Monday, 15 December 2025
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क्या वक्फ संशोधन धार्मिक राष्ट्र घोषित करने का संकेत है?

क्या वक्फ संशोधन हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की दिशा में एक सुनियोजित कदम है? यह सवाल इसलिय प्रसांगिक हो जाता है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा संघ परिवार का एक अनुषांगिक संगठन है। 1925 में विजयदशमी के दिन हुई इसकी प्रारंभिक बैठक में हेडगेवार के साथ हिन्दू महासभा के जिन चार नेताओं बी.एस.मुंजे, गणेश सावरकर, एल.वी.परांजपे और बी.बी. डोलकर की मन्त्रणा हुई थी उसमें हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का ही संकल्प लिया गया था। स्वतन्त्रता आन्दोलन में हिन्दू महासभा और आर.एस.एस. के नेतृत्व का योगदान कितना रहा होगा यह इसी से स्पष्ट हो जाता है कि जब पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में यह तथ्य सामने आया कि उन्होंने स्वतन्त्रता सेनानियों के खिलाफ अदालत में गवाही तक दी हुई है। गवाही देने के इस प्रमाण को भाजपा नेता डॉ. स्वामी ने ही देश के सामने रखा है। इस देश में मुस्लिम और अंग्रेज दोनों ही शासन कर चुके हैं। लेकिन मुस्लिम शासकों के खिलाफ उस तरह का आन्दोलन कभी नहीं हुआ जिस तरह का अंग्रेजों के खिलाफ हुआ है। मुस्लिम नेताओं का देश की आजादी के आन्दोलन में भी बराबर का योगदान रहा है। पाकिस्तान के खिलाफ हुई लड़ाईयों में भी मुस्लिमों का योगदान सराहनीय रहा है अब्दुल हमीद जैसे कई नाम रिकॉर्ड पर हैं। आज भी भाजपा के कई वरिष्ठ नेताओं के पारिवारिक रिश्ते मुस्लिमों के साथ हैं। कई बार ऐसे ही नेताओं की सूचीयां वायरल हो चुकी है। इस परिदृश्य में यह स्पष्ट हो जाता है कि आज का सारा हिन्दू मुस्लिम विवाद कुछ राजनीतिक कारणों के प्रतिफल से अधिक कुछ नहीं है। प्रश्न सत्ता में बने रहने का ही है।
आर.एस.एस. के बिना भाजपा की कल्पना करना भी संभव नहीं है। 2019 में आयी संघ की अपनी रिपोर्ट के मुताबिक इसकी 84877 शाखाएं चल रही हैं जिनमें से 59266 प्रतिदिन चल रही है। दर्जनों इसके अनुषांगिक संगठन है। 1973 से तो इसका इतिहास लेखन प्रकोष्ठ भी चल रहा है जो इतिहास पर अपने दृष्टिकोण से काम कर रहा है। वीर सावरकर के बारे में पूर्व मन्त्री और वरिष्ठ पत्रकार अरुण शौरी ने अपनी किताब में संघ को लेकर बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया है। आज जिस तरह का नैरेटिव खड़ा किया जा रहा है उसका अन्तिम परिणाम देश के लिये घातक होगा। क्योंकि हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा में मुस्लिम और अन्य कोई भी गैर हिन्दू शासन की मुख्य धारा में नहीं आता है। भारत एक बहुभाषी और बहुधर्मी देश है। मुस्लिम देश की दूसरी बड़ी धार्मिक आबादी है। इसी बहुधर्मिता के कारण संविधान में सरकार का चरित्र धर्म निरपेक्षता का रखा गया है। यदि किसी भी आधार पर किसी भी धर्म के लोगों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का प्रयास किया जायेगा तो उसका अन्तिम परिणाम फिर बंटवारा ही होगा यह एक कटु सत्य है।
भारत को धार्मिक देश बनाने की दिशा में जो प्रयास शुरू हुये हैं उन पर एक नजर डालना आवश्यक हो जाता है। 2014 में देश में भाजपा भ्रष्टाचार, काले धन और हर एक के हिस्से में पन्द्रह-पन्द्रह लाख आने के नाम पर सत्ता में आयी। लेकिन क्या इन मुद्दों पर कुछ हुआ शायद नहीं। 2014 के भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाये गये आन्दोलन का संचालन आर.एस.एस. के हाथ में था। लोकपाल की नियुक्ति इस आन्दोलन का मुख्य मुद्दा था। हर चुनाव में नये मुद्दे उछाले गये और पुराने को भुलाते गये। नोटबन्दी और करोना ने बहुत कुछ बदल दिया। करोना में ही तबलीगी समाज पर इसे फैलने का आरोप लगा। लव जिहाद और गौ रक्षा में भीड़ हिंसा तक सामने आयी। फिर तीन तलाक, धारा 370 और समान नागरिक संहिता के मुद्दे सामने आये। इन सारे मुद्दों के साये में सारे सार्वजनिक संस्थान निजी हाथों में चले गये। यह पहली सरकार है जिसके शासन में कोई नया सार्वजनिक संस्थान नहीं खुला। स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया तक में अदानी की सहभागिता हो गयी। आज देश का कर्ज जीडीपी के बराबर होने जा रहा है यह विश्व बैंक का आकलन है। 140 करोड़ की आबादी वाले देश में जब 80 करोड़ लोग सरकारी राशन पर निर्भर होने को बाध्य हो जायें तो वहां विकास के सारे दावों का सच अपने आप प्रश्नित हो जाता है। दो करोड़ रोजगार प्रतिवर्ष का दावा और कृषि के लिये लाये गये तीन कानून क्या हकीकत बयां करते हैं यह अन्दाजा लगाया जा सकता है।
इस वस्तु स्थिति में वक्फ कानून में संशोधन लाकर जिस तरह से देश की दूसरी बड़ी धार्मिक आबादी को छेड़ दिया गया है वह संविधान की धारा 26 पर सीधा हमला है। जिससे यह इंगित होता है कि सरकार हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिये अपने कदम बढ़ाती जा रही है। जब संसद के नये भवन में सांसदों ने प्रवेश किया था तब उन्हें संविधान की जो प्रतियां दी गई थी उन में धर्मनिरपेक्ष शब्द प्रस्तावना से हटा दिया गया था। अब वक्फ संशोधन के खिलाफ जिस तरह का वातावरण बनता नजर आ रहा है यदि वह कन्ट्रोल न हुआ तों कई प्रदेशों में राष्ट्रपति शासन की संभावनाएं बन जायेंगी। कांग्रेस शासित कुछ राज्य अपने ही भार से दम तोड़ने के कगार पर पहुंच जायेंगे। कुछ ऐसी परिस्थितियों बनती नजर आ रही हैं जहां सरकार देश को धार्मिक राज्य घोषित करने का कदम उठा सकती है।

दो वर्षों में 5200 करोड़ का कर भार जनता पर डालकर भी नहीं सुधरी स्थिति

सुक्खू सरकार अपने दो वर्ष के कार्यकाल में 5225 करोड़ के कर्ज प्रदेश की जनता पर लगा चुकी है। यह सब तब हुआ है जब सरकार ने दोनों वर्ष कर मुक्त बजट दिये हैं। प्रदेश सरकार की वर्ष 2025-26 के लिये संभावित आय 42342.97 करोड़ रहने का अनुमान है। इसमें राज्य सरकार के अपने साधनों से 20291.46 करोड़ की आय रहेगी। केंद्र सरकार से विभिन्न मद्दों में 22051.51 करोड़ मिलेंगे। वर्ष 2025-26 के लिए कर्ज लेने की कुल सीमा 7000 करोड़ रहेगी। अभी वित्तीय वर्ष के पहले ही दिन सरकार को कर्ज लेना पड़ा है। वर्ष 2025-26 के लिये कुल राजस्व 48733.04 करोड़ रहने का अनुमान है। इस चालू वर्ष में पूंजीगत व्यय 8281.27 करोड़ अनुमानित है जबकि पिछले वर्ष 10276.98 करोड़ पूंजीगत व्यय के लिये थे। इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि चालू वित्त वर्ष की स्थिति क्या रहने वाली है। इस वर्ष कर्ज और ब्याज की अदायगी पर पिछले वर्ष के मुकाबले ज्यादा खर्च होगा।
मुख्यमंत्री ने जब दिसम्बर 2022 में सत्ता संभाली थी तब प्रदेश के लोगों को चेतावनी दी थी कि प्रदेश के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। इस चेतावनी से यह समझ आता है कि मुख्यमंत्री को प्रदेश की कठिन वितीय स्थिति की जानकारी थी। यह जानकारी होते हुये सरकार ने अपने अवांच्छित खर्चे कम करने और वित्तीय संसाधन बढ़ाने के लिये क्या कदम उठाये यह व्यवहारिक आकलन का विषय है। सरकार ने मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्तियां की जबकि पिछले सरकार इन नियुक्तियों से बची रही थी। इन नियुक्तियों के अतिरिक्त करीब दो दर्जन सलाहकार और ओएसडी नियुक्त कर लिये गये। ऐसे सेवानिवृत अधिकारियों को सलाहकार नियुक्त कर लिया जिन्हें स्वयं पिछली सरकार में भ्रष्ट होने का तमगा दिया था। संसाधन जुटाने के नाम पर कर और शुल्क बढ़ाये। आज अस्पताल और शैक्षणिक संस्थान भी इस बढ़ौतरी से बचे नहीं है। तकनीकी महाविद्यालयों में बच्चों की रीवैल्युएशन फीस सीधे 500 से बढ़कर 1500 कर दी गयी है। कर और शुल्क इस कदर बढ़ाये गये हैं कि समाज का हर वर्ग उससे प्रभावित हुआ है। 77 लाख की आबादी वाले प्रदेश में जब 5200 करोड़ रूपया टैक्स के माध्यम से इकटठा किया जाएगा तो अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उस पर आम आदमी की प्रतिक्रिया क्या रही होगी?
अभी पंचायत महासंघ ने आरोप लगाया है कि पिछले चार माह से मनरेगा में कोई अदायगी नहीं हो रही है। लोक निर्माण विभाग में ठेकेदारों के बिलों की अदायगी रुकी हुई है। अस्पतालों में मैडिकल सप्लायरों के बिल रुके पड़े हैं। कर्मचारियों को चिकित्सा प्रतिपूर्ति नहीं मिल रही है। इन्हीं कारणों से हिम केयर कार्ड का ऑपरेशन प्रभावित हुआ पड़ा है। यह सरकार कुछ गारंटीयां देकर सत्ता में आयी थी। लेकिन वित्तीय आंकड़ों के आईने से स्पष्ट हो जाता है कि सरकार हर चीज भाषण में तो पूरी कर देगी लेकिन व्यवहार में नहीं कर पायेगी। इस वस्तु स्थिति में यह बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है कि सरकार को इसके लिये क्या कदम उठाने होंगे। सबसे पहले सरकार को अपने अवांच्छित खर्चें कम करने होंगे। सलाहकारों और विशेष कार्य अधिकारियों के नाम पर सेवानिवृत्त अधिकारियों को हटाकर यह काम सेवारत अधिकारियों से लेना होगा। सरकार जब अफसरों के लिये 40-40 लाख की गाड़ियों की खरीद करेगी तो उसका आम आदमी पर क्या प्रभाव पडेगा। इस समय एक अधिकारी के पास जितने विभाग हैं उतनी ही गाड़ियां उसके पास हैं। हिमाचल में प्रदूषण की कोई समस्या नहीं है और न ही होने की संभावना है। ऐसे में ई-वाहनों की खरीद आज की आवश्यकता नहीं है यह बन्द होनी चाहिए। इस तरह अटल आदर्श विद्यालय और राजीव गांधी डे-बोर्डिंग स्कूलों की आज आवश्यकता नहीं है। हिमाचल में पर्यटन के क्षेत्र में सरकार की भूमिका केवल नियामक की रहनी चाहिये निवेशक की नहीं। आज सरकार को लेकर यह धारणा प्रबल होती जा रही है कि भ्रष्टाचार को संरक्षण दिया जा रहा है। इस धारणा से बचना होगा। सरकार को यह समझना होगा की जनता पर जितना ज्यादा टैक्स भार बढ़ाया जायेगा उतनी निराशा जनता में फैलेगी। सरकार अपने खर्चे कम करके यदि जनता में कठिन वितीय स्थिति के नाम पर गारंटीयां पूरी न कर पाने के लिये खुले मन से क्षमा याचना कर लेगी तो जनता क्षमा भी कर देगी अन्यथा जनता का आक्रोश सब कुछ खत्म कर देगा।

मुस्लिम समाज सरकार पर विश्वास क्यों नहीं कर पा रहा है

वक्फ धार्मिक उद्देश्यों के लिये अपनी संपत्ति दान देने की अवधारणा है जो 1923 से ब्रिटिश शासन काल से चली आ रही है। 1954 में पहली बार संसद में इस संबंध में कानून बनाकर ऐसी संपत्तियों के प्रबंधन संचालन के लिये वक्फ बोर्ड के गठन का प्रावधान किया। 1995 में इसमें संशोधन करके इसे और शक्तियां दी। लेकिन यह शक्तियां देने के बाद इसमें अतिक्रमण अवैध पट्टे देने और अवैध बिक्री की शिकायतें बढ़ी। 2013 में इसमें और संशोधन करके वक्फ संपत्तियों की बिक्री को अवैध करार दे दिया। वक्फ में उपजे किसी भी विवाद के निपटारे के लिये एक ट्रिब्यूनल गठित है और इसके फैसलों को उच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। यह सब नए वक्फ अधिनियम पर संसद में चली बहस के दौरान सामने आ चुका है। नये संशोधन में गैर मुस्लिमों को भी वक्फ का सदस्य बनाने का प्रावधान किया गया। नये कानून में संपत्तियों पर उठे किसी भी विवाद के निपटारे के लिये डीएम को अधिकृत किया गया है। डीएम का फैसला अन्तिम होगा और उसे कहीं भी चुनौती नहीं दी जा सकेगी। भारत बहुभाषी और बहुधर्मी देश है। इसलिये संविधान के अनुच्छेद 26 में धार्मिक स्वतन्त्रता का प्रावधान किया गया है। धार्मिक या परोपकारी उद्देश्यों के लिये संस्थाएं स्थापित करना उनका संचालन और धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने के लिये हर धर्म का आदमी स्वतंत्र है। संविधान के इसी अनुच्छेद के आधार पर नये वक्फ विधेयक को असंवैधानिक मानकर इसे सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है। अब यह मामला देश की सुप्रीम अदालत के सामने हैं। आशा की जानी चाहिये की अदालत बहुत जल्द इस संबंध में आयी याचिकाओं का निपटारा करके इसकी वैधता पर अपना फैसला देगी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इन्तजार किया जाना चाहिए। लेकिन इस विवाद से ज्यादा महत्वपूर्ण यह हो गया है कि देश की दूसरी बड़ी धार्मिक आबादी को सरकार पर अविश्वास क्यों पैदा हो गया है। आखिर इस अविश्वास का आधार और कारण क्या है। इसकी पड़ताल करने के लिये 2014 में आये राजनीतिक सत्ता के बदलाव के बाद उपजी व्यवहारिक स्थितियों पर नजर डालना आवश्यक हो जाता है। भाजपा संघ परिवार की राजनीतिक इकाई है। इसलिये भाजपा के संगठन सचिव का दायित्व हर स्तर पर संघ के ही प्रतिनिधि के पास रहता है। भाजपा का वैचारिक स्रोत संघ है। संघ भारत को शुद्ध हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है। संघ की सारी अनुसांगिक इकाईयां इसी के लिये प्रयासरत है। इस प्रयास में भाजपा की भूमिका और जिम्मेदारी सबसे अहम है। क्योंकि राजनीतिक सत्ता भाजपा के हिस्से में है। हिन्दू राष्ट्र बनाने का रास्ता राजनीतिक सत्ता से होकर गुजरेगा। इस समय भारत में दूसरी बड़ी धार्मिक आबादी मुस्लिमों की है और वह हर राज्य में हैं। मुस्लिमों के बाद सिक्ख आते हैं। और वह संयोगवश एक ही राज्य तक है। इसी हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना में मुस्लिम बाधक हो जाते हैं। फिर देश का बंटवारा भी धार्मिक आधार पर हुआ था और पाकिस्तान मुस्लिम देश बन गया। पाकिस्तान भारत की तरह धर्मनिरपेक्ष चरित्र का नहीं है। जबकि भारत का मूल धर्मनिरपेक्षता है। यदि भारत भी एक ही धर्म को राजनीतिक धर्म बना ले तो इतने बड़े देश में एकता बनाये रखना बड़ा प्रश्न हो जायेगा । इस परिपेक्ष में यदि 2014 के सत्ता परिवर्तन के बाद जिस तरह का व्यवहार मुस्लिम समुदाय के प्रति रहा है उससे स्पष्ट हो जाता है कि एक निश्चित योजना के तहत हिन्दू राष्ट्र की दिशा में प्रयास चल रहे हैं। यह सामने आ चुका है मुस्लिम समाज के प्रति सहानुभूति रखने वाले पाकिस्तान चले जाने की राय मंत्री स्तर के लोगों से आ चुकी है। मेघालय हाईकोर्ट में जब जस्टिस एस आर सेन ने 2018 में भारत को हिन्दू राष्ट्र हो जाने का फैसला दिया था तब वह इस दिशा का एक बड़ा संकेत था। इस फैसले पर आपत्तियां आयी और यह रद्द हुआ। लेकिन फैसला तो आया। फिर संघ प्रमुख डॉ. भागवत के नाम से भारत का संविधान वायरल हुआ। इसमें महिलाओं के अधिकारों पर अंकुश की बात कही गई थी लेकिन यह संविधान कैसे वायरल हुआ इसकी कोई जांच सामने नहीं आयी न ही इसका कोई खण्डन सामने आया। फिर स्कूलों में मनुस्मृति को पाठयक्रम का हिस्सा बनाने का सुझाव आया। गौ रक्षा के नाम पर एक समुदाय के खिलाफ भीड़ हिस्सा का तांडव इस देश ने देखा। नये संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर सांसदों को दी गयी संविधान की प्रति से धर्मनिरपेक्षता शब्द का गायब होना। सम्मान नागरिक संहिता पर उभरा आन्दोलन देश ने देखा है। आज भाजपा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है लेकिन इस बड़े दल में एक भी मुस्लिम न विधायक है और न ही सांसद है। केन्द्रीय मंत्री परिषद में एक भी मुस्लिम मंत्री नहीं है। क्या इस तरह की व्यवहारिकता से मुस्लिम समाज सरकार पर विश्वास कर पायेगा। देश के लिये यह बहुत ही कठिन समय है। सरकार को व्यवहारिक स्तर पर कुछ ठोस कदम उठाने होंगे जिससे विश्वास बहाल हो सके।

2795 करोड़ के निवेश का हिसाब क्या है?

मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू केन्द्रीय वित्त मंत्री, गृह मंत्री और प्रधानमंत्री से मिलकर प्रदेश को विशेष वित्तीय सहायता देने तथा कर्ज लेने पर लगी बंदीशे हटाने की गुहार लगा चुके हैं। इस समय प्रदेश का कर्जभार एक लाख करोड़ से अधिक हो चुका है। इसी सरकार के कार्यकाल में यह कर्ज भार बढ़कर डेढ़ लाख करोड़ तक पहुंच जाने की संभावना है। प्रदेश की वित्तीय स्थिति कब से बिगड़नी शुरू हुई है इसका इतिहास कोई बहुत लंबा नहीं है। स्व.रामलाल ठाकुर के कार्यकाल में प्रदेश 80 करोड़ के सरप्लस में था। यह तथ्य प्रो. धूमल के पहले कार्यकाल में लाये गए श्वेत पत्र में दर्ज हैं। स्व.ठाकुर रामलाल के बाद 1977 में शान्ता कुमार के कार्यकाल में आये नीतिगत बदलाव में प्राइवेट सैक्टर को प्रदेश के विकास में भागीदार बनने के प्रयास हुये। इन प्रयासों में औद्योगिक क्षेत्रों की स्थापना हुई। उद्योगों को आमंत्रित करने के लिये उन्हें हर तरह की सब्सिडी दी गयी। शान्ता काल में उद्योगों पर जो निर्भरता दिखाई गई वह आज दिन तक हर
सरकार के लिये मूल सूत्र बन गया। राजनेताओं के साथ ही प्रदेश की शीर्ष नौकरशाही ने भी स्वर मिला दिया है। किसी ने भी इमानदारी से यह नहीं सोचा कि उद्योगों के लिये प्रदेश में न तो कच्चा माल है और न ही पर्याप्त उपभोक्ता हैं। केवल सरकारी सहायता के सहारे ही प्रदेश में उद्योग आये। जैसे-जैसे सरकारी सहायता में कमी आयी तो उद्योगों का प्रवाह भी कम हो गया। इन्हीं उद्योगों की सहायता में प्रदेश का वित्त निगम और खादी बोर्ड जैसे कई अदारे खत्म हो गये। उद्योग विभाग के एक अध्ययन के मुताबिक प्रदेश में स्थापित हुये उद्योगों को कितनी सब्सिडी राज्य और केंद्र सरकार दे चुकी है उतना उद्योगों का अपना निवेश नहीं है। रोजगार के क्षेत्र में आज भी यह उद्योग सरकार के बराबर रोजगार नहीं दे पाये हैं। जबकि हर सरकार अपने-अपने कार्यकाल में नई-नई उद्योग नीतियां लेकर आयी है।
हिमाचल में गैर कृषकों को सरकार की अनुमति के बिना जमीन खरीदने पर प्रतिबन्ध है। जहां-जहां उद्योग क्षेत्र स्थापित हुये थे वहां श्रमिकों और उद्योग मालिकों को आवास उपलब्ध करवाने के लिये भवन निर्माणों की नीति कब बिल्डरों तक पहुंच गयी किसी को पता भी नहीं चला। जबकि धारा 118 की उल्लंघना पर चार आयोग जांच कर चुके हैं और एक रिपोर्ट पर भी अमल नहीं हुआ है। 1977 के दौर में जो उद्योग आये थे उनमें से शायद एक प्रतिशत भी आज उपलब्ध नहीं हैं। पूरा होटल सरकारी जमीन पर बन जाने के बाद जब चर्चा उठी तो सरकारी जमीन का प्राइवेट जमीन के साथ तबादला कर दिया गया। लेकिन ऐसी सुविधा कितनों को मिली यह चर्चा उठाने का मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि आज ईमानदारी से सारी नीतियों पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। पिछली सरकार के दौरान एक हजार करोड़ निवेश ऐसे भवनों पर कर दिये जाने का आरोप है जो आज बेकार पड़े हैं यह आरोप लगा है। लेकिन इसी के साथ आज जो निवेश एशियन विकास बैंक के कर्ज के साथ किया जा रहा है क्या वह कभी लाभदायक सिद्ध हो पायेगा शायद नहीं। इसलिये आज हर सरकार को यह सोचना पड़ेगा कि यह बढ़ता कर्जभार पूरे भविष्य को गिरवी रखने का कारण बन जायेगा।
आज जो कैग रिपोर्ट वर्ष 2023-24 की आयी है उसमें यह कहा गया है कि इस सरकार ने 2795 करोड़ रूपये कहां खर्च कर दिये हैं इसका कोई जवाब नहीं दिया जा सकेगा। कैग में पहली बार ऐसी टिप्पणी आयी है कि शायद यह निवेश उन उद्देश्यों के लिये खर्च नहीं किया गया है जिनके लिये यह तय था। कैग में यह टिप्पणी भी की गयी है कि 2023 में आयी आपदा के लिये सरकार ने 1209.18 करोड़ खर्च किया है जिसमें से केन्द्र सरकार ने 1190.35 करोड़ दिया है। आपदा राहत के इन आंकड़ों से सरकार के दावों और आरोपों पर जो गंभीर प्रश्न चिन्ह लग जाता है उसके परिदृश्य में राज्य सरकार केन्द्र सरकार से कैसे सहायता की उम्मीद कर सकती है। 2795 करोड़ का कोई हिसाब न मिलना अपने में प्रशासन पर एक गंभीर आरोप हो जाता है। एग्रो पैकेजिंग कॉरपोरेशन का एक समय विशेष ऑडिट करवाया गया था उस ऑडिट रिपोर्ट पर प्रबंधन के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया गया था। क्या आज भी सरकार ऐसा करने का साहस करेगी? जब तक सरकार का वित्तीय प्रबंधन प्रश्नित रहेगा तब तक कोई सहायता मिल पाना कैसे संभव होगा।

शिक्षा में प्राईवेट सैक्टर का दखल क्यों?

पिछले कुछ अरसे से शैक्षणिक संस्थानों में आत्महत्याएं बढ़ती जा रही हैं। सर्वाेच्च न्यायालय ने भी इस पर चिन्ता जताते हुये इन्हें रोकने के लिये टास्क फोर्स गठित करने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि इसके लिये बढ़ती प्रतिस्पर्धा और सीटों का सीमित होना एक बड़ा कारण है। सर्वाेच्च न्यायालय की इस चिन्ता पर एक व्यापक सार्वजनिक बहस होनी चाहिये। क्योंकि शिक्षा आज की मौलिक आवश्यकता और अधिकार बन चुकी है। इसी कारण से केन्द्र सरकार ने राइट टू एजुकेशन का विधेयक पारित किया हुआ है। यह विधेयक स्व. डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में पारित हो गया था। लेकिन इस विधेयक के पारित होने के बाद शैक्षणिक संस्थानों में आत्महत्या बढ़ी है। निजी शिक्षण संस्थानों पर यह आरोप बढ़ता जा रहा है कि इन संस्थाओं ने शिक्षा को एक व्यापारिक वस्तु बनाकर रख दिया है। प्राईवेट शिक्षण संस्थान इतने महंगे हो गये हैं कि आम आदमी वहां अपने बच्चों को पढ़ा नहीं सकता। महंगे शिक्षण संस्थानों में बच्चों को पढ़ना एक स्टेटस सिम्बल बनता जा रहा है। इसी के साथ सरकारी स्कूल के बच्चे और प्राईवेट स्कूल के बच्चों में एक ऐसी कुंठा भी बनती जा रही है जिसके परिणाम कालान्तर में समाज के लिये लाभदायक नहीं होंगे।
जब से सारी व्यवसायिक शिक्षा के लिये प्लस टू की पात्रता बना दी गयी है तब से एक नयी प्रतिस्पर्धा पैदा हो गयी है। इस प्रतिस्पर्धा को प्राईवेट कोचिंग सैन्टरों ने और बढ़ा दिया है। इन्हीं कोचिंग सैन्टरों में आत्महत्याएं बढ़ती जा रही है। यह कोचिंग इतने महंगे हो गये हैं कि आम आदमी इन सैन्टरों में बच्चों को कोचिंग दिलाने की सोच भी नहीं सकता। फिर नीट की प्रतियोगी परीक्षा में जिस तरह से पेपर लीक का प्रकरण घटा है और उसमें इन प्राईवेट संस्थानों की भूमिका सामने आयी है वह अपने में ही एक गंभीर संकट का संकेत है। इसलिये इस समस्या पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि एक भीख मांगने वाला भी चाहता है कि उसके बच्चे को भी अच्छी शिक्षा मिले और वह कुछ बने।
शिक्षा केन्द्र और राज्य सरकारों दोनों की सांझी सूची का विषय है। दोनों इस पर कानून बना सकते हैं। यदि केन्द्र और राज्य के कानून में कोई टकराव आये तब राज्य के कानून पर केन्द्र का कानून हावी होता है। हर राज्य सरकार ने अपने-अपने शिक्षा बोर्ड बना रखे हैं। जो पाठयक्रम और परीक्षा का आयोजन करते हैं। तकनीकी शिक्षा बोर्ड और विश्वविद्यालय भी गठित है। केन्द्र सरकार ने भी शिक्षा बोर्ड और विश्वविद्यालय गठित कर रखे हैं। पाठय पुस्तकों के लिये एन.सी.ई.आर.टी. गठित है। लेकिन यह सब होते हुये भी शिक्षा केन्द्र और राज्य दोनों का विषय बनी हुई है। इसी के कारण व्यवसायिक शिक्षा के लिये जे.ई.ई. और नीट की प्रतियोगिता परीक्षाएं आयोजित की जा रही है। इसलिये यह विचारणीय हो जाता है कि जब इन प्रतियोगी परीक्षाओं की मूल शैक्षणिक योग्यता प्लस टू है तब यदि पूरे देश में प्लस टू का पाठयक्रम ही एक जैसा कर दिया जाये और परीक्षा का प्रश्न पत्र भी एक ही हो तब इन प्रतियोगी परीक्षाओं की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। जब प्रतियोगी परीक्षा के लिये एक ही प्रश्न पत्र होता है तब उसी गणित से प्लस टू के लिये भी एक ही प्रश्न पत्र की व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती।
इस समय पूरे देश में एक ही पाठयक्रम एक ही प्रश्न पत्र की व्यवस्था जब तक नहीं की जाती है तब तक इस प्रणाली में सुधार नहीं किया जा सकता। इस शिक्षा को व्यापार बनाये जाने से रोकने की आवश्यकता है। शिक्षा और स्वास्थ्य हर आदमी की बुनियादी जरूरत है। इसमें जब तक प्राईवेट सैक्टर का दखल रहेगा तब तक शैक्षणिक संस्थानों में आत्महत्याएं और नकली दवायें तथा अस्पतालों में मरीजों का शोषण नहीं रोका जा सकता। इन क्षेत्रों में प्राईवेट सैक्टर का बढ़ता दखल एक दिन पूरी व्यवस्था को नष्ट कर देगा। समय रहते इस पर एक सार्वजनिक बहस आयोजित की जानी आवश्यक है।

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