इस समय देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमें यह सवाल हर रोज बड़ा होता जा रहा है की आंखिर ऐसा हो क्यों रहा है? यह सब कब तक चलता रहेगा? इससे बाहर निकलने का पहला कदम क्या हो सकता है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद का चयन लोगों के वोट से होता है। इसके लिए हर पांच वर्ष बाद पंचायत से लेकर संसद तक सभी चुनाव की प्रक्रिया से गुजरते हैं। सांसदों से लेकर पंचायत प्रतिनिधियों तक सब को मानदेय दिया जा रहा है। हर सरकार के कार्यकाल में इस मानदेय में बढ़ौतरी हो रही है। लेकिन क्या जिस अनुपात में यह बढ़ौतरी होती है उसी अनुपात में आम आदमी के संसाधन भी बढ़ते हैं शायद नहीं। इन लोक सेवकों का यह मानदेय हर बार इसलिये बढ़ाया जाता है कि जिस चुनावी प्रक्रिया को पार करके यह लोग लोकसेवा तक पहुंचते हैं वह लगातार महंगी होती जा रही है। क्योंकि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों पर किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा ही तय नहीं है। आज जब चुनावी चंदे के लिये चुनावी बॉण्डस का प्रावधान कर दिया गया है तब से सारी चुनावी प्रक्रिया कुछ लखपतियों के हाथ का खिलौना बन कर रह गयी है। इसी कारण से आज हर राजनीतिक दल से चुनावी टिकट पाने के लिये करोड़पति होना और साथ में कुछ आपराधिक मामलों का तगमा होना आवश्यक हो गया है। इसलिये तो चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन अभी तक भी अपराध की श्रेणी में नहीं रखा गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह दावा भी जुमला बनकर रह गया है कि संसद और विधानसभाओं को अपराधियों से मुक्त करवाउंगा।
पिछले लंबे अरसे से हर चुनाव में ईवीएम को लेकर सवाल उठते आ रहे हैं। इन सवालों ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता को शुन्य बनाकर रख दिया है। ईवीएम की निष्पक्षता पर सबसे पहले भाजपा नेता डॉ. स्वामी ने एक याचिका के माध्यम से सवाल उठाये थे और तब वीवीपैट इसके साथ जोड़ी गयी थी। इस तरह चुनावी प्रक्रिया से लेकर ईवीएम तक सब की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठ चुके हैं। जिन देशों ने ईवीएम के माध्यम से चुनाव करवाने की पहल की थी वह सब इस पर उठते सवालों के चलते इसे बंद कर चुके हैं। इस परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि चुनाव प्रक्रिया पर आम आदमी का विश्वास बहाल करने के लिए ईवीएम का उपयोग बंद करके बैलट पेपर के माध्यम से ही चुनाव करवाने पर आना होगा। फिर विश्व भर में अधिकांश में ईवीएम की जगह मत पत्रों के माध्यम से चुनाव की व्यवस्था कर दी गयी है। इसलिए आज देश की जनता को सरकार, चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों पर यह दबाव बनाना चाहिये कि चुनाव मतपत्रों से करवाने पर सहमति बनायें। इससे चुनाव की विश्वसनीयता बहाल करने में मदद मिलेगी। इसी के साथ चुनाव को धन से मुक्त करने के लिये प्रचार के वर्तमान माध्यम को खत्म करके ग्राम सभाओं के माध्यम से मतदाताओं तक जाने की व्यवस्था की जानी चाहिये। सरकारों को अंतिम छः माह में कोई भी राजनीतिक और आर्थिक फैसले लेने का अधिकार नहीं होना चाहिये। इस काल में सरकार को अपनी कारगुजारीयों पर एक श्वेत पत्र जारी करके उसे ग्राम सभाओं के माध्यम से बहस में लाना चाहिये। ग्राम सभाओं का आयोजन राजनीतिक दलों की जगह प्रशासन द्वारा किया जाना चाहिये।
जहां सरकार के कामकाज पर श्वेत पत्र पर बहस हो। उसी तर्ज पर अगले चुनाव के लिये हर दल से उसका एजेण्डा लेकर उस पर इन्हीं ग्राम सभाओं में चर्चाएं करवायी जानी चाहिये। हर दल और चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति के लिये यह अनिवार्य होना चाहिये कि वह देश-प्रदेश की आर्थिक स्थिति पर एजेंडे में वक्तव्य जारी करें। उसमें यह बताये कि वह अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए देश-प्रदेश पर न तो कर्ज का भार और न ही नये करों का बोझ डालेगा। मतदाता को चयन तो राजनीतिक दल या व्यक्ति की विचारधारा का करना है। विचारधारा को हर मतदाता तक पहुंचाने का इससे सरल और सहज साधन नहीं हो सकता। इस सुझाव पर बेबाक गंभीरता से विचार करने और इसे ज्यादा से ज्यादा पाठकों तक बढ़ाने-पहुंचाने का आग्रह रहेगा। यह एक प्रयास है ताकि आने वाली पीढ़ियां यह आरोप न लगायें कि हमने सोचने का जोखिम नही उठाया था।
हिमाचल निर्माता डॉ. परमार ने भू-सुधार अधिनियम में यह सुनिश्चित किया था कि कोई भी गैर कृषक हिमाचल में सरकार की पूर्व अनुमति के बिना जमीन नहीं खरीद सकता। सरकार की अनुमति के साथ भी केवल मकान बनाने लायक ही जमीन खरीद सकता है। परन्तु हमारी सरकारों ने सबसे ज्यादा लूट और छूट इसी 118 की अनुमति में कर दी। हर सरकार पर हिमाचल ऑन सेल के आरोप लगे हैं। धारा 118 की अनुमतियों को लेकर चार बार तो जांच आयोग गठित हो चुके हैं परन्तु किसी भी जांच का परिणाम ऐसा नहीं रहा है कि यह दुरुपयोग रुक गया हो। आज चलते-चलते हालात प्रदेश में रेरा के गठन तक पहुंच गये हैं। इस धांधली में राजनेताओं से लेकर शीर्ष अफसरशाही सब बराबर के भागीदार रहे हैं। हिमाचल भूकंप रोधी जोन चार में आता है इसलिये यहां पर बहुमंजिलें निर्माणों पर रोक है। प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर एनजीटी तक सब इस पर चिंताएं व्यक्त कर चुके हैं। लेकिन इस चिंता का परिणाम जमीन पर नहीं उत्तर पाया है। शिमला को लेकर तो यहां तक अध्ययन आ चुका है कि एक हल्के भूकंप के झटके में चालीस हजार लोगों की जान जा सकती है। प्रदेश उच्च न्यायालय इसको लेकर कड़ी चेतावनी दे चुका है। लेकिन इस चेतावनी के बावजूद शिमला में नौ बार रिटैन्शन पॉलिसीयां आ गयी। शिमला हरित पट्टिया चिन्हित है परन्तु उनकी अनदेखी शीर्ष पर बैठे लोगों से शुरू हुई है। आज भी वर्तमान सरकार ने बेसमैन्ट और ऐटीक को लेकर जो नियमों में बदलाव किया है क्या उसमें कहीं इस त्रासदी का कोई प्रभाव दिखता है? शायद नहीं।
1977 में प्रदेश में औद्योगिक क्षेत्र और पन विद्युत परियोजनाओं तथा सीमेंट उद्योग की तरफ सरकारों की सोच गई। 1977 के दौर में जो उद्योग सब्सिडी के लिए प्रदेश में स्थापित हुये क्या उनमें से आज एक प्रतिशत भी दिखते हैं। शायद नहीं। पनविद्युत परियोजनाओं सीमेंट उद्योगों के लिए सैकड़ो बीघा जमीने लैण्ड सीलिंग की अवहेलना करके इन उद्योगों को दे दी गयी। चंबा 65 किलोमीटर तक रावी हैडटेल परियोजनाओं की भेंट चढ़ गयी। उच्च न्यायालय में यह रिपोर्ट लगी हुई है। किन्नौर में स्थानीय लोगों ने इन परियोजनाओं का विरोध किया है क्या उसका कोई असर हुआ है। इन परियोजनाओं से जो बचा था उसे फोरलेन परियोजनाओं की भेंट चढ़ा दिया। आज यदि समय रहते प्रदेश के विकास की अवधारणा पर ईमानदारी से विचार करके उसके अनुरूप कदम न उठाए गए तो सर्वाेच्च न्यायालय की चेतावनी को सही साबित होने में बड़ा समय नहीं लगेगा। शिमला और धर्मशाला में जो नुकसान हुआ है क्या उससे स्मार्ट सिटी परियोजनाओं पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता नहीं है?
उप-राष्ट्रपति का पद खाली होने के बाद इसी संसद सत्र में इस पर चुनाव करवाया जायेगा। चुनाव आयोग इस प्रक्रिया में लग गया है। चुनाव आयोग हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभाओं के चुनावों में जिस कदर विवादित हो चुका है और बिहार विधान सभा चुनावों की तैयारीयों में जिस तरह से मतदाता सूचियों के विशेष संघन निरीक्षण SIR पर विपक्ष सवाल उठाता जा रहा है और सत्ता पक्ष तथा चुनाव आयोग अपने को सर्वाेच्च न्यायालय से भी बड़ा मानकर चल रहा है वह सही में लोकतंत्र के लिये एक बड़ी चुनौती होगी। चुनाव आयोग और सरकार के रुख को उपराष्ट्रपति पद के साथ हुए आचरण के साथ यदि जोड़कर देखा जाये तो तस्वीर बहुत भयानक हो जाती है। संवैधानिक पदों पर बैठे हुए व्यक्तियों को यह सोच कर चलना होगा कि यदि उनका आचरण पद की मर्यादा के अनुसार नहीं होगा तो जनता को स्वयं सड़कों पर उतरना होगा। हम बच्चों को राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति के पदों के अधिकार और कर्तव्य पढ़ाते हैं। क्या किसी व्यवस्था में यदि इन पदों की जलालत पढा़नी पड़े तो क्या पढ़ाएंगे। इन पदों पर बैठे हुए लोगों को भी अपनी गरिमा और मर्यादा की स्वयं रक्षा करनी होगी।
इस समय केन्द्र सरकार अकेली भाजपा की नहीं है उसके सहयोगी दल भी हैं। सहयोगी दलों में अपने-अपने वर्चस्व के सवाल उठने लग पड़े हैं। ऐसे में जिस तरह का आचरण जगदीप धनखड़ के साथ सामने आया है वह एन.डी.ए. के घटक दलों के लिये भी एक बड़ी चेतावनी प्रमाणित होगी। यदि बिहार विधानसभा चुनावों में किन्हीं कारणों से एन.डी.ए. की सरकार नहीं बन पाती है तो उसके बाद एन.डी.ए. का बिखरना शुरू हो जायेगा क्योंकि सब धनखड़ के साथ हुए व्यवहार को सामने रखेंगे।