शिमला। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नोटंबदी का फैसला क्या एक ऐतिहासिक भूल बनकर ही तो नहीं रह जायेगा अब यह सवाल उभरने लग पड़ा है। क्योंकि नोटबंदी से कालेधन पर अंकुश लगाने और कालेधन के सहारे चल रही समानान्तर अर्थव्यवस्था को समाप्त करने का दावा और वायदा देश से किया गया था। लेकिन जैसे-जैसे इस फैसले के बाद भी कालाधन घोषित करने की समय सीमाएं बढ़ाई जा रही हैं और उन्हें 50% टैक्स देकर अपना शेष धन वैध बनाने का अवसर दिया जा रहा है उससे इस फैसले की नीयत और नीति दोनों पर ही सन्देह होने जा रहा है। क्योंकि नोटबंदी से पहले यह स्थिति जग जाहिर हो चुकी थी कि हमारे की बैंक घाटे में चल रहे हैं। देश के 55 लोगों के पास 85 हजार करोड़ कर्ज होने का आंकड़ा भी सामने आ चुका था। बैंको का एनपीए बढ़ता जा रहा था। संभवतः इसी वस्तुस्थिति को सामने रखकर रिर्जव बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने बड़े लोगों को दिये जा रहे बढे़ कर्जो पर चिन्ता जताते हुए उनका विरोध किया था। गरीब को दस रूपये की सबसिडि देकर बडे़ घरानों को लाखों करोड़ के पैकेज देना खुली बहस का मुद्दा बन चुका था। आम आदमी इस स्थिति पर मुखर होने लग पड़ा था क्योंकि इसी के कारण मंहगाई लगातार बढ़ती जा रही थी। लोकसभा चुनावों से पहले इस कालेधन को लेकर बड़े-बडे़ दावे और वायदे किये गये थे।
इस परिदृश्य में यह स्वाभाविक था कि यदि इन दावों वायदों को अमली जामा देना है तो उसके लिये कर प्रणाली को सरल करना होगा और इस दिशा में जीएसटी को लाया गया। लेकिन अकेले जीएसटी से ही पूरी स्थिति में सुधार नही हो सकता था इसके लिये कुछ और भी चाहिये था जो कि नोटबंदी के ऐलान के रूप में सामने आया। आम आदमी इस फैसले से इसलिये खुश हुआ कि उसके पास 500 और 1000 के इतने नोट नहीं है जो अवैध करार दिये जाने के दायरे में आयेंगे क्योंकि उसने कोई टैक्स चोरी नही की है। इसलिये यही आम आदमी पुराने नोट बदलवाने के लिये बैकों के आगे लाईने लगाकर खड़ा हुआ। जबकि कोई भी कर चोर इन लाईनों में नही देखा गया क्योंकि जब सरकार ने सरकार को दिये जाने वाले सारे बिलों के भुगतान में पुराने नोटों की सुविधा दे दी तो इसका लाभ बहुत स्थानों पर कालेधन वालों ने उठाया। पैट्रोल पम्पों पर यह सुविधा दी गयी और वहां भी चार दिन में ही इतनी सेल दिखा दी गयी जो शायद दो वर्षो में भी न हुई हो। ऐसे पैट्रोल पम्प मालिकों को ईडी के नोटिस आना इसका प्रमाण है। सरकारी परिवहन सेवाओं को भी इसके लिये इस्तेमाल किया गया। कुल मिलाकर आम आदमी को राहत देने के लिये जो भी कदम उठाये गये उनका दुरूपयोग हुआ है। संभवतःइसी दुरूपयोग का परिणाम है कि कालाधन रखने वालों को इसकी घोषणा का फिर मौका दिया जा रहा है।
कंरसी की व्यवस्था की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक की है। रिजर्व बैंक उतने ही नोट छापता है जितना उसके पास रिजर्व में सोना उपलब्ध रहता है। सोना ही अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में हमारी मुद्रा का आधार होता है। स्मरणीय है कि इसी आधार को बनाये रखने के लिये स्वर्गीय चन्द्र शेखर के शासनकाल में सोना गिरवी रखना पडा था। इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि कंरसी का मूल आधार सोना रहता है। ऐसे में रिजर्व बैंक ने जितने भी नोट छापकर बाजार में भेजे हैं उनका अनुपातः सुरक्षित भण्डार सोने के रूप में उसके पास मौजूद है। ऐसे में यदि उसके छापे हुए 500 और 1000 के नोटों का चलन बन्द कर दिया गया तो उतना स्वर्ण भण्डार तो उसके पास है ही। आरबीआई के पास यह आंकड़ा भी हर समय उपलब्ध रहता है कि कितने नोट विभिन्न बैंको के पास हैं और कितने बैंको से निकलकर खुले बाजार में पहुंच चुके हैं। इस परिदृश्य में जब यह नोटबंद किये गये और उन्हे नये नोटों के साथ बदलने की सुविधा दी गयी तो इसके लिये एक अनुपात में पूर्व व्यवस्था की जा सकती थी जो नही की गयी। हर आदमी काला धन रखने का दोषी नहीं है इसलिये उसे नोट बदलने के लिये जायज़ समय मिलना चाहिये था जो मिला भी। तय समय सीमा के बाद नोट बदलने का काम पूरी तरह बन्द हो जाना चाहिये था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कुल कितने पुराने नोट वापिस आये और कितने नही आये। जो नोट वापिस नहीं आते उससे सरकार का, आरबीआई का तो कोई नुकसान नही होता। नुकसान तो केवल नोट रखने वाले का होता। जब पुराना नोट चाहे वह किसी के पास चलना ही नही है तो उसकी गिनती किस अर्थव्यवस्था में कि जा सकती है। कालेधन से जो संपति खड़ी की गयी है वह तो बनी ही रहेगी उसकी जांच पड़ताल कभी भी की जा सकती है। लेकिन जेब में रखा हुआ पुराना नोट तो चलन बन्द होने के बाद महज कागज का टुकडा मात्र है। आरबीआई इन पुराने नोटों को रिसाईकिल करवा कर केवल करंसी पेपर ही ले सकता है इससे अधिक कुछ नही। ऐसे में अब कालेधन वालों को टैक्स छूट देकर और समय देना सरकार की नीयत और नीति दोनों के लिये घातक होगा।