Monday, 15 December 2025
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भाजपा के राजनीतिक चरित्र पर उठते सवाल


जब सत्तारूढ़ सरकारें जनता का विश्वास खो देती हैं तब ऐसी स्थिति एक जनान्दोलन की शक्ल ले लेती है। किसी भी सरकार को परखने समझने के लिये दस वर्ष का समय बहुत होता है। क्योंकि इतने समय में उसकी वैचारिक समझ के बारे में पूरा खुलासा सामने आ जाता है। सरकार की वैचारिक समझ और नीयत पर जब कोई बुनियादी सवाल खड़े कर देता है और उन सवालों पर जब सरकारों की प्रतिक्रियाएं वैचारिक न रहकर केवल सतही हो जाती है तब अविश्वास और गहरा जाता है। आज देश में केन्द्र से लेकर राज्यों तक सभी सरकारें इस अविश्वास में घिर चुकी हैं। विपक्षी दलों की राज्य सरकारें केन्द्र पर उनके साथ असहयोगी भेदभाव बरतने का आरोप लगा रही हैं। केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा का तीसरा कार्यकाल चल रहा है और अधिकांश राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हैं इसलिये भाजपा के राजनीतिक चरित्र पर चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। भाजपा संघ परिवार की एक राजनीतिक इकाई है जो जनसंघ से जनता पार्टी में विलय के बाद 1980 में पैदा हुई। वैसे संघ परिवार के 1948 और 1949 में गठित हुए विद्यार्थी परिषद और हिन्दुस्तान समाचार एजैन्सी शायद सबसे पुराने अनुसांगिक संगठन हैं। केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार जनसंघ घटक के सदस्यों की आरएसएस के साथ भी सक्रियता रखने के कारण दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर टूटी थी। उसके बाद 1990 में वीपी सिंह सरकार में भाजपा भागीदार थी। लेकिन मण्डल आयोग की सिफारिशें केन्द्र द्वारा लागू करने के मुद्दे पर भाजपा की वीपी सिंह सरकार के विरोध में खड़ी हो गयी। मण्डल के विरोध में कमण्डल खड़ा हो गया। मण्डल आयोग के कारण अन्य पिछड़ा वर्ग को मिले 27% आरक्षण का विरोध कमण्डल आन्दोलन ने किया। अन्य पिछड़ा वर्ग को मिले आरक्षण के विरोध में खड़े हुए आन्दोलन में आत्मदाह तक हुए। शिमला में भी आत्मदाह की घटनाएं घटी हैं। परिणाम स्वरुप केन्द्र में सरकार गिर गयी। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में तीन बार भाजपा नीत सरकारें तेरह दिन तेरह माह और फिर एक टर्म के लिये बनी। 2004 से 2014 तक केन्द्र में डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार दो टर्म के लिये रही।

डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ भाजपा/संघ प्रायोजित अन्ना और रामदेव के आन्दोलन आये। इन आन्दोलनों में भ्रष्टाचार और काले धन के भरोसे गये आंकड़ों ने आग में घी का काम किया। 2G स्पेक्ट्रम पर सीएजी विनोद राय की रिपोर्ट आयी जिसमें 1,76,000 करोड़ का घपला होने का आरोप लगा। इसी के साथ कॉमनवेल्थ गेम्स का मुद्दा जुड़ गया। बाबा रामदेव ने काले धन के लाखों करोड़ के आंकड़े परोसे। लोकपाल की मांग इस आन्दोलन की केन्द्रीय मांग बन गयी। भ्रष्टाचार और काले धन के आंकड़े के प्रचार प्रसार में केन्द्र में सरकार बदल गयी। 2014 में कांग्रेस और अन्य दलों से बड़ी संख्या में नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया। लेकिन भ्रष्टाचार और काले धन के आरोपों पर क्या जांच हुई यह आज तक सामने नहीं आया है। जबकि विनोद राय का अदालत में यह बयान सामने आया है कि उन्हे गणना करने में चूक हो गई थी और कोई खपला नहीं हुआ है। कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन में हुये घपलेे के आरोप में भी क्लीन चिट मिल गयी है। काले धन का आंकड़ा पहले से दो गुना हो गया है। लोकपाल में भ्रष्टाचार का कोई बड़ा मामला गया हो ऐसा भी कुछ सामने नहीं आया है।
इस सरकार ने 2014 और 2019 के चुनाव में जो वायदे किये थे वह कितने पूर्व हुये हैं? दो करोड़ युवाओं को प्रतिवर्ष नौकरी देने का वायदा कितना पूरा हुआ है? महंगाई 2014 के मुकाबले आज कहां खड़ी है? इसका कोई जवाब नहीं आ रहा है। जबकि देश में इन दस वर्षों में दो बार नोटबन्दी हो चुकी है। सरकार ने सभी कमाई वाले सार्वजनिक उपक्रमों को प्राइवेट सैक्टर को थमा दिया है। इस सरकार ने कोई बड़ा संस्थान खोला हो ऐसी कोई जानकारी सामने नहीं है। आज रुपया डॉलर के मुकाबले सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है जबकि कर्जदारों की सूची में भारत विश्व बैंक में पहले स्थान पर पहुंच गया है। आज देश को हिन्दू-मुस्लिम के मतभेद और ई.डी. सी.बी.आई. और आयकर जैसी एजैन्सियों के डर से चलाया जा रहा है। जिस लोकप्रिय मतदान से इस सरकार के बनने का दावा आज तक किया जाता रहा है उस दावे की हवा राहुल गांधी के वोट चोरी के आरोपों ने पूरी तरह से निकाल दी है। आज प्रधानमंत्री स्वयं व्यक्तिगत आरोपों में घिरते जा रहे हैं। पचहत्तर वर्ष पूरे होने पर स्व घोषित सिद्धांत पर भाजपा को ही पूर्ववरिष्ठ नेतृत्व जिस तर्ज में सवाल दागने लग गया है उसके परिणाम भयानक होंगे। इन्हीं कारणों सेे आज भाजपा अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं चुन पा रही है। आज भाजपा के राजनीतिक चरित्र पर उठते सवाल उसके आकार से ही बड़े होते जा रहे हैं। इन सवालों से ज्यादा देर तक बच पाना आसान नहीं होगा।

चुनाव आयोग की वकालत सरकार क्यों कर रही है?

चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर एक लंबे समय से सवाल उठते आ रहे हैं जो अब वोट चोरी के आरोप तक जा पहुंचे हैं। ईवीएम मशीनों की अविश्वसनियता पर सबसे पहले लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने सवाल उठाये थे और एक पुस्तिका तक जारी कर दी थी। फिर डॉ. स्वामी ने सवाल उठाये और सर्वाेच्च न्यायालय तक जा पहुंचे और इन मशीनों में वीवीपैट यूनिट जोड़ा गया। इसी दौरान आर.टी.आई. के माध्यम से यह सूचना बाहर आयी की उन्नीस लाख मशीने गायब हैं। यह मामला भी पुलिस जांच और अदालत तक गया। लेकिन इसका अन्तिम परिणाम क्या निकला आज तक सामने नहीं आ पाया है। हर चुनाव के बाद निष्पक्षता और पारदर्शिता पर देश के राजनीतिक दलों ने सवाल उठाये और चुनाव मत पत्रों के माध्यम से करवाये जाने की मांग रखी। एडीआर और अठारह राजनीतिक दलों ने सर्वाेच्च न्यायालय में इस संदर्भ में दस्तक दी। सर्वाेच्च न्यायालय ने मत पत्रों के माध्यम से चुनाव करवाये जाने के आग्रह को तो स्वीकार नहीं किया लेकिन यह प्रावधान कर दिया कि चुनाव प्रक्रिया का सारा डिजिटल रिकॉर्ड पैन्तालीस दिनों तक सुरक्षित रखा जायेगा और चुनाव में दूसरे या तीसरे स्थान पर रहने वाले उम्मीदवार को उपलब्ध करवाया जायेगा यदि वह चुनाव याचिका में जाता है और इस संदर्भ में आने वाले खर्च को जमा करवाता है। लेकिन चुनाव आयोग ने सर्वाेच्च न्यायालय के इस प्रावधान की अनुपालना नहीं की। हरियाणा की एक विधानसभा का मामला पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय जा पहुंचा। उच्च न्यायालय ने रिकार्ड उपलब्ध करवाने के निर्देश दिये। लेकिन इन निर्देशों के बाद इस आशय के नियमों में ही संशोधन करके रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं करवाया।
जब सर्वाेच्च न्यायालय के ही निर्देशों की अनुपालना में इस तरह का व्यवहार आयेगा तो यह स्थिति किसी को भी चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता पर उठने वाले सवालों का पूरी गहनता के साथ पड़ताल करने को बाध्य कर देगा। इसी वस्तु स्थिति ने राहुल गांधी और उनकी टीम को इन सवालों की पड़ताल करने के लिये बाध्य किया। राहुल गांधी ने इस संदर्भ में जो तथ्यात्मक प्रमाण जनता के सामने रखे हैं उनको चुनाव आयोग ने बिना किसी जांच के ही खारिज करते हुये राहुल गांधी से इस में ज्ञापन पत्र मांग लिया। सवाल चुनाव आयोग पर उठे और उसकी वकालत में पूरी भाजपा उतर आयी। बिहार में करवायी गयी एस आई आर में पैंसठ लाख वोट डिलीट किये जाने का मामला उठा और केंद्र सरकार ने बिहार की पच्चहतर लाख महिलाओं को सीधे दस-दस हजार रुपए उनके बैंक खातों में ट्रांसफर करवा दिये। वोट चोरी के आरोप जिस दस्तावेजी प्रमाणिकता के साथ सामने आये हैं उससे यह एक जन आन्दोलन की शक्ल में बदलता नजर आ रहा है। इस संदर्भ में राहुल गांधी की जनसभाओं को रद्द करवाने की रणनीति पर सरकार आ गयी है। एक भाजपा प्रवक्ता पर यह आरोप लग रहा है कि उसने राहुल गांधी की छाती में गोली मार दिये जाने की बात मंच से कही है और केन्द्र सरकार इस आरोप पर चुप है।
वोट चोरी के आरोपों के साथ पिछले ग्यारह वर्षों में जो कुछ देश में घटा है वह सब सामने सवाल बनकर खड़ा होता जा रहा है। देश का युवा प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियों के वायदे पर सवाल पूछ रहा है। आज जीएसटी में संशोधन करके महंगाई से राहत की बात की जा रही है। लेकिन इसी के साथ यह सवाल उठ रहा है कि जिन वस्तुओं पर नौ वर्ष पहले टैक्स जीरो था क्या उनके दाम आज उसी के बराबर हैं? हर चुनाव में किया गया वायदा आज व्यवहारिकता में जवाब मांगने लगा है। देश के सारे सार्वजनिक उपक्रम आज प्राइवेट हाथों में जा पहुंचे हैं। देश विश्व बैंक के कर्जदारों में पहले स्थान पर पहुंच गया है। इस बढ़ते कर्ज से महंगाई और बेरोजगारी ही बढ़ेगी यह तय है। देश का युवा जो आज सूचना प्रौद्योगिकी के कारण हर चीज की जानकारी रख रहा है और वही बेरोजगारी से सबसे ज्यादा पीड़ित है उस युवा के आक्रोश को दबाना आसान नहीं होगा। सवाल पूछने पर गोली मारने के विकल्प के मायने बहुत गंभीर और दूरगामी होंगे यह तय है।

उपराष्ट्रपति चुनाव के बाद उभरते राजनीतिक सवाल

उपराष्ट्रपति के चुनाव में एन.डी.ए. के उम्मीदवार सी.पी.राधाकृष्णन को बड़ी जीत हुई उन्हें इण्डिया गठबंधन के उम्मीदवार के मुकाबले 452 मत मिले हैं जबकि इण्डिया गठबंधन के जस्टिस रेड्डी को 300 मत मिले हैं। इस चुनाव में पन्द्रह मत अवैध पाये गये हैं और तेरह सांसदों ने मतदान में भाग ही नहीं लिया। एन.डी.ए. के उम्मीदवार की जीत को गृह मंत्री अमित शाह के कुशल राजनीतिक प्रबंधन का कमाल मान जा रहा है। गृह मंत्री के पास ई.डी. और सी.बी.आई. जैसे हथियार हैं और इन हथियारों का भी परोक्ष/अपरोक्ष में इस्तेमाल होने की चर्चाएं भी सोशल मीडिया मंचों के माध्यम से उठ खड़ी हुई हैं। इन चर्चाओं को इसलिये अधिमान देना पड़ रहा है क्योंकि देश की राजनीति में इन हथियारों का इस्तेमाल 2014 के चुनावों के बाद से एक बड़ी चर्चा का विषय बन चुका है। उपराष्ट्रपति का यह चुनाव जिस तरह के राजनीतिक वातावरण में हुआ है उसमें इन चर्चाओं को नकारा भी नहीं जा सकता। चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर एक लंबे अरसे से सवाल उठते आ रहे हैं। आज यह सवाल कांग्रेस नेता राहुल गांधी के प्रमाणिक खुलासे के बाद ‘‘वोट चोरी’’ के एक बड़े अभियान तक पहुंच गये हैं। बिहार में एस.आई.आर को लेकर चुनाव आयोग और सर्वाेच्च न्यायालय में बहस जिस मोड़ तक जा पहुंची है वह अपने में ही बहुत कुछ कह जाती है।
इस पृष्ठभूमि में उपराष्ट्रपति चुनाव के आंकड़े अपने में बहुत बड़ी बहस को अंजाम दे जाते हैं। इण्डिया गठबंधन की एकता पर पहला सवाल खड़ा होता है। क्योंकि कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने इस चुनाव का परिणाम आने से पहले ही यह दावा किया था कि इण्डिया ब्लॉक के सभी तीन सौ पन्द्रह सांसदों ने मतदान किया है। परिणाम आने पर इंडिया ब्लॉक को तीन सौ वोट मिले पन्द्रह वोट अवैध घोषित हुये। इन अवैध मतों पर चर्चा कांग्रेस नेता शशि थरूर और मनीष तिवारी के ब्यानों के बाद ज्यादा गंभीर हो जाती है। इसी कड़ी में तेरह सांसदों का मतदान में भाग ही न लेना और भी गंभीर सवाल खड़े कर देता है। क्योंकि मतदान से पहले किसी भी सांसद ने उपराष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों को लेकर कुछ नहीं कहा था। जबकि इस चुनाव में कोई भी दल अपने सांसदों को सचेतक जारी नहीं किये हुये था। क्योंकि इसका प्रावधान ही नहीं है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आज भी हमारे सांसद राष्ट्रीय महत्व के राजनीतिक प्रश्नों पर अपनी राय नहीं रख पा रहे हैं। इसी के साथ पन्द्रह सांसदों के मतों का अवैध पाया जाना यह सवाल खड़ा करता है कि क्या हमारे सांसदों को वोट डालना ही नहीं आता है या यह एक राजनीतिक रणनीति का हिस्सा था। इस पर आने वाले दिनों में खुलासे आने की संभावना है।
जिन राजनीतिक परिस्थितियों में उपराष्ट्रपति का चुनाव आया और मतदान हुआ उससे यह स्पष्ट हो गया है कि ‘‘वोट चोरी’’ के जनान्दोलन में सरकार के लिये स्थितियां सहज नहीं रही हैं। यदि भारत जोड़ो यात्रा से भाजपा का आंकड़ा दो सौ चालीस पर आकर रुक सकता है तो निश्चित तौर पर वोट चोरी के आरोप का प्रतिफल बहुत बड़ा होगा। क्योंकि यह इसी आरोप का प्रतिफल है कि भाजपा को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बदलना कठिन होता जा रहा है। इसी आरोप के कारण प्रधानमंत्री का पच्चहत्तर वर्ष की आयु सीमा का सिद्धांत भी अभी अमल से दूर रखना पड़ रहा है। इन परिस्थितियों में इण्डिया गठबंधन को कमजोर करने के लिये नरेंद्र मोदी और अमित शाह किसी भी हद तक जा सकते हैं। कांग्रेस और राहुल गांधी को अक्षम प्रमाणित करने के लिये कांग्रेस की राज्य सरकारों को अस्थिर करके उन्हें भाजपा में शामिल होने की परिस्थितियों बनाई जा सकती हैं। जब राहुल गांधी ने पार्टी के भीतर भाजपा के स्लीपर सैल होने की बात की थी उसके बाद कांग्रेस के भीतर भी असहजता की स्थिति पैदा हुई है। हिमाचल में पूर्व मुख्यमंत्री शान्ता कुमार ने जब राहुल गांधी पर कांग्रेस को कमजोर करने का आरोप लगाया तो प्रदेश के एक भी कांग्रेस नेता ने इसका जवाब नहीं दिया। क्या इसे महज एक संयोग माना जा सकता है या यह एक प्रयोग था।

 

वोट चोरी के आरोपों से राजनीतिक संकट बढ़ा


राहुल गांधी ने वोट चोरी का जिस प्रामाणिकता के साथ खुलासा देश की जनता के सामने रखा है उससे पूरे देश में चुनाव आयोग और केन्द्र सरकार की विश्वसनीयता पर बहुत ही गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं। क्योंकि इन आरोपों पर चुनाव आयोग अपना प्रमाणिक रिकॉर्ड जनता में जारी करके अपना स्पष्टीकरण देने की बजाये राहुल गांधी से ही शपथ पत्र की मांग करके और भी प्रश्नित हो गया है। वोट चोरी का आरोप एक जन मुद्दा बन चुका है और आम आदमी को यह समझ आ गया है कि चुनाव आयोग सत्तारूढ़ दल का ही पक्षधर बनकर रह गया है। वोट चोरी के आरोप पर जिस तरह का जन समर्थन राहुल गांधी को मिला है उससे स्पष्ट हो गया है की आने वाले समय में यह मुद्दा देश की राजनीति की दिशा और दशा दोनों बदल देगा। क्योंकि इस जन मुद्दे पर से ध्यान भटकाने के लिये जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी की स्वर्गवासी मां को मंच से गाली देने का खेल खेला गया और गाली देने वाला एक भाजपा का ही कार्यकर्ता निकला उससे सत्ता पक्ष की हताशा ही जनता के सामने आयी है।

इस समय इस गाली वाले मुद्दे पर जिस तरह से भाजपा ने कांग्रेस नेतृत्व से सार्वजनिक क्षमा याचना की मांग की है उससे वह पुराने सारे दृश्य जिनमें प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक भाजपा नेताओं द्वारा स्वयं सोनिया गांधी और शशि थरूर की पत्नी पर जिस तरह की भाषाओं का इस्तेमाल करते हुये उन्हें संबोधित किया गया था एकदम नए सिरे से चर्चा में आ गये हैं। भाजपा के एक भी नेता द्वारा उन अपशब्दों पर एक बार भी खेद व्यक्त नहीं किया गया। बल्कि इसी दौरान भाजपा सांसद कंगना रनौत को लेकर भाजपा नेता डॉ. स्वामी ने जिस तरह के आरोप प्रधानमंत्री पर लगाये हैं और पूरी भाजपा डॉ. स्वामी को लेकर एकदम मौन साधकर बैठ गयी है उससे स्थिति और भी गंभीर हो गयी है। इन्हीं आरोपों के दौरान प्रधानमंत्री की डिग्री को लेकर जो सवाल उठे हैं उन पर भी भाजपा नेताओं की ओर से कोई प्रतिक्रियाएं नहीं आयी हैं। प्रधानमंत्री मोदी और गौतम अडानी को लेकर जिस तरह का विवाद अमेरिकी अदालत के माध्यम से सामने आया है उससे भी प्रधानमंत्री की छवि पर कई गंभीर प्रश्न चिन्ह स्वतः ही लग गये हैं। भाजपा का पर्याय बन चुके प्रधानमंत्री पर जिस तरह के सवाल खड़े हो गये हैं उनका परिणाम गंभीर होगा यह तय है।
पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के पद त्याग पर उठी चर्चाओं ने भाजपा और मोदी के राजनीतिक चरित्र पर जिस तरह के सवाल खड़े किये हैं उससे स्थिति और भी सन्देहास्पद हो गयी है। भाजपा के इस राजनीतिक चरित्र पर भी सवाल उठने लग पड़े हैं कि भाजपा का साथ देने वाले दलों का राजनीतिक भविष्य कितना सुरक्षित रह पाता है। पंजाब में अकाली दल और महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा के इस चरित्र का प्रमाण है। कुल मिलाकर जिस तरह से राहुल गांधी ने वोट चोरी का आरोप लगाने से पूर्व इस संद्धर्भ में पुख्ता दस्तावेजी प्रमाण जूटा कर चुनाव आयोग और इससे लाभान्वित होती रही भाजपा की राजनीति पर हमला बोला है उससे पूरे देश में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर जो प्रश्न चिन्ह खड़े हुए हैं उसका जवाब चुनाव आयोग और केन्द्र सरकार से नहीं आ पा रहा है। बल्कि प्रधानमंत्री व्यक्तिगत तौर पर जिस तरह के सवालों से घिर गये हैं उसके परिणाम भाजपा की राजनीतिक सेहत के लिए नुकसानदेह प्रमाणित होंगे। क्योंकि सर्वाेच्च न्यायालय ने बिहार की एस.आई.आर. पर जिस तरह से चुनाव आयोग को घेरा है उससे सारा राजनीतिक परिदृश्य ही बदल गया है। ऐसी स्थितियां बन गयी हैं जिनसे केंद्र की सरकार पर संकट आता नजर आ रहा है। इस राजनीतिक परिदृश्य में यदि राहुल गांधी कांग्रेस के भीतर बैठे भाजपा के स्लीपर सैलों को चिन्हित करके बाहर का रास्ता न दिखा पाये तो इससे राहुल को कांग्रेस के अन्दर भी एक बड़ी लड़ाई छेड़नी पड़ेगी। क्योंकि देश की राजनीति इस समय जिस मोड़ पर पहुंच गयी है उसमें इस तरह के भीतरघात का सबसे अधिक डर रहता है। क्योंकि आसानी से कोई सत्ता नहीं छोड़ता है।

जिम्मेदार तन्त्र की जवाबदेही तय होनी चाहिये

इस बार हिमाचल में बरसात ने जिस तरह का कर बरपाया है और उससे जो बुनियादी सवाल खड़े हुये हैं उन पर समय रहते गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। अन्यथा सर्वाेच्च न्यायालय की टिप्पणियां को घटते समय नहीं लगेगा। सर्वाेच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि यदि समय रहते सही कदम नहीं उठाये गये तो प्रदेश देश के मानचित्र से गायब हो जायेगा। सर्वाेच्च न्यायालय की इस चिन्ता के बाद एन.जी.टी. ने भी एक समाचार का संज्ञान लेते हुये टी.सी.पी., शहरी विकास, पर्यावरण विज्ञान एवं तकनीकी और क्लाइमेट चेंज, राज्य प्रदूषण नियंत्राण बोर्ड तथा देहरादून स्थित पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को नोटिस जारी करके अनियन्त्रित निर्माणों पर उनके जवाब तलब किये हैं। यह चिन्ता और संज्ञान अपने में बहुत गंभीर है। सर्वाेच्च न्यायालय की टिप्पणी के बाद यह लगा था कि विधानसभा सत्र में समूचा सदन इस भविष्य के सवाल पर गंभीरता से चिन्तन करेगा। परन्तु ऐसा हो नहीं सका है। हमारे माननीय केवल केन्द्र से प्रदेश को आपदा ग्रस्त क्षेत्र घोषित करने के प्रस्ताव तक ही सीमित रहे हैं। एन.जी.टी. ने जिस तरह से सारे संबद्ध विभागों से जवाब तलब किया है उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह सारे विभाग कहीं न कहीं अपनी-अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल रहे हैं। यह विभाग अपनी जिम्मेदारियां क्यों नहीं निभा पायें हैं? राजनीतिक दबाव कितना हावी रहा है यह स्थितियां अब स्पष्ट होने का वक्त आ गया है।
स्मरणीय है कि 1971 में किन्नौर में आये भूकंप का असर शिमला के लक्कड़ बाजार और रिज तक पड़ा था। लक्कड़ बाजार कितना धंस गया था यह आज भी देखा जा सकता है। रिज को संभालने का काम तब से आज तक चल रहा है और आज रिवाली मार्केट को खतरा पैदा हो गया है क्योंकि जिस तरह का निर्माण उस क्षेत्रा में चल रहा है यह उसका प्रभाव है। शिमला में अवैध निर्माणों को बहाल करने के लिये नौ बार रिटेंशन पॉलिसीयां लायी गयी। एन.जी.टी. में मामला गया था और एन.जी.टी. ने स्पष्ट निर्देश दिये थे की अढ़ाई मंजिल से ज्यादा का निर्माण नहीं किया जायेगा? यदि आज एन.जी.टी. के फैसले के बाद हुये निर्माणों की ही सही जानकारी ली जाये तो पता चल जायेगा कि इस फैसले का कितना पालन हुआ है। चंबा में रवि अपने मूल बहाव से 65 किलोमीटर गायब हो गयी है यह रिपोर्ट प्रदेश के तत्कालिक वरिष्ठ नौकरशाह अभय शुक्ला की है। प्रदेश उच्च न्यायालय को भी यह रिपोर्ट सौंपी गयी थी। लेकिन इस रिपोर्ट पर कितना अमल हुआ है? शायद कोई अमल नहीं हुआ है और आज चंबा में रवि के कारण हुआ नुकसान सबके सामने है।
इस बार जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई दशकों तक नहीं हो पायेगी। सरकार पहले ही कर्ज के आसरे चल रही हैं। बादल फटने की जितनी घटनाएं इस बार हुई है इतनी पहले कभी नहीं हुई हैं। यह घटनाएं उन क्षेत्रों में ज्यादा हुई हैं जो जल विद्युत परियोजनाओं के प्रभाव क्षेत्र में आते हैं। बहुत सारी परियोजनाएं स्वयं खतरे की जद़ में आ गयी हैं। इसलिये यह चिन्तन का विषय हो जाता है की क्या इस तरह की बड़ी परियोजनाएं प्रदेश हित में हैं। जल विद्युत परियोजनाएं, फोरलेन सड़कों का निर्माण और धार्मिक पर्यटन की अवधारणा क्या इस प्रदेश के लिये आवश्यक है? क्या यह प्रदेश बड़े उद्योगों के लिए सही है। जितना जान माल का नुकसान इस बार हुआ है उससे यह चर्चा उठ गयी है कि इस देवभूमि से देवता अब रूष्ट हो गई हैं। इस चर्चा को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। क्योंकि देव स्थलों को पर्यटन स्थल नहीं बनाया जा सकता।
एन.जी.टी. ने जितने विभागों से रिपोर्ट तलब की है उन सारे विभागों के अधिकारियों और कर्मचारियों से यह शपत पत्र लिये जाने चाहिये कि उन्होंने स्वयं निर्माण मानकों की अवहेलना तो नहीं की है। इसी के साथ शीर्ष प्रशासन और राजनेताओं से भी यह शपथ पत्र लिये जाने चाहिये कि उन्होंने मानकों की कितनी अवहेलना की है। क्योंकि जब तक जिम्मेदार लोगों को जवाब देह नहीं बनाया जायेगा तब तक यह विनाश नहीं रुकेगा।

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