शिमला/शैल। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा प्रदेश की तीन जलवि़द्युत परियोजनाओं के लोकार्पण अवसर पर आयोजित रैली एक सफल रैली रही है इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है। यह रैली प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का सफल संकेत मानी जा सकती है। क्योंकि इस रैली मे प्रधानमंत्री ने जो बुनियादी सवाल उछाले हैं वह आने वाले दिनों में निश्चित रूप से बहस का मुद्दा बनेगे? प्रधानमंत्री ने प्रदेश की जनता को बताया कि केन्द्र ने 15वें वित्तायोग की सिफारिशों के बाद हिमाचल को 72 हजार करोड़ रूपेय का आवंटन किया है। जबकि 14 वें वित्तायोग के तहत यह राशी केवल 21 हजार करोड़ थी। 14वां वित्त आयोग यूपीए सरकार के समय आया था और 15वां अब भाजपा सरकार के दौरान आया है। कांग्रेस के मुकाबले तीन गुणा से भी ज्यादा आंवटन प्रदेश को मिला है। मोदी ने स्पष्ट कहा है कि केन्द्र और प्रदेश की जनता राज्य सरकार से इस पैसे के खर्च का हिसाब मांगेगी। राज्य सरकार का खर्च कितना तर्क संगत होता है? उसमें कितनी फज़ूल खर्ची होती है? इन सवालों पर कभी बहस नही हुई है। क्योंकि जनता को इस तरह के तथ्यों की कभी सीधी जानकारी होती ही नहीं है। यह पहली बार है कि देश के प्रधान मंत्री ने जनता के सामने इतना बड़ा आंकड़ा रखा है। इस आंकड़े को झुठलाना या इस पर कोई और किन्तु/परन्तु उठाना राज्य सरकार के लिये संभव नही होगा।
केन्द्र ने राज्य को 61 राष्ट्रीय उच्च मार्ग दिये हैं इन उच्च मार्गों पर कार्य शुरू हो इसके लिये समय पर इनकी डीपीआर बनकर केन्द्र के पास पहुचनीं चाहिये। डीपीआर राज्य सरकार को बनानी है और मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने पिछले दिनों यह कहा हैं कि डीपीआरज बनाने के लिये उन्हे पैसा नही दिया गया हैं अब मुख्यमंत्री का यह तर्क प्रधान मन्त्री के 72 हजार करोड़ के आंकड़े के नीचे इस कदर दब जायेगा कि इससे उभरना राज्य सरकार के लिये संभव नहीं हो पायेगा क्योंकि प्रधानमन्त्राी ने अपने संबोधन में जहां पूर्व मुख्यमन्त्रीयों शान्ता कुमार और प्रेम कुमार धूमल को विकास का पर्याय बताया वहीं वर वीरभद्र को नाम लिये बगैर ही भ्रष्टाचार का पर्याय करार दिया। प्रधान मन्त्री के इस संकेत से यह भी संदेश उभरता है कि केन्द्र के खिलाफ चल रही जांच के प्रति पूरी तरह गभीर है और सही समय पर उसके परिणाम सामने आयेंगें आज राज्य सरकार का कर्जभार लगातार बढ़ता जा रहा है। इस समय बहुत सारे विकास के कार्य पैसों के अभाव में बन्द हो चुके है। मुख्यमंत्री के अपने विधानसभा क्षेत्रा में ठेकेदारों की पैमेन्टस रूकने के कारण ठेकेदारों ने काम बन्द कर दिये है। प्रदेश के पेयजल योजनाओं के लिये आयेे हजारों करोड़ के उपयोगिता प्रमाण पत्रा समय पर न जाने के कारण केन्द्र ने इन योजनाओं के लिये अगले भुगतान के लिये शर्ते कड़ी कर दी है। पर्यटन में फर्जी उपयोगिता पर जांच प्रमाण पत्रा सौंपे जाने को लेकर शिकायते केन्द्र के पास पहंुच चुकी है और इन शिकायतों पर जांच को रोक पाना संभव नही होगा क्योंकि आर टी आई के तहत इन शिकायतों पर हुई कारवाई की जानकारी भी मांग ली गयी है।
कैग रिपोर्टो में सरकार के खर्चो को लेकर एक लम्बे समय से सवाल उठते रहे है लेकिन यह सवाल कभी बहस का मुद्दा नही बन पाये है। आज प्रधान मन्त्री द्वारा एक खुले मंच से 72 हजार करोड़ के आंकड़े की जानकारी आम आदमी के बीच आने से स्वाभाविक रूप से इस पर बहस उठेगी ही। क्योंकि यह आम आदमी का पैसा है और उसे यह हक हासिल है कि वह इस खर्च का हिसाब मांगे। प्रधानमंत्री ने जनता से स्पष्ट कहा है कि वह इस खर्च का सरकार से हिसाब मांगे। मोदी के इस आंकडे़ के हथौड़े से राज्य सरकार का बचना अंसभव है।
शिमला! उरी और पठानकोट के आतंकी हमलों का पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंक के ट्रेनिंग पर हमला करके जिस तरह का जबाव पाकिस्तान को दिया गया है उसके लिये प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी बधाई के पात्र है। क्योंकि एक देश के लम्बे अरसे से आतंकी गतिविधियों का शिकार होता आ रहा था जिसके पठानकोट और उरी ताजा उदाहरण थे। सैंकड़ों लोग इस आतंक का शिकार होकर अपने प्राण गंवा चुके है। देश के दो प्रधानमंत्री एक मुख्य मन्त्री और संसद तक आतंक का शिकार हो चुके है। हर आतंकी घटना के पीछे सीमा पार से समर्थन और साजिश दोनों के प्रमाणिक सबूत मिलते रहे है।
लेकिन पाकिस्तान ने हर बार इन सबूतों को मानने से इन्कार किया। विश्व समुदाय भी आतंक की निन्दा करने से अधिक कुछ नही कर पाया। पाकिस्तान में बैठे आतंकी सरगनों की सूची लगातार पाकिस्तान को दी जाती रही लेकिन इसका असर उस पर नहीं हुआ। उसके समर्थन और सरंक्षण में आतंक की फौज लगातार बढ़ती रही उसके लिये बाकायदा ट्रेनिंग कैंप संचालित होते रहे। भारत भी सबूत सौंपने और माकूल जबाव देने के ब्यानो से आगे नही बढ़ा। देश का राजनीतिक नेतृत्व इस तरह की कारवाई करने का फैसला नहीं ले पाया। जबकि इस तरह का फैसला लेना लगातार बाध्यता बनता जा रहा है। ऐसा फैसला लेने से पहले अपने पडा़ेसी देशों और विश्व समुदाय के सामने पाकिस्तान की इस हकीकत का खुलासा रखा जाना आवश्यक था। इसके लिये प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता संभालने के बाद जिस तरह से विदेश यात्राओं की रणनीति अपनाई और उसकी शुरूआत सार्क देशों से की उसके परिणाम आज सार्क सम्मेलन के स्थगित होने की नौबत तक पहुंचने से सामने आ रहे हैं। आज पाकिस्तान को मोदी ने सफलता पूर्वक सार्क देशों में ही अगल थलग कर दिया है यह उनकी कूटनीतिक सफलता है। पाक अधिकृत कश्मीर में हुई सर्जिकल कारवाई में आतंकवादियों के साथ पाकिस्तान के दो सैनिक भी मारे गये है। लेकिन पाक इस कारवाई को स्वीकार भी नही कर पा रहा है क्योंकि यह कारवाई आतंकी कैंपो पर हुई है यदि पाक इसे स्वीकार कर लेता है तो इसका अर्थ होगा कि उसने उसके यहां आतंक ट्रेनिंग कैंपों का होना स्वीकार कर लिया है और इस स्वीकार के साथ ही वह विश्व समुदाय के सामने बेनकाब हो जाता है क्यांकि वह ऐसे कैंपो के होने से ही इन्कार करता आया है। जब पाकिस्तान ने इन कैंपो को आबादी वाले इलाकों में शिफ्ट करने का काम किया था तो संभवतः उसकी नीति यह रही होगी कि यदि भारत की ओर से कोई सैनिक कारवाई होती है तो उसमें आम नागरिकों को भी हानि पंहुचेगी और वह भारत को विश्व समुदाय के सामने एक आक्रामक करार दे पायेगा। लेकिन किसी भी नागरिक को कोई नुकसान न होने से भारत इस संभावित आक्षेप से बच गया। यही कारण है कि पाक इस कारवाई को स्वीकार नही कर पा रहा है।
अब जहां मोदी इसके लिये समर्थन और बधाई के पात्र हैं वहीं पर उनसे यह भी उम्मीद है कि भारत जिन आतंकी सरगनाओं की पाक से मांग करता आ रहा है आज उन लोगों के खिलाफ भी इसी स्तर की कारवाई हो जानी चाहिये। जिस हाफिज सईद, अजहर मसूद और दाऊद इब्राहिम की तलाश भारत को है और वह पाकिस्तान में बैठे हुए हैं पाक उनको आतंकी नही मानता। उनके पाक में होने से भी इन्कार करता है। उनके खिलाफ आज इसी तरह की कारवाई की आवश्यकता है। आज पूरे देश का मनोबल इस पर बना हुआ है। फिर जब तक आतंक का संचालन करने वाले यह लोग बैठे है और उनको वहां की सरकार का समर्थन हासिल है तब तक आतंकी साजिशों की संभावना बराबर बनी रहेगी। ऐसी संभावनाओं को पूरी तरह से खत्म करने के लिये ऐसी ही सर्जिकल कारवाई की आवश्यकता है। फिर जब अमेरिका लादेन के लिये ऐसा कर सकता है तो भारत क्यों नहीं। ऐसी कारवाई की अपेक्षा अब मोदी से की जाने लगी है और उन पर देश को भरोसा भी अब होने लगा है।
उरी मे हुए आंतकी हमले को लेकर पूरे देश में रोष और आक्रोश हैं उरी से पहले पठानकोट में ऐसा आतंकी हमला हो चुका है। दोनों बार सेना के ठिकानो का निशाना बनाया गया है। दोनों घटनाओं के पीछे पाकिस्तान का हाथ होना सामने आ चुका है इसके सबूत मिल चुके है। पठानकोट में तो पाकिस्तान को स्वंय आकर मौका देखने का अवसर दिया गया है। लेकिन उसने इसमें अपना हाथ होने से साफ इन्कार कर दिया है। आज तक देश के अन्दर जितनी भी आंतकी घटनाएं हुई है।

उनमें अधिकांश के तार पाकिस्तान से जुड़े हुए मिले है। लेकिन पाकिस्तान ने इस सच्च को कभी स्वीकारा नही है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यू एन मंच से लेकर अधिकांश देशों ने भी पाकिस्तान को बढ़ते आंतक के लिये जिम्मेदार मान लिया है। परन्तु इस सबके बावजूद पाकिस्तान की आंतक के प्रति नीयत और नीति में कोई अन्तर नही आया है। बल्कि अब यह धारणा बनती जा रही है कि संभवतः आंतक उसकी रणनीति का ही एक हिस्सा है। लेकिन पाकिस्तान की इस नीति के लिये अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि किसी भी देश ने पाकिस्तान की निर्देश करने के अतिरिक्त उसके साथ अपने व्यापारिक और दूसरे रिश्ते समाप्त नहीं किये हैं। कहीं से भी कोई प्रतिबंध पाकिस्तान पर नहीं आये है क्योंकि हम जो इन आंतकी घटनाओं की सीधी कीमत चुका रहे हैं हमने भी अपने रिश्ते समाप्त नही किये है। हम भी कड़े ब्यानो और पाकिस्तान के राजदूत को बुलाकर अपना रोष अधिकारिक रूप से वहां की हकूमत तक पहुंचाने से ज्यादा कुछ नहीं करते रहे है। पाकिस्तान को सामरिक हथियार उपलब्ध करवाने के लिये कभी चीन, कभी अमेरिका तो कभी को अन्य देश हर समय आगे आता ही रहा है और यही पाकिस्मान की सबसे बड़ी ताकत बन जाता है। आज देश के भीतर पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक सैन्य कारवाई की मांग जोर पकड़ती जा रही है। सरकार और सेना की ओर से भी युद्धको अन्तिम विकल्प के रूप में लेने पर विचार किया जा रहा है। सैन्य बल के रूप में हम पाकिस्तान पर हर बार भारी पड़ते आये है और आज भी पडेंगे इसमें कोई दो राय नहीं है। बढ़ती आतंकी घटनाओं का जवाब यदि सैन्य कारवाई के रूप में दिया जाता है तो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय भी इसके लिये हमें दोष नही दे सकता। क्योंकि पाकिस्तान की सच्चाई हम विश्व समुदाय के सामने ला चुके हैं। लेकिन यदि सैन्य कारवाई का विकल्प चुना जाता है तो उसके परिणाम क्या होंगे उस पर गंभीरता से विचार करना होगा। अमेरीका, फ्रांस, इंग्लैण्ड आदि कई देशों में पिछले कुछ अरसे से ऐसी आंतकी घटनाएं देखने को मिली है। बढ़ता आंतकवाद विश्व समस्या बनता जा रहा है। इन आंतकीयों के पास हर तरह के सैन्य हथियार/ उपकरण पहुंच रहे हैं। इन्हें यह सब कहां से और कैसे उपलब्ध हो रहा है? इसके लिये धन कंहा से आ रहा है? क्यांेकि आतंकवाद इन संसाधनोेें के सहारे ही तो बढ़ रहा है। आज के अधिकांश देशों के पास परमाणु और रसायनिक हथियार उपलब्ध है। हर रोज इनके परीक्षण हो रहे है और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय इनकी निंदा करने से अधिक कुछ कर नही पा रहा है। हर देश के बजट का बड़ा भाग सामरिक रिसर्च और सामरिक हथियारोें के उत्पादन पर खर्च हो रहा है। कुछ देशों की अर्थव्यवस्था का तो सबसे बड़ा आधार ही हथियारों का उत्पादन बन गया है। यदि इन हथियारों का कोई खरीददार न हो तो उनका उत्पादन ही रूक जायेगा और उसकी अर्थव्यस्था ही डगमगा जायेगी। आज बढ़ते आंतकवाद के पीछे हथियारों का यह उत्पादन और उनकी सहज उपलब्धता ही सबसे बड़ा कारण है। हथियारों के उत्पादक देश आतंकवाद की निंदा के साथ ही आतंकियों को यह हथियार भी उपलब्ध करवा रहे हैं। क्योंकि आज तक ओसामा विन लादेन जैसे बड़े आतंकी को लेकर यह भी सामने नही आया है कि वह हथियार भी स्वयं बनता था। ऐसे में बहुत स्पष्ट है कि जब आतंकवादियों के खिलाफ खुली सैन्य कारवाई अमल में लायी जायेगी तो फिर उसमें परमाणु और रसायनिक हथियार कब आतंकियों तक पहुंच जायें और उनका इस्तेमाल हो जाये यह आशंका और संभावना बराबर बनी रहेगी। इसलिये युद्ध का विकल्प चुनने से पहले इन सारे सवालों पर विचार करना आवश्यक होगा। लादेन के लिये जिस तरह की कारवाई पाकिस्तान में घुसकर अमेरिका ने की थी आज वैसी ही कारवाई के लिये अन्तर्राष्ट्रीय मंचो पर सहमति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिये। अमेरिका ने कारवाई की पूरा विश्व समुदाय खड़ा देखता रहा उसकी निन्दा तक कोई नही कर पाया। आज भारत पूरे विश्व को पाकिस्तान की इस हकीकत से अवगत करवा चूका है। विश्व समुदाय ने इसे स्वीकार भी कर लिया है और यह स्थिति अमेरिका जैसी कारवाई के लिये बहुत ही उपयुक्त अवसर है। क्योंकि युद्ध के विकल्प से आतंकियों से अधिक सामान्य नागरिकों का नुकसान होता है और वह नही होना चाहिये।
शिमला/शैल। वर्ष 2017 में कुछ राज्य विधान सभाओं के चुनाव होने जा रहे है। कुछ वर्ष के शुरू में ही हो जायेेंगे और कुछ वर्ष के अन्त में। इन चुनावों को लेकर अभी से राजनीतिक दल और नेता तैयारीयों में लग गये हैं। संबधित राज्य सरकारों ने अभी से अपनी उपलब्धियों का वखान करने वाले विज्ञापन प्रिन्ट और इलैक्ट्रानिक मीडिया में जारी करने शुरू कर दिये है। इसी के साथ चुनाव प्रचार विशेषज्ञों और कंपनीयों की सेवाएं भी ली जानी शुरू कर दी गयी हैं।
इस प्रचार तन्त्र पर जो खर्च हो शुरू हो गया है यदि अन्त तक पहुंचते-पहुंचते उसका सही और निपक्ष आकलन सामने आ पाया तो निश्चित रूप से यह आंकडा प्रति विधान सभा क्षेत्रा में चुनाव आयोग द्वारा तय खर्च सीमा से कई गुणा अधिक होगा यह तय है। लेकिन फिर भी यह आचार संहिता के तय मानकों की उल्लघंना की सीमा में नही आयेगा क्योंकि राजनीतिक दलों के लिये खर्च की कोई सीमा ही तय नही है। न ही यह सब कुछ पेड न्यूज की श्रेणी में आ पायेगा। अभी पिछले दिनों सोशल मीडिया में एक समाचार आया था कि ए बी पी न्यूज को उत्तर प्रदेश के चुनाव को प्रभावित करने के लिये सौ करोड़ रूपया दिया जा रहा है 45 करोड़ के कैश के साथ इस चैनल के एक अधिकारी को पकड़ा गया है यह भी समाचार में था। लेकिन इस चैनल को इतनी बड़ी रकम किसने दी? 45 करोड़ कैश के साथ इसके अधिकारी के पकडे जाने पर उसके खिलाफ आगे क्या कारवाई की गयी इसका कहीं कोई जिक्र आगे नही चला। सारा मीडिया इस समाचार पर मौन रहा। यहां तक की जिस चैनल पर यह आरोप लगा उसकी ओर से भी कोई प्रतिक्रिया कोई खण्डन नहीं आया। किसी भी राजनीतिक दल की ओर से भी कोई प्रतिक्रिया नही आयी । यहां तक की स्वयं चुनाव आयोग तक ने इस पर कुछ नही कहा। इस घटना से यही प्रमाणित होता है कि हमारा चुनाव तन्त्रा कितना संवेदन हीन हो चुका है। ऐसे परिदृश्य में होने वाले चुनाव कितने निष्पक्ष, कितने प्रमाणिक कहे जा सकते हैं।,
इसी के साथ जुड़ा हुआ दूसरा सवाल है कि चुनाव प्रचार विशेषज्ञ और कंपनीयां अनुबंधित की जा रही है उनकी भूमिका क्या होने जा रही है। निश्चित रूप से इन विशेषज्ञों के माध्यम से राजनितिक दलों और उनके नेताओं की छवि को संवारने में जनता के सामने वह परोसा जायेगा जिसका व्यवहारिकता और सच्चाई के साथ दूर-दूर तक कोई वास्ता नही होगा। पिछले लोकसभा चुनावों में सारा चुनाव प्रचार ऐसे ही प्रचार विशेषज्ञों से संचलित था। इन्ही की प्रचार नीति के तहत जनता में इतने वायदे परोस दिये गये जिनसे परिणाम का प्रभावित होना स्वाभाविक था और परिणाम प्रभावित हुआ भी। यह वायदे अव्यवहारिक थे। सच्चाई से कोसों दूर थे। इसलिये पूरे नही हुए। अच्छे दिन नही आये। प्रत्येक व्यक्ति के खाते में 15 लाख काला धन नही आया। जिन वयादों को पूरा करने के लिये पांच वर्ष का समय मांगा गया था चुनाव जीतने के बाद उनके लिये दस वर्ष का समय मांग लिया गया। आज यदि ईमानदारी से आंकलन किया जाये तो कोई भी राजनीतिक दल कसौटी पर पूरा नही उतरता है। कोई भी अपने वायदे पूरा नही कर पाया है क्योंकि यह वायदे पूरे हो नही सकते थे। यह तो केवल जनता को भ्रमित करने के लिये थे और जनता भ्रमित हुई है। ऐसे में सवाल उठता है कि इस सब पर नियन्त्राण कैसे किया जाये। नियन्त्राण और नियोजन की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। चुनाव आयोग को इसके लिये कुछ मानक नये सिरे से तय करने होंगे। इसमें राजनीतिक दलों के चुनाव खर्च की भी सीमा तय करनी होगी और इस में प्रत्यक्ष या अपरोक्ष रूप से किया जाने वाला हर खर्च शामिल रहना चाहिये। चुनाव में किये गये हर वायदे की पूर्ति के लिये संसाधन कहां से आयेंगे इसका खुलासा चुनाव घोषणा पत्रा में रहना अनिवार्य होना चाहिये? किसी भी वायदे को पूरा करने के लिये सरकारी कोष पर कर्ज भार डालने की अनुमति नही होनी चाहिये? अव्यवहारिक वायदों को खुले प्रलोभन की संज्ञा देकर ऐसे वायदे करने वालो के खिलाफ अपराधिक कारवाई का प्रावधान होना चाहिये। क्योंकि जिस तरह से आने वाले चुनावों में राजनीतिक दलों की संभावित रणनीति के संकेत उभरते नजर आ रहे हैं वह देश के लिये घातक सिद्ध होगा। क्योंकि चुनाव प्रचार के नाम पर जो वायदों के प्रलोभन परोसे जायेंगे उससे चुनाव परिणामों का प्रभावित होना स्वाभाविक है और कायदे से यह आचार संहिता का खुला उल्लघंन है। इसे रोकना चुनाव आयोग का दायित्व है इसलिये यह सवाल आयोग से उठाये जा रहे हैं।
शिमला/शैल। जब सत्ता की ताकत के बल पर स्थापित नियमों/कानूनो की खुली उल्लंघना हो जाये। अदालत के फैसलों पर अमल न किया जाये। सत्ता ही सर्वोच्च प्राथमिकता बन जाये और उसके लिये लोक लाज त्याग कर जनहितों की परिभाषा अपने स्वार्थो के मुताबिक होनी शुरू हो जाये तो ऐसी स्थिति को अराजकता का नाम दिया जाता है। वीरभद्र सरकार ने जिस तरह से अवैध निमार्णो को नियमित करने के लिये ग्राम एंवम नियोजन अधिनियम में संशोधन किया है और प्रदेश में सरकारी भूमि पर अतिक्रमण के मामलों पर प्रदेश उच्च न्यायालय ने कड़ा संज्ञान लेते हुए इस सारी स्थिति को एकदम अराजकता की संज्ञा दी है। किसी भी सरकार और उसके प्रशासन पर इससे गंभीर आक्षेप और कुछ नहीं हो सकता है।
इस बढ़ती अराजकता का एक और उदाहरण प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा एक याचिका CWP 2336 of 2009 पर अप्रैल 2013 में दिया गया फैलसा है। इस फैसले में उच्च न्यायालय ने सरकार द्वारा कान्ट्रैक्ट के आधार पर की गयी नियुक्तियों के लिये 2008 और 2009 में लायी गयी नियमितिकरण की पालिसी को संविधान की धारा 14 व 16 तथा धारा 309 के तहत बनाये गये नियमों का खुला उल्लघंन करार देते हुए इसे तुरन्त प्रभाव से रद्द कर दिया है। लेकिन सरकार ने इस फैसले को अगूंठा दिखाते हुए जून 2014 में कान्ट्रैक्ट आधार पर रखे गये कुछ काॅलिज प्रवक्ताओं के नियमितिकरण के आदेश जारी कर दिये जबकि यह उक्त याचिका भी काॅलिज प्रवक्ताओें की ओर से ही दायर हुई थी। जब नियमितिकरण के आदेशों पर इन प्रवक्ताओं ने फिर विभाग का ध्यान आकर्षित किया तब इन आदेशों को वापिस लिया गया। अदालत का फैसला सरकार की पूरी पाॅलिसी पर है किसी एक विभाग पर नही। लेकिन इस फैसलेे के बाद पाॅलिसी को वापिस लेने की बजाये इसके तहत नियमितिकरण की प्रक्रिया अब भी जारी है। अदालत ने कांट्रैक्ट की नियुक्तियोें को चोर दरवाजे से अपनों को भर्ती करने की नीति करार दिया है।
प्रदेश में रोजगार का सबसे बड़ा साधन सरकारी नौकरी ही है। सरकारी नौकरी में कैसे भर्तीयां की जाती रही है इसका सबसे बड़ा खुलासा चिटों पर की गई भर्तीयों की जांच के लिये बनी हर्ष गुप्ता और अवय शुक्ला कमेटीयों की रिपोर्ट से सामने आ चुका है। लेकिन इस प्रकरण पर कैसे विजिलैन्स ने अदालत के सामने सारा मामला रखा और कैसे अदालत ने भी उसे आंख बन्द करके स्वीकार कर लिया अराजकता की इससे बड़ी कहानी और क्या हो सकती है। क्योंकि जिस कड़ाई से अदालत ने इस प्रकरण का संज्ञान लिया था उस तर्ज पर सोलन बागवानी विश्वविद्यालय के एक मामले में उच्च न्यायालय का फैसला भी आया है। लेकिन बाद में अन्य मामलों पर अदालत का रूख भी बदल गया जो आज तक जन चर्चा का विषय है। चिटों पर भर्ती मामले के बाद हमीरपुर अधीनस्थ सेवा चनय बोर्ड द्वारा की गयी नियुक्तियों का मामलों सामने है। लेकिन इन मामलों का सरकार और प्रशासन की सेहत पर कोई असर नही पड़ा है। चनय में पारदर्शिता लाने की बजाये आज भी एक प्रकार से चिटों पर भर्ती जैसा ही चलन जारी है। भारत सरकार ने क्लास फोर और क्लास थ्री श्रेणी के कर्मचारियों की भर्ती के लिये साक्षात्कार का माध्यम समाप्त कर दिया है अब इन पदों के लिये सीधे शैक्षणिक योग्यता को ही आधार रखा गया है। लेकिन वीरभद्र सरकार केन्द्र सरकार की इस पाॅलिसी को अपनाने के लिये तैयार नही है। मन्त्रीमण्डल हर बार इस पर फैसला टाल देता है। क्योंकि इस पाॅलिसी के बाद अपनों के लिये चोर दरवाजा बन्द हो जायेगा।
सरकार ने इस वर्ष हजारों पदों को भरने की हरी झण्डी दे दी है। मन्त्रीमण्डल की हर बैठक में सैंकडो पद सृजित किये जा रहे है। इस सृजन से यह सवाल उठता है कि अब तक सरकार कैसे काम चला रही थी? क्या इन सारे पदों की आवश्यकता अब पड़ी। आज यह सब आने वाले विधानसभा चुनावों को सामने रखकर किया जा रहा है और इसी के लिये भारत सरकार की पाॅलिसी पर अमल नही किया जा रहा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार यह सब अपने राजनीतिक स्वार्थ को सामने रखकर कर हरी है। उसे जन सरोकारों से कोई लेना देना नही है। राजनीतिक स्वार्थों के आगे पूरा प्रशासन बौना पड़ गया है और यही अराजकता है।