किसान फिर आन्दोलन पर हैं। इससे पहले भी तीन कृषि कानूनों के विरोध में एक वर्ष भर किसान आन्दोलन पर रहे हैं। यह आन्दोलन तब समाप्त हुआ था जब प्रधानमंत्री ने यह कानून वापस लेने की घोषणा की थी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किसान तब तक आन्दोलन नहीं छोड़ता जब तक उसकी मांगे मान नहीं ली जाती है। इसलिये अब भी किसान अपनी मांग पूरी करवा कर ही आन्दोलन समाप्त करेंगे। पिछले आन्दोलन को दबाने, असफल बनाने के लिये जो कुछ सरकार ने किया था वही सब कुछ अब किया जा रहा है और किसान न तब डरा था और न ही अब डरेगा। इसलिये यह समझना आवश्यक हो जाता है कि किसानों की मांगे है क्या और कितनी जायज हैं। जब सरकार तीन कृषि विधेयक लायी थी तब कारपोरेट जगत के हवाले कृषि और किसान को करने की मंशा उसके पीछे थी। जैसे ही किसानों को यह मंशा स्पष्ट हुई तो वह सड़कों पर आ गया और उसका परिणाम देश के सामने है। इस वस्तुस्थिति में वर्तमान आन्दोलन को देखने समझने की आवश्यकता है। कृषि क्षेत्र का जीडीपी और रोजगार में सबसे बड़ा योगदान है। यह सरकार की हर रिपोर्ट स्वीकारती है। लेकिन इसी के साथ यह कड़वा सच है कि देश में होने वाली आत्महत्या में भी सबसे बड़ा आंकड़ा किसान का ही है। ऐसे में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि जो अन्नदाता है और जिसकी भागीदारी जीडीपी और रोजगार में सबसे ज्यादा है वह आत्महत्या के कगार पर क्यों पहुंचता जा रहा है। स्वभाविक है कि सरकार की नीतियों और किसान बागवान की व्यवहारिक स्थिति में तालमेल नहीं है। आज सरकार का जितना ध्यान और योगदान कॉरपोरेट उद्योग की ओर है उसका चौथा हिस्सा भी किसान और किसानी के कोर सैक्टर की ओर नहीं है। कोरोना कॉल के लॉकडाउन में जहां उद्योग जगत प्रभावित हुआ वहीं पर किसान और उसकी किसानी भी प्रभावित हुई। कॉरपोरेट जगत को उभारने के लिये सरकार पैकेज लेकर आयी लेकिन कृषि क्षेत्र के लिये ऐसा कुछ नहीं हुआ। कॉरपोरेट घरानों का लाखों करोड़ों का कर्ज़ बट्टे खाते में डाल दिया गया लेकिन किसान का कर्ज माफ नहीं हुआ। आज जब सर्वाेच्च न्यायालय ने चुनावी चन्दा बाण्ड योजना को असंवैधानिक करार देकर इस पर तुरन्त प्रभाव से रोक लगाते हुये चन्दा देने वालों की सूची तलब कर ली है तब यह सामने आया है कि विजय माल्या ने विदेश भागने से पहले 10 करोड़ का चन्दा भाजपा को दिया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार का व्यवहार कॉरपोरेट घरानों के प्रति क्या है और कृषि तथा किसानों के प्रति क्या है। प्रधानमंत्री ने किसानों की आय दो गुनी करने का वादा किया था वह कितना पूरा हुआ है वह हर किसान जानता है। किसानी बागवानी को लेकर पिछले पांच वर्षों में केन्द्र की घोषित योजनाओं का सच यह है कि कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार एक लाख करोड़ से अधिक का धन लैप्स कर दिया गया है। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि कृषि और किसान के प्रति सरकार की कथनी और करनी में दिन रात का अन्तर है। आज आन्दोलनरत किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करने की मांग कर रहा है। इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में 201 सिफारिशें की थी जिनमें से 175 पर यूपीए के काल में ही अमल हो गया था। लेकिन 26 सिफारिशों पर ही अमल बाकी है। नरेन्द्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब कृषि का समर्थन मूल्य तय करने के लिये सूत्र दिया था आज उसी पर अमल नहीं कर पा रहें हैं। 1960 में न्यूनतम समर्थन मूल्य आवश्यक वस्तुओं के लिये लागू किया गया था। आज किसान इसी समर्थन मूल्य नियम को विस्तारित करके सारी कृषि उपज के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की मांग कर रहा है। इस समर्थन मूल्य को वैधानिक कवच प्रदान करने की मांग है। यह व्यवहारिक सच है कि आज कृषि में हर चीज का लागत मूल्य कई गुना बढ़ चुका है और उसके अनुपात में किसान को अपनी उपज का मूल्य नहीं मिल रहा है। ऐसे में यदि सरकार ने समय रहते किसानों की मांगों को नहीं माना तो इसके परिणाम गंभीर होंगे।