दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक लम्बे अन्तराल के बाद भाजपा को जीत हासिल हुई है। इस चुनाव में केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी की हार हुई है। लेकिन सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस लगातार तीसरी बार शुन्य से आगे नहीं बढ़ पायी है। यह तीनों राजनीतिक घटनाएं ऐसी हैं जिनका भविष्य की राजनीति पर गहरा और दूरगामी असर पड़ना तय है। आम आदमी पार्टी की हार तब से इंगित होने लग पड़ी थी जब दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार का शक्तियों को लेकर टकराव सर्वाेच्च न्यायालय में जा पहुंचा था। इस टकराव का चरम तब आ गया था जब केन्द्र सरकार ने सर्वाेच्च न्यायालय के फैसलों को पलटने के लिये अध्यादेश लाने का रास्ता चुना था। तब यह स्पष्ट हो गया था कि केन्द्र दिल्ली में किसी भी सरकार को स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं करने देगा। फिर चुनावों की घोषणा के बाद आठवें वित्त आयोग का गठन और उसकी सिफारिशों के संकेत बाहर आना तथा केन्द्रीय बजट में बारह लाख की आयकर राहत मिलना तात्कालिक प्रभावी कारण रहे हैं। इन्हीं कारणों के बीच आप और कांग्रेस में चुनावी समझौता न हो पाने ने आप की हार को और सुनिश्चित कर दिया था।
लेकिन क्या बीजेपी का एजेण्डा दिल्ली की इस जीत से पूरा हो जाता है? यह सवाल इसलिये प्रसांगिक हो जाता है कि दिल्ली प्रशासन ने चुनाव परिणामों के बीच ही जब भाजपा की जीत सुनिश्चित हो गई थी तब दिल्ली सरकार के सचिवालय को सील कर दिया था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि केन्द्र की कार्य योजना इस जीत से आगे की भी है। इस समय दिल्ली से लेकर उत्तराखण्ड तक पंजाब में आप और हिमाचल में कांग्रेस की सरकारे हैं। उत्तराखंड में सम्मान नागरिक संहिता कानून लागू हो चुका है। इस कानून को पूरे उत्तरी क्षेत्र में लागू करने के लिये यही दो विपक्ष की सरकारी हैं। यूनिफाइड सिविल कोड हिन्दू एजेण्डे का एक प्रमुख सूत्र है। भाजपा का आधार ही हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना है। इसी सूत्र के आधार पर तो भाजपा केन्द्र की सत्ता तक पहुंची है। राम मन्दिर आन्दोलन और बाबरी मस्जिद गिराया जाना आरक्षण विरोध आन्दोलन में आत्मदाह जैसे पड़ाव भाजपा ने देखे हैं। यदि आरक्षण विरोध का आन्दोलन मण्डल बनाम कमण्डल न हो जाता तो शायद हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का एजेण्डा कब का पूरा हो चुका होता। यह मण्डल आन्दोलन का परिणाम था कि बड़े राज्यों में सत्ता ओबीसी के हाथों में आ गयी। भाजपा को अपने एजेण्डे तक पहुंचाने के लिए राज्यों के क्षत्रपों और कांग्रेस के साथ एक ही वक्त में एक साथ भिड़ना पड़ा। घोषित हिन्दू एजेण्डे को राजनीतिक तौर पर नेपथ्य में रखते हुये भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बनाकर लोकपाल की मांग का बड़ा आन्दोलन छेड़ना पड़ा। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे लोग सामने लाकर आन्दोलन छेड़ना पड़ा। भ्रष्टाचार और काले धन के बड़े-बड़े आंकड़े जनता में उछालने पड़े। कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय करार देकर कांग्रेस में तोड़फोड़ के लिये जमीन तैयार करनी पड़ी। राहुल गांधी को पप्पू करार देने का एजेण्डा चला। 2014 और 2019 के चुनाव में अलग-अलग वायदे परोस कर संविधान में बदलाव का आधार तैयार किया गया। राम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा से अब की बार चार सौ पार के नारे का आधार तैयार किया गया।
लेकिन भाजपा के इन आधारों को राहुल गांधी की पद यात्राओं और उन में संविधान की पुस्तिका हाथ में लेकर राहुल यह संदेश देने में सफल हो गये कि यदि चार सौ पार का नारा सफल हो जाता है तो फिर संविधान को बदलकर ही हिन्दू राष्ट्र का उद्देश्य पूरा कर लिया जायेगा। परन्तु ऐसा हो नहीं सका और भाजपा 240 पर आकर ही रुक गयी। इसलिए अब यू.सी.सी. का रूट लेकर हिन्दू राष्ट्र तक पहुंचना होगा। इसके लिये भाजपा शासित राज्यों में इसे लागू करने के रोड मैप पर चलना होगा। दिल्ली की जीत के बाद उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो पहले ही भाजपा की सरकार हैं। ऐसे में यदि पंजाब और हिमाचल में भी कोई खेल करके यह उद्देश्य पूरा हो जाये तो महाराष्ट्र और गुजरात तक कोई रोक नहीं रह जाती है। हिमाचल में खेल करने की जमीन तैयार है। जब तक कांग्रेस हाईकमान इस पर सोचने लगेगी तब तक हिमाचल में यह घट चुका होगा ऐसा माना जा रहा है। पंजाब को लेकर तो चर्चाएं तेज हो ही चुकी है।






के पास संसाधन ही नहीं होंगे तब वह अपने में किसी भी वायदे को घोषणाओं के अतिरिक्त अमली जामा कैसे पहना पायेगी? अभी सरकार को सत्ता में आये दो वर्ष हुये हैं। इन दो वर्षों में अपने संसाधन बढ़ाने के लिये हर उपभोक्ता वस्तु पर शुल्क बढ़ाया है। अब पानी और बिजली जो पहले मुफ्त मिल रही थी उसकी पूरी कीमत वसूलनी शुरू कर दी है। इन सारे उपायों से सरकार ने 2200 करोड़ का अतिरिक्त राजस्व जुटाया है। 2024-25 में प्रदेश के कुल व्यय और आय में करीब 11000 करोड़ का घाटा रहा है। हर वर्ष करीब 10 प्रतिश्त व्यय बढ़ जाता है। 2024-25 में पूंजीगत व्यय के लिये केवल 6270 करोड़ रखे गये हैं जो की 2023-24 के संशोधित अनुमानों से 8 प्रतिश्त कम है। इस तरह जो स्थितियां बनती जा रही हैं उनके मुताबिक आने वाले समय में पूंजीगत व्यय लगातार कम होता जायेगा। क्योंकि प्रतिबद्ध व्यय में 10 से 11 प्रतिश्त की वृद्धि होनी ही है। जब पूंजीगत व्यय के लिये प्रावधान कम होता जायेगा तो निश्चित रूप से सारे विकास कार्य केवल घोषणाओं तक ही सीमित रहेंगे और व्यवहार में नहीं उतर पाएंगे।
ऐसे में जब मुख्यमंत्री प्रदेश को 2027 तक आत्मनिर्भर बनाने का दावा कर रहे हैं तो स्वभाविक है कि सरकार तब तक अपनी आय में इतनी वृद्धि कर लेगी कि उससे आय और व्यय बराबरी पर आ जायेंगे। लेकिन ऐसा संभव कैसे होगा। क्या इसके लिये प्रतिबद्ध खर्चों में कमी की जायेगी? सबसे ज्यादा खर्च वेतन और पैन्शन पर आता है। क्या इसके लिये आगे नियमित रोजगार में कमी की जायेगी? जिस तरह बिजली बोर्ड में युक्तिकरण के नाम पर कर्मचारियों के पदों में कटौती की जा रही है वैसा ही सारी सरकार में होगा। इस समय कर्मचारियों के बकाये के रूप में करीब 9000 करोड़ की देनदारी है। क्या इस सबके लिये आम आदमी पर करों और शुल्क का भार बढ़ाने के अतिरिक्त और कोई साधन संभव है? क्या सारा कुछ प्राइवेट सैक्टर के हवाले करने की योजना बनाई जा रही है? क्योंकि सरकार में मंत्रियों और दूसरे राजनीतिक पदों पर हो रहे खर्चों में तो कोई कमी देखने को नहीं मिल रही है। ऐसे में आम आदमी ही बचता है जिसे किसी भी नाम पर ठगा जा सकता है? जब मुफ्ती की हर घोषणा वित्तीय संतुलन को बिगाड़ देती है तो फिर कांग्रेस भी हर चुनाव के लिये ऐसी घोषणाएं क्यों करती हैं। क्या मुख्यमंत्री और उनके सलाहकार हाईकमान के सामने अपने तर्क नहीं रख पाते हैं? क्या आने वाले बजट में सरकार यह इमानदारी बरतनेे का साहस करेगी कि जो कुछ भी करों और शुल्कों में बढ़ौतरी की जानी है इसकी घोषणा बजट के रिकॉर्ड पर आयेगी या फिर आम आदमी को ठगने के लिए फिर कर मुक्त बजट देने की प्रथा निभाई जायेगी। यह बजट सरकार और पूरी पार्टी की ईमानदारी का एक दस्तावेज बनेगा यह तय है। क्योंकि अब सरकार की कथनी और करनी पर सीधे सवाल उठने का समय आ गया है। सरकार को बताना होगा कि उसका प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने का रोड मैप क्या है?






स्मरणीय है कि 4 जुलाई 2017 को गुड़िया स्कूल से गायब हो गई और 6 जुलाई को उसका शव जंगल में बरामद हुआ। 7 जुलाई को पोस्टमार्टम हुआ 10 जुलाई को सरकार ने आई.जी. जैदी के नेतृत्व में एस.आई.टी. गठित कर दी। 13 जुलाई को एस.आई.टी. ने पांच लोगों को गिरफ्तार कर लिया और 18 जुलाई को पुलिस की हिरासत में सूरज की कोटखाई पुलिस स्टेशन में मौत हो गई। 19 जुलाई को प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह पूरा प्रकरण सी.बी.आई. को ट्रांसफर कर दिया और 29 अगस्त को सीबीआई ने जैदी समेत 8 पुलिस कर्मियों को गिरफ्तार कर लिया। 11 अप्रैल 2021 को सी.बी.आई. कोर्ट ने लकड़ी चिरानी नीलू को गुड़िया की हत्या और रेप के लिये आजीवन कारावास की सजा सुना दी। अब 18 जनवरी 2025 को सी.बी.आई. अदालत ने जैदी और सात अन्य पुलिस कर्मियों को दोषी करार दे दिया। इससे केवल डी.डब्लयू. नेगी ही बरी हुये। 27 जनवरी को सभी दोषियों को उम्र कैद की सजा सुना दी गई। इस मामले में जैदी ने किस तरह एस सौम्य को अपना ब्यान बदलने का दबाव डाला यह सौम्य द्वारा अदालत में दी गई शिकायत से सामने आ चुका है। पूरे प्रकरण में एक भी पुलिसकर्मी का यह चरित्र सामने नहीं आया है कि उसने निष्पक्षता से कुछ कहने का प्रयास किया हो। जबकि पुलिस हिरासत में ही उसकी मौत हुई थी और इसके लिये इन पुलिस कर्मियों के अतिरिक्त और कोई जिम्मेदार हो नहीं सकता था।
ऐसे में जब पुलिस कर्मियों का सामूहिक चरित्र इस तरह का सामने आयेगा तो निश्चित रूप से पुलिस पर से आम आदमी का विश्वास उठता चला जायेगा। यह अक्सर देखा गया है कि पुलिस गैर संज्ञेय मामलों को संज्ञेय बनाने के लिये ऐसी धाराएं जोड़ देती है जिसका कोई जमीनी आधार ही होता है। ऐसा या तो बड़े अधिकारियों या फिर राजनीतिक दबाव में किया जाता है। गुड़िया प्रकरण में जनाक्रोस बड़ा तो यह दबाव आया कि अपराधियों को जल्द से जल्द पकड़ा जाये। तब पुलिस सूरज आदि कुछ लोगों को पकड़ चुकी थी और उन्हीं को अपराधी प्रमाणित करने की कवायत कर रही थी। इसी कवायत में जैदी ने पत्रकार सम्मेलन में यह दावा कर दिया कि वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर गिरफ्तारियां की गयी हैं। लेकिन सी.बी.आई. अदालत में इन वैज्ञानिक साक्ष्यों का कोई जिक्र तक नहीं आया है। इससे यह सामने आता है कि पुलिस निष्पक्षता से अपना काम नहीं कर रही थी। या तो वह राजनीतिक नेतृत्व के सामने यह प्रदर्शित करना चाह रही थी कि उसने मामले के असली गुनहगारों को पकड़ लिया है या किसी को बचाने के लिये वह सूरज आदि पर भी दोष सिद्ध करने की कवायत में लग गयी थी। इस समय पूरे तंत्र की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं। जिस तरह से रेरा द्वारा लाखों के सब खरीद कर उपहार स्वरूप बांटे गये हैं वह सरकारी धन के दुरुपयोग और अपनी शक्तियों से बाहर जाने का पुख्ता मामला बनता है। यह मामला और इसके तथ्य सार्वजनिक रूप से सामने आ चुके हैं। इस पर सोर्स रिपोर्ट बनाकर विजिलैन्स स्वयं भी मामला दर्ज कर सकती है। या सरकार भी इस पर तुरन्त कारवाई के निर्देश दे सकती है। अब यही मामला प्रमाणित कर देगा की तंत्र अपना विश्वास जनता में बनाये रखने के लिये क्या चयन करता है।






पिछले वर्ष हुये लोकसभा और विधानसभा चुनावों के समय यह वैधानिक वस्तुस्थिति थी। हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनाव में यह अनुमान लगाये जा रहे थे की इन राज्यों में कांग्रेस और इण्डिया गठबंधन निश्चित रूप से जीत हासिल करेगा। लेकिन चुनाव परिणामों में परिणाम भाजपा के पक्ष में रहे। इसके बाद ईवीएम मशीनों और चुनाव आयोग पर जो गंभीर आरोप लगे उनमें आयोग पर चुनाव डाटा जारी करने में गड़बड़ी के आरोप लगे। मशीनों की बैटरी चार्जिंग प्रतिशतता पर सवाल उठे। मतदान के आंकड़ों पर सवाल उठे। चुनाव आयोग के पास प्रमाणों के साथ शिकायतें दायर हुई। जिन्हें आयोग ने अस्वीकार कर दिया। महाराष्ट्र में तो कुछ गांव में कांग्रेस इण्डिया गठबंधन को एक भी वोट नहीं मिलने के तथ्य सामने आये। ग्रामीणों ने ईवीएम मशीनों की प्रमाणिकता के लिये मॉक पोलिंग का सहारा लिया जिसे चुनाव आयोग ने रोक दिया। लोगों के खिलाफ आपराधिक मामले बने और कुछ को जेल तक जाना पड़ा। हरियाणा में लोगों ने अदालत का रुख किया। पंजाब एण्ड हरियाणा उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सारा रिकॉर्ड और सी.सी.टी.वी फुटेज का डाटा उपलब्ध करवाने की मांग की गई। उच्च न्यायालय ने यह डाटा देने के आदेश कर दिये। लेकिन जिस दिन यह आदेश हुये उसी दिन इस संबंध में कानून बनाकर यह डाटा देने पर रोक लगा दी गई। अब यह मामला सर्वाेच्च न्यायालय में पहुंच गया है। लेकिन चुनाव आयोग ने यह डाटा देने से इसलिये मना कर दिया है कि इसमें करोड़ों घंटों की रिकॉर्डिंग है जिसे खंगालने में 36 वर्ष लग जायेंगे। आयोग के इस तर्क से मशीनों और आयोग पर उठते सवाल स्वतः ही और गंभीर हो जाते हैं क्योंकि किसी को भी वही डाटा/फुटेज देखने की आवश्यकता होगी जहां पर गड़बड़ी की आशंका होगी। इस प्रकरण में हरियाणा के सिरसा जिले के रानिया विधानसभा क्षेत्र के चुनाव परिणाम आने पर कांग्रेस प्रत्याशी सर्वमित्र कंबोज इनेलो के अर्जुन चौटाला से हार गये। इस हार के बाद उन्होंने नो बूथों पर ईवीएम मशीनों और वीवीपीएटी के मिलान और जांच के लिये आवेदन कर दिया। आवेदन के साथ 4,34,000 की फीस भी जमा करवा दी। उनके आवेदन पर जांच के आदेश भी हो गये। चुनाव में जितने भी प्रत्याशी थे सबको इस जांच के दौरान हाजिर रहने के आदेश हो गये। लेकिन जब चैकिंग की बात आयी तो जिन मशीनों पर वोटिंग हुई थी उनका रिकॉर्ड दिखाने की बजाये वह डाटा डिलीट कर नये सिरे से मॉक वोटिंग करके उसकी गणना करने का आयोग की ओर से फरमान जारी हो गया। इस पर कांग्रेस प्रत्याशी ने सारी प्रक्रिया को वहीं रुकवा दिया। अब यह मामला उच्च न्यायालय और सर्वाेच्च न्यायालय तक जाने की संभावना बन गयी है। चुनाव आयोग के अपने आचरण से ही कई गंभीर शंकाएं उभर जाती हैं।
इस सारे प्रकरण के बाद जो सवाल उठते हैं उनमें सबसे पहला सवाल यह उठता है कि शीर्ष अदालत ने सारा रिकॉर्ड पैंतालीस दिनों तक सुरक्षित रखने का फैसला दिया है। चुनाव परिणाम पर सवाल उठने का हक दूसरे और तीसरे प्रत्याशी को पूरा खर्च जमा करवाने के बाद दिया है। पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह रिकॉर्ड देने का आदेश पारित कर दिया। फिर इस आदेश के बाद कानून बदलकर रिकॉर्ड देने पर रोक का प्रावधान क्यों किया गया? जब महाराष्ट्र में मॉक वोटिंग रोकने के लिये आयोग ने पुलिस बल का प्रयोग करके उसे रोक दिया तो हरियाणा में रानिया विधानसभा में इस मॉक वोटिंग पर आयोग क्यों आया। इस बार चुनाव डाटा देरी से जारी करने का सबसे बड़ा आरोप आयोग पर लगा है। अब जो परिस्थिति अदालत के फैसले और आयोग के आचरण से निर्मित हुई है उसके परिणाम आने वाले समय में बहुत गंभीर होंगे। रानिया में जिस तरह का आचरण सामने आया है उससे अब तक के सारे चुनाव परिणामों पर जो सन्देह आयेगा उसका अंतिम परिणाम क्या होगा यह एक बड़ा सवाल होगा।






इस परिप्रेक्ष में यदि लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार के गठन से लेकर अब तक के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डाली जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस बार लोकसभा में मुस्लिम समुदाय से भाजपा के पास एक भी सांसद नहीं है। क्योंकि किसी भी मुस्लिम को भाजपा ने टिकट ही नहीं दिया था। परिणाम स्वरुप केंद्रीय मंत्रिमंडल में मुस्लिम समाज का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। इसी के साथ जिस तरह मुस्लिम धर्म स्थलों में खुदाई करने के बाद हिंदू मंदिर आदि मिल रहे हैं उससे भी एक अलग ही संदेश गया है क्योंकि संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने भी इस पर चिंता जताई है। इसी कड़ी में प्रस्तावित वक्फ संशोधन विधेयक को देखा जा रहा है। इस सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की नीयत और नीति समाज को हिन्दू-मुस्लिम विवाद में डालकर मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकाने का प्रयास करने की है। सरकार की इस नीति से उन दलों को हताशा हुई है जो मुस्लिम वोट के अपने को हकदार मानते थे। इसी के साथ इस संसद सत्र में जिस तरह से डॉ. अंबेडकर का मुद्दा संसद परिसर में धक्का-मुक्की से शुरू होकर एफ.आई.आर. तक पहुंच गया उससे पूरा दलित समाज अपने को आहत महसूस करने लग गया है। राहुल गांधी इस पर संविधान यात्रा शुरू करने जा रहे हैं। इसी कड़ी में ‘एक देश एक चुनाव’ का मुद्दा जुड़ गया है। इससे क्षेत्रीय दलों को कालान्तर में अस्तित्व के खतरे का एहसास होने लगा है। यह मुद्दा जे.पी.सी. को सौंपा गया है और इसके लिये जो दस्तावेज और अन्य सामग्री सदस्यों को उपलब्ध करायी गयी है वह अठारह हजार पन्नों के दस्तावेज है। इन अठारह हजार पन्नों को पढ़ने और समझने में कितना समय लगेगा इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। इस तरह जो राजनीतिक परिस्थितियों निर्मित होती जा रही हैं उससे क्षेत्रीय दलों मुस्लिमों और दलित समाज में सरकार की नीयत और नीति पर गंभीर शंकाएं पैदा होने लग पड़ी है। इसका प्रमाण नीतीश को लेकर उभरी चर्चाओं से सामने आ गया है ।
इस परिदृश्य में इण्डिया गठबंधन के बिखरने से कांग्रेस अपने में स्वतन्त्र हो जाती है। गठबंधन के सारे दल भाजपा, एनडीए के साथ सीधे टकराव में आ जाते हैं। सारे छोटे दलों की चाहे वह किसी भी गठबंधन से रहे हो उनको भविष्य में भी अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये एक मंच पर इकट्ठे आकर भाजपा मोदी को चुनौती देना अनिवार्य हो जायेगा। इस समय मोदी-भाजपा अपने में अल्प मत में है इसलिये उन्हें यह चुनौती देना आसान हो जाता है। इनमें नीतीश, ममता, अखिलेश, नायडू, शरद पवार या केजरीवाल कोई भी प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन जाये उसे समर्थन देने में कांग्रेस को कोई आपत्ति नहीं होगी क्योंकि इन दलों की सरकार कांग्रेस के बिना बन नहीं सकती है। यदि यह दल इकट्ठे नहीं होते हैं तो इससे इन्हीं के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगता है और कांग्रेस किसी भी आक्षेप बच जाती है। क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम और एक देश एक चुनाव कांग्रेस का ऐजैण्डा नहीं है। इस समय देश के सामने बड़े सवाल यह है कि देश का जो कर्ज भार 2014 में 56 लाख करोड़ था वह 2024 में 205 लाख करोड़ कैसे हो गया? अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की जो कीमत 2014 में थी आज उससे कम है फिर पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें अब ज्यादा क्यों है? इस दौरान यदि कांग्रेस अपने यहां मौजूद भाजपा के स्लीपर सैलों को निष्क्रिय करने में सफल हो जाती है तो इससे कांग्रेस और देश दोनों का आने वाले समय में भला ही होगा।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में इण्डिया गठबंधन के बिखरने के ऐलान सामने आ चुके हैं। गठबंधन के सभी बड़े दलों ने यह स्पष्ट कर दिया है की गठबंधन केवल लोकसभा चुनाव तक ही था। अब दिल्ली में आप और कांग्रेस दोनों चुनाव लड़ रहे हैं। अब दिल्ली में भाजपा, कांग्रेस और आप में तिकाना मुकाबला होने जा रहा है। इण्डिया गठबंधन के घटक दलों में से सपा, आर.जे.डी, ममता और शिवसेना उद्धव ठाकरे ने आप को समर्थन देने का ऐलान कर दिया है। वाम दल कांग्रेस के साथ मिलकर यह चुनाव लड़ रहे हैं। इण्डिया के इस बिखराव का राष्ट्रीय राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह इस समय का सबसे बड़ा प्रश्न बन गया है। क्योंकि दिल्ली के इस चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी स्वयं प्रचार में उतर आये हैं और उन्होंने आप को दिल्ली के लिए आपदा की संज्ञा दी है। जबकि प्रधानमंत्री मोदी और अरविंद केजरीवाल दोनों ही अन्ना आन्दोलन के प्रतिफल है तथा अन्ना आन्दोलन संघ का एक प्रायोजित प्रयोग था। इस पृष्ठभूमि में दिल्ली चुनाव के माध्यम से ही इस घटनाक्रम का आकलन किया जाना चाहिये। दिल्ली की चुनी हुई सरकार के पास उतना ही काम है जितना वहां की नगर निगम के पास है। क्योंकि सर्वाेच्च न्यायालय के फैसले के बाद संसद ने सारे अधिकार एल.जी को सौंप दिये हैं। ऐसे में दिल्ली विधानसभा चुनाव की प्रासंगिकता व्यवहारिक रूप से केवल राजनीतिक ही रह जाती है। भाजपा को लोकसभा चुनाव में अबकी बार चार सौ पार का नारा देने के बाद भी दो सौ चालीस ही मिले हैं जबकि राम मंदिर निर्माण की उपलब्धि भी उनके पास थी। इस बार मोदी ऐसी सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं जो नीतीश और नायडू के समर्थन पर टिकी हुई है। इसलिए यह माना जा रहा है कि भाजपा-मोदी-शाह लोकसभा में अपना बहुमत बनाने के लिये समर्थन घटक दलों में तोड़फोड़ करने के लिए बाध्य हो जायेंगे। घटक दलों को यह संदेश देने के लिये कि देश को चलाने के लिए मोदी और भाजपा अनिवार्य हो गये हैं इसलिये उन्हें अपना विलय भाजपा में कर देना चाहिये। इस परिप्रेक्ष में यदि लोकसभा चुनाव के बाद मोदी सरकार के गठन से लेकर अब तक के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डाली जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस बार लोकसभा में मुस्लिम समुदाय से भाजपा के पास एक भी सांसद नहीं है। क्योंकि किसी भी मुस्लिम को भाजपा ने टिकट ही नहीं दिया था। परिणाम स्वरुप केंद्रीय मंत्रिमंडल में मुस्लिम समाज का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। इसी के साथ जिस तरह मुस्लिम धर्म स्थलों में खुदाई करने के बाद हिंदू मंदिर आदि मिल रहे हैं उससे भी एक अलग ही संदेश गया है क्योंकि संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत ने भी इस पर चिंता जताई है। इसी कड़ी में प्रस्तावित वक्फ संशोधन विधेयक को देखा जा रहा है। इस सबसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार की नीयत और नीति समाज को हिन्दू-मुस्लिम विवाद में डालकर मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकाने का प्रयास करने की है। सरकार की इस नीति से उन दलों को हताशा हुई है जो मुस्लिम वोट के अपने को हकदार मानते थे। इसी के साथ इस संसद सत्र में जिस तरह से डॉ. अंबेडकर का मुद्दा संसद परिसर में धक्का-मुक्की से शुरू होकर एफ.आई.आर. तक पहुंच गया उससे पूरा दलित समाज अपने को आहत महसूस करने लग गया है। राहुल गांधी इस पर संविधान यात्रा शुरू करने जा रहे हैं। इसी कड़ी में ‘एक देश एक चुनाव’ का मुद्दा जुड़ गया है। इससे क्षेत्रीय दलों को कालान्तर में अस्तित्व के खतरे का एहसास होने लगा है। यह मुद्दा जे.पी.सी. को सौंपा गया है और इसके लिये जो दस्तावेज और अन्य सामग्री सदस्यों को उपलब्ध करायी गयी है वह अठारह हजार पन्नों के दस्तावेज है। इन अठारह हजार पन्नों को पढ़ने और समझने में कितना समय लगेगा इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। इस तरह जो राजनीतिक परिस्थितियों निर्मित होती जा रही हैं उससे क्षेत्रीय दलों मुस्लिमों और दलित समाज में सरकार की नीयत और नीति पर गंभीर शंकाएं पैदा होने लग पड़ी है। इसका प्रमाण नीतीश को लेकर उभरी चर्चाओं से सामने आ गया है ।इस परिदृश्य में इण्डिया गठबंधन के बिखरने से कांग्रेस अपने में स्वतन्त्र हो जाती है। गठबंधन के सारे दल भाजपा, एनडीए के साथ सीधे टकराव में आ जाते हैं। सारे छोटे दलों की चाहे वह किसी भी गठबंधन से रहे हो उनको भविष्य में भी अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये एक मंच पर इकट्ठे आकर भाजपा मोदी को चुनौती देना अनिवार्य हो जायेगा। इस समय मोदी-भाजपा अपने में अल्प मत में है इसलिये उन्हें यह चुनौती देना आसान हो जाता है। इनमें नीतीश, ममता, अखिलेश, नायडू, शरद पवार या केजरीवाल कोई भी प्रधानमंत्री पद का दावेदार बन जाये उसे समर्थन देने में कांग्रेस को कोई आपत्ति नहीं होगी क्योंकि इन दलों की सरकार कांग्रेस के बिना बन नहीं सकती है। यदि यह दल इकट्ठे नहीं होते हैं तो इससे इन्हीं के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लगता है और कांग्रेस किसी भी आक्षेप बच जाती है। क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम और एक देश एक चुनाव कांग्रेस का ऐजैण्डा नहीं है। इस समय देश के सामने बड़े सवाल यह है कि देश का जो कर्ज भार 2014 में 56 लाख करोड़ था वह 2024 में 205 लाख करोड़ कैसे हो गया? अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की जो कीमत 2014 में थी आज उसस्ै कम है फिर पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें अब ज्यादा क्यों है? इस दौरान यदि कांग्रेस अपने यहां मौजूद भाजपा के स्लीपर सैलों को निष्क्रिय करने में सफल हो जाती है तो इससे कांग्रेस और देश दोनों का आने वाले समय में भला ही होगा। इण्डिया गठबंधन के बिखरने का अर्थ