इस वस्तुस्थिति में जो सवाल खड़े होते हैं उन पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। पहला सवाल यह खड़ा होता है कि प्रदेश की स्थिति के लिये जिम्मेदार कौन है। निश्चित रूप से प्रदेश में रही सरकारें और उनकी नीतियां ही इसके लिये जिम्मेदार रही हैं। उन नीतियों पर निष्पक्षता से विचार करने की आवश्यकता है। प्रदेश में उद्योग क्षेत्र स्थापित करने के लिये आधारभूत ढांचा खड़ा करने के लिये जो निवेश किया गया है और उद्योगों को आमंत्रित करने के लिये जो वित्तीय सुविधा उनको समय-समय पर दी गयी हैं उनके बदले में जो कर और गैर कर राजस्व तथा रोजगार इसमें मिला है आज इसका निष्पक्ष आकलन करने की आवश्यकता है। इन उद्योगों की सुविधा के लिये स्थापित किये संस्थाओं वित्त निगम, एसआईडीसी, खादी बोर्ड आदि आज किस हालत में हैं। प्रदेश को बिजली राज्य प्रचारित करके उद्योग आमंत्रित किये गये बिजली परियोजनाएं स्थापित की गयी। लेकिन क्या आज प्रदेश का बिजली बोर्ड और उसके साथ खड़े किये गये दूसरे संस्थान आत्मनिर्भर हो पाये हैं। उनसे कितना राजस्व प्रदेश को मिल रहा है और प्रदेश के सार्वजनिक संस्थाओं का कर्जभार कितना है कितना ब्याज उनको चुकाना पड़ रहा है। क्या इसका एक निष्पक्ष आकलन किये जाने की आज आवश्यकता नहीं है। क्या यह एक स्थापित सच नहीं है कि उद्योगों की मूल आवश्यकता उसके लिये आवश्यक कच्चा माल और उपभोक्ता दोनों में से एक का उपलब्ध होना जरूरी होता है। कितने उद्योगों के लिये प्रदेश इस मानक पर खरा उतरता है यह सब आज जवाब मांग रहा है।
यह एक बुनियादी सच है कि जब आर्थिक संसाधनों की कमी हो जाये तो घर के प्रबंधकों को अपने खर्चाे पर लगाम लगानी पड़ती है। क्या इस समय के प्रबंधक ऐसा कर पा रहे हैं? क्या जनता ने उसके सिर पर कर्ज भार बढ़ाने के लिये अपना समर्थन दिया था? इस समय सरकार के प्रबंधन पर नजर डाली जाये तो क्या यह नहीं झलकता की कर्ज लेकर घी पीने के चार्वाक दर्शन पर अमल किया जा रहा है। इस समय का सबसे बड़ा सवाल है कि इस कर्ज का निवेश कहां पर हो रहा है। यह जानने का जनता को हक हासिल है। विपक्ष की पहली जिम्मेदारी है यह सवाल उठाना लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है। जब चुनाव के मौके पर भी पक्ष और विपक्ष इस बुनियादी सवाल से दूर भाग जायें तो क्या यह सवाल अदालत के माध्यम से नहीं पूछा जाना चाहिए? क्योंकि वित्तीय स्थिति पर एक चेतावनी जनता को पिला दी गयी। एक श्वेत पत्र की रस्म अदायगी हो गयी। पक्ष और विपक्ष चार दिन इस पर शोर मचाने की औपचारिकता के बाद चुप हो गये। तो क्या अब इस मुद्दे पर अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाया जाना चाहिए? क्योंकि यदि यही स्थिति चलती रही तो प्रदेश का भविष्य क्या हो जायेगा? क्या जनता ने कर्ज की कीमत पर गारंटीयां मांगी थी? शायद नहीं। प्रदेश में आयी आपदा पर किस तरह से राहत का आकार बढ़ाकर सरकार ने अपनी पीठ थपथपायी थी और उसका सच अब पहली बारिश में सामने आ गया है।