलन अपनी अपनी समझ के अनुसार करने लग जाता है। सरकार के फैसलों की तात्कालिक व्यवहारिकता चिंतन का विषय बन जाती है।
इस सरकार ने युवाओं को सौर ऊर्जा ईकाईयां स्थापित करने के लिए बड़ी योजना घोषित की थी जिसके कोई परिणाम अब तक सामने नहीं आये हैं। नए उद्योग आने की जगह पुराने पलायन करने पर आ गये हैं। जिस तरह से दो व्यावसायिक परिसर ग्यारह-ग्यारह मंजिल के शिमला में स्थापित किये जाने का फैसला लिया गया है उससे कितनी राजस्व आय होगी इसका कोई आकलन सामने नहीं आया है। उल्टे पर्यावरण को लेकर सवाल खड़े होने लग गये हैं। सरकार की ऐसी योजना सामने नहीं आयी है जिससे इसी कार्यकाल में राजस्व में बढ़ौतरी देखने को मिल जायेगी। लेकिन सारी योजनाओं पर अपने हिस्से के निवेश के लिये कर्ज जरूर खड़ा हो जायेगा। भविष्य के लिए वर्तमान को किस हद तक गिरवी रखा जाना चाहिए यह सवाल सार्वजनिक बहस की मांग करता है। इस समय वित्तीय संकट से निपटने के लिये सबसे सरल रास्ता है कि सरकार अपनी लाखों कनाल उस जमीन को लूट से बचाये जो उस सीलिंग एक्ट के तहत मिली है। अकेले नादौन में ही एक लाख कनाल से अधिक की सरकारी जमीन लूट का शिकार बनी हुई है। सर्वाेच्च न्यायालय में स्व. इन्द्र सिंह ठाकुर द्वारा दायर एक मामले में एक समय प्रदेश सरकार ने स्वीकारा है कि उसके पास तीन लाख बीघे जमीन लैण्ड सीलिंग एक्ट में आयी है। लेकिन यह जमीन कहां है और इसका क्या उपयोग हो रहा है इसकी कोई जानकारी सरकार के पास नहीं है। यदि सरकार अपनी इन जमीनों को ही लूट से बचा ले तो शायद वह एक मुश्त कर्ज से छूट जाये। सरकारी जमीनों को यदि लूट से बचा लिया जाये तो प्रदेश का भविष्य सुरक्षित हो सकता है।