Thursday, 18 September 2025
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ट्रंप के खुलासे पर मोदी की चुप्पी के मायने

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खुलासे से भारत की राजनीति में एक भूचाल की स्थिति पैदा हो गयी है। क्योंकि ट्रंप के ब्यानों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा और आर.एस.एस. सभी सवालों के घेरे में आ गये हैं। क्योंकि अमेरिका द्वारा यू.एस ड के नाम पर भारत को इक्कीस मिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता चुनावों में वोटर टर्न आउट बढ़ाने के लिये दी जा रही थी। ट्रंप ने नाम लेकर कहा है कि यह सहायता उनके दोस्त नरेन्द्र मोदी को दी गयी है। यदि ट्रंप का यह ब्यान सही है तो यह माना जायेगा कि अमेरिका इस सहायता के नाम पर भारत की चुनावी राजनीति में दखल दे रहा था। भारत में ई.वी.एम. की विश्वसनीयता पर लम्बे समय से सवाल उठते आ रहे हैं। इस बार तो वोटर टर्न आउट पर भी सवाल उठे हैं। चुनाव आयोग और मुख्य चुनाव आयुक्त सवालों के घेरे में चल रहे हैं। मामला अदालत जा पहुंचा है। इसलिये वोटर टर्नआउट बढ़ाने के लिये अमेरिका द्वारा आर्थिक सहायता देना एक गंभीर मुद्दा बन जाता है। विपक्ष बराबर सवाल पूछ रहा है कि इस सहायता को कैसे इस्तेमाल किया गया है। किन संस्थानों और व्यक्तियों को इस कार्य पर लगाया गया? आर.एस.एस. के भारत मे पंजीकृत न होने को लेकर आर.टी.आई. के माध्यम से विवाद खड़ा हो गया है। संघ पर इसलिये सवाल खड़े हो रहे हैं क्योंकि नरेन्द्र मोदी 1993 तक अमेरिका के तेईस राज्यों का भ्रमण कर चुके थे और लीडरशिप ट्रेनिंग वहां से ले चुके थे जब वह एक साधारण स्वयं सेवक थे। मोदी, भाजपा और संघ पर उठते सवाल हर दिन गंभीर होते जा रहे हैं। सारे सवाल मोदी दोस्त ट्रंप के ब्यानों से उठे हैं। ट्रंप सच बोल रहे हैं या मोदी, भाजपा और संघ को प्रश्नित करने के लिये कर रहे इस पर से पर्दा मोदी और संघ, भाजपा की व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओं से ही उठ सकता है। लेकिन इनकी चुप्पी इसको लगातार गंभीर बनाती जा रही है।
ट्रंप के खुलासे के बाद अमेरिका से अवैध भारतीय प्रवासियों का हथकड़ियां और बेडियो में जकड़ कर वापस भेजा जाना एक राष्ट्रीय शर्म बन गयी है। भारत इस पर अपनी कोई कड़ी प्रतिक्रिया दर्ज नहीं करवा पाया है। उल्टे मोदी के मंत्रियों एस.जय शंकर और मनोहर लाल खट्टर के ब्यानों ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। ट्रंप ने अमेरिकी सहायता को बन्द किये जाने का तर्क यह दिया है कि भारत टैरिफ के माध्यम से बहुत ज्यादा कमाई कर रहा है इसलिये उसे सहायता नहीं दी जानी चाहिये। ट्रंप के इस फैसले और अदाणी प्रकरण के कारण भारत के शेयर बाजार में निराशाजनक मन्दी शुरू हो गयी है। विदेशी निवेशकों ने अपनी पूंजी निकालना शुरू कर दी है। लेकिन इस सब पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारत सरकार की चुप्पी ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है।
ट्रंप के ब्यानों का प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कोई जवाब न दिया जाना अपने में एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है। मोदी की यह चुप्पी भाजपा और संघ पर भी भारी पड़ेगी यह तय है। इससे आने वाले समय में भाजपा को बड़ा नुकसान हो सकता है। इसलिये इस संभावित नुकसान से बचने के लिये देश में मोदी और भाजपा का कोई राजनीतिक विकल्प ही शेष न बचे इस दिशा में कुछ घटने की संभावनाएं हैं। इस समय भाजपा का विकल्प कांग्रेस और मोदी का विकल्प राहुल गांधी बनते नजर आ रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस को कमजोर सिद्ध करने के लिये उसकी राज्य सरकारों को अस्थिर करने की रणनीति पर काम करना आसान है। क्योंकि आज कांग्रेस में एक बड़ा वर्ग संघ, भाजपा और मोदी समर्थकों का मौजूद है। यदि कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व कांग्रेस के भीतर बैठे भाजपा के संपर्कों को बाहर नहीं निकाल पाता है तो कांग्रेस अपने ही लोगों के कारण राष्ट्रीय विकल्प बनने से बाहर हो जायेगी और यह स्थिति देश के लिये घातक होगी। क्योंकि मोदी और भाजपा तो ट्रंप के आगे पहले ही जुबान बन्द करके बैठ गये हैं। यदि समय रहते इस स्थिति को न संभाला गया तो देश आर्थिक गुलामी के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पायेगा।

"एक देश एक चुनाव" की अभी वकालत के मायने

इन दिनों भाजपा का प्रदेश नेतृत्व जिस तर्ज पर एक देश एक चुनाव की वकालत करने लग गया है उससे हर आदमी का ध्यान इस ओर जाना स्वभाविक है। क्योंकि एक देश एक चुनाव के मुद्दे पर विचार करके अपनी रिपोर्ट देना के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में केंद्र सरकार ने 2 सितम्बर 2023 को एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने 191 दिनों के बाद 14 मार्च 2024 को 18626 पन्नों की रिपोर्ट सौंप दी थी। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस रिपोर्ट को अपनी स्वीकृति देकर लोकसभा में पेश कर दिया था। लोकसभा में इसे संयुक्त संसदीय दल को सौंप दिया गया था। अभी यह रिपोर्ट संसदीय दल से वापस नहीं आयी है। संभव है कि संयुक्त संसदीय दल इस पर विचार करने के लिये और समय की मांग करें। जब तक संसदीय दल की रिपोर्ट नहीं आ जाती है तब तक यह मुद्दा आगे नहीं बढ़ेगा। फिर एक देश एक चुनाव लागू करने से पहले जनगणना किया जाना आवश्यक है और अभी तक इस दिशा में कोई व्यवहारिक कदम नहीं उठाये गये हैं। अभी महिलाओं को जो आरक्षण संसद और राज्य विधान सभाओं में देने का विधेयक पास हो रखा है उसे कब से लागू किया जाना है उसकी तारीख अभी तक घोषित नहीं हो पायी है। ऐसे में एक देश एक चुनाव के लिये अभी समय लगेगा यह तय है। लेकिन जिस तर्ज पर राज्य भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इसके लिये अभी से जमीन तैयार करने में लग गया है वह केंद्रीय निर्देशों के बिना संभव नहीं हो सकता।
इस पृष्ठभूमि में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि इस समय इस मुद्दे को क्यों परोसा जा रहा है। अभी लोकसभा का अगला चुनाव तो 2029 में होना है। 2029 के चुनाव में भी इसे लागू करने के लिये संविधान की धारा 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन करने पड़ेंगे। दो तिहाई राज्य विधान सभाओं से इसे पारित करवाना पड़ेगा। कोविन्द कमेटी ने इस पर राज्यों से कोई विचार विमर्श नहीं किया है। सारे राजनीतिक दलों ने इस पर अपनी राय व्यक्त नहीं की है। एक देश एक चुनाव के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यही है कि इससे चुनावों पर होने वाले खर्च में कमी आयेगी। खर्च के साथ ही अन्य संसाधनों में भी बचत होगी। लेकिन क्या संसद और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ करवाने से चुनावों की निष्पक्षता पर उठने वाले सवाल स्वतः ही शान्त हो जायेंगे। इस समय चुनावों की निष्पक्षता पर उठते सवालों पर चुनाव आयोग से लेकर शीर्ष अदालत तक घेरे में आती जा रही है। आज आवश्यकता चुनावों पर विश्वसनीयता बढ़ाने की है जो हर चुनाव के बाद घटती जा रही है। वर्तमान चुनाव व्यवस्था पर लगातार विश्वास कम होता जा रहा है। इसी विश्वास घटने का परिणाम है कि 2019 के चुनावों में 303 का आंकड़ा पाने वाली भाजपा इस बार 240 से आगे नहीं बढ़ पायी है। क्योंकि भाजपा की राजनीतिक विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठने शुरू हो गये हैं।
विश्व गुरु होने का दावा करने वाले देश के साथ इन दिनों जिस तरह का व्यवहार अमेरिका का ट्रंप प्रशासन कर रहा है उससे प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों पर गंभीर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। एक समय अबकी बार ट्रंप सरकार का आहवान कर चुके मोदी को इस बार ट्रंप के शपथ समारोह में शामिल होने के लिये आमंत्रण न मिल पाना पहला सवाल है। दूसरा सवाल अवैध अप्रवासी भारतीयों को हथकड़ियां और बेड़ियां पहना कर अमेरिका से भेजा गया। भारत इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दर्ज करवा पाया है। तीसरा सवाल यू एस एड के तहत करीब 182 करोड रूपये मिलने को लेकर आये खुलासे हैं। इसी कड़ी में जब नरेंद्र मोदी का यह वक्तव्य सामने आया कि उन्होंने 1994 तक अमेरिका के 29 राज्यों का दौरा कर लिया था जब वह एक सामान्य नेता भी नहीं थे। इस खुलासे से उनके चाय बेचने और अपना गुजारा चलाने के लिये और कुछ करने के दावों पर प्रश्न उठ गये हैं। यह सारे प्रश्न आने वाले समय में और गंभीर तथा विस्तार लेकर सामने आयेंगे। क्योंकि यह सवाल उठने लग गया है कि मोदी सरकार द्वारा लिया गया हर फैसला परोक्ष/अपरोक्ष में अमेरिकी हितों के बढ़ाने वाला रहा है। जिससे कालान्तर में देश अमेरिका की आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ेगा। जैसे-जैसे यह सवाल बढ़ेंगे उसी अनुपात में भाजपा और मोदी की विश्वसनीयता कम होती जायेगी। इस स्थिति से बचने के लिये देश में भाजपा और मोदी के विकल्प पर बहस उठने से पहले ही देश में कुछ ऐसे मुद्दे खड़े कर दिये जायें जहां उनके विकल्प पर ही एक राय न बन सके।

दिल्ली की हार से कांग्रेस पर उठते सवाल

दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस इस बार भी शुन्य से आगे नहीं बढ़ पायी। जबकि लोकसभा में 2014 में 44 और 2019 में 57 से बढ़कर इस बार 99 तक पहुंच गयी तथा नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल कर लिया। लेकिन लोकसभा में बढ़ने के बाद हुए हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव हार गयी तथा दिल्ली में फिर खाता तक नहीं खोल पायी। राम जन्मभूमि और मंदिर निर्माण आन्दोलन से लेकर अन्ना हजारे तथा स्वामी रामदेव के भ्रष्टाचार विरोध में लोकपाल की मांग को लेकर उठे आन्दोलन का प्रभाव रहा है कि कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी तथा भाजपा के हाथ में सता आ गयी। इसी सबके प्रभाव और परिणाम स्वरुप कांग्रेस से कई नेता दल बदल कर भाजपा में शामिल हो गये। लगभग सभी राज्यों में ऐसा हुआ। कई राष्ट्रीय पंक्ति के नेता भी कांग्रेस छोड़ गये। भाजपा को 2014 में 282 और 2019 में 303 सीटें मिली। इसी के आधार पर 2024 में अब की बार चार सौ पार का नारा लगा लेकिन 240 से आगे नहीं बढ़ पायी और सहयोगियों के सहयोग से सरकार बन पायी। इस तरह के राजनीतिक परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि कांग्रेस यह विधानसभा चुनाव क्यों हार गयी और इसका परिणाम क्या होगा।
2014 से 2024 तक हुये हर चुनाव में ईवीएम और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं। इन सवालों के साक्ष्य भी सामने आये और मामला अदालतों तक भी पहुंचा। यह मांग की गयी कि चुनाव ईवीएम की जगह मत पत्रों से करवाये जायें। लेकिन अदालत ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया और चुनाव आयोग को पारदर्शिता के लिये कुछ निर्देश जारी कर दिये। अब हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में जो साक्ष्य सामने आये और उसके आधार पर सर्वाेच्च न्यायालय के निर्देशों के तहत यचिकाएं अदालतों में आ चुकी हैं। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिये नियम बदल दिये गये और ईवीएम तथा चुनाव आयोग के विरुद्ध एक जन आन्दोलन का वातावरण निर्मित हुआ लेकिन इस वातावरण को इण्डिया गठबंधन के घटक दलों ने ही सहयोग नहीं दिया। इण्डिया गठबंधन के मंच तले लोकसभा का चुनाव लड़कर भाजपा को 240 पर रोक कर यह गठबंधन हरियाणा और दिल्ली में बिखर गया तथा हार गया।
लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिये जिस विपक्षी एकता की आवश्यकता महसूस की गयी वही एकता विधानसभा चुनावों के लिये भी आवश्यक थी यह एक सामान्य समझ का विषय है। दिल्ली में जब आप ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला तब सपा आरजेडी और टीएमसी तथा एनसीपी (पवार ग्रुप) सभी ने दिल्ली में आप को सहयोग और समर्थन दिया। कांग्रेस को अकेले उतरना पड़ा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इण्डिया के घटक दलों को अपने-अपने यहां कांग्रेस का पूरा सहयोग और समर्थन चाहिये लेकिन इसके लिये कांग्रेस को बराबर का हिस्सा नहीं देंगे। इस तरह घटक दलों के प्रभाव क्षेत्रों में कांग्रेस का अपना नेतृत्व स्वीकार्य नहीं की व्यवहारिक नीति पर घटक दल चल रहे हैं और यही भाजपा की आवश्यकता है। इससे कांग्रेस को घटक दलों और भाजपा के खिलाफ एक साथ लड़ने की व्यवहारिक आवश्यकता बनती जा रही है। समूचे विपक्ष के सामने हर चुनाव में ईवीएम के खिलाफ और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। इस समय यह स्थिति बन चुकी है कि विपक्ष या तो इस मुद्दे पर निर्णायक लड़ाई एक जन आन्दोलन के माध्यम से लड़ने का फैसला ले और उसके लिये चुनावों का बहिष्कार भी करना पड़े तो उसके लिये भी तैयार रहे अन्यथा इस मुद्दे को बन्द कर दिया जाये।
इस तरह कांग्रेस को यह मानकर चलना होगा कि उसे जनता में अपनी विश्वसनीयता स्थापित करने के लिये कांग्रेस को बौद्धिक आधार पर मजबूत बनाना होगा। क्योंकि कांग्रेस केन्द्र की सत्ता में तो है नहीं इसलिये उसे अपनी राज्य सरकारों के माध्यम से ही अपनी विश्वसनीयता बनानी होगी। कांग्रेस को हर राज्य की वित्तीय स्थिति का व्यावहारिक आकलन करके ही अपने चुनाव घोषणा पत्र जारी करने होंगे। सत्ता पाने के लिये किये गये अव्यवहारिक वायदे कभी भी कोई सरकार पूरे नहीं कर सकती है। इस समय हिमाचल की सुक्खू सरकार से मतदाता का हर वर्ग नाराज है। सरकार ने प्रदेश पर इतना कर्ज भार डाल दिया है कि आने वाले दिनों में स्थितियां बहुत भयंकर हो जायेंगी। इस समय हिमाचल सरकार के फैसले हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली चुनाव में चर्चा का मुद्दा रहे हैं जिससे कांग्रेस की विश्वसनीयता पर सवाल उठे हैं।

क्या दिल्ली के बाद एजैण्डे में हिमाचल और पंजाब है?

दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक लम्बे अन्तराल के बाद भाजपा को जीत हासिल हुई है। इस चुनाव में केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी की हार हुई है। लेकिन सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस लगातार तीसरी बार शुन्य से आगे नहीं बढ़ पायी है। यह तीनों राजनीतिक घटनाएं ऐसी हैं जिनका भविष्य की राजनीति पर गहरा और दूरगामी असर पड़ना तय है। आम आदमी पार्टी की हार तब से इंगित होने लग पड़ी थी जब दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार का शक्तियों को लेकर टकराव सर्वाेच्च न्यायालय में जा पहुंचा था। इस टकराव का चरम तब आ गया था जब केन्द्र सरकार ने सर्वाेच्च न्यायालय के फैसलों को पलटने के लिये अध्यादेश लाने का रास्ता चुना था। तब यह स्पष्ट हो गया था कि केन्द्र दिल्ली में किसी भी सरकार को स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं करने देगा। फिर चुनावों की घोषणा के बाद आठवें वित्त आयोग का गठन और उसकी सिफारिशों के संकेत बाहर आना तथा केन्द्रीय बजट में बारह लाख की आयकर राहत मिलना तात्कालिक प्रभावी कारण रहे हैं। इन्हीं कारणों के बीच आप और कांग्रेस में चुनावी समझौता न हो पाने ने आप की हार को और सुनिश्चित कर दिया था।
लेकिन क्या बीजेपी का एजेण्डा दिल्ली की इस जीत से पूरा हो जाता है? यह सवाल इसलिये प्रसांगिक हो जाता है कि दिल्ली प्रशासन ने चुनाव परिणामों के बीच ही जब भाजपा की जीत सुनिश्चित हो गई थी तब दिल्ली सरकार के सचिवालय को सील कर दिया था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि केन्द्र की कार्य योजना इस जीत से आगे की भी है। इस समय दिल्ली से लेकर उत्तराखण्ड तक पंजाब में आप और हिमाचल में कांग्रेस की सरकारे हैं। उत्तराखंड में सम्मान नागरिक संहिता कानून लागू हो चुका है। इस कानून को पूरे उत्तरी क्षेत्र में लागू करने के लिये यही दो विपक्ष की सरकारी हैं। यूनिफाइड सिविल कोड हिन्दू एजेण्डे का एक प्रमुख सूत्र है। भाजपा का आधार ही हिंदू राष्ट्र की परिकल्पना है। इसी सूत्र के आधार पर तो भाजपा केन्द्र की सत्ता तक पहुंची है। राम मन्दिर आन्दोलन और बाबरी मस्जिद गिराया जाना आरक्षण विरोध आन्दोलन में आत्मदाह जैसे पड़ाव भाजपा ने देखे हैं। यदि आरक्षण विरोध का आन्दोलन मण्डल बनाम कमण्डल न हो जाता तो शायद हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का एजेण्डा कब का पूरा हो चुका होता। यह मण्डल आन्दोलन का परिणाम था कि बड़े राज्यों में सत्ता ओबीसी के हाथों में आ गयी। भाजपा को अपने एजेण्डे तक पहुंचाने के लिए राज्यों के क्षत्रपों और कांग्रेस के साथ एक ही वक्त में एक साथ भिड़ना पड़ा। घोषित हिन्दू एजेण्डे को राजनीतिक तौर पर नेपथ्य में रखते हुये भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा बनाकर लोकपाल की मांग का बड़ा आन्दोलन छेड़ना पड़ा। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे लोग सामने लाकर आन्दोलन छेड़ना पड़ा। भ्रष्टाचार और काले धन के बड़े-बड़े आंकड़े जनता में उछालने पड़े। कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय करार देकर कांग्रेस में तोड़फोड़ के लिये जमीन तैयार करनी पड़ी। राहुल गांधी को पप्पू करार देने का एजेण्डा चला। 2014 और 2019 के चुनाव में अलग-अलग वायदे परोस कर संविधान में बदलाव का आधार तैयार किया गया। राम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा से अब की बार चार सौ पार के नारे का आधार तैयार किया गया।
लेकिन भाजपा के इन आधारों को राहुल गांधी की पद यात्राओं और उन में संविधान की पुस्तिका हाथ में लेकर राहुल यह संदेश देने में सफल हो गये कि यदि चार सौ पार का नारा सफल हो जाता है तो फिर संविधान को बदलकर ही हिन्दू राष्ट्र का उद्देश्य पूरा कर लिया जायेगा। परन्तु ऐसा हो नहीं सका और भाजपा 240 पर आकर ही रुक गयी। इसलिए अब यू.सी.सी. का रूट लेकर हिन्दू राष्ट्र तक पहुंचना होगा। इसके लिये भाजपा शासित राज्यों में इसे लागू करने के रोड मैप पर चलना होगा। दिल्ली की जीत के बाद उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो पहले ही भाजपा की सरकार हैं। ऐसे में यदि पंजाब और हिमाचल में भी कोई खेल करके यह उद्देश्य पूरा हो जाये तो महाराष्ट्र और गुजरात तक कोई रोक नहीं रह जाती है। हिमाचल में खेल करने की जमीन तैयार है। जब तक कांग्रेस हाईकमान इस पर सोचने लगेगी तब तक हिमाचल में यह घट चुका होगा ऐसा माना जा रहा है। पंजाब को लेकर तो चर्चाएं तेज हो ही चुकी है।

सरकार को बताना होगा की आत्मनिर्भरता का रोड मैप क्या है

प्रदेश का कर्ज भार एक लाख करोड़ का आंकड़ा पार कर गया है। सुक्खू सरकार ने जब दिसम्बर 2022 में सत्ता संभाली थी तब 2021-22 का कर्ज भार 64000 करोड़ के करीब था। जिस गति से यह कर्ज भार बड़ रहा है उससे यह लगता है कि इसी सरकार के कार्यकाल में यह कर्ज 1.5 लाख करोड़ का आंकड़ा पार कर जायेगा। इस वित्तीय परिदृश्य में मुख्यमंत्री सुक्खू प्रदेश को 2027 में आत्मनिर्भर बनाने का दावा कर रहे हैं। यही नहीं 2030 में प्रदेश को देश के अग्रणी राज्यों की श्रेणी में लाने का दावा कर रहे हैं। प्रदेश के वित्तीय कुप्रबंधन के लिये पूर्व की जयराम सरकार द्वारा प्रदेश की ग्रामीण जनता को मुफ्त पानी देने के लिये 125 यूनिट बिजली फ्री देने को बड़ा कारण बता रहे हैं। इसी के साथ नये संस्थान खोलने को भी एक कारण करार दे रहे हैं। यदि वित्तीय कुप्रबंधन के लिये इन मुफ्ती की योजनाओं को मुख्यमंत्री के मुताबिक एक बड़ा कारण मान लिया जाये तो यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने चुनाव के दौरान जो गारंटीयां प्रदेश की जनता को दी थी उन्हें किस श्रेणी में रखा जाना चाहिये। कांग्रेस ने 18 से 60 वर्ष की हर महिलाओं को 1500 रूपये प्रतिमाह देने का वायदा किया था। हर उपभोक्ता को 300 यूनिट बिजली मुफ्त देने की घोषणा की थी। यदि मुफ्त पानी देने और 125 यूनिट बिजली मुफ्त देने से प्रदेश का वित्तीय गणित बिगड़ गया है तो कांग्रेस के इन वायदों से क्या स्थिति हो जायेगी? मुख्यमंत्री जिस तरह का तर्क दे रहे हैं उससे सारी स्थिति संदेहास्पद हो जाती है। क्योंकि अब तो वित्त आयोग ने प्रदेश को मिलने वाली कर राजस्व घाटा राशि भी घटा दी है। इसमें 5500 करोड़ कम मिलेंगे। राज्यों की कर्ज लेने की सीमा को जो कोविड कॉल में जीडीपी का 5 प्रतिश्त कर दी गई थी अब उसे फिर 3.5 प्रतिशत कर दिया गया है। इस तरह राज्यों को कर्ज और ग्रांट दोनों में जब कमी आयेगी तो फिर राज्य सरकार के पास वित्तीय संसाधन कहां से आएंगे यह बड़ा सवाल बन जाता है। सरकार प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर लाये श्वेत पत्र में यह सब कह चुकी है। ऐसे में जब सरकार
के पास संसाधन ही नहीं होंगे तब वह अपने में किसी भी वायदे को घोषणाओं के अतिरिक्त अमली जामा कैसे पहना पायेगी? अभी सरकार को सत्ता में आये दो वर्ष हुये हैं। इन दो वर्षों में अपने संसाधन बढ़ाने के लिये हर उपभोक्ता वस्तु पर शुल्क बढ़ाया है। अब पानी और बिजली जो पहले मुफ्त मिल रही थी उसकी पूरी कीमत वसूलनी शुरू कर दी है। इन सारे उपायों से सरकार ने 2200 करोड़ का अतिरिक्त राजस्व जुटाया है। 2024-25 में प्रदेश के कुल व्यय और आय में करीब 11000 करोड़ का घाटा रहा है। हर वर्ष करीब 10 प्रतिश्त व्यय बढ़ जाता है। 2024-25 में पूंजीगत व्यय के लिये केवल 6270 करोड़ रखे गये हैं जो की 2023-24 के संशोधित अनुमानों से 8 प्रतिश्त कम है। इस तरह जो स्थितियां बनती जा रही हैं उनके मुताबिक आने वाले समय में पूंजीगत व्यय लगातार कम होता जायेगा। क्योंकि प्रतिबद्ध व्यय में 10 से 11 प्रतिश्त की वृद्धि होनी ही है। जब पूंजीगत व्यय के लिये प्रावधान कम होता जायेगा तो निश्चित रूप से सारे विकास कार्य केवल घोषणाओं तक ही सीमित रहेंगे और व्यवहार में नहीं उतर पाएंगे।
ऐसे में जब मुख्यमंत्री प्रदेश को 2027 तक आत्मनिर्भर बनाने का दावा कर रहे हैं तो स्वभाविक है कि सरकार तब तक अपनी आय में इतनी वृद्धि कर लेगी कि उससे आय और व्यय बराबरी पर आ जायेंगे। लेकिन ऐसा संभव कैसे होगा। क्या इसके लिये प्रतिबद्ध खर्चों में कमी की जायेगी? सबसे ज्यादा खर्च वेतन और पैन्शन पर आता है। क्या इसके लिये आगे नियमित रोजगार में कमी की जायेगी? जिस तरह बिजली बोर्ड में युक्तिकरण के नाम पर कर्मचारियों के पदों में कटौती की जा रही है वैसा ही सारी सरकार में होगा। इस समय कर्मचारियों के बकाये के रूप में करीब 9000 करोड़ की देनदारी है। क्या इस सबके लिये आम आदमी पर करों और शुल्क का भार बढ़ाने के अतिरिक्त और कोई साधन संभव है? क्या सारा कुछ प्राइवेट सैक्टर के हवाले करने की योजना बनाई जा रही है? क्योंकि सरकार में मंत्रियों और दूसरे राजनीतिक पदों पर हो रहे खर्चों में तो कोई कमी देखने को नहीं मिल रही है। ऐसे में आम आदमी ही बचता है जिसे किसी भी नाम पर ठगा जा सकता है? जब मुफ्ती की हर घोषणा वित्तीय संतुलन को बिगाड़ देती है तो फिर कांग्रेस भी हर चुनाव के लिये ऐसी घोषणाएं क्यों करती हैं। क्या मुख्यमंत्री और उनके सलाहकार हाईकमान के सामने अपने तर्क नहीं रख पाते हैं? क्या आने वाले बजट में सरकार यह इमानदारी बरतनेे का साहस करेगी कि जो कुछ भी करों और शुल्कों में बढ़ौतरी की जानी है इसकी घोषणा बजट के रिकॉर्ड पर आयेगी या फिर आम आदमी को ठगने के लिए फिर कर मुक्त बजट देने की प्रथा निभाई जायेगी। यह बजट सरकार और पूरी पार्टी की ईमानदारी का एक दस्तावेज बनेगा यह तय है। क्योंकि अब सरकार की कथनी और करनी पर सीधे सवाल उठने का समय आ गया है। सरकार को बताना होगा कि उसका प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाने का रोड मैप क्या है?

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