Monday, 15 December 2025
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क्या शिक्षा और स्वास्थ्य में प्राईवेट सैक्टर का दखल होना चाहिये

क्या शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में निजी क्षेत्र का दखल होना चाहिये? यह सवाल इसलिये प्रसांगिक है क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य रोटी, कपड़ा और मकान के बाद महत्वपूर्ण बुनियादी आवश्यकता बन जाती है। कल्याणकारी राज्य व्यवस्था में हर नागरिक के लिये इन मूल आवश्यकताओं को उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी हो जाती है। इन्हें पूरा करने के लिये केंद्र से लेकर राज्य सरकारों तक ने कई योजनाएं शुरू कर रखी हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र में केंद्र सरकार ने आयुषमान भारत योजना में 70 वर्ष से अधिक की आयु वाले बुजुर्गों को पांच लाख तक के मुफ्त इलाज की सुविधा प्रदान कर रखी है। राज्य सरकार ने भी कैंसर के रोगियों के लिये मुफ्त इलाज की घोषणा कर रखी है। अस्पताल में इन योजनाओं का लाभ लेने के लिये इतनी औपचारिकताएं लगा दी गयी हैं कि जब तक मरीज के साथ दो तामीरदार न हों तब तक इन योजनाओं का लाभ रोगी को नहीं मिल सकता। इसलिये इन औपचारिकताओं को जब तक हटाया या सरल नहीं किया जाता है तब तक इनका व्यवहारिक लाभ मिलना कठिन है। इसी के साथ इसका दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है कि अस्पताल में रोगी को मुफ्त में दी जा रही इन दवाईयों और अन्य उपकरणों को सरकार प्राइवेट सैक्टर से खरीद रही है। यह खरीद ही अपने में एक बड़ा घपला बनती जा रही है। क्योंकि प्राईवेट सप्लायर अस्पतालों को यह दवाईयां उस समय अंकित मूल्य के आधार पर दे रहा है। पिछले दिनों कैंसर रोगी को लिखी गयी एक दवाई कि उस पर्ची पर अंकित कीमत 2163 थी। अस्पताल को वह 2163 रूपये में स्पलाई हुई है लेकिन जब उसी दवाई को प्राईवेट मार्किट में कैमिस्ट से खरीदा गया तो उसने 2163 रूपये की दवाई 400 रूपये में दी। अस्पताल से ही दी गयी एक अन्य दवाई को जब बाजार में कैमिस्ट को दिखाया गया तो उसने उस दवाई को नकली करार दे दिया। जब यह सब सरकारी अस्पताल के डॉक्टर को बताया गया तो उसने स्वीकार किया कि यह सब हो रहा है। और इसे कई बार सरकार के संज्ञान में भी लाया जा चुका है। लेकिन इसमें कोई सुधार नहीं हो रहा है। सप्लायर और कीमतों का फैसला प्रशासनिक स्तर पर होता है डॉक्टर के स्तर पर नहीं। पिछले दिनों प्रदेश के प्राईवेट अस्पतालों पर सीबीआई की छापेमारी हो चुकी है। आरोप सरकारी योजनाओं की आपूर्ति में हो रही है घपलेबाजी का ही था। हिमाचल का बद्दी सबसे बड़ा दवा निर्माण का केंद्र है। यहां बन रही कई दवाइयां के सैंपल कई बार फेल हो चुके हैं। सरकार हर बार संबंधित कंपनी को नोटिस थमाने की कारवाई से आगे नहीं बढ़ी है। दवाई का सैंपल फेल होने पर कितनी निर्माता कंपनियों पर आपराधिक कारवाई के तहत सजा हुई है इसका कोई आंकड़ा आज तक सामने नहीं आया है। जब दवाई का सैंपल फेल होने की रिपोर्ट सामने आ जाती है परंतु उस पर हुई कारवाई की रिपोर्ट सामने नहीं आती है। स्वभाविक है कि इन नकली दवाईयां की सप्लाई सरकार से लेकर प्राइवेट अस्पतालों तक में हो रही है। अस्पतालों में डॉक्टर इलाज के नाम पर मरीजों से कैसे व्यवहार कर रहे हैं यह राज्यसभा में अहमदाबाद के म्युनिसिपल अस्पताल के डॉक्टर के किस्से की चर्चा में सामने आ चुका है। डॉक्टर मरीज को आयुषमान कार्ड का लाभ तक देने को तैयार नहीं था। जब तक कि वह अपना पैर नहीं कटवा लेता। पैर न कटवाने पर डॉक्टर ने मरीज से 35000 रुपए नगद जमा करवाने को कहा। उसे आयुषमान कार्ड का लाभ नहीं दिया। प्राईवेट अस्पतालों के इस तरह के कई मामले आये दिन चर्चा में आते रहते हैं। अहमदाबाद का यह मामला राज्यसभा तक पहुंच जाने पर यह सवाल उठता है कि आखिर इसका हल क्या है। कोविड काल में हुये टीकाकरण पर अब जो रिपोर्ट सामने आयी है उसके मुताबिक हर तीसरा आदमी इससे प्रभावित हुआ है। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक 45% सर्जरी अवांछित हो रही है। यह सब इसलिये हो रहा है कि स्वास्थ्य क्षेत्र के दरवाजे प्राईवेट सैक्टर के लिये खोल दिये गये हैं। वहां पर इलाज के नाम पर मरीज को लूटने का काम हो रहा है क्योंकि स्वास्थ्य के प्रति हर व्यक्ति चिन्तित रहता है। प्राईवेट सैक्टर के लिये यह बहुत बड़ा व्यापार बन गया है। इसके परिणाम कालान्तर में बहुत भयानक होंगे। इसलिए स्वास्थ्य में प्राईवेट सैक्टर के दखल पर गंभीरता से एक सार्वजनिक बहस होनी चाहिये। शिक्षा पर अगले अंक में चर्चा होगी।

कांग्रेस में सर्जरी क्यों आवश्यक है

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक ब्यान में कहा है कि पार्टी के भीतर भाजपा के एजैन्ट मौजूद हैं और उन्हें बाहर का रास्ता दिखाना पड़ेगा। राहुल कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष और वर्तमान में लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। इसलिये उनके ब्यान को गंभीरता से लिया जा रहा है। क्योंकि वर्तमान में राहुल ही एकमात्र ऐसे नेता हैं जिन्होंने हजारों किलोमीटर की पद यात्राएं करके देश की परिस्थिति को निकट से देखने और समझने का प्रयास किया है। राहुल की पदयात्राओं के प्रभाव के कारण ही इस लोकसभा चुनावों में भाजपा 240 के आंकड़े पर आकर रुक गयी। ऐसे में कांग्रेस के भीतर भाजपा के एजैन्ट होने के आरोप का विश्लेषण किया जाना आवश्यक हो जाता है। देश में पहला आम चुनाव 1952 में हुआ और 1977 तक सत्ता कांग्रेस के पास ही रही। जब देश आजाद हुआ था तब देश में कितने राजे रजवाड़े थे जो अपने में स्वतंत्र रियासतें थी उन राजाओं को केन्द्रीय सत्ता में लाना एक बहुत बड़ा काम था। जो 1948 में सरदार पटेल के प्रयासों से संपन्न हुआ। रियासतों के विलय के बाद देश में भूमि सुधारो का काम हुआ। उस समय बैंक भी प्राइवेट सैक्टर में थे उनका राष्ट्रीयकरण किया गया। लेकिन उस समय कुछ लोगों ने भू सुधारों का विरोध किया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के खिलाफ तो सुप्रीम कोर्ट तक मामला गया और संसद में संविधान संशोधन लाकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण पूरा किया गया। उस समय कुछ ताकतें ऐसी थी जो इन सुधारों के पक्ष में नहीं थी। इसी परिदृश्य में देश के कुछ राज्यों में 1967 में ‘संविद सरकार’ का गठन हुआ। पंजाब में जनसंघ और अकाली दल की सरकार बनी। फिर कुछ परिस्थितियां ऐसी घटी के 1975 में देश को आपातकाल देखना पड़ा। 1977 में जब आपातकाल घटा तब वाम दलों को छोडकर शेष विपक्ष में अपने-अपने दलों का विलय करके जनता पार्टी का गठन किया और 1977 के चुनावों में सत्ता जनता पार्टी के पास आ गयी। 1977 में बनी जनता पार्टी 1980 में जनसंघ घटक की आर.एस.एस. के साथ निष्ठाओं के कारण दोहरी सदस्यता के आरोप में टूट गयी। जनता पार्टी के विघटन के बाद जनसंघ घटक ने अपना नाम भारतीय जनता पार्टी रख लिया। 1980 में बनी भाजपा को केन्द्रीय सत्ता पर काबिज होने के लिये अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन से सत्ता प्राप्त हुयी। इस दौरान राम जन्मभूमि, बाबरी विध्वंस, आरक्षण विरोध आदि कई आन्दोलनों का भाजपा को सहारा लेना पड़ा। इस सबके परिणाम स्वरुप 2014 में सत्ता प्राप्त हुई। 2014 के आंकड़े में 2019 में बढ़ौतरी हुई परन्तु यह बढ़ौतरी 2024 में रुक गयी। इस दौरान भाजपा ने अपने सहयोगी दलों में तोड़फोड़ करवाकर उनको अपने में शामिल करवा लिया। कांग्रेस का भी एक बड़ा वर्ग भाजपा में जा मिला है। लेकिन अब डॉनाल्ड ट्रंप के खुलासों ने जिस तरह से मोदी की छवि में छेद किया है उससे राजनीतिक परिस्थितियां एकदम बदल गयी हैं। आने वाले समय में भाजपा मोदी को कई सवालों का जवाब देना पड़ेगा। इन बदली हुई परिस्थितियों ने कांग्रेस की भूमिका को बहुत अहम बना दिया है। क्योंकि इस समय कांग्रेस ही एकमात्र विकल्प है भाजपा का। राहुल गांधी को पप्पू प्रचारित करने के लिये किस तरह का अभियान चलाया गया था वह कोबरा पोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन से स्पष्ट हो चुका है। राहुल गांधी की पदयात्रा ने राहुल को स्थापित कर दिया है। आज राहुल से ही मोदी और भाजपा को डर है। ऐसे में मोदी भाजपा हर संभव तरीके से कांग्रेस में अन्दर बाहर से सेंधमारी का प्रयास करेंगी। इसलिये आज कांग्रेस नेतृत्व को पार्टी भीतर बैठे एजैन्टांे के चिन्हित करके बाहर करना आवश्यक हो जाता है। इस सर्जरी में कांग्रेस को अपनी राज्य सरकारों पर विशेष नजर रखने की आवश्यकता है। क्योंकि इन राज्य सरकारों के माध्यम से ही यह संदेश जायेगा कि कांग्रेस को अपने विजिन के प्रति पूरी तरह स्पष्ट और ईमानदार है। आज कांग्रेस को अपनी राज्य सरकारों से ही सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचने का डर है क्योंकि एक राज्य सरकार का आचरण पूरे देश में प्रचारित हो जाता है जैसे हरियाणा और महाराष्ट्र में हिमाचल को प्रचारित किया गया है।

ट्रंप के खुलासे पर मोदी की चुप्पी के मायने

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के खुलासे से भारत की राजनीति में एक भूचाल की स्थिति पैदा हो गयी है। क्योंकि ट्रंप के ब्यानों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा और आर.एस.एस. सभी सवालों के घेरे में आ गये हैं। क्योंकि अमेरिका द्वारा यू.एस ड के नाम पर भारत को इक्कीस मिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता चुनावों में वोटर टर्न आउट बढ़ाने के लिये दी जा रही थी। ट्रंप ने नाम लेकर कहा है कि यह सहायता उनके दोस्त नरेन्द्र मोदी को दी गयी है। यदि ट्रंप का यह ब्यान सही है तो यह माना जायेगा कि अमेरिका इस सहायता के नाम पर भारत की चुनावी राजनीति में दखल दे रहा था। भारत में ई.वी.एम. की विश्वसनीयता पर लम्बे समय से सवाल उठते आ रहे हैं। इस बार तो वोटर टर्न आउट पर भी सवाल उठे हैं। चुनाव आयोग और मुख्य चुनाव आयुक्त सवालों के घेरे में चल रहे हैं। मामला अदालत जा पहुंचा है। इसलिये वोटर टर्नआउट बढ़ाने के लिये अमेरिका द्वारा आर्थिक सहायता देना एक गंभीर मुद्दा बन जाता है। विपक्ष बराबर सवाल पूछ रहा है कि इस सहायता को कैसे इस्तेमाल किया गया है। किन संस्थानों और व्यक्तियों को इस कार्य पर लगाया गया? आर.एस.एस. के भारत मे पंजीकृत न होने को लेकर आर.टी.आई. के माध्यम से विवाद खड़ा हो गया है। संघ पर इसलिये सवाल खड़े हो रहे हैं क्योंकि नरेन्द्र मोदी 1993 तक अमेरिका के तेईस राज्यों का भ्रमण कर चुके थे और लीडरशिप ट्रेनिंग वहां से ले चुके थे जब वह एक साधारण स्वयं सेवक थे। मोदी, भाजपा और संघ पर उठते सवाल हर दिन गंभीर होते जा रहे हैं। सारे सवाल मोदी दोस्त ट्रंप के ब्यानों से उठे हैं। ट्रंप सच बोल रहे हैं या मोदी, भाजपा और संघ को प्रश्नित करने के लिये कर रहे इस पर से पर्दा मोदी और संघ, भाजपा की व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओं से ही उठ सकता है। लेकिन इनकी चुप्पी इसको लगातार गंभीर बनाती जा रही है।
ट्रंप के खुलासे के बाद अमेरिका से अवैध भारतीय प्रवासियों का हथकड़ियां और बेडियो में जकड़ कर वापस भेजा जाना एक राष्ट्रीय शर्म बन गयी है। भारत इस पर अपनी कोई कड़ी प्रतिक्रिया दर्ज नहीं करवा पाया है। उल्टे मोदी के मंत्रियों एस.जय शंकर और मनोहर लाल खट्टर के ब्यानों ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया है। ट्रंप ने अमेरिकी सहायता को बन्द किये जाने का तर्क यह दिया है कि भारत टैरिफ के माध्यम से बहुत ज्यादा कमाई कर रहा है इसलिये उसे सहायता नहीं दी जानी चाहिये। ट्रंप के इस फैसले और अदाणी प्रकरण के कारण भारत के शेयर बाजार में निराशाजनक मन्दी शुरू हो गयी है। विदेशी निवेशकों ने अपनी पूंजी निकालना शुरू कर दी है। लेकिन इस सब पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भारत सरकार की चुप्पी ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है।
ट्रंप के ब्यानों का प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कोई जवाब न दिया जाना अपने में एक बड़ा सवाल बनता जा रहा है। मोदी की यह चुप्पी भाजपा और संघ पर भी भारी पड़ेगी यह तय है। इससे आने वाले समय में भाजपा को बड़ा नुकसान हो सकता है। इसलिये इस संभावित नुकसान से बचने के लिये देश में मोदी और भाजपा का कोई राजनीतिक विकल्प ही शेष न बचे इस दिशा में कुछ घटने की संभावनाएं हैं। इस समय भाजपा का विकल्प कांग्रेस और मोदी का विकल्प राहुल गांधी बनते नजर आ रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस को कमजोर सिद्ध करने के लिये उसकी राज्य सरकारों को अस्थिर करने की रणनीति पर काम करना आसान है। क्योंकि आज कांग्रेस में एक बड़ा वर्ग संघ, भाजपा और मोदी समर्थकों का मौजूद है। यदि कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व कांग्रेस के भीतर बैठे भाजपा के संपर्कों को बाहर नहीं निकाल पाता है तो कांग्रेस अपने ही लोगों के कारण राष्ट्रीय विकल्प बनने से बाहर हो जायेगी और यह स्थिति देश के लिये घातक होगी। क्योंकि मोदी और भाजपा तो ट्रंप के आगे पहले ही जुबान बन्द करके बैठ गये हैं। यदि समय रहते इस स्थिति को न संभाला गया तो देश आर्थिक गुलामी के चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकल पायेगा।

"एक देश एक चुनाव" की अभी वकालत के मायने

इन दिनों भाजपा का प्रदेश नेतृत्व जिस तर्ज पर एक देश एक चुनाव की वकालत करने लग गया है उससे हर आदमी का ध्यान इस ओर जाना स्वभाविक है। क्योंकि एक देश एक चुनाव के मुद्दे पर विचार करके अपनी रिपोर्ट देना के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में केंद्र सरकार ने 2 सितम्बर 2023 को एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने 191 दिनों के बाद 14 मार्च 2024 को 18626 पन्नों की रिपोर्ट सौंप दी थी। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इस रिपोर्ट को अपनी स्वीकृति देकर लोकसभा में पेश कर दिया था। लोकसभा में इसे संयुक्त संसदीय दल को सौंप दिया गया था। अभी यह रिपोर्ट संसदीय दल से वापस नहीं आयी है। संभव है कि संयुक्त संसदीय दल इस पर विचार करने के लिये और समय की मांग करें। जब तक संसदीय दल की रिपोर्ट नहीं आ जाती है तब तक यह मुद्दा आगे नहीं बढ़ेगा। फिर एक देश एक चुनाव लागू करने से पहले जनगणना किया जाना आवश्यक है और अभी तक इस दिशा में कोई व्यवहारिक कदम नहीं उठाये गये हैं। अभी महिलाओं को जो आरक्षण संसद और राज्य विधान सभाओं में देने का विधेयक पास हो रखा है उसे कब से लागू किया जाना है उसकी तारीख अभी तक घोषित नहीं हो पायी है। ऐसे में एक देश एक चुनाव के लिये अभी समय लगेगा यह तय है। लेकिन जिस तर्ज पर राज्य भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इसके लिये अभी से जमीन तैयार करने में लग गया है वह केंद्रीय निर्देशों के बिना संभव नहीं हो सकता।
इस पृष्ठभूमि में यह समझना आवश्यक हो जाता है कि इस समय इस मुद्दे को क्यों परोसा जा रहा है। अभी लोकसभा का अगला चुनाव तो 2029 में होना है। 2029 के चुनाव में भी इसे लागू करने के लिये संविधान की धारा 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन करने पड़ेंगे। दो तिहाई राज्य विधान सभाओं से इसे पारित करवाना पड़ेगा। कोविन्द कमेटी ने इस पर राज्यों से कोई विचार विमर्श नहीं किया है। सारे राजनीतिक दलों ने इस पर अपनी राय व्यक्त नहीं की है। एक देश एक चुनाव के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यही है कि इससे चुनावों पर होने वाले खर्च में कमी आयेगी। खर्च के साथ ही अन्य संसाधनों में भी बचत होगी। लेकिन क्या संसद और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ करवाने से चुनावों की निष्पक्षता पर उठने वाले सवाल स्वतः ही शान्त हो जायेंगे। इस समय चुनावों की निष्पक्षता पर उठते सवालों पर चुनाव आयोग से लेकर शीर्ष अदालत तक घेरे में आती जा रही है। आज आवश्यकता चुनावों पर विश्वसनीयता बढ़ाने की है जो हर चुनाव के बाद घटती जा रही है। वर्तमान चुनाव व्यवस्था पर लगातार विश्वास कम होता जा रहा है। इसी विश्वास घटने का परिणाम है कि 2019 के चुनावों में 303 का आंकड़ा पाने वाली भाजपा इस बार 240 से आगे नहीं बढ़ पायी है। क्योंकि भाजपा की राजनीतिक विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठने शुरू हो गये हैं।
विश्व गुरु होने का दावा करने वाले देश के साथ इन दिनों जिस तरह का व्यवहार अमेरिका का ट्रंप प्रशासन कर रहा है उससे प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों पर गंभीर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। एक समय अबकी बार ट्रंप सरकार का आहवान कर चुके मोदी को इस बार ट्रंप के शपथ समारोह में शामिल होने के लिये आमंत्रण न मिल पाना पहला सवाल है। दूसरा सवाल अवैध अप्रवासी भारतीयों को हथकड़ियां और बेड़ियां पहना कर अमेरिका से भेजा गया। भारत इस पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दर्ज करवा पाया है। तीसरा सवाल यू एस एड के तहत करीब 182 करोड रूपये मिलने को लेकर आये खुलासे हैं। इसी कड़ी में जब नरेंद्र मोदी का यह वक्तव्य सामने आया कि उन्होंने 1994 तक अमेरिका के 29 राज्यों का दौरा कर लिया था जब वह एक सामान्य नेता भी नहीं थे। इस खुलासे से उनके चाय बेचने और अपना गुजारा चलाने के लिये और कुछ करने के दावों पर प्रश्न उठ गये हैं। यह सारे प्रश्न आने वाले समय में और गंभीर तथा विस्तार लेकर सामने आयेंगे। क्योंकि यह सवाल उठने लग गया है कि मोदी सरकार द्वारा लिया गया हर फैसला परोक्ष/अपरोक्ष में अमेरिकी हितों के बढ़ाने वाला रहा है। जिससे कालान्तर में देश अमेरिका की आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ेगा। जैसे-जैसे यह सवाल बढ़ेंगे उसी अनुपात में भाजपा और मोदी की विश्वसनीयता कम होती जायेगी। इस स्थिति से बचने के लिये देश में भाजपा और मोदी के विकल्प पर बहस उठने से पहले ही देश में कुछ ऐसे मुद्दे खड़े कर दिये जायें जहां उनके विकल्प पर ही एक राय न बन सके।

दिल्ली की हार से कांग्रेस पर उठते सवाल

दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस इस बार भी शुन्य से आगे नहीं बढ़ पायी। जबकि लोकसभा में 2014 में 44 और 2019 में 57 से बढ़कर इस बार 99 तक पहुंच गयी तथा नेता प्रतिपक्ष का पद हासिल कर लिया। लेकिन लोकसभा में बढ़ने के बाद हुए हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव हार गयी तथा दिल्ली में फिर खाता तक नहीं खोल पायी। राम जन्मभूमि और मंदिर निर्माण आन्दोलन से लेकर अन्ना हजारे तथा स्वामी रामदेव के भ्रष्टाचार विरोध में लोकपाल की मांग को लेकर उठे आन्दोलन का प्रभाव रहा है कि कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गयी तथा भाजपा के हाथ में सता आ गयी। इसी सबके प्रभाव और परिणाम स्वरुप कांग्रेस से कई नेता दल बदल कर भाजपा में शामिल हो गये। लगभग सभी राज्यों में ऐसा हुआ। कई राष्ट्रीय पंक्ति के नेता भी कांग्रेस छोड़ गये। भाजपा को 2014 में 282 और 2019 में 303 सीटें मिली। इसी के आधार पर 2024 में अब की बार चार सौ पार का नारा लगा लेकिन 240 से आगे नहीं बढ़ पायी और सहयोगियों के सहयोग से सरकार बन पायी। इस तरह के राजनीतिक परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि कांग्रेस यह विधानसभा चुनाव क्यों हार गयी और इसका परिणाम क्या होगा।
2014 से 2024 तक हुये हर चुनाव में ईवीएम और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं। इन सवालों के साक्ष्य भी सामने आये और मामला अदालतों तक भी पहुंचा। यह मांग की गयी कि चुनाव ईवीएम की जगह मत पत्रों से करवाये जायें। लेकिन अदालत ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया और चुनाव आयोग को पारदर्शिता के लिये कुछ निर्देश जारी कर दिये। अब हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में जो साक्ष्य सामने आये और उसके आधार पर सर्वाेच्च न्यायालय के निर्देशों के तहत यचिकाएं अदालतों में आ चुकी हैं। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिये नियम बदल दिये गये और ईवीएम तथा चुनाव आयोग के विरुद्ध एक जन आन्दोलन का वातावरण निर्मित हुआ लेकिन इस वातावरण को इण्डिया गठबंधन के घटक दलों ने ही सहयोग नहीं दिया। इण्डिया गठबंधन के मंच तले लोकसभा का चुनाव लड़कर भाजपा को 240 पर रोक कर यह गठबंधन हरियाणा और दिल्ली में बिखर गया तथा हार गया।
लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने के लिये जिस विपक्षी एकता की आवश्यकता महसूस की गयी वही एकता विधानसभा चुनावों के लिये भी आवश्यक थी यह एक सामान्य समझ का विषय है। दिल्ली में जब आप ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला तब सपा आरजेडी और टीएमसी तथा एनसीपी (पवार ग्रुप) सभी ने दिल्ली में आप को सहयोग और समर्थन दिया। कांग्रेस को अकेले उतरना पड़ा। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इण्डिया के घटक दलों को अपने-अपने यहां कांग्रेस का पूरा सहयोग और समर्थन चाहिये लेकिन इसके लिये कांग्रेस को बराबर का हिस्सा नहीं देंगे। इस तरह घटक दलों के प्रभाव क्षेत्रों में कांग्रेस का अपना नेतृत्व स्वीकार्य नहीं की व्यवहारिक नीति पर घटक दल चल रहे हैं और यही भाजपा की आवश्यकता है। इससे कांग्रेस को घटक दलों और भाजपा के खिलाफ एक साथ लड़ने की व्यवहारिक आवश्यकता बनती जा रही है। समूचे विपक्ष के सामने हर चुनाव में ईवीएम के खिलाफ और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। इस समय यह स्थिति बन चुकी है कि विपक्ष या तो इस मुद्दे पर निर्णायक लड़ाई एक जन आन्दोलन के माध्यम से लड़ने का फैसला ले और उसके लिये चुनावों का बहिष्कार भी करना पड़े तो उसके लिये भी तैयार रहे अन्यथा इस मुद्दे को बन्द कर दिया जाये।
इस तरह कांग्रेस को यह मानकर चलना होगा कि उसे जनता में अपनी विश्वसनीयता स्थापित करने के लिये कांग्रेस को बौद्धिक आधार पर मजबूत बनाना होगा। क्योंकि कांग्रेस केन्द्र की सत्ता में तो है नहीं इसलिये उसे अपनी राज्य सरकारों के माध्यम से ही अपनी विश्वसनीयता बनानी होगी। कांग्रेस को हर राज्य की वित्तीय स्थिति का व्यावहारिक आकलन करके ही अपने चुनाव घोषणा पत्र जारी करने होंगे। सत्ता पाने के लिये किये गये अव्यवहारिक वायदे कभी भी कोई सरकार पूरे नहीं कर सकती है। इस समय हिमाचल की सुक्खू सरकार से मतदाता का हर वर्ग नाराज है। सरकार ने प्रदेश पर इतना कर्ज भार डाल दिया है कि आने वाले दिनों में स्थितियां बहुत भयंकर हो जायेंगी। इस समय हिमाचल सरकार के फैसले हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली चुनाव में चर्चा का मुद्दा रहे हैं जिससे कांग्रेस की विश्वसनीयता पर सवाल उठे हैं।

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