सुक्खू सरकार ने जब प्रदेश की सत्ता संभाली थी तब शासन का सूत्र जनता के सामने व्यवस्था परिवर्तन का रखा था। इस व्यवस्था परिवर्तन को कभी भी परिभाषित नहीं किया गया था। जबकि देश की व्यवस्था संविधान के तहत चलती है। जिसमें संसद द्वारा समय-समय पर संशोधन भी हुये हैं। संविधान के तहत स्थापित प्रशासन को बचाने के लिए रूल्स ऑफ बिजनेस बने हुये हैं। जिसमें एक छोटे से छोटे कर्मचारी से लेकर मुख्य सचिव और मंत्री परिषद तक सबके अधिकार क्षेत्र पूरी तरह से परिभाषित है एक स्थापित नियमावली है। फिर इस सबसे ऊपर जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोक लाज सर्वाेपरि रहती है। इस व्यवस्था में से आप क्या बदलना चाहते थे वह अभी तक प्रदेश की जनता को स्पष्ट नहीं हो पाया है उसे समझाने का प्रयास करें। प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को इसलिये सत्ता सौंपी थी वह भाजपा से संतुष्ट नहीं थी। फिर कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के दौरान सत्ता में आने के लिये दस गारंटियां दे रखी थी। इस सब पर भरोसा करते हुये जनता ने आपको सत्ता सौंप दी। सत्ता में आते ही आपने प्रदेश की जनता को यह चेतावनी देकर डरा दिया कि राज्य के हालात कभी भी श्रीलंका जैसे हो सकते हैं। इस चेतावनी से लगा कि यह सरकार किसी भी तरह की फिजुल खर्ची नहीं करेगी। लेकिन व्यवहार में आपके खर्चे पिछली सरकार से कई गुना बढ़ गये। इन खर्चों को पूरा करने के लिये आम आदमी पर परोक्ष/अपरोक्ष करों का बोझ डालने और कर्ज लेने की नीति अपना ली। दो वर्षों में 5200 करोड़ का अतिरिक्त राजस्व प्रदेश की जनता से उगवाया। कर्ज लेने में अब पुरानी सारी सीमाएं लांघ गये। जब आपने सत्ता संभाली थी तब प्रदेश 76000 करोड़ के कर्ज के नीचे था। प्रदेश का कर्ज आज एक लाख करोड़ से बढ़ गया है। यह कर्ज और जनता से वसूला गया राजस्व कहां निवेश हुआ है शायद इसकी कोई जानकारी आपका तंत्र जनता के सामने रखने की स्थिति में नहीं है। क्योंकि आप कर्मचारियों के हर वर्ग को समय पर वेतन और पैन्शनरों को पैन्शन का भुगतान नहीं कर पा रहे हैं। आज आपको केंद्र से प्रदेश की कर्ज सीमा बढ़ाने का आग्रह करना पड़ रहा है। कंेद्र ने आपको ओ.पी.एस. की जगह यू.पी.एस. अपनाने का सुझाव दिया है। यही स्थिति अन्य गारंटीयों की है हरेक में किन्तु-परन्तु जोड़कर उनका दायरा कम करने का प्रयास किया जा रहा है। बेरोजगारी का मानक बढ़ता जा रहा है। यह सवाल उठने लगा है कि क्या कांग्रेस को प्रदेश की वितीय स्थिति की जानकारी नहीं थी? क्या कांग्रेस ने सत्ता में आने के लिये आम आदमी से झूठ बोला था। क्या जनता में एक भी गारंटी व्यवहारिक शक्ल ले पायी है शायद नहीं। सारी मंत्री परिषद वरिष्ठ विधायकों की है क्या इनको सदन में पारित होते रहे बजटों की समझ नहीं थी। यह स्थापित नियम है कि राज्य सरकारों को अपना राजस्व व्यय अपने ही साधनों से पूरा करना पड़ता है। केवल विकासात्मक आय बढ़ाने वाले कार्यों के लिये ही एक सीमा तक कर्ज लेने का प्रावधान है। जो राज्य कर्ज सीमा बढ़ौत्तरी के लिये सुप्रीम कोर्ट गये थे उन्हें शीर्ष अदालत ने इन्कार कर दिया है। इस वित्तीय स्थिति को सामने रखते आने वाला समय और कठिन होने वाला है। लेकिन सरकार ने प्रशासनिक स्तर पर जो फैसले आज तक ले रखे हैं वह सरकार पर भारी पढ़ने जा रहे हैं। आज सरकार के मुख्य सचिव के सेवाविस्तार को उच्च न्यायालय में चुनौती मिली हुई है क्योंकि उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला सीबीआई ने चला रखा है। सरकार के मुख्य सलाहकारों के खिलाफ मुख्यमंत्री स्वयं बतौर विपक्षी विधायक सदन में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगा चुके हैं। पावर कारपोरेशन में व्यापक भ्रष्टाचार ने एक व्यक्ति की जान ले ली है और इस पर सारा शीर्ष प्रशासन उच्च न्यायालय में नंगा हो गया है। प्रशासन में हर स्तर पर व्यवस्था का अतिक्रमण हो रहा है। भ्रष्टाचार को संरक्षण देना सरकार के साथ प्रदेश के स्वास्थ्य पर भी कुप्रभाव डाल रहा है। आज सरकार अपने ही कर्ज भार से दबने के कगार पर पहुंच चुकी है। जिस तरह के आरोप शिमला के एस.पी. ने पत्रकार वार्ता में लगाये हैं उनका जवाब भी देर सवेर जनता की अदालत में तो देना ही पड़ेगा। मुख्यमंत्री को सोचना होगा कि भ्रष्टाचार को संरक्षण देना व्यवस्था परिवर्तन नहीं अतिक्रमण होता है।





ऐसे में यह सवाल खड़ा हो गया है देश और संसद या सर्वदलीय बैठक में स्थिति स्पष्ट करने की बजाये विदेशों में अपना पक्ष रखने का विकल्प क्यों चुना गया। क्योंकि जब आई एम एफ ने पाकिस्तान को एक बिलियन डॉलर का ऋण पहलगाम की घटना के बाद स्वीकार किया तब एक देश ने इसका विरोध नहीं किया। जबकि इस कमेटी में भारत समेत पच्चीस देश सदस्य थे। भारत ने इसके विरोध में मतदान करने की बजाये बैठक का बहिष्कार करने का निर्णय लिया। किसी भी देश का समर्थन इस बैठक में हासिल क्यों नहीं कर पाया इसका जवाब भारत कैसे देगा? भारत-पाक के रिश्ते इस आतंक को लेकर तो देश के विभाजन के बाद से ही बिगड़ने शुरू हो गये थे। हर आतंकी घटना में पाक की परोक्ष/अपरोक्ष में भूमिका रही है। फिर प्रधानमंत्री मोदी पिछले ग्यारह वर्षों में इस विषय पर अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को क्यों नहीं समझा पाये हैं? जबकि भारत तो विश्व गुरु होने का दावा करता आया है। ऑपरेशन सिंदूर के बाद जिस तरह से विदेश सचिव विक्रम मिस्त्री और उनके परिवार को ट्रोल किया गया उसका क्या जवाब है? कर्नल सोफिया कुरैशी को जिस भाषा में मध्यप्रदेश के मंत्री विजय शाह ने अपशब्द कहे हैं उसका अदालत ने तो कड़ा संज्ञान ले लिया लेकिन भाजपा संगठन की इस बारे में आज तक खामोशी का क्या जवाब है। प्रधानमंत्री इस ट्रोल पर क्यों खामोश हैं?
अभी जो सांसद विदेश डैलीगेशन में भेजे जा रहे हैं उनके चयन में उनके दलों को विश्वास में क्यो नहीं लिया गया? जो नाम दलों ने भेजे उनकी जगह सरकार ने दूसरे ही लोगों का चयन क्यों कर लिया? क्या इसमें दलों की सहमति नहीं रहनी चाहिये थी। क्या इसे राजनीति के आईने में नही देखा जायेगा। जब विदेश में इस ट्रोल को लेकर पूछा जायेगा तो क्या जवाब दिया जायेगा? क्योंकि यह वीडियोज तो पूरे विश्व में देखे जा रहे होंगे। पाक पर कारवाई का विदेश मंत्री का वीडियो जिसमें वह कह रहे हैं कि हमने हम्लों की सूचना पहले ही पाकिस्तान को दे दी थी। इसका क्या जवाब दिया जायेगा। आज सबसे पहले अपने देश की जनता, सभी राजनीतिक दलों और संसद के सामने सारी स्थितियां स्पष्ट की जानी चाहिये थी क्योंकि पूरा देश सरकार और सेना के साथ खड़ा रहा है। इसलिये ऑपरेशन सिंदूर के बाद उठे सवालों पर यहां जवाब दिया जाना आवश्यक हो जाता है।


















देश में इस तरह की आतंकी गतिविधियों एक लम्बे अरसे से चली आ रही है और अधिकांश में इन्हें सीमा पार से प्रायोजित करार दिया जाता रहा है। जम्मू कश्मीर में सीमा पार के कुछ संपर्क होने के भी आरोप लगते आये हैं। इन आरोपों के परिणाम स्वरुप नोटबन्दी लागू की गयी थी। कहा गया था कि इससे आतंकवाद की रीढ़ टूट जायेगी। लेकिन नोटबन्दी के बाद भी यह घटनाएं रुकी नहीं है। सीमा पार के जम्मू कश्मीर में संपर्क होने के कारण ही जब 14 फरवरी 2019 को पुलवामा घट गया तब 5 अगस्त 2019 को संसद में जम्मू कश्मीर पुनर्गठन विधेयक पारित करके प्रदेश को दो केन्द्र शासित राज्यों लद्दाख और जम्मू कश्मीर में विभाजित कर दिया गया। धारा 370 के तहत मिला विशेष राज्य का दर्जा समाप्त कर दिया गया। प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। इस तरह जम्मू कश्मीर अब केन्द्र शासित प्रदेश है और ऐसे में वहां सुरक्षा की सारी जिम्मेदारी केन्द्र पर आ जाती है। अब जब इस घटना के बाद सर्वदलीय बैठक हुई तो उस बैठक से प्रधानमंत्री गायब रहे। बैठक में गृह मंत्री और सुरक्षा सलाहकार डोभाल शामिल रहे। बैठक में सरकार ने स्वीकार किया कि सुरक्षा में चूक हुई है। लेकिन इस चूक के लिये जो कारण बताया वह एकदम गले नहीं उतरता। यह कहा गया कि जिस जगह यह घटना घटी है वह रास्ता अमरनाथ यात्रा के दौरान जून में खुलता है। वहां पर्यटक कैसे चले गये इसका पता ही नहीं चला। यह शुद्ध गलत ब्यानी है क्योंकि जो रिपोर्टस प्रैस के माध्यम से सामने आयी है उसके मुताबिक तो वहां पर हर समय पर्यटक जाते रहते हैं। पहलगाम का विकास प्राधिकरण बाकायदा पर्यटकों से टोल वसूल करता है। यह काम किसी प्राइवेट आदमी को दिया गया है। पहलगाम के डी.एम. को इसकी जानकारी रहती है। यह सब कुछ वीडियोज के माध्यम से देश के सामने आ चुका है। वहां पर दो हजार पर्यटक मौजूद थे ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि इतने लोगों के वहां होने की सूचना खुफिया एजैन्सी को न मिली हो। यह सामने आ चुका है कि आईबी के पास ऐसी सूचना थी की घाटी में कोई वारदात हो सकती है। इस सूचना पर उच्च स्तरीय बैठक होने की भी जानकारी है। इसी जानकारी के आधार पर प्रधानमंत्री का घाटी दौरा रद्द किया गया था। यह सवाल इसलिये प्रासंगिक हो जाते हैं क्योंकि पुलवामा को लेकर जो सवाल तत्कालीन राज्यपाल सतपाल मलिक ने अपना पद छोड़ने के बाद उठाये हैं उनसे देश बहुत सतर्क और सजग हो चुका है।
इस समय जब पूरा देश सरकार और प्रधानमंत्री के साथ एक जूटता के साथ खड़ा है तब यह अपेक्षा तो सरकार और प्रधानमंत्री से रहेगी कि वह देश को पूरे तथ्यों से अवगत करवायें। जब सर्वदलीय बैठक में यह स्वीकार कर लिया है की सुरक्षा में चूक हुई है तो इस चूक के लिये किसी को दण्डित भी किया जाना आवश्यक है ताकि जनता आश्वस्त हो सके।