Thursday, 18 September 2025
Blue Red Green
Home सम्पादकीय

ShareThis for Joomla!

विकास की अवधारणा पर गंभीर प्रश्न चिन्ह है यह आपदा

हिमाचल प्रदेश में इस बार फिर प्राकृतिक आपदा ने कहर बरसाना शुरू कर दिया है। अभी पिछले वर्ष आर्यी आपदा के जख्म अभी भरे भी नहीं है कि फिर इस आपदा ने प्रदेश को ग्रस लिया है। जब आपदा आती है तो सबसे पहले सरकारी तंत्र का पूरा ध्यान उस ओर केंद्रित हो जाता है। हिमाचल की सुक्खू सरकार ने पिछले वर्ष भी आपदा प्रबंधन पर पूरा ध्यान केंद्रित कर आपदा में फंसे लोगों को सुरक्षित बाहर निकलने में लगा दिया था और इस बार भी। आपदा में कुल कितना नुकसान हुआ और उसकी भरपाई किन-किन साधनों से की गयी। राज्य सरकार ने अपने साधनों से क्या किया। केंद्र ने कितना सहयोग दिया और जनता ने कितना दिया। इस सबके आंकड़ों पर चर्चा करने से राजनीति तो हो सकती है और शायद हो भी रही है। लेकिन इस चर्चा से कुदरत पसीज नहीं रही है उसका कहर अपनी जगह जारी है। वैसे तो प्रदेश में अनुपाततः वर्षा कम हुई है जिसका असर भविष्य में अलग रूपों में देखने को मिलेगा। लेकिन यह लगने लगा है कि शायद अब हर बरसात में ऐसा ही भोगना पड़ेगा। पर्यावरण विशेषज्ञ इस आपदा को कुदरत का कहर मानने की बजाये इसे मानव निर्मित त्रासदी की संज्ञा दे रहे हैं और यही चिंता और चिंतन का सबसे बड़ा विषय है।
हिमाचल का अधिकांश हिस्सा गहन पहाडी क्षेत्र है। गलेशियरो का प्रदेश है। हर पहाड़ पानी का स्त्रोत है । नदी, नालों का प्रदेश है। इसी पानी की बहुलता और पहाड़ों के नैर्संगिक सौंदर्य से प्रभावित होकर इसे बिजली ऊर्जा राज्य के रूप में प्रचारित प्रसारित किया गया। हर छोटे-बड़े नदी नाले का अध्ययन हुआ और बिजली उत्पादन की क्षमताओं के आंकड़े आते चले गये। चंबा से लेकर सिरमौर तक 504 छोटी बड़ी विद्युत परियोजना चिन्हित हो गई। यह प्रचारित हो गया कि हिमाचल इस बिजली के सहारे ही आत्मनिर्भर राज्य बन जाएगा। विद्युत परियोजनाओं में हिमाचल सरकार केंद्र सरकार और प्राइवेट सैक्टर सब कूद पड़े। इन परियोजनाओं के लिए हजारों पेड़ काट दिए गए। हैडटेल श्रृंखला में दरियाओं का वास्तविक प्रभाव की बदल दिया गया। चंबा में 65 किलोमीटर तक रावी अपने मूल प्रवाह रूट से ही गायब है। अवय शुक्ला की रिपोर्ट में यह सब दर्ज है। परियोजना निर्माताओं के लिए यह अनिवार्य किया गया था कि वह जितने पेड़ काटेंगे उसके 10 गुना उन्हें लगाने पड़ेंगे। लेकिन आज तक इसकी कोई रिपोर्ट नहीं आयी है कि वास्तव में कटे पेड़ों की जगह कितने नए पेड़ लगाए गए हैं। जहां पर स्थानीय लोगों ने किसी परियोजना का विरोध किया तो उस विरोध को कुचल दिया गया। इन परियोजनाओं से जो पर्यावरणीय बदलाव पैदा हुए हैं आज हो रहे नुकसान का शायद पहला मूल कारण यह परियोजनाएं है। फिर इन परियोजनाओं के आधारभूत ढांचा खड़ा करने और दूसरे उपादान देने में जितना निवेश सरकारें कर चुकी है उसके अनुपात में इनसे मिला रोजगार और राजस्व बहुत कम रह जाता है। आज जहां-जहां बादल फटे हैं उसके आसपास कोई न कोई परियोजना स्थल आवश्यक है जो इस तथ्य की पुष्टि करता है। कैग रिपोर्टों के सारे आंकड़े उपलब्ध है। बिजली बोर्ड और दूसरी पावर कॉरपोरेशन जिस घाटे में चल रही है वह भी इसी दिशा में सवाल उठता है।
विद्युत के साथ ही प्रदेश को आदर्श पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की योजना तैयार हो रही है । शहरों से गांवों की ओर होमस्टे की अवधारणा को कार्यरूप दिया जा रहा है। देवी देवताओं की भूमि में हर देवस्थान को पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने पर काम शुरू हो गया है। इसके लिए अपेक्षित अधोसंरचना तैयार करने में पर्यावरण का संतुलन बिगड़ना स्वभाविक है जिसका अंतिम परिणाम भूस्खलनों के रूप में देर सुबह सामने आयेगा। शिमला सहित सारे पर्यटक स्थलों को जिस तरह से कंकरिट के जंगल में बदल दिया गया है उसको लेकर प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर सर्वाेच्च न्यायालय तक प्रदेश सरकारों को फटकार लगा चुका है। एन.जी.टी. ने तो शिमला से राजधानी को भी किसी दूसरे स्थान पर ले जाने के निर्देश दे रखे हैं लेकिन सरकार पर इन निर्देशों का कोई असर नहीं है। आज सरकारें सिर्फ अपना कार्यकाल किसी न किसी तरह पूरा करने के सोच से आगे बढ़ ही नहीं रही है। शिमला में एक समय रिटैन्शन पॉलिसीयों पर हाईकोर्ट ने सवाल उठाए थे जिन्हें नजरअंदाज कर दिया गया और अब राजधानी शिफ्ट करने के निर्देशों तक की बात पहुंच चुकी है जिस पर अमल नहीं किया जायेगा। शिमला को इस समय जिस तरह से लोहे के जंगल में बदला जा रहा है उससे इसको लेकर आ चुकी भूकंप की चेतावनियां तो नहीं बदल जायेगी। अगर इन आपदाओं से आज कोई सबक नहीं लिया जाता है तो भविष्य में और भी बड़े संकटों के लिए तैयार रहना होगा ।

नीति आयोग का बहिष्कार क्यों?

नीति आयोग का गठन केन्द्र सरकार ने 2015 में योजना आयोग के पूरक के रूप में किया है। भारत सरकार का यह सर्वाेच्च सार्वजनिक नीति थिंक टैंक है। यह संस्थान भारत की राज्य सरकारों को इसमें शामिल करके आर्थिक विकास और सरकारी संघवाद को बढ़ावा देने के लिये काम करता है। इसके उद्देश्य में सात वर्षीय विभिन्न रणनीति, पन्द्रह वर्षीय रोड मैप और कार्य योजना, अमृत डिजिटल इंडिया, अटल इन्नोवेशन मिशन और चिकित्सा शिक्षा सुधार और कृषि सुधार शामिल हैं। प्रधानमंत्री और सभी राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्र शासित राज्यों के उप-राज्यपाल तथा कुछ विषय विशेषज्ञ इसके सदस्य हैं। अभी केन्द्र का बजट आने के बाद नीति आयोग की बैठक बुलाई गयी थी। कांग्रेस समेत विपक्ष ने इस बैठक के बहिष्कार का फैसला लिया क्योंकि बजट में बिहार और आंध्र प्रदेश को नामत कुछ आर्थिक आबंटन हुआ है। बाकी राज्यों को नामत कोई आबंटन न होने से बहिष्कार का फैसला लिया गया। लेकिन ममता इस फैसले के बावजूद बैठक में शामिल हुई और बीच में ही उठकर चली गयी। यह आरोप लगाया कि उन्हें बोलने का पूरा मौका नहीं दिया गया। विपक्ष ने सामूहिक रूप से समय न दिये जाने की निंदा की है। परन्तु कांग्रेस के ही अधीरंजन ने ममता को झूठी करार दे दिया। इसी तरह हिमाचल के मुख्यमंत्री भी बजट से पहले दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और भूतल परिवहन मंत्री से मिले थे। इन मुलाकातों में प्रदेश के लिये आर्थिक सहायता की मांगे रखी गयी थी। इन मुलाकातों के बाद बजट आया है। केंद्रीय राज्य मंत्री ने शिमला में एक पत्रकार वार्ता में खुलासा किया है कि केंद्रीय बजट में प्रदेश को 13351 करोड़ मिले हैं। राष्ट्रीय राजमार्गों, सूरंगों और रेलवे विस्तार के लिये प्रदेश को एक मिले आबंटन की डिटेल रखी गयी है। केंद्रीय राज्य मंत्री के दावे के मुख्य मन्त्री के प्रधान सलाहकार मीडिया ने रश्मि तौर पर सवाल उठाये हैं। मुख्यमंत्री ने कांग्रेस के राष्ट्रीय फैसले के तहत नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार किया है। लेकिन इसी मुख्यमुत्री ने कॉमनवेल्थ मीट के अवसर पर राष्ट्रपति द्वारा आयोजित भोज में शिरकत की थी जबकि कांग्रेस के दूसरे मुख्यमंत्री इसमें शामिल नहीं हुये थे। तब इस शामिल होने को प्रदेश हित करार दिया गया था। निश्चित तौर पर नीति आयोग की बैठक का आयोजन भोज के आयोजन से प्रदेश हित में एक बड़ा अवसर था। प्रदेश के भविष्य का सवाल था। इस बैठक में शामिल होकर प्रदेश की वित्तीय स्थिति का सर्वाेच्च नीति थिंक टैंक के फोरम पर आधिकारिक तौर पर विवरण रखा जा सकता था लेकिन ऐसा हो नहीं सका। नीति आयोग योजना आयोग के पूरक के रूप में एक सर्वाेच्च नीति निर्धारण मंच है। इस मंच पर प्रदेश की समस्याओं का आधिकारिक रूप से रखा जाना आवश्यक था। क्योंकि सुक्खू सरकार को सत्ता में आये डेढ़ वर्ष का समय हो गया है। विधानसभा चुनावों के दौरान प्रदेश की जनता को दस गारंटीयां दी गया थी। यह गारंटीयां देते हुये कोई किन्तु-परन्तु नहीं लगाये गये थे। सरकार के गठन के साथ ही मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियों और उसके बाद कैबिनेट रैंक में सलाहकारों और विशेष कार्य अधिकारियों की नियुक्ति कुछ ऐसे फैसले रहे हैं जिनसे यह कतई संदेश नहीं जाता कि प्रदेश में वित्तीय संकट है। लेकिन आज जिस तरह से जनता को पहले से मिले आर्थिक लाभों पर कैंची चलाई जा रही है उससे यह संदेश गया है कि सरकार वित्तीय संकट से गुजर रही हैं। लेकिन अब तक के कार्यकाल में ही जितना कर्ज ले लिया गया है उस गति से कार्यकाल के अन्त तक यह आंकड़ा पूर्व सरकारों द्वारा लियेे गये कर्ज के आंकड़े से भी बढ़ जायेगा। इसलिये आज कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का विकल्प बनने के लिये अपनी सोच और कार्यशैली दोनों पर पुनःविचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि इस समय कांग्रेस की राज्य सरकारों की परफॉरमैन्स पर जनता अपना एक स्पष्ट मत बना पायेगी। क्योंकि इस समय हिमाचल की सरकार की कार्य प्रणाली से यह संदेश नहीं जा पा रहा है कि कांग्रेस एक बेहतर विकल्प हो सकता है। नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार वास्तविक रूप से भगाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।

प्रदेश पर बढ़ते कर्ज के लिये जिम्मेदार कौन ?

हिमाचल प्रदेश लगातार कर्ज के चक्रव्यूह में उलझता जा रहा है । पिछले तीन दशकों में रही सरकारी अपने-अपने कार्यकाल में न तो इस कर्ज पर लगाम लगा पायी है और न ही कोई सरकार लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी कर पायी है। इसका अर्थ हो जाता है कि प्रदेश की जनता किसी भी सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर ऐसा भरोसा नहीं कर पायी कि उसे दूसरी बार सत्ता सौंप देती। यह सही है कि स्व. वीरभद्र सिंह छः बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने लेकिन एक बार भी लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री नही बननेका श्रेय नहीं ले पाये। कांग्रेस में उनका विकल्प नहीं था इसलिए वह छः बार मुख्यमंत्री बन गये। भाजपा में शान्ता कुमार दो बार मुख्यमंत्री बने लेकिन दोनों बार अपना कार्यकाल तक पूरा नहीं कर पाये। प्रो. प्रेम कुमार धूमल भी दो बार मुख्यमंत्री रहे लेकिन सत्ता में लगातार वापसी नहीं कर पाये। यही स्थिति जयराम ठाकुर की हुई। अब सुखविंदर सिंह के हाथ प्रदेश की बागडोर है और जिस तरह के संकेत संदेश उनके कार्य प्रणाली से उभर रहे हैं उसमें उनका भी अपवाद होना संभव नहीं लग रहा है। इस समय प्रदेश की वित्तीय स्थिति ऐसे नाजुक मोड़ पर पहुंच चुकी है कि आने वाले समय में कर्मचारी और पैन्शनरों को वेतन तथा पैन्शन का भुगतान भी नियमित रूप से हो पाना कठिन हो जाएगा।
प्रदेश इस हालात पर क्यों पहुंचा इसके लिए दोषी कौन है ? क्या इस स्थिति पर नियंत्रण पाया जा सकता है? यह कुछ ऐसे प्रश्न है जिन पर यदि समय रहते गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो परिणाम और भयानक हो जाएंगे। इस समय राज्य सरकार और केंद्र सरकार की योजनाओं को अलग-अलग समझने की आवश्यकता है। क्योंकि केंद्र ने शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज कल्याण और दूसरी जनकल्याण की योजनाओं पर प्रदेश को अपना हिस्सा देने के लिए कभी भी हाथ पीछे नहीं खींचा है चाहे सरकार किसी भी दल की रही हो। प्रदेश की सरकारों ने एक लम्बे अरसे कर मुक्त बजट देने की परम्परा चला रखी है। जबकि हकीकत में हर बजट से पहले और बाद में आवश्यक सेवाओं के दामों तथा अन्य में टैक्स भर बढ़ता ही रहा है। क्योंकि कर मुक्त बजट की वाहवाही लूटने के बाद राजस्व आय में वृद्धि कैसे संभव है। शिक्षा में ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड से सर्व शिक्षा अभियान तक की योजनाओं में इतने शैक्षणिक संस्थान खोल दिये गये कि आज उन विद्यालयों में शिक्षक उपलब्ध नहीं है तो कहीं कहीं पर बच्चे नहीं है। आज उनका समायोजन करना एक चुनौती बन गया है। स्वास्थ्य संस्थानों में डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ की कमी है। चार-चार पशु औषधालय एक डॉक्टर के हवाले हैं। कुल मिलाकर केंद्र की योजनाओं पर ऐसे संस्थान खोल दिये गये जिनको आज ऑपरेट कर पाना संभव नहीं रह गया है । प्रदेश में पांच मेडिकल कॉलेज खोले गये हैं लेकिन एक में भी पैट स्कैन की उपलब्धता नहीं है। ऐसे दर्जनों मामले उपलब्ध है जहां आवश्यक वंचित सुविधा ही उपलब्ध नहीं। यदि प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना और राष्ट्रीय नेशनल हाईवे योजनाओं को अलग कर दिया जाये तो प्रदेश के पास क्या बचता है।
दूसरी ओर यदि राज्य सरकार के बजट भाषणों का अवलोकन किया जाये तो हर बजट में ऐसी घोषणाएं मिल जाएगी जिस से यह एहसास होगा कि सरकार के पास कोई आर्थिक संकट है ही नहीं। योजनाकार यह नहीं समझना चाहते की कर्ज लेकर सुविधा बांटने से बड़ा कोई कैंसर नहीं है। महिलाओं को 1500 देना और बेटी की शादी पर 50000 का शगुन देना कर्ज लेकर देना कौन सी समझदारी है। एक को लाभ देने के लिए शेष बचे को कर्ज में डुबाना कोई समझदारी नहीं कही जा सकती। इस समय यदि निष्पक्षता से बात की जाये तो यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि कर्ज लेकर कमीशन लेने का जुगाड़ किया जा रहा है। क्योंकि जब यह आंकड़ा सामने आता है कि यह सरकार अब तक करीब 30000 करोड़ का कर्ज ले चुकी है और मंत्रियों के कार्यालय को कारपोरेट की शक्ल देने के लिए करोड़ों खर्च किए जा रहे हैं तो यही समझ आता है की कर्ज लेकर घी पीने की कहावत को यहां सरकार चरितार्थ कर रही है। लग्जरी गाड़ियों और शानदार सज्जा वाले जब कार्यालय बनाने का सपना हो तो उसमें आम आदमी कहीं नहीं होता। यही स्थिति भ्रष्टाचार को संरक्षण देने की बाध्यता खड़ी कर देती है। स्व.ठाकुर रामलाल ने जब सत्ता छोड़ी थी तब यह प्रदेश अस्सी करोड़ के सरप्लस में था। इस सरप्लस से कैसे कर्ज के चक्रव्यूह में तक पहुंच गए हैं। तब क्या-क्या हुआ है इसका खुलासा अगले अंकों में पढ़े।

सरकार और मीडिया के रिश्तों पर उठते सवाल

इस समय हिमाचल वित्तीय अस्थिरता के एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जिसका असर राजनीतिक स्थिरता पर भी पढ़ सकता है। अब तक के कार्यकाल में यह सरकार डेढ़ हजार करोड़ का ऋण प्रतिमाह ले चुकी है। वित्तीय कठिनाई की बात इस सरकार ने सत्ता संभालने के तुरन्त बाद ही प्रदेश की जनता के सामने भी रख दी थी। प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर यह सरकार श्वेत पत्र भी लायी है। इस श्वेत पत्र के माध्यम से वित्तीय संकट के लिए पूर्व सरकार को जिम्मेदार ठहराया गया। लेकिन कठिन वित्तीय स्थितियों के बीच जब इस सरकार ने पूर्व सरकार से हटकर छः मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां कर डाली। इसी के साथ सलाहकारों और विशेषाअधिकारियों की एक लम्बी लाइन खड़ी कर ली तो पहली बार सरकार की नियत और नीति पर शंकाएं ऊभरी। जब ऐसी नियुक्तियां कैबिनेट रैंक में होने लगी तो शंकाएं पख्ता होने लगी। विपक्ष ने आरटीआई के माध्यम से कर्ज के आंकड़े जुटाकर जनता के सामने रख दिये। सरकार का कौन सा खर्च वित्तीय समझ के दायरे से बाहर हो रहा है इसकी ठोस जानकारी सबसे पहले सचिवालय के गलियारों में चर्चा में आती है और उसके बाद मीडिया के माध्यम से जनता के पास पहुंचती है।
इस संद्धर्भ में इस सरकार का सबसे नाजुक सवाल चुनावों के दौरान जनता को बांटी गई गारन्टीयां हैं। इन गारन्टीयों को यथा घोषित रूप में पूरा कर पाना मौजूदा वित्तीय स्थिति में संभव ही नहीं है। इन मुद्दों पर शुरू में ही सवाल न उठ जाये इसके लिए व्यवस्था परिवर्तन का सूत्र लोगों को पिलाया गया। इसी सूत्र के प्रभाव तले लोकसभा चुनावों तक प्रशासन के हर स्तर पर तबादलों की संस्कृति पर अमल नहीं किया गया। जब प्रशासन को सरकार के भीतर का खोखलापन समझ आया तो। उसका परिणाम भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के रूप में सामने आया। वैसे भ्रष्टाचार को संरक्षण देने के मामले में पूर्व सरकार का आचरण भी इस सरकार से कतई भिन्न नहीं रहा है। कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों के दौरान पूर्व सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का एक आरोप पत्र सीधे जनता की अदालत में जारी किया था। वैसे पहले ऐसे आरोप पत्र हर विपक्ष सत्ता पक्ष के खिलाफ राजभवन को सौंपता रहा है। वैसे ऐसे आरोप पत्रों पर खुद सरकार में आकर कभी किसी ने कोई ठोस कारवाई नहीं की है। लेकिन जब कांग्रेस ने राज भवन का रूट न लेकर सीधे जनता का रूख किया था तब कुछ अलग उम्मीद बंधी थी जो सही साबित नहीं हुई। बल्कि इस सरकार ने इस संद्धर्भ में एक नई संस्कृति को जन्म दिया है।
इस सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार को लेकर जब पहला पत्र बम्ब वायरल हुआ था तब उस भ्रष्टाचार की कोई जांच करने के बजाये उस पत्र पर कुछ पत्रकारों के खिलाफ मामला बनाकर उस चर्चा को दबा दिया गया। उसी दौरान मुख्यमंत्री के स्वास्थ्य को लेकर चर्चाएं उठी और उस पर कांग्रेस के सचिव ने एसपी शिमला को पत्र लिखकर ऐसे लोगों के खिलाफ मामला दर्ज करने की मांग की थी। उसके बाद एक पत्रकार के खिलाफ मंत्रिमण्डल की बैठक की रिपोर्टिंग को लेकर एफआईआर दर्ज की गयी। अब शिमला और हमीरपुर के दो पत्रकारों के खिलाफ झूठी खबरें चलाने के लिये एफ.आई.आर. किये गये हैं। धर्मशाला में दो पत्रकारों को एक निजी स्कूल से उगाई करते हुए विजिलैन्स ने गिरफ्तार किया है। सरकार के मीडिया सलाहकार ने ब्यानजारी करके झूठी खबरें चलाने वालों के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज करने का ऐलान किया है। झूठी खबरें छापना चलाना अपराध है उगाही करना तो और भी बड़ा अपराध है। ऐसे कृत्यों की निंदा होनी चाहिए। ऐसी उगाई करने वालों को दण्ड मिलना चाहिए।
झूठी गलत खबरें छापने पर मानहानि का मामला दायर करने का प्रावधान है। ऐसी खबरों का खण्डन भी उसी प्रमुखता के साथ छापना/प्रसारित करना बाध्यता है। लेकिन बिना कोई खण्डन जारी किये या मानहानि का नोटिस दिये बिना सरकार द्वारा सीधे पुलिस कारवाई पर आना कहीं न कहीं कुछ अलग ही संकेत देता है। इस सरकार ने प्रदेश से छपने वाले साप्ताहिक समाचार पत्रों के विज्ञापन बन्द कर रखे हैं। जिन पत्रकारों के पास सरकारी आवास है उनका किराया पांच गुना बढ़ा दिया गया है। 65 वर्ष से अधिक की आयु वाले पत्रकारों से आवास खाली करवाने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। देशभर की राज्य सरकारें पत्रकारों को सुविधाएं देने की घोषणाएं कर रही है। लेकिन हिमाचल सरकार इस तरह के हथकण्डे अपना कर मीडिया को गोदी मीडिया बनाने के प्रयासों में लगी है। आज सरकार नहीं चाहती कि उससे कोई पत्रकार तीखे सवाल पूछे। प्रदेश में ईडी और आयकर की छापेमारी हो रही है और उसमें कुछ सरकारी विभागों की कारगुजारियां भी संदेह के घेरे में आयी हैं। सरकार नहीं चाहती कि इस पर उससे सवाल पूछा जाये। जब कोई सरकार मीडिया को दबाने के लिये इस हद तक उतर आये तो उसके परिणाम क्या निकलेंगे? आम आदमी के साथ मीडिया कितना खड़ा रह पायेगा? यह सवाल भविष्य के लिए भी महत्वपूर्ण है।
 
 

आउटसोर्स के माध्यम से शिक्षकों की भर्ती घातक होगी

हिमाचल सरकार छः हजार प्री प्राईमरी शिक्षक आउटसोर्स के माध्यम से भर्ती करने जा रही है। इसकी अधिसूचना जारी हो गयी है। इलेक्ट्रॉनिक कॉरपोरेशन को यह भर्तीयां करने का काम सौपा गया है। दो वर्ष का एन.टी.टी. डिप्लोमा धारक इन भर्तीयों के लिये पात्र होंगे। इन लोगों को दस हजार का मानदेय देना तय हुआ है। लेकिन इस मानदेय में से एजैन्सी चार्जेस जी.एस.टी. और ई.पी.एफ. की कटौती के बाद इन अध्यापकों को करीब सात हजार नकद प्रतिमाह मिलेंगे। प्रदेश के 6297 प्री प्राईमरी स्कूलों में करीब साठ हजार बच्चे पंजीकृत हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत प्रारम्भिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा की अवधारण लागू की गयी है। यह माना गया है कि बच्चों के मस्तिष्क का 85% विकास छः वर्ष की अवस्था से पूर्व ही हो जाता है। बच्चों के मस्तिष्क के उचित विकास और शारीरिक वृद्धि को सुनिश्चित करने के लिए उसके आरम्भिक छः वर्षों को महत्वपूर्ण माना जाता है। इस विकास के लिए एनसीईआरटी द्वारा आठ वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिए दो भागों में प्रारम्भिक बाल्यावस्था के शिक्षा के लिए 0-3 वर्ष और 3-8 वर्ष के लिए दो अलग-अलग सबफ्रेमवर्क विकसित किये गये हैं। नई शिक्षा नीति में यहां बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा एक मूल आधार है। इस आधार पर ही अगली ईमारत खड़ी होगी। नई शिक्षा नीति को लागू करने के लिए पिछले दो वर्षों से तैयारी की जा रही है लेकिन इस तैयारी के बाद जो सामने आया है वह यह है कि इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को निभाने के लिए आउटसोर्स के माध्यम से प्री प्राईमरी शिक्षक नियुक्त किये जा रहे हैं जिनकी पगार एक मनरेगा मजदूर से भी कम होगी। आउटसोर्स के माध्यम से रखे जा रहे इन शिक्षकों को कभी भी सरकारी कर्मचारी का दर्जा नहीं मिल पायेगा। इस समय सरकार के विभिन्न विभागों में करीब 45000 कर्मचारी आउटसोर्स के माध्यम से नियुक्त हैं जो अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं है।
जब एक सरकार शिक्षा जैसे क्षेत्र में आउटसोर्स के माध्यम से शिक्षकों की भर्ती करने पर आ जाये तो उसकी भविष्य के प्रति संवेदनशीलता का पता चल जाता है। निश्चित है कि आउटसोर्स के माध्यम से नियुक्त किये जा रहे इन प्री प्राईमरी शिक्षकों का अपना ही भविष्य सुरक्षित और सुनिश्चित नहीं होगा तो वह उन बच्चों के साथ कितना न्याय कर पायेंगे।
जिनकी जिम्मेदारी उन्हें सौंपी जायेगी। यह प्री प्राईमरी शिक्षक अवधारणा नयी शिक्षा नीति का बुनियादी आधार है और इस आधार के प्रति ही इस तरह की धारणा होना कितना हितकर होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सरकार एक ओर अटल आदर्श विद्यालय और राजीव गांधी र्डे-बोर्डिंग स्कूल हर विधानसभा क्षेत्र में खोलने की घोषणा कर रही है। स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षण की योजनाएं जनता में परोस रही है। जबकि दूसरी ओर आज भी स्कूलों में शिक्षकों के सैकड़ो पद खाली चल रहे हैं। दर्जनों स्कूलों का बोर्ड परीक्षाओं का परिणाम शून्य रहा है। इसके लिये अध्यापकों के खिलाफ सख्ती बरतने का फैसला लिया जा रहा है। लेकिन इसका कोई लक्ष्य नहीं रखा गया है कि कब तक शिक्षकों के खाली पद भर दिये जायेंगे।
इस समय प्रदेश में पांच इंजीनियरिंग कॉलेज कार्यरत है इसमें प्लस टू के बाद जेईई परीक्षा के बाद दाखिला लेते हैं। लेकिन इन सभी कॉलेजों में सभी विषयों के शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं। इन संस्थानों में शिक्षकों के खाली पद कब भरे जायेंगे इस ओर भी सरकार की कोई गंभीरता सामने नहीं आयी है। इस तरह शिक्षा के हर स्तर पर सरकार के पास कोई ठोस कार्य योजना नहीं है। इससे यही स्पष्ट होता है कि शिक्षा के क्षेत्र के प्रति सरकार की गंभीरता केवल भाषणों तक ही सीमित है। व्यवहार में शिक्षा सरकार के प्राइमरी ऐजेण्डा के बाहर है। शिक्षा जैसे क्षेत्र में आउटसोर्स के माध्यम से शिक्षकों की भर्ती होना अपने में ही हास्यपद लगता है। इस तरह के प्रयोगों से नयी शिक्षा नीति कितनी सफल हो पायेगी इसका अनुमान लगाया जा सकता है।

Facebook



  Search