Thursday, 18 September 2025
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मोदी सरकार से अपेक्षाएं

शिमला/शैल। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले से देश को संबोधित करते हुए कहा है उनकी सरकार आक्षेपों की सरकार नहीं है बल्कि अपेक्षाओं की सरकार है क्योंकि उनकी सरकार पर अब तक भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा है। आज यदि खाद्य पदार्थों की बढ़ती मंहगाई को नजरअन्दाज कर दिया जाये तो मोदी के दावे से सहमत होना पड़ेगा। क्योंकि कांग्रेस और दूसरे सारे क्षेत्राीय दल अभी तक लोकसभा चुनावों में मिली हार से पूरी तरह उबर नहीं पाये हैं। उनके लगाये आरोपों पर अभी जनता पूरी तरह विश्वास कर पाने को तैयार भी नही है क्योंकि यह दल अपने ही भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कोई कारवाई नहीं कर पाये है।
नरेन्द्र मोदी लोकसभा चुनावों में भाजपा का प्रधानमन्त्री पद का चेहरा बन चुके थे। पूरा चुनाव प्रचार अभियान उन्ही के गिर्द केन्द्रित था इसलिये लोकसभा चुनावों में मिली सफलता का पूरा श्रेय उन्ही को जाता है। उन्ही के नेतृत्व में भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देख रही है। लेकिन लोकसभा चुनावों के बाद हुये विधानसभा चुनावों/उप चुनावों के परिणामों से कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना पर प्रश्न चिन्ह भी लगता जा रहा है। ऐसे में मोदी की सरकार जन अपेक्षाओं पर कैसे पूरा उतर पायेगी इसको लेकर भी सवाल उठने शुरू हो गये हैं। लेकिन जो बहुमत लोकसभा में सरकार को मिला हुआ है यदि उसके सहारे मोदी कुछ नया कर पाये तो वह देश के लिये एक बड़ा योगदान बन जायेगा अन्यथा वह भी प्रधान मन्त्रिायों की सूची में केवल एक नाम ही होकर रह जायेंगे।
भाजपा और मोदी कांग्रेस/यू पी ए के भ्रष्टाचार और काले धन को मुद्दा बनाकर सत्ता में आये थे यह पूरा देश जानता है। सत्ता में आने के बाद भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ क्या कुछ किया गया है यह भी सबके सामने है। भ्रष्टाचार ही सारी समस्याओं का मूल है यह एक स्थापित कड़वा सच्च है क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ जितने भी कदम उठाये गये हैं उनके परिणाम आशानुरूप नहीं रहे हैं। ऐसे में यह समझना ज्यादा आवश्यक हो जाता है कि व्यक्ति को भ्रष्ट होने की आवश्यकता ही क्यों पड़ती है। यदि भ्रष्टता की आवश्यकता के आधार को ही समाप्त कर दिया जाये तो बहुत कुछ हल हो जाता है। आज संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक भ्रष्ट लोग ‘माननीय’ बन कर बैठे हुये हैं। हर चुनावों के बाद यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है।"Power Corrupts a man and absolute power Corrupts absolutely." यह कहावत इन माननीयों पर स्टीक बैठती है। क्योंकि हर चुनावों में धन बल और बाहुबल का बड़ा खेल हो गया है। बढ़ते धन बल के कारण ही हर बार चुनाव खर्च की सीमा में चुनाव आयोग बढ़ौतरी कर देता है। खर्च की जो सीमा तय है चुनावों में उससे कहीं अधिक खर्च हो रहा है। लेकिन यह खर्च पार्टी के खाते से होता है व्यक्ति के खाते से नहीं। पार्टी पर खर्च की कोई सीमा है नहीं। पार्टीयों द्वारा भरी जाने वाली आयकर रिटर्न को आरटीआई के दायरे से बाहर रखा गया है। यहां तक कि चुनाव आचार संहिता की उल्लघंना पर भी केवल चुनाव परिणाम को ही चुनौति देने का प्रावधान है। आचार संहिता की उल्लंघन दण्ड संहिता के अन्दर अभी तक अपराध की सूची में शामिल नहीं है।
इस परिपेक्ष में यदि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी इस अपार जन समर्थन के सहारे देश की चुनाव व्यवस्था को सुधारने का साहस कर पाते हैं तो वह देश को बड़ा योगदान होगा। मेरा मानना है कि यदि प्रयास किये जाये तो चुनावों को भ्रष्टाचार से एकदम मुक्त किया जा सकता है। चुनाव के भ्रष्टाचार से मुक्त होने का अर्थ है कि उसमें धन की भूमिका नही के बराबर पर लायी जा सकती है। जब धन की केन्द्रिय भूमिका नहीं रहेगी तब बाहुबलियों का संसद और विधानसभाओं में आना भी रूक जायेगा। चुनाव सुधार ऐसे ही बहुमत और ऐसे ही नेतृत्व में संभव और अपेक्षित हो सकते हैं। यदि प्रधानमन्त्री चाहें तो सुधारों की इस रूपरेखा पर विस्तार से चर्चा की जा सकती है।

गोरक्षक और दलित समाज

शिमला। पिछले कुछ अरसे से देश के विभिन्न भागों से गोरक्षा के नाम पर कुछ गोरक्षकों की उग्रता दलित अत्याचार के रूप में सामने आयी है। यह उग्रता इतनी बढ़ गयी कि इस पर देश की संसद में बैठे दलित सासंदों को पार्टी लाईन से ऊपर उठकर दलित अत्याचार के खिलाफ आवाज उठानी पडी है। दलित सासंदों की इस चिन्ता का संज्ञान लेते हुए प्रधान मन्त्री नरेन्द्रमोदी ने भी बढ़ते दलित अत्याचार और फर्जी गोरक्षकों की कडे़ शब्दों में निंदा की है। लेकिन प्रधान मन्त्री की इस प्रतिक्रिया का विश्व हिन्दु परिषद ने खुले मन से पूरा समर्थन नही किया है। इसी के साथ दलित अत्याचार पर भी रोक नही लगी है। गोरक्षा के नाम पर गोरक्षकों की उग्रता के खिलाफ अपना रोष मुखर करते हुए दलित संगठनों ने अपनी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए अपने परम्परागत कार्य को छोड़ने तक का ऐलान कर दिया है। आज यह समस्या एक ऐसा रूप धारण करती जा रही है कि यदि इसका समय रहते सही हल न निकला तो इसका देश के सामाजिक सौहार्द पर गहरा असर पड़ेगा।
गाय का हिन्दु धर्म और संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। गाय दान का हिन्दु धर्म में एक ऐसा विशेष स्थान है जिससे स्वर्ग प्राप्ति का मार्ग सरल और सुगम हो जाता है। स्वाभाविक है कि जिस समाज में किसी भी पशु का ऐसा केन्द्रिय स्थान होगा उसमें सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने के लिये भी यही पशु मुख्य भूमिका में ला खड़ा किया जा सकता है। यह देश कृषि प्रधान देश माना जाता है। कृषि कार्य में गाय-बैल की उपयोगिता से सभी परिचित हैं फिर गाय दूध का भी मूल स्त्रोत है और प्राय हर भूगौलिक क्षेत्र में सुगमता से उपलब्ध है। जबकि भंैस भी दूध का स्त्रोत है परन्तु क्षेत्र में उपलब्धता नही है। इसलिये एक समय तक कृषि कार्य से जुड़े हर परिवार में गाय का होना अनिवार्य था। अब जब कृषि कार्यो में बैल का स्थान टैªक्टर ने ले लिया है तो उसी अनुपात में आज हर घर में गाय नही है। लेकिन गाय का धार्मिक स्थान आज भी अपनी जगह कायम है। फिर टैªक्टर के चलन के साथ ही गाय पालन की अनिवार्यता पहले जैसी नही रह गयी है। जहंा पहले हर घर में गाय होती थी आज उसका स्थान गौशालाओं ने ले लिया है क्योंकि गाय पालने के साधनों में कमी आती जा रही है। इसलिये आज आवारा पशुओं में भी गाय और बैल की संख्या बढ़ गयी है। डेयरी फार्मो में भी गाय का स्थान भंैस लेती जा रही है। इस परिदृश्य में गाय की व्यवहारिक उपयोगिता और गोरक्षा में कमी आने के कारण गाय की रक्षा एक समस्या बनती जा रही है। क्योंकि उपयोगिता और रक्षा एक दूसरे के अभिन्न अंग है।
इसका दूसरा पक्ष है कि जब आप गाय को आवारा छोड़ रहे है तो फिर उसकी चिन्ता कौन करेगा। राजस्थान में एक सरकारी गौशाला में पांच सौ गायों का मरना इसी सत्य को प्रमाणित करता है। आज गाय की रक्षा चैरिटी से नही की जा सकती है। आज यहां एक साथ इतने पशु मर जायेंगे वहां पर उनका अन्तिम संस्कार क्या होगा? प्रत्येक मृत पशु का चमड़ा निकालना और उसका शोधन करके उसे उपयोग में लाना अपने में एक बहुत बड़ा व्यवसाय है। पहले समाज का एक वर्ग यह कार्य करता था। मृत पशु का चमड़ा और उसकी हड्डीयां तक उपयोग में लायी जाती थी। संयोगवश चमड़ा निकालने का काम दलित वर्ग करता था लेकिन इस कर्म के लिये जब उसे हेय और अछूत माना जाने लगा तो इससे समाज में विकृतियां आनी शुरू हो गयी है। आज समस्या फिर वहीं खड़ी है कि जिन्दा पशु का चाहे वह गाय है या कोई अन्य पशु उसका पालन कौन करेगा? उसे आवारा तो नही छोड़ा जायेगा? फिर पशु के मरने के बाद उसका चमडा आदि निकालने का काम कौन करेगा या फिर मृत पशु का संस्कार क्या होगा और कौन करेगा? आज यह सामाजिक व्यवस्था तय करना आवश्यक है। इस व्यवहारिक पक्ष को नंजर अन्दाज करके गौरक्षा के नाम पर समाज में बवाल तो खड़ा किया जा सकता है लेकिन उससे समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता है। आदमी की मृत्यु के पश्चात उसके अनितम संस्कार की रीति नीति तय है क्या उसी तर्ज पर हर मृत पशु के संस्कार की रीति नीति उसकी मरणोपरान्त उपयोगिता के आधार पर तय होना आवश्यक है। आज के अधिकांश गोरक्षक वह लोग मिल जायेंगे जिनके अपने घरों में गाय का पालन नही होता है। यह लोग हिन्दु धर्म में गाय के स्थान की व्यवहारिकता में रक्षा करने की बजाये उसकेे नाम पर समाज में सौहार्द बिगाडने का काम कर रहे हैं। ऐसे लोगों को कानून के मुताबिक दण्डित किया जाना चाहिये। आज किसी भी गोरक्षक से पहला सवाल ही यह पूछा जाना चाहिये की गाय का अन्तिम संस्कार क्या और कैसा होना चाहिये तथा कौन करेगा।

आरोप पत्र की रस्म अदायगी क्यों

शिमला। प्रदेश सरकार ने वीरभद्र सरकार के खिलाफ आरोप पत्र लाने का फैसला लिया है। इस आशय का भाजपा अध्यक्ष ठाकुर सत्तपाल सिंह सत्ती का एक ब्यान भी आया है। सरकार के इस कार्यकाल में भाजपा का यह दूसरा आरोप पत्रा होने जा रहा है। पहला आरोप पत्र 2015 में सत्ती और धूमल के हस्ताक्षरों तले आया था। वैसे 2015 में भाजपा की आक्रामकता की जो धार थी वह अब 2016 में उतनी तेज नजर नहीं आ रही है। वैसे इस धार का पता प्रस्तावित आरोप पत्र से लग जायेगा । प्रदेश में आरोप पत्र जारी करने की संस्कृति बड़ी पुरानी है। स्व. डा. परमार के समय से ही चली आ रही है बल्कि उस समय तो कांग्रेस के ही आठ विधायकों प.पदम देव के नेतृत्व में आरोप पत्रा दाग दिया था। उसके बाद सत्यदेव बुशैहरी और हरि सिंह जैसे नेताओं ने गंभीर आरोप लगाये थे। डा. परमार के बाद स्व. ठाकुर रामलाल के कार्यकाल में भी वीरभद्र सिंह ने एक पत्र लिखकर बड़ा धमाका किया था। 1977 में जनता पार्टी के समय आरोपों के चलते ही शान्ता कुमार के खिलाफ दो बार अविश्वास प्रस्ताव सदन में आये थे।

शान्ता के दूसरे कार्यकाल में भी आरोप लगे और उसके बाद वीरभद्र तथा धूमल के हर कार्यकाल में आरोप पत्रा आयें आरोप पत्र लाने में हर विपक्षी पार्टी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। जनता पार्टी ने, जनता दल, जन मोर्चा, वांमपंथी दल, लोकदल हिविंका और भाजपा सबने विपक्ष में बैठकर सत्ता पक्ष के खिलाफ आरोप पत्रा जारी किये है। हर आरोपपत्र में गंभीर और संवदेनशील आरोप रहे है। आरोपों को प्रमाणिक मानकर प्रदेश की जनता ने आरोप पत्र वालों को सत्ता भी सौंपी है। लेकिन आजतक किसी भी दल ने सत्ता में आकर अपने ही दागे हुए आरोप पत्रों की ईमानदारी से जांच करवा कर उन्हें अन्तिम अन्जाम तक नही पहुंचाया है। हर सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टालरैन्स के दावे किये हैं। वीरभद्र सिंह ने तो भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी प्रतिवद्धत्ता को विश्वसनीय बनाने के लिये 31 अक्तूबर 1997 को एक रिवार्ड स्कीम तक अधिसूचित की है। लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ जिसने जितने बडे दावे किये है। उसके शासन के खिलाफ उतने ही बड़े और गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। परन्तु यह आरोप पत्रा केवल अखवारांे की खबरों से आगे नही बढे़ हैं।
लेकिन इन आरोप पत्रों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि भ्रष्टाचार को हमारे नेता अपने विरोधीे के खिलाफ कितना बड़ा हथियार मानते हैं। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जनता पर ऐसे आरोपों का कितना बड़ा असर होता है। इसी कारण इन आरापों को जनता तक पहुंचाने में यह नेता कोई कोर कसर नही छोड़ते है। परन्तु इसी सबसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह नेता इन आरोपों का प्रचार-प्रसार करने के अतिरिक्त इन पर कभी कोई कारवाई नहीं चाहते। शायद इसी कारण आज तक भ्रष्टाचार के खिलाफ बडे़-बडे़ दावे करने वाले किसी भी मुख्यमन्त्राी ने अपनी ही पार्टी के आरोप पत्रों पर कभी कोई कारवाई करने का जोखिम नही उठाया है। 1998 में भाजपा की सहयोगी हिमाचल विकास पार्टी ने वीरभद्र के खिलाफ आरोप पत्र सौंपा था। इस पत्र पर जांच रोकने के लिये वीरभद्र ने 31.3.99 को तत्कालीन मुख्य सचिव और एडीजीपी विजिलैन्स को धमकी भरा पत्र लिखा था और इस पत्र के बाद धूमल ने उन आरोपो पर जांच को आगे नही बढ़ाया। यही नही 2003 से 2007 के वीरभद्र के कार्यकाल को लेकर भी भाजपा ने तीन आरोप पत्र सौंपे थे लेकिन अपने 2008 से 2012 के शासनकाल में भाजपा सरकार ने इन आरोप पत्रों पर कोई कारवाई नही की है।
इसी तरह कांग्रेस ने भी धूमल शासन के दोनों कार्यकालों के खिलाफ आरोप पत्र सौंपे थे लेकिन कारवाई के नाम पर कुछ नही हुआ। आज वीरभद्र सरकार ने एच पी सी ए और धूमल के खिलाफ जितने मामलों में कारवाई की थी उनमें से अधिकाशं में उच्च न्यायालय में सरकार को भारी फजीहत झेलनी पड़ी है। क्योंकि यह मामले अदालत में सफल नही हो पाये हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह मामले मूलतः ही आधारहीन थे और जबरदस्ती बनाये गये थे? या फिर इनमें जानबूझकर बुनियादी कमीयां रखी गयी थी। ताकि यह अदालत में सफल न हों। ताकि ऐसा करने से आज जो आरोप भाजपा लगा रही है उनकी जांच का भी यही हश्र हो।
आज प्रदेश से भाजपा सांसद केन्द्रिय स्वास्थ्य  मंत्री जे पी नड्डा के खिलाफ संघ के ही एक प्रकाशन यथावत ने कवर स्टोरी छापी है। नड्डा के खिलाफ गंभीर आरोप हैं इसमें। क्या प्रदेश भाजपा वीरभद्र सरकार के खिलाफ आरोप पत्रा सौंपते हुए नड्डा पर लगे आरोपों की जांच की मांग भी उसी तर्ज पर करेगी। इस परिदृश्य में भाजपा नेतृत्व से यह आग्रह है कि आरोपों का मजाक न बनाएं उन पर प्रतिबद्धता दिखाते हुए अदालत तक जाकर उन पर जांच की मांग उठाये। अन्यथा यह आरोप पत्रा रस्म अदायगी से अधिक कुछ नही रह जायेंगे और इससे बड़ा भ्रष्टाचार और कुछ नही हो सकता।

आप की ऐसी खिलाफत क्यों?

शिमला। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल ने एक ब्यान में आशंका जताई है कि प्रधान मन्त्री मोदी बौखला गये हैं और उनकी हत्या करवा सकते हैं। केजरीवाल के इस ब्यान पर केन्द्र सरकार और भाजपा की ओर से कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। बल्कि अन्य राजनीतिक दल भी इस ब्यान पर मौन ही हैं। केजरीवाल का यह ब्यान एक गंभीर विषय है और इसे हल्के से नही लिया जा सकता। क्योंकि यह एक मुख्यमन्त्री की आशंका है। यदि यह आशंका निर्मूल है तो ऐसे ब्यानों की सार्वजनिक निन्दा होनी चाहिये अन्यथा इस पर स्पष्टीकरण आना चाहिये क्योंकि मौन ऐसे प्रश्नों का हल नही होता उससे विषय की गंभीरता और बढ़ जाती है क्योंकि एक मुख्यमन्त्री प्रधानमन्त्री की नीयत और नीति पर सवाल उठा रहा हैं। 

अरविन्द केजरीवाल को ऐसी आशंका क्यों हुई इसके ऊपर भी विचार करने की आवश्यकता है। दिल्ली में जब से आम आदमी पार्टी केजरीवाल के नेतृत्व में सत्ता में आयी है तभी से मोदी की केन्द्र सरकार से उसका टकराव चल रहा है। हर छोटे बडे़ मसले पर टकराव है और इसी टकराव के परिणाम स्वरूप दिल्ली विधान सभा द्वारा पारित कई विधेयकों को अभी तक स्वीकृति नही मिल पायी है। दिल्ली के इक्कीस विधायकों पर उनकी सदस्यता रद्द किये जाने का खतरा मंडरा रहा है। जबकि पूरे देश में हर राज्य में संसदीय सविच बने हुए हैं। जिन विधायकों को मन्त्री नही बनाया जा पाता है उन्हे संसदीय सचिव बनाकर राजनीतिक सतुंलन बनाये रखने का तरीका अपनाया जाता है। इसमें दिल्ली ही अकेला अपवाद नही हैं। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल में भी ऐसी नियुक्तियों के माध्यम से राजनीतिक सन्तुलन साधे गये हैं। संसदीय सचिवों की व्यवस्था को समाप्त करने के लिये संसद में ही विधेयक लाकर ऐसा किया जा सकता है। लेकिन किसी एक राज्य सरकार को अलग से निशाना बनाकर ऐसा प्रयास किया जाना राजनीतिक विद्वेश ही माना जायेगा।

दिल्ली में पुलिस पर प्रदेश सरकार का नियन्त्रण नही है। यह केन्द्र सरकार के अधीन है। दिल्ली पुलिस अभी तक विभिन्न मामलों में ग्याहर विधायकों को गिरफ्तार कर चुकी है। इनमें से किसी भी विधायक के खिलाफ चुनाव से पहले कोई आपराधिक मामले दर्ज नही थे जिसे लेकर यह कहा जा सके कि मामले की जांच चल रही थी और अब उसमें गिरफ्तारी की आवश्यकता आ खडी हुई क्योंकि विधायक जांच में सहयोग नही कर रहा था। सबके मामले विधायक बनने के बाद दर्ज हुए और जांच शुरू होने के साथ ही गिरफ्तारियां कर ली गयी। कईयों के मामलों में तो अदालत भी क्लीन चिट दे चुकी है फिर कईयों के खिलाफ तो आरोपों का स्तर भी ऐसा है जिससे यह विश्वास ही नही होती कि विधायक बनने के बाद भी कोई ऐसा आचरण कर सकता है। जिस तेजी के साथ दिल्ली पुलिस ने ‘आप’ विधायकों के खिलाफ कारवाई को अजांम दिया है वैसी तेजी अन्य अपराधीयो के खिलाफ देखने को नही मिली है। फिर देश की संसद के भीतर भी ऐसे कोई कारवाई नही हो पायी है। यही  नही उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश, में आपराधिक मामलें हैं जिन पर इन राज्यों की पुलिस ने  दिल्ली जैसी कारवाई नही की है। दिल्ली पुलिस की कारवाई को इस आईने में देखते हुए सामान्य नही माना जा रहा है और ऐसा मानने के कारण भी हैं। क्योंकि आम आदमी पार्टी को एक राष्ट्रीय राजनीतिक विकल्प के रूप में देखा जाने लगा है और यह कांग्रेस तथा भाजपा को स्वीकार्य हो नही पा रहा है। भाजपा ने कांग्र्रेस का विकल्प बनने के लिये जनसंघ से जनता पार्टी और फिर भारतीय जनता पार्टी बनकर एक लम्बी प्रतिक्षा की है। इसके लिये जनता पार्टी को तोडने और वी पी सिंह के जनमोर्चा को समाप्त करने तक के कई राजनीतिक कृतयों को जन्म दिया है। इस सारी यात्रा के बाद भी राम देव और अन्ना के आन्दोलनों का सहारा लेकर लोकसभा में अकेले 288 सीटें जीतकर दिल्ली विधानसभा में केवल तीन सीटों तक सिमट जाना स्वाभाविक रूप से भाजपा के लिये चिन्ता और चिन्तन का विषय है। भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व के लिये यह एक स्थिति है जिसका कोई जवाब उसके पास नही है। ऐसी स्थिति से राजनीतिक खीज का पैदा होना भी स्वाभाविक है। लेकिन इस सच्चाई का सामना करने के लिये ‘आप’ सरकार से टकराव और उसके विधायको के खिलाफ ऐसे मामले बनाना भी कोई हल नही है। पूरा देश इस वस्तु स्थिति को देख रहा है। 

 

हिमाचल में लोकायुक्त की प्रसांगिकता

शिमला। भ्रष्टाचार सबसे बडी समस्या है और जब यह सत्ता के उच्चतम शिखरों तक पंहुच चुका है तो इससे निपटने के लिये भी दण्ड संहिता के प्रावधानों के अतिरिक्त कुछ और प्रावधान भी चाहिये। इस सत्य और स्थिति को स्वीकारने के बाद लोकायुक्त संस्थानों की स्थापना हुई। मुख्यमन्त्री तक सारे राजनेताओं को इसके दायरे में लाकर खड़ा कर दिया गया। आज देश के कई राज्यों में लोकायुक्त स्थापित है और प्रभावी रूप से अपने दायित्वों को निभा रहे हंै। लेकिन कई राज्यों ऐसे है जहां लोकायुक्त के होने से व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। हिमाचल में लोकायुक्त संस्थान का गठन 1983 में हुआ था और तब से लेकर आज तक यहां पर लोकयुक्त तैनात रहे हैं। लोकायुक्त किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायधीश या सर्वोच्च न्यायालय का कोई न्यायाधीश ही बन सकता है वह सेवानिवृत भी हो सकता है और सेवानिवृत लेकर भी आ सकता है। लोकायुक्ता का अपना पूरा सचिवालय रहता है। जिसमें न्यायपालिका के सत्र न्यायधीश और आई ए एस तथा आई पी एस स्तर के अधिकारी तैनात रहते हैं। लोकायुक्त और उनके सचिवालय पर सरकारी कोष से करोड़ो रूपया खर्च किया जाता है लोकायुक्त पर सरकार का कोई दवाब नही रहता है। इस अधिनियम में ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित की गयी है। लोकायुक्त अपने पास आयी शिकायत की जांच करवाने के लियेे किसी भी सरकारी गैर सरकारी ऐजैन्सी की सेवायें ले सकता है। लोकायुक्त अपने में एक स्वायत और स्वतन्त्र संस्था है और यह व्यवस्था इसलिये रखी गयी है ताकि वह मुख्यमन्त्री तक किसी की भी निष्पक्षता जांच कर सके।
लेकिन क्या लोकायुक्त इन अपेक्षाओं पर खरे उतरे हैं? क्या लोकायुक्त ने किसी राजनेता के खिलाफ आयी शिकायत की जांच में कोई निष्पक्ष और प्रभावी परिणाम दिये हंै। जिस संस्थान पर सरकारी कोष से आम आदमी का करोड़ों रूपया खर्च हो रहा उसके बारे में यह सवाल उठाना और इनका जवाब लेना आम आदमी का अधिकार है। प्रदेश के लोकायुक्त अधिनियम को लेकर इन सवालों की पड़ताल से पहले यह जानना भी आवश्यक है कि लोकायुक्त अधिनियम में प्रदत्त स्वास्यताः और स्वतन्त्रता के प्रति राज्य सरकार का व्यवहारिक पक्ष क्या रहा है लोकायुक्त सचिवालय में सारे अधिकारी कर्मचारी सरकार द्वारा तैनात किये जाते हैं और इनमें सरकार लगभग उन लोगों को भेजती हैं जिन्हें एक तरह से साईड लाईन करना होता है। स्टाफ की यही तैनाती लोकायुक्त को पूरी तरह निष्प्रभावी बना कर रख देती है। प्रदेश के लोकायुक्त सचिवालय में आज तक जितनी भी शिकायतें आयी हैं उनमें किसी भी राजनेता के खिलाफ का कभी कोई मामला दर्ज किये जाने और उससे उसे सजा मिलने जैसी स्थिति नही आयी है। प्रदेश के दो मुख्य मन्त्रीयों वीरभद्र और प्रेम कुमार धूमल के खिलाफ लोकायुक्त के पास शिकायतें आयी हैं। वीरभद्र सिंह के खिलाफ वन कटान को लेकर शिकायत आयी थी। इस शिकायत की जांच रिपोर्ट पढ़ने से पूरी रिर्पोट की विश्वनीयता पर स्वतः ही सवाल लग जाता है। क्योंकि रिपोर्ट में कहा गया है कि जिस स्थान पर अवैध कटान होने का आरोप था उसके निरीक्षण के लिये जब लोकायुक्त गये तो वह उस स्थल तक पहुंच ही नहीं पाये। बहुत दूर से दूरबीन के साथ स्थल का निरीक्षण किया गया। इस निरीक्षण में कहा गया है कि उस स्थल पर कुछ झाडियां देखी गयी जिनसे उस स्थान पर बडे़ पेड़ांे के होने की संभावना हो ही नही सकती इस निरीक्षण के लिये पुलिस और वन विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों को स्थल पर जाकर देखने के लिये भेजा गया लोकायुक्त की इस रिपोर्ट से मामले में क्लीन चिट मिल गया था और इसको लेकर उस समय भी सवाल उठे थे।
प्रेम कुमार धूमल के खिलाफ आय से अधिक संपति की शिकायत पुलिस के ए डी जी पी स्व. बी एस थिंड ने की थी। थिंड ने अपने शपथ पत्र के साथ काफी दस्तावेजी प्रमाण भी लगाये थे। लेकिन लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में पहले तो यह कहा है कि यह शिकायतें पंाच वर्ष की समयावधि से पहले की है इसलिये उसके अधिकार क्षेत्र में नही आती हंै। फिर आगे इसी रिपोर्ट में यह भी कह दिया कि इस दौरान धूमल ने ज्यादा कमाया होगा और ज्यादा बचाया होगा इसलिये इसमें कुछ भी आपतिजनक नही है। यह रिपोर्ट भी थिंड की मौत के बाद सामने आयी है और इसे क्लीन चिट करार दिया गया है। जबकि यदि यह शिकायत अधिकार क्षेत्र से बाहर भी थी तो फिर इसमें ज्यादा कमाने और ज्यादा बचाने का उल्लेख क्यों और कैसे? इस तरह वीरभद्र और धूमल दोनों को लेकर लोकायुक्त की जो रिपोर्टें आयी हैं उनकी विश्वसनीयता पर स्वतः ही सवाल खडे़ हो जाते हैं। ऐसे में भ्रष्टाचार के खिलाफ खडे़ किये गये इस अदारे की प्रसांगिकता पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। यह रिपोर्ट आम आदमी के सामने पूरी तरह से नही आ पायी है। लेकिन इन रिपोर्टो की व्यवहारिकता पर एक सर्वाजनिक बहस बहुत आवश्यक है यदि बड़े स्तर पर पनप रहे बड़े भ्रष्टाचार पर रोक लगानी है। यदि लोकायुक्तों की कार्य प्रणाली ऐसी ही रहनी है तो ऐसी व्यवस्था पर आम आदमी का करोड़ो रूपया खर्च करने का औचित्य क्या है? उम्मीद है कि पाठक इस पर गंभीरता से मंथन करके कुछ नया करने और सोचने की ओर बढेगें।

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