पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का अन्तिम संस्कार कहां होगा उनका स्मारक बनेगा या नहीं। बनेगा तो कहां बनेगा? इन सवालों पर जिस तरह का अनचाहा वाद-विवाद उभरा है वह निन्दनीय है। लेकिन यह विवाद सामने आया है और उससे कई और सवाल खड़े हो गये हैं। दूरदर्शन राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल और सरकार के नियंत्रण में है। दूरदर्शन ने स्व. प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अन्तिम यात्रा और अन्तिम संस्कार का लाइव कवरेज करने के लिये जितना समय लगाया था उसके मुकाबले में स्व.डॉ.मनमोहन सिंह के लिये जितना समय दिया है उसी पर सवाल उठ गये हैं। जबकि दोनों ही दो-दो बार देश के प्रधानमंत्री रहे हैं। सरकारी चैनल में इस तरह का भेदभाव पाया जाना क्या सरकार की मंशा और चैनल की निष्पक्षता पर सवाल नहीं खड़े करता है? पूर्व प्रधानमंत्री के अन्तिम संस्कार के दौरान खास राजकीय प्रोटोकॉल का पालन किया जाता है। इसका मकसद देश के प्रति उनके योगदान और पद की गरिमा को सम्मानित करना होता है। पूर्व प्रधानमंत्रियों का अन्तिम संस्कार दिल्ली के विशेष स्मारकीय स्थलों पर किया जाता है जैसे जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का अन्तिम संस्कार राजघाट परिसर में किया गया था। वहीं कई पूर्व प्रधानमंत्रीयों के लिये अलग से समाधि स्थान भी बनाया जाता है। अन्तिम संस्कार का तरीका दिवंगत व्यक्ति और उनके परिजनों के धार्मिक विश्वासों के अनुसार होता है। यह प्रोटोकॉल सरकार द्वारा तय है। 1997 में इसके नियमों में संशोधन करके राज्य सरकारों को भी राष्ट्रीय शोक घोषित करने का प्रावधान किया था।
राष्ट्रीय प्रोटोकॉल के तहत स्व.डॉ. मनमोहन सिंह का अन्तिम संस्कार कहां किया जायेगा यह केन्द्र सरकार को तय करके डॉ. मनमोहन सिंह के परिवार को सूचित करना था। लेकिन केन्द्र सरकार सुबह 11ः30 बजे मंत्रिमण्डल की बैठक करने के बाद भी शाम तक इसकी सूचना नहीं दे सकी जबकि परिवार और कांग्रेस पार्टी द्वारा इसके लिये आग्रह किया गया था कि उनका संस्कार राजघाट पर किया जाये। लेकिन सरकार राजघाट पर जगह चिन्हित नहीं कर पायी। इस पर प्रियंका गांधी ने स्व.इंदिरा गांधी और स्व. राजीव गांधी के स्मारक स्थलों में जमीन चिन्हित करके स्व.डॉ. मनमोहन सिंह का अन्तिम संस्कार वहां करने और स्मारक बनाने की पेशकश कर दी। इसके बाद जो वाद-विवाद सामने आया उसमें यहां तक आरोप लगा की सरकार ने स्व.डॉ. मनमोहन सिंह का नीयतन अपमान करके एक नया मुद्दा खड़ा कर दिया है। स्व.डॉ. मनमोहन सिंह के देहान्त की खबर आने के बाद अन्तिम संस्कार तक बीच में जितना वक्त था उसमें केन्द्र सरकार सारे फैसले समय पर लेकर डॉ. साहब के परिवार और कांग्रेस पार्टी को सूचित कर सकती थी। जबकि प्रोटोकॉल के अनुसार यह केन्द्र को ही करना था। लेकिन केन्द्र सरकार ऐसा नहीं कर पायी। केन्द्र की यह चूक नीयतन हुई या अनचाहे ही हो गयी। इसका फैसला आने वाला समय करेगा। लेकिन स्व.डॉ मनमोहन सिंह जिस व्यक्तित्व के मालिक थे और देश के लिये जो योगदान उनका रहा है उसको सामने रखते हुये यदि केन्द्र का आचरण नीयतन रहा है तो यह सरकार पर भारी पड़ेगा।
जो लोग स्व.डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में लगे भ्रष्टाचार के आरोपों और उस दौरान उठे अन्ना आन्दोलन की बात करते हैं उनको यह भी स्मरण रखना चाहिए कि उन्ही के कार्यकाल में केन्द्रीय मंत्रियों के खिलाफ कारवाई हुई। यह अब स्पष्ट रूप से सामने आ चुका है कि अन्ना आन्दोलन एक प्रायोजित कार्यक्रम था। डॉ.सिंह के ही कार्यकाल में कॉरपोरेट घरानों के खिलाफ कारवाई हुई। उन्होंने ही लोकपाल विधेयक लाया। लेकिन जिस लोकपाल के लिये अन्ना आन्दोलन हुआ उसके तहत कितने मामलों की जांच पिछले एक दशक में हुई वह अभी तक सामने नहीं आयी है। विनोद राय सी ए जी की जिस रिपोर्ट पर टू जी स्कैम का आरोप लगा और 1,76,000 करोड़ के घपले का आरोप लगा। उसकी जांच में विनोद राय ने यह खेद क्यों प्रकट किया कि उनको गणना में गलती लग गई थी। इन तथ्यों के परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि स्व. डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार पर लगे आरोपों का सच क्या है। इसलिये आज उनके निधन के बाद उनके अपमान का मुद्दा कहीं कुछ बड़ा न हो जाये इसकी आशंका उभरने लगी है।






इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा-मोदी चार सौ पार का नारा लेकर चले थे। राम मन्दिर का निर्माण भाजपा का बड़ा संकल्प था। उसकी प्राण-प्रतिष्ठा का आयोजन भी सारे सवालों के बावजूद चुनावी गणित को सामने रखकर करवा दिया। लेकिन यह सब करने के बाद भी लोकसभा में भाजपा का आंकड़ा 240 पर आकर रुक गया। लोकसभा के बाद हरियाणा और महाराष्ट्र की चुनावी जीत में फिर ईवीएम का मुद्दा आकर खड़ा हो गया। महाराष्ट्र में यह मुद्दा जो आकार लेने जा रहा है उसके परिणाम गंभीर होंगे। इसी बीच अमेरिका में गौतम अडानी के खिलाफ एक भ्रष्टाचार का मामला वहां की अदालत तक पहुंच गया। यहां विपक्ष ने इस मुद्दे पर सरकार को घेर लिया। अडानी और ईवीएम दो मुद्दे विपक्ष के हाथ लग गये। इसी बीच संसद में संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर चर्चा की बात उठ गयी ईवीएम के मुद्दे पर ममता और उमर अब्दुल्ला तथा सपा कांग्रेस से अलग हो गये। इसी बीच प्रधान मंत्री ने संसद के इसी सत्र में ‘एक देश एक चुनाव’ लाकर खड़ा कर दिया। इन मुद्दों की चर्चा में संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया गृह मंत्री अमित शाह की ओर से आयी उसने पूरे देश में दलित समाज को एक बड़ा मुद्दा दे दिया। इण्डिया गठबंधन जो अपरोक्ष में अडानी और परोक्ष में ईवीएम के मुद्दे पर बिखरने के कगार पर पहुंच गया था उसे ‘एक देश एक चुनाव’ और डॉ. अम्बेडकर के मुद्दों ने फिर अनचाहे ही संसद में इकट्ठा कर दिया।
‘एक देश एक चुनाव’ तो कमेटी को चला गया है। लेकिन अम्बेडकर के मुद्दे को लेकर विपक्ष पूरी तरह अडिग है। गृह मंत्री अमित शाह के त्यागपत्र की मांग की जा रही है। प्रधानमंत्री यह मांग स्वीकारने की स्थिति में नहीं है। राज्यसभा में सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आ चुका है। वक्फ संशोधन विधेयक भी अभी कमेटी के पास ही है। वक्फ पर नीतीश और चन्द्रबाबू नायडू का समर्थन सरकार को मिल ही जायेगा यह निश्चित नहीं है। संघ और भाजपा के रिश्ते अभी तक ज्यादा सुधार नहीं पाये हैं और इसी कारण भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन नहीं हो पाया है। इस वस्तु स्थिति में जब संसद में विपक्ष नियमित विरोध प्रदर्शन की रणनीति पर चल रहा हो तो सरकार के लिए स्थितियां सुखद नहीं हो सकती। जब इस विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कांग्रेस कर रही हो तो सरकार के लिये और भी असहज स्थिति हो जाती है। क्योंकि ‘एक देश एक चुनाव’ के मुद्दे ने कई बुनियादी संवैधानिक सवाल खड़े कर दिये है।ं देश में 1967 तक सारे चुनाव एक साथ होते थे क्योंकि तब कहीं यह नहीं था कि किसी राज्य विधानसभा का कार्यकाल लोकसभा से आगे पीछे हो रहा हो। केवल 1959 में केरल में अपवाद की स्थिति बनी जब वहां राष्ट्रपति शासन लगा था। लेकिन आज पूरे देश की स्थिति बदली हुई है। ऐसे में यह कैसे संभव हो सकेगा कि विधानसभा का कार्यकाल लोकसभा के कार्यकाल पर निर्भर करेगा। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जिनसे यह आशंका बलवती हो गई है कि इस विधेयक के माध्यम से क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व को खतरा हो गया। इस स्थिति को अधिनायक वाद के पहले कदम के रूप में देखा जा रहा है।
इस वस्तुस्थिति में जो कुछ संसद परिसर के अन्दर घटा है और पुलिस जांच तक जा पहुंचा है उसके परिणामों को धैर्य से देखने तथा समझने की आवश्यकता होगी। यह देश के भविष्य की दिशा में एक बड़ा कदम प्रमाणित होगा। इसमें कांग्रेस को अपने प्रदेशों के नेतृत्व पर कड़ी नजर बनाये रखनी होगी।






भारत एक बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुजातिय देश है। इसके इसी चरित्र को सामने रखकर संविधान निर्माताओं ने देश के हर नागरिक को धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक बराबरी का दर्जा दिया है। सरकार का चरित्र धर्मनिरपेक्ष रखा। सरकार का व्यवहार सभी धर्मों के प्रति एक सम्मान रहेगा। किसी के साथ भी जाति और लिंग के आधार पर गैर बराबरी का व्यवहार नहीं किया जा सकता। लेकिन पिछले कुछ अरसे से संविधान के इस स्वरूप के साथ व्यवहारिक रूप से हटकर आचरण देखा गया। गौ रक्षा और लव जिहाद के नाम पर भीड़ हिंसा हुई और इस हिंसा पर प्रशासन लगभग तटस्थ रहा। आर्थिक मुहाने पर संसाधनों को प्राईवेट हाथों में सौंपा गया। देश की अधिकांश आबादी को सरकारी राशन पर आश्रित होना पड़ा। कोविड काल में आये लॉकडाउन में आपातकाल से भी ज्यादा कठिन हो गया जीवन यापन। यह शायद पहली बार देखने को मिला की महामारी को भगाने के लिये ताली, थाली बजायी गयी और दीपक जलाये गये।
कोविड के इसी काल में संघ प्रमुख मोहन भागवत के नाम से भारत के संविधान का एक बारह पृष्ठों का एक बुकलेट वायरल हुआ जिसमें महिलाओं को कोई अधिकार नहीं दिया गया। पूरे समाज पर ब्राह्मण समाज का वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास था। इस पर संघ कार्यालय नागपुर और पीएमओ के नाम पर सुझाव आमन्त्रित किये गये थे। लेकिन इस वायरल हुये प्रलेख पर न तो संघ कार्यालय और न ही पीएमओ से कोई खण्डन जारी हुआ। उत्तर प्रदेश में दो जगह अज्ञात लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज तो हुए लेकिन उन पर हुई कारवाई आज तक सामने नहीं आयी। इसी बीच मेघालय उच्च न्यायालय के जस्टिस सेन का फैसला आ गया जिसमें उन्होंने देश को धर्मनिरपेक्ष के स्थान पर पड़ोसी देशों की तर्ज पर धार्मिक देश बना दिये जाने का फैसला दिया। इस फैसले की प्रतियां प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और राष्ट्रपति तक को प्रेषित हुई। कुछ लोग इस फैसले के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय भी पहुंचे। इसी परिदृश्य में केन्द्र में सतारूढ़ दल से मुस्लिम समाज के लोग संसद और सरकार से बाहर हो गये। क्या यह सारी स्थितियां संविधान को बदले जाने की आशंकाओं की ओर इंगित नहीं करते?
आज देश में क्या धर्म के नाम पर एक और विभाजन का जोखिम उठाया जा सकता है शायद नहीं? क्या आर्थिक संसाधनों की मलकियत किसी एक आदमी के हाथ में सौंपी जा सकती है। जिस देश में आज भी 80 करोड़ लोग सरकार के राशन पर आश्रित रहने को मजबूर हों उसके विकास के दावों को किस तराजू में तोला जा सकता है। इस समय संसद में इन आशंकाओं पर एक विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है।











