Monday, 15 December 2025
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बिहार चुनाव के साये में उठतेे राष्ट्रीय सवाल

बिहार चुनाव जिस राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य में हो रहे हैं उससे पूरे देश की निगाहें इस पर लग गयी हैं। इन चुनावों में एनडीए या इंडिया गठबंधन को सफलता मिलती है इससे ज्यादा महत्वपूर्ण इस चुनाव के दौरान उभरे प्रश्न हो गये हैं जिन पर एक सार्वजनिक बहस आवश्यक हो गयी है। बिहार में चुनाव से पूर्व मतदाता सूचियां का गहन सर्वेक्षण करवाया गया था। इन गहन सर्वेक्षण में करोड़ों मतदाताओं का नाम मतदाता सूचीयों से काट दिये जाने का सच सामने आया। चुनाव आयोग ने आधार कार्ड को बड़ा प्रमाण मानने से इन्कार कर दिया और मामला सर्वाेच्च न्यायालय में पंहुचा। शीर्ष अदालत ने आधार कार्ड को एक वैध प्रमाण माना और चुनाव आयोग को निर्देश दिये कि इसे पहचान और मतदाता पंजीकरण में वैध आधार स्वीकार किया जाये। आज आधार कार्ड एक बुनियादी पहचान पत्र बन चुका है। परन्तु चुनाव आयोग ने इसे वैध प्रमाण मानने से क्यों इन्कार किया इसका जवाब आज तक नहीं आ पाया है। बिहार एसआईआर का मामला अभी तक सर्वाेच्च न्यायालय में लंबित है और फिर भी बिहार में चुनाव करवा दिये गये। क्या ऐसे में यह चुनाव करवाना चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल नहीं खड़े करता। क्योंकि इस मामले में शीर्ष अदालत में लंबित होने के बावजूद पूरे देश में एसआईआर लागू कर दिया गया। चुनाव आयोग के इस फैसले का बंगाल और तमिलनाडु में उग्र विरोध हुआ है। चार दर्जन राजनीतिक दल इसके खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय जा रहे हैं।
चुनाव आयोग पर वोट चोरी के जो आरोप पूरे प्रमाणिक दस्तावेजों के साथ राहुल गांधी ने लगाये हैं उन पर आयोग की ओर से कोई संतोषजनक उत्तर नहीं आ पाया है। कर्नाटक में इस वोट चोरी पर मामला दर्ज कर एसआईटी को इसकी जांच सौंप दी गयी है। एसआईटी ने अब तक अपनी जांच में जो तथ्य जुटाये हैं उनसे भाजपा के कुछ नेताओं पर आंच आने की संभावना बढ़ गयी है और वह लोग अग्रिम जमानते हासिल करने के प्रयास में लग गये हैं। वोट चोरी के आरोप एक राष्ट्रीय अभियान की शक्ल लेते जा रहे हैं। क्योंकि केंद्र सरकार और भाजपा आयोग के पक्ष में खड़े हो गये हैं इससे अनचाहे ही संदेश चला गया है की चुनाव आयोग की पक्षधरता का लाभ भाजपा को मिल रहा है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर उठते सवाल देश में लोकतंत्र के भविष्य के सवाल बनते जा रहे हैं।
चुनावों में मुफ्ती की घोषणाओं के खिलाफ सर्वाेच्च न्यायालय तक ने भी चिंता जताई है। प्रधानमंत्री मोदी स्वयं इसके खिलाफ एक समय आवाज उठा चुके हैं। लेकिन बिहार चुनावों की पूर्व संध्या पर जब प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं बिहार की 75 लाख महिलाओं के खातों में दस-दस हजार डालने की घोषणा कर दी तब मफ्ती को लेकर प्रधानमंत्री की करनी और कथनी का अन्तर सामने आ गया। लेकिन यह पैसा चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद खातों में डाला जाने लगा। इस पर राजद के मनोज झा ने चुनाव आयोग को एक लम्बी चौड़ी शिकायत भेज दी। इस शिकायत पर आयोग खामोश बैठ गया है। यही नहीं इस फैसले के बाद विदेशी मुद्रा भण्डार में आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक साठ हजार करोड़ की कमी आ गयी। डॉलर के मुकाबले रुपया और गिर गया। आरबीआई को बाजार स्थिर रखने के लिये पैंतीस टन सोना बेचना पड़ गया। सोने की इस बिक्री ने सरकार की आर्थिक स्थिति के दावों को सवालों में लाकर खड़ा कर दिया है। इसका देश पर दीर्घकालिक प्रभाव पडना आवश्यक है। संयोगवश यह सब कुछ बिहार चुनावों के दौरान घटा है इसका मतदाताओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। इस परिदृश्य में हो रहे बिहार चुनाव निश्चित रूप से ऐसे सवाल छोड़ रहे हैं जिन्हें नजरअन्दाज करना आसान नहीं होगा।

इस बढ़ते कर्ज का अन्तिम परिणाम क्या होगा?

सुक्खू सरकार ने अभी दो सौ करोड़ का कर्ज लिया है। यह कर्ज लेने के बाद अगले दो माह में यह सरकार तीन सौ करोड़ का कर्ज और ले पायेगी। यह कर्ज लेने के बाद प्रदेश का कर्जभार एक लाख करोड़ का आंकड़ा पार कर जायेगा। अभी जो कर्ज लिया गया है इसकी भरपायी अक्तूबर 31 से शुरू होगी। अभी जो कर्ज लिया गया है उसी के साथ यह भी सामने आया है कि इस सरकार ने पिछले वर्ष 2024-25 में करीब 29000 करोड़ का कर्ज लिया था जिसमें से विकास कार्यों पर केवल 8693 करोड़ ही खर्च हुआ और 20000 करोड़ पिछला कर्ज चुकाने में ही खर्च हो गया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आने वाले समय में कर्ज की किस्त और ब्याज चुकाने के लिये भी कर्ज ही लेना पड़ेगा। हिमाचल जैसे राज्य पर इतना कर्जभार निश्चित रूप से चिन्ता का विषय है। क्योंकि जिस अनुपात में यह कर्ज बढ़ रहा है उसी अनुपात में सरकार में स्थाई रोजगार कम होता जा रहा है। जबकि हिमाचल में सरकार ही सबसे बड़ी रोजगार प्रदाता है। इस बढ़ते कर्जभार के कारण सरकार आउटसोर्स, मल्टी टास्क वर्कर और वन मित्र तथा पशु मित्र जैसी रोजगार व्यवस्थाएं करने पर आ गयी है जहां दस हजार से भी कम पगार मिलेगी। इससे अन्ततः युवाओं में हताशा और रोष का वातावरण निर्मित होगा। 2009-10 में सरकार आउटसोर्स योजना लेकर आयी है। उस समय प्रदेश में 1,89,065 स्थायी, 13050 अंशकालिक, 2167 वर्कचार्ज और 11908 दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी थे। आज यह संख्या नियमित 1,85,698 स्थायी, 5726 अंशकालिक, वर्क चार्ज शून्य और दैनिक वेतन भोगी 4593 रह गये हैं। 31 मार्च 2010 को सरकार का कर्जभार सीएजी के मुताबिक 15830 करोड़ था जो अब एक लाख करोड़ हो रहा है। आज आउटसोर्स कर्मचारियों की संख्या 45000 के पास पहुंच चुकी है। इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है की कर्ज और कर्मचारियों के इसी अनुपात से आगे चलकर सरकार में स्थायी रोजगार की स्थिति क्या हो जायेगी।
इसी में एक महत्वपूर्ण पक्ष यह सामने आया है कि सरकार ने 2024-25 में 29046 करोड़ का कर्ज लिया। 2024-25 के बजट का कुल आकार 58443.61 करोड़ था। 2024-25 में राजकोषीय घाटा 10783.87 करोड़ था। बजट के इन आंकड़ों के अनुसार इस बजट को पूरा करने के लिये 10783.87 करोड़ का ही कर्ज लिया जाना चाहिये था जबकि सरकार ने 29046 करोड़ का कर्ज ले लिया। यह ज्यादा कर्ज क्यों लेना पड़ा? क्या विधानसभा पटल पर रखे बजट आंकड़े सही नहीं थे? क्या राज्य की समेकित निधि से अधिक खर्च करना पड़ा है? इन सवालों पर सरकार खामोश है। लेकिन इन आंकड़ों से बजट की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिन्ह आ जाता है। यहां यह सवाल स्वभाविक रूप से बड़ा हो जाता है कि जब 31 मार्च 2010 को सरकार का कुल कर्जभार 15830 करोड़ था वह आज एक लाख करोड़ तक कैसे पहुंच गया? जबकि कुल कर्मचारियों की संख्या आज उससे कम है? इस कर्ज का निवेश कहां पर हुआ है और उससे प्रदेश के राजस्व में कितनी वृद्धि हुई है? क्योंकि आज इस सरकार ने तो कार्यभार संभालते ही यह चेतावनी दे दी थी कि प्रदेश के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। इतने कर्ज के बाद भी सरकार की कर्मचारियों के प्रति देनदारियां यथास्थिती बनी हुई है। यहां तक पैन्शन और मेडिकल के बिलों के लिये कर्मचारियों को आये दिन सड़कों पर आना पड़ रहा है।
इस बढ़ते कर्जभार के कारण सरकार को अपने प्रतिबद्ध खर्चाे पर कटौती करनी पड़ेगी और उस कटौती का पहला शिकार सरकार में स्थायी रोजगार की उपलब्धता होगी? आज सरकार ने राजस्व जुटाने के लिये हर वर्ग और सेवा को निशाना बना रखा है। प्रक्रियाओं को सरलीकरण के नाम पर लगातार उलझाया जा रहा है। सरकारी राशन की दुकानों पर पूरा राशन नहीं मिल रहा है और इस राशन की कीमतों में पिछले तीन वर्षों में दो गुणे से भी ज्यादा वृद्धि हुई है। आपदा में राहत का बंटवारा सरकार की घोषणाओं से निकलकर अमली शक्ल लेने तक नहीं पहुंच पाया है। यहां तक की भारत सरकार से जो आपदा राहत प्रदेश सरकार को मिल चुकी है वह भी यह तंत्र आम प्रभावित तक नहीं पहुंचा पाया है। कुल मिलाकर सरकार की नीयत और नीति दोनों पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। यह स्थिति सरकार की सेहत के लिये खतरे का संकेत होती जा रही है।

क्या बिहार चुनाव देश के भविष्य की दशा तय करेंगे?

बिहार विधानसभा चुनावों का देश की राजनीति पर दुरगामी प्रभाव पड़ेगा यह निश्चित है। बल्कि इन चुनावों सेे देश का राजनीतिक चरित्र ही बदल जायेगा यह कहना ज्यादा सही होगा। क्योंकि इन चुनावों से पूर्व देश के चुनाव आयोग की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर बहुत ही गंभीर आरोप लग चुके हैं। इन आरोपों का व्यवहारिक प्रभाव केंद्र सरकार और शीर्ष न्यायपालिका पर भी देखने को मिल गया है। केंद्र सरकार चुनाव आयोग के साथ खड़ी हो गयी है और शीर्ष अदालत ने उस याचिका को अस्वीकार कर दिया है जिसमें इन आरोपों की जांच के लिये एक एसआईटी गठित करने की मांग की गयी थी। जब चुनाव आयोग शीर्ष अदालत और केंद्र सरकार सब एक साथ विश्वसनीयता के संकट में आ जाये तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस सब का अंतिम परिणाम क्या होगा। बिहार में हुये एस आई आर पर ही इन चुनावों से पूर्व शीर्ष अदालत कोई अंतिम फैसला नहीं दे पायी है इसको आम आदमी कैसे देखेगा यहां अंदाजा लगाया जा सकता है। बिहार चुनावों की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री ने बिहार की 75 लाख महिलाओं के खातों में दस-दस हजार ट्रांसफर करने का फैसला लिया है। इससे प्रधानमंत्री का ‘चुनावी रेवड़ी’ संस्कृति पर भी व्यवहारिक पक्ष सामने आ जाता है। पिछले लोकसभा चुनावों से पूर्व राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का परिणाम था कि भाजपा अपने दम पर केंद्र में सरकार नहीं बना पायी उसे नीतीश और नायडू का सहयोग लेना पड़ा है। लोकसभा चुनावों के बाद हुये हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों ने चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली को लेकर इतना कुछ देश के सामने लाकर खड़ा कर दिया कि इसके कारण राहुल गांधी को चुनाव आयोग पर हमला बोलने के लिये पर्याप्त सामग्री मिल गयी। राहुल गांधी के चुनाव आयोग के खिलाफ जिस तरह के प्रमाणिक साक्ष्य जुटाकर पत्रकार वार्ताओं के माध्यम से हमला बोला है उससे पूरे प्रदेश में ‘वोट चोर गद्दी छोड़’ अभियान चल निकला है। पिछले ग्यारह वर्षों में केंद्र सरकार ने जो कुछ किया है उस पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। सारे चुनावी वायदे आज सवालों के घेरे में आ खड़े हुये हैं। बेरोजगारी और महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड ़दी है। अभी सरकार ने जीएसटी संशोधन से जो राहत आम आदमी को पहुंचाने का फैसला लिया है उसका आम आदमी को कोई लाभ नहीं मिला। क्योंकि बाजार में वस्तुओं के दाम व्यवहारिक रूप से कम नहीं हो पाये हैं। इस पृष्ठभूमि में हो रहे बिहार विधानसभा चुनाव हर राजनीतिक दल, नेता और आम आदमी सबकी व्यक्तिगत परीक्षा होगी यह तय है। बिहार में कुल 7.4 करोड़ मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। इनमें से 1.63 करोड़ मतदाता वह हैं जो बीस से अठाईस वर्ष के हैं और चौदह लाख वह हैं जो पहली बार वोट डालेंगे। यह वह लोग हैं जो बेरोजगारी से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। जिनके लिये अब तक चुनावी वायदे आज सत्ता से सवाल बन गये हैं। बिहार में राहुल गांधी की वोट अधिकार यात्रा में यह लोग ही सबसे बड़े भागीदार थे। इनका भविष्य ही सबसे ज्यादा दाव पर लगा है। इसी युवा ने नेपाल और बांग्लादेश में सत्ता के खिलाफ सफल लड़ाई लड़ी है। इसलिये आज बिहार चुनाव में आम आदमी के सामने सारे राष्ट्रीय प्रश्न खुलकर खड़े हैं। इन चुनावों के परिणाम देश की राजनीतिक स्थिति को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा करने वाले हैं जिसका परिणाम दूरगामी होगा।

इस अराजकता का अन्तिम परिणाम क्या होगा?

चुनाव आयोग की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर जिस तरह के प्रमाणिक आरोप राहुल गांधी अपनी पत्रकार वार्ताओं पर लगाते जा रहे हैं और इन आरोपों की विधिवत जांच करवाये जाने की बजाये जिस तरह का रुख चुनाव आयोग और केन्द्र सरकार इस मुद्दे पर अपनाती जा रही है वह अब चिंताजनक होता जा रहा है। क्योंकि चुनाव आयोग के रुख के बाद जब यह मुद्दा सर्वाेच्च न्यायालय में इस मांग के साथ पहुंचा कि राहुल गांधी के आरोपों की जांच के लिये एक एसआईटी गठित की जाये और शीर्ष अदालत ने इस मांग को अस्वीकारते हुये इसे आयोग के समक्ष ही उठाने का निर्देश दिया तब केन्द्र सरकार चुनाव आयोग और सर्वाेच्च न्यायालय सब एक साथ सवालों के दायरे में आ जाते हैं। क्योंकि देश में लोकतांत्रिक सरकार के गठन की जिम्मेदारी निष्पक्ष चुनाव के माध्यम से चुनाव आयोग को सौंपी गयी है। चुनाव आयोग का गठन एक स्वतंत्र और स्वायत्त संस्था के रूप में संविधान के प्रावधानों के तहत किया गया है। चुनाव के दौरान सारा प्रशासनिक तंत्र चुनाव आयोग को जवाब देह होता है। सरकार चुनाव आयोग को हर तरह से सहयोग करने के लिये बाध्य होती है। ऐसी संवैधानिक व्यवस्था के होते हुये भी यदि चुनाव आयोग पर वोट चोरी के आरोप लग जायें और सर्वाेच्च न्यायालय भी इसकी निष्पक्ष जांच करवाये जाने से पीछे हट जाये तो यह स्वीकारना ही होगा कि देश किसी अप्रत्याशित की ओर बढ़ता जा रहा है। वोट चोरी के आरोप जिस तरह के दस्तावेजी प्रमाणों के साथ लगाये जा रहे हैं उन पर देश का बहुसंख्यक वर्ग विश्वास करता जा रहा है। क्योंकि केन्द्र सरकार इस मुद्दे पर जिस तरह से पीछे हट गयी है उससे यह स्पष्ट संदेश गया है कि यह वोट चोरी सत्तारूढ़ सरकार के लिये ही की जा रही है। इसका सबसे निराशाजनक पक्ष तो यह है कि शीर्ष अदालत भी अपरोक्ष में संविधान की रक्षक होने की बजाये सरकार की रक्षक होती जा रही है। ऐसे में जब केन्द्र सरकार चुनाव आयोग और देश का सर्वाेच्च न्यायालय भी एक ही स्वर में गायन करना शुरू कर दे तो आम आदमी कहां और किसके पास जाये यह बड़ा सवाल हो जाता है। आज जो स्थितियां निर्मित होती जा रही हैं उनमें अनायास ही आम आदमी पिछले ग्यारह वर्षों में जो कुछ घटा है उस पर नजर दौड़ना शुरू कर देता है। आम आदमी के सामने जब यह आता है कि जिस भी दल के किसी भी नेता पर अपराध और भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उसने अपने दल को छोड़कर भाजपा में शरण ले ली तो उसके खिलाफ सारी जांच बन्द हो गयी। आज भाजपा में दूसरे दलों से आये नेताओं की संख्या मूल भाजपाइयों से ज्यादा बढ़ गयी है। आज भाजपा का राजनीतिक चरित्र सत्ता में बने रहने के लिये कुछ भी करने वालों की श्रेणी में आ गया है। भाजपा के इस सता मोह ने भाजपा को अपने ही आकलन में बहुत नीचे ला खड़ा कर दिया है। जिस पच्चहतर वर्ष की आयु सीमा के स्वघोषित सिद्धांत से लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा आदि को मार्गदर्शक मण्डल में भेज दिया गया था वह नियम आज अपने लिये अप्रसांगिक हो गया है। जिस तरह की परिस्थितियों निर्मित होती जा रही है उससे हर चुनाव में किया गया वायदा अब जवाब मांगने लग गया है। हर एक के खाते में पन्द्रह लाख आने, हर साल दो करोड़ नौकरियां उपलब्ध करवाने का वायदा हर जुबान पर आ गया है। महंगाई पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ गयी है। रुपया डॉलर के मुकाबले सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है। जो लोग बैंकों का हजारों करोड़ लेकर विदेश भाग गये थे उनमें से एक भी आज तक वापस नहीं आया है। किसानों की आय दोगुनी नहीं हो पायी है। सबका साथ सबका विश्वास और सबका विकास के नाम पर देश की दूसरी बड़ी जनसंख्या मुस्लमानों में से भाजपा के कितने सांसद और विधायक हैं? क्या इसका जवाब आ पायेगा। कोविड काल में जो संविधान डॉ.भागवत के नाम से वायरल हुआ था उसमें महिलाओं और अनुसूचित जातियों के लोगों को किस तरह के अधिकार दिये गये थे उसकी झलक देश के मुख्य न्यायाधीश पर भरी अदालत में जूता उछाले जाने से सामने आ चुकी है। आज पूरा दलित समाज इस पर चर्चाओं में जुट गया है। यह जूता कांड देश के दूसरे भागों में भी फैलने लग गया है। क्योंकि इसकी निंदा करने की बजाये जिस तरह से इसे जायज ठहराया जा रहा है वह अपने में चिंता जनक है। कुल मिलाकर देश में बड़े स्तर पर अराजकता का वातावरण पैदा किया जा रहा है जिसके परिणाम घातक होंगे। वोट चोरी के आरोपों की जांच निश्चित रूप से होनी चाहिये। इस जांच से बचने का जितना प्रयास किया जायेगा वह घातक होगा। इससे अराजकता ही फैलेगी।

29-6 Oct 2025 Shail

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