Thursday, 18 September 2025
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एक देश एक चुनाव

 राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संसद के बजट सत्र को संबोधित करते हुए देश में हो रहे अत्याधिक चुनावों को लेकर गहरी चिन्ता व्यक्त की है। राष्ट्रपति से पहले नये मुख्य चुनाव आयुक्त ने भी यह कहा है कि देश में लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के चुनाव एक साथ करवाने को लेकर राजनीतिक दलों को इस पर सहमति बनानी चाहिये। चुनाव आयोग इसका प्रबन्ध करने में सक्षम है। मुख्य चुनाव आयुक्त की इस टिप्पणी के बाद हुई समन्वय समिति की बैठक में इस बारे में सहमति बन पाने की बात भी सामने आ चुकी है। अब राष्ट्रपति द्वारा इस संद्धर्भ में चिन्ता व्यक्त करने के बाद यह टिप्पणी भी सामने आयी है कि कांग्रेस जल्दी चुनाव करवाये जाने से डर रही है। मोदी सरकार ने जब नोटबंदी लागू की थी उसके बाद विमुद्रीकरण पर आयी एक पुस्तक के लेखक गौत्तम चौधरी ने इसमें यह कहा है कि आने वाले समय में मोदी सत्ता के लिये लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के चुनाव एक साथ करवाने का दाव खेल सकते हैं। बीते नवम्बर माह में शिमला में जब मिशन मोदी 2019 नाम से गठित मंच की हिमाचल ईकाई का गठन किया गया था तब इस बैठक का संचालन कर रहे संघ मुख्यालय नागपुर से आये प्रतिनिधियों ने भी इस आश्य का संकेत दिया था।
एक अरसे तक देश में लोकसभा और राज्य विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होते रहे हैं। आज फिर से यह चुनाव एक साथ करवाने के लिये इस आश्य का संसद में एक संविधान संशोधन लाना पड़ता है। संसद में इसे पारित करवाने के बाद राज्यों की दो-तिहाई विधान सभाओं से भी इसे अनुमोदित करवाना पड़ता है। संसद में इसे किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। अभी मार्च में राज्यसभा की कुछ सीटों के लिये चुनाव होने जा रहा है। संभावना है कि इस चुनाव के बाद राज्य सभा में भी भाजपा को बहुमत मिल जायेगा। फिर इस समय 19 राज्यों में तो भाजपा की ही सरकारे हैं। बिहार, महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर में भाजपा सत्ता में भागीदार है। इस तरह कुल मिलाकर स्थिति यह बनती है कि यदि मोदी वास्तव में ही ऐसा चाहेंगे तो उन्हें इस आश्य का संविधान संशोधन लाने में कोई दिक्कत पेश नही आयेगी। इस आश्य के संविधान संशोधन का सिद्धान्त रूप में विरोध कर पाना आसान नही होगा। क्योंकि जब देश में आपातकाल के दौरान संविधान संशोधन लाकर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाकर छः वर्ष कर दिया गया था। उस समय प्रधानमन्त्री, लोकसभा अध्यक्ष आदि को कानून में संरक्षित कर दिया गया था। तब उसका विरोध किसी ने भी नही किया था। यह तो सर्वोच्च न्यायालय था जिसने उस संशोधन को निरस्त कर दिया था। इस परिदृश्य में आज यदि इकट्ठे चुनाव करवाने का संशोधन लाया जाता है तो उससे भाजपा सहित सभी राजनीतिक दलों को एक समान ही हानि लाभ होगा।
इस समय लोकसभा का चुनाव मई - जून 2019 में होना तय है। इसके साथ आंध्र प्रदेश, अरूणाचल, सिक्कम, उड़ीसा और तेलंगाना के चुनाव भी मई-जून 2019 में है। छत्तीसगढ़ , हरियाण , मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र के चुनाव भी 2019 में ही है। 2018 में कर्नाटक और मिजोरम के चुनाव होंगे। इस तरह ग्याहर राज्यों के चुनाव 2018 और 2019 में होना तय है। शेष 20 राज्यों में 2020, 21, 22 और 2023 में चुनाव होने हैं और इनमें अधिकांश में भाजपा की सरकारे हैं इसलिये एक साथ चुनाव का राजनीतिक हानि/लाभ सबको बराबर होगा। लेकिन इससे देश को कालान्तर में समग्र रूप से लाभ होगा। इस समय देश के कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारे हैं और इन सरकारों का विजिन अपने राज्य से बाहर का नही रह पाता है। फिर अधिकांश क्षेत्रीय दल तो एक प्रकार से पारिवारिक दल होकर रह गये हैं। इस कारण से चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों के स्थान पर हल्के केन्द्रिय मुद्दे भारी पड़ जाते हैं इसलिये यह बहुत आवश्यक है कि गंभीर राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव लडे जायें। यदि मोदी सरकार किसी ऐसे संशोधन को लाने का प्रयास करती है तो उसका समर्थन किया जाना चाहिये।
इस संसद से लेकर राज्यों की विधान सभाओं तक आपराधिक छवि के लोग चुनाव जीतकर माननीय बने बैठे हैं ऐसे लोगों के मामले दशकों तक अदालतों में लटके रहते हैं। ऐसे लोगों को चुनाव से बाहर रखने के चुनाव आयोग से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक के सारे प्रयास प्रभावहीन होकर रह गये हैं क्योंकि यह आपराधिक छवि के माननीय सारे राजनीतिक दलों में एक बराबर मौजूद हैं। इसलिये जब एक साथ चुनाव करवाने का कोई संशोधन लाया जाये तो उसके साथ ही चुनावों को धन और बाहुबल से भी बाहर करने के संशोधन साथ ही आ जाने चाहिये।

सरकार का सत्ता में एक माह

जयराम सरकार को सत्ता में आये एक माह हो गया है और इसी माह में प्रदेश का पूर्ण राज्यत्व दिवस समारोह भी संपन्न हुआ है। पूर्ण राज्यत्व के दिवस पर मुख्यमन्त्री ने अपनी सरकार के कुछ संकल्प दोहराये हैं इन संकल्पों पर सरकार कितना खरा उत्तर पाती है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इसी अवसर पर सरकार ने पिछली वीरभद्र सरकार पर वित्तिय कुप्रबन्धन का गंभीर आरोप भी लगाया है। इसी कुप्रबन्धन के परिणाम स्वरूप वर्तमान सरकार को 46500 करोड़ का कर्ज भी विरासत में मिला है यह आक्षेप भी मुख्यमन्त्री ने अपने संबोधन में लगाया है। इस कठिन वित्तिय स्थिति से बाहर निकलने के लिये प्रधानमन्त्री मोदी से प्रदेश को विशेष आर्थिक पैकेज देने की भी मांग की है। यह जानकारी भी मुख्यमन्त्री ने अपने राज्यत्व दिवस के संबोधन पर प्रदेश की जनता को दी है। मुख्यमन्त्री की यह मांग भी कितनी पूरी हो पाती है यह भी आने वाले समय में ही पता चलेगा।
इसी परिदृश्य में यदि सरकार के एक माह के कार्यकाल का आंकलन किया जाये तो जो महत्वपूर्ण बिन्दु उभर कर सामने आते हैं उनपर चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। इसमें सबसे पहला और सबसे प्रमुख बिन्दु वित्तिय स्थिति का ही आ जाता है। मुख्यमन्त्री ने स्वयं पिछली सरकार पर वित्तिय कुप्रबन्धन का आरोप लगाया है। यह आरोप वेबुिनयादी भी नही है क्योंकि भारत सरकार के वित्त मन्त्रालय द्वारा तो मार्च 2016 में ही प्रदेश सरकार को एक कड़ा पत्र लिखकर यह बता दिया गया था कि राज्य सरकार की कर्ज लेने की अधिकतम सीमा क्या है और इसके उल्लंघन के परिणाम क्या हो सकते है। प्रदेश की वित्तिय स्थिति एफआरबीएम के तहत संचालित होती है और इसके अनुसार जीडीपी का कुल 3% ही कर्ज लिया जा सकता है। लेकिन राज्य सरकार जीडीपी का 42% कर्ज ले चुकी है और यह कर्ज सरकार की कुल राजस्व आय से 214% अधिक हो चुका है। यह खुलासा है सदन में रखी जा चुकी कैग रिपोर्ट का। इस रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के वित्त प्रबन्धन पर कुप्रबन्धन का आरोप लगना जायज ही है। लेकिन सवाल उठता है कि इस कुप्रबन्धन के लिये आखिर जिम्मेदार कौन है? क्या इसकी जिम्मेदारी केवल राजनीतिक नेतृत्व पर ही डालना जायज होगा?
क्योंकि राजनीतिक नेतृत्व को सही स्थिति से अवगत करवाना तो संबधित अधिकारियों की जिम्मेदारी है। क्या वित्त सचिव के परामर्श को नज़रअन्दाज किया जा सकता है शायद नहीं। कुप्रबन्धन के आरोप से क्या सचिव वित्त बन सकते हैं शायद नहीं। ऐसे में जब स्वयं मुख्यमन्त्री वित्त के कुप्रबन्धन का आरोप लगा रहे हैं और फिर उसी अधिकारी को विभाग की जिम्मेदारी दिये हुए हैं तो यह दोनो बातें अन्ततः विरोधी हो जाती है और इस अन्तः विरोध का अर्थ या तो यह है कि कुप्रबन्धन का आरोप ही सिरे से गलत है या फिर अधिकारियों पर उसी कुप्रबन्धन को जारी रखने का दबाव हो जाता है। आज जितना कर्जभार प्रदेश का है यदि उसको लेकर यह सवाल उठाया जाये कि आखिर इतना बड़ा कर्ज लेकर किया क्या गया है। क्या इस कर्ज से ऐसे कोई संसाधन खड़े किये गये हैं जिनसे प्रदेश के लिये एक स्थायी आय के साधन बन पाये हैं जिससे इस कर्जभार से मुक्त हुआ जा सकेगा तो शायद इसका उत्तर नही में होगा। क्योंकि मूलतः यह कर्जभार तब बढ़ता है जब वोट की राजनीति के चलते चुनाव घोषणा पत्रों में ऐसे लोकलुभावन अव्यवहारिक वायदे कर दिये जाते हैं जिन्हें पूरा करने के लिये कर्ज लेना ही एक मात्र उपाय रह जाता है।
आज जब मुख्यमन्त्री राज्यत्व दिवस के अवसर पर प्रदेश के नाम अपने पहले संबोधन वित्तिय कुप्रबन्धन को स्वीकार कर रहे हैं तो निश्चित तौर पर इस कुप्रबन्धन को सुधारने के कदम भी उन्हें ही उठाने होंगे। इस कुप्रबन्धन के लिये किसी को तो जिम्मेदार ठहराना होगा। लेकिन अभी इस एक माह के समय में ऐसा कोई प्रयास मुख्यमन्त्री या उनकी सरकार की ओर से सामने नही आया है। सरकार ने पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र को अपना कार्यदृष्टि पत्र करार दे दिया है। लेकिन इस घोषणा पत्र को अमली जामा पहनाने के लिये कितने वित्तिय संसाधनों की आवश्यकता होगी इसकी कोई जानकारी प्रदेश की जनता को नहीं दी गयी है जबकि यह बहुत आवश्यक है कि प्रदेश की जनता को इसकी यह भी जानकारी दी जाये कि इन चुनावी वायदों को पूरा करने के लिये प्रदेश की जनता पर परोक्ष/अपरोक्ष रूप से कोई कर्जभार नही डाला जायेगा। अभी एक माह के समय में जितने फैसलें लिये गये हैं उनसे वर्तमान और पूर्ववर्ती सरकारों की कार्यशैली में कोई भिन्नता देखने को नही मिल रही है। प्रशासनिक स्तर पर यह सरकार अभी तक तबादलों के चक्रव्यूह से ही बाहर नही निकल पायी है। अवैध कटान और अवैध खनन के जो मामले सामने आये हैं उनसे ही कई गंभीर सवाल खड़े हो गये हैं। उद्योग विभाग ने खनन के तथ्यों को नकार दिया है जबकि मीडिया रिपोर्ट ने सबकुछ सामने दिखाया है। अवैध कटान का जो वीडियो सामने आया है उसमें वन विभाग का कर्मचारी बडे़ अधिकारियों पर सीधे अनदेखी का आरोप लगा रहा है लेकिन सरकार की ओर से कोई अधिकारिक प्रतिक्रिया अभी तक सामने नही आयी है। ऐसे में पहले एक माह के कार्यकलाप से यह सरकार अभी तक कोई बड़ा प्रभाव नही बना पायी है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यदि समय रहते सुधार न हुए तो आने वाले समय में कठिनाईयां बढ़ जायेंगी यह तय है।

घातक हैं न्यायपालिका पर उठते सवाल

शिमला/शैल। देश की शीर्ष अदालत के शीर्ष जज की कार्यप्रणाली को उसी के साथी चार वरिष्ठ जजों ने लोकतन्त्र के लिये खतरा करार दिया है। इन चार जजों ने बाकायदा एक पत्रकार को संबोधित करते हुए देश की जनता से अपनी पीड़ा को सांझा किया है और आह्वान किया है कि वह अब आगे आकर इस शीर्ष संस्थान की रक्षा करे। अन्दाजा लगाया जा सकता है कि जब सर्वोच्च न्यायालय के इन चार वरिष्ठतम जजों को अपनी पीड़ा देश की जनता से बांटने के लिये मीडिया का सहारा लेना पड़ा है तो वास्तव में ही स्थितियां कितनी गंभीर रही होंगी। क्योंकि जो इन चारों जजों ने किया है वह देश की न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार हुआ है वैसे तो न्यायपालिका पर एक लम्बे समय से अंगुलियां उठना शुरू हो गयी है। अभी पिछले ही दिनों जस्टिस सी एस करन्न और अरूणांचल के मुख्यमन्त्री स्व. काली खो पुल्ल के प्रकरण हमारे सामने हैं। न्यायपालिका पर से जब भरोसा उठने की नौबत आ जाती है तब उसके बाद केवल अराजकता का नंगा नाच ही देखने को बचता है। जिसमें किसी के भी जान और माल की सुरक्षा सुनिश्चित नही रह जाती है। केवल ‘‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’’ का कर्म शेष रह जाता है।
आज देश की जो राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति बनी हुई है उसको सामने रखते हुए यह कहा जा सकता है कि देश इस समय एक संक्रमण काल से गुजर रहा है क्योंकि आज सारे राजनीतिक दलों पर से आम अदामी का भरोसा लगभग उठता जा रहा है। देश की जनता ने 2014 के लोकसभा चनावों में जो भरोसा भाजपा पर दिखाया था उस भरोसे को दिल्ली के विधानसभा चुनावों में ही ब्रेक लग गयी थी। उसके बाद के सारे चुनावों में ईवीएम मशीनों पर सवाल उठते गये हैं और आज इन मशीनों के बदले पुरानी वैलेट पेपर व्यवस्था की मांग एक बड़ा मुद्दा बनने जा रही है। कांग्रेस पर जो भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे वह अभी तक उन आरोपों और उन लोगों के साथ से बाहर नही निकल सकी है जिनके कारण यह आरोप लगे थे। आर्थिक धरातल पर मंहगाई और बेरोजगारी का कड़वा सच्च घटने की बजाये लगातार बढ़ता ही जा रहा है और इसे छुपाने के लिये हर रोज नये नारों और घोषणाओं का बाज़ार फैलाया जा रहा है। सामाजिक स्तर पर विरोध को कब देशद्रोह करार दे दिया जाये यह डर बराबर बढ़ता जा रहा है। सरकार का हर आर्थिक फैसला मुक्त बाजार व्यवस्था की ओर बढ़ता जा रहा है जो कि 125 करोड़ की आबादी वाले देश के लिये कभी भी हितकर नही हो सकता है। आम आदमी इन आर्थिक फैसलों को सही अर्थों में कही समझने न लग जाये इसके लिये उसके सामने हिन्दू- मुस्लिम मतभदों के ऐसे पक्ष गढे़ जा रहे हैं जिनसे यह मतभेद कब मनभेद बनकर कोई बड़ा मुद्दा खड़ा कर दे यह डर हर समय बना हुआ है।
इस परिदृश्य में आम आदमी का अन्तिम भरोसा आकर न्यायपालिका पर टिकता है लेकिन जब न्यायपालिका की अपनी निष्पक्षता पर सवाल खड़े हो जायेंगे तो निश्चित तौर पर लोकतन्त्र को इससे बड़ा खतरा नही हो सकता। आज सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों न्यायमुर्ति जे. चलमेश्वर, न्यायामूर्ति रंजन गोगाई, न्यायमूर्ति मदन वी लोकर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ ने जिस साहस का परिचय देकर देश के सामने स्थिति को रखा है उसके लिये उनकी सरहाना की जानी चाहिये और उन्हे समर्थन दिया जाना चाहिये। यह लेख उसी समर्थन का प्रयास है जो लोग इनके साहस को राजनीतिक चश्मे से देखने का प्रयास कर रहे हैं उनसे मेरा सीधा सवाल है कि यह लोग अपने लिये कौन सा न्याय मांग रहे है? इनका कौन सा केस कहां सुनवाई के लिये लंबित पड़ा है। इन्होने तो प्रधान न्यायधीश से यही आग्रह किया है कि संवेदनशील मामलों की सुनवाई के लिये जो बैंच गठित हो वह वरिष्ठतम जजों के हो बल्कि संविधान पीठ ऐसे मामलों की सुनवाई करे। अभी जजों के इस विवाद पर अटाॅर्नी जनरल ने एक चैनल में देश के सामने यह रखा है कि एक ही तरह के दो मामलों में लंच से पहले एक फैसला आता है तो उसी तरह के दूसरे मामलें में लंच के बाद अलग फैसला आ जाता है। ऐसे फैसलों का उल्लेख जब शीर्ष पर बैठे लोग करेंगे तो फिर आम आदमी ऐसे पर क्या धारणा बनायेगा?
अरूणाचल के स्व. मुख्यमन्त्री कालिखो पुल्ल ने अपने आत्महत्या नोट में यह आरोप लगाया है कि जस्टिस दीपक मिश्रा के भाई आदित्य मिश्रा ने किसी के माध्यम से उनसे 37 करोड़ की मांग की थी। कालिखो पुल्ल की आत्महत्या के मामले को लेकर उनकी पत्नी ने सर्वोच्च न्यायालय में भी दस्तक दी थी। जस्टिस दीपक मिश्रा ने भूमिहीन ब्राह्मण होने के आधार पर उड़ीसा सरकार से दो एकड़ ज़मीन लीज़ पर ली थी। वैसे जस्टिस दीपक मिश्रा पंडित गोदावर मिश्रा के वंशज हैं जो 1937-45 और 1952-56 जुलाई तक उड़ीसा विधानसभा के सदस्य रहे हैं। इन्ही के चाचा रंगनाथन मिश्रा भी देश के प्रधान न्यायधीश रह चुके है। ऐसी समृद्ध वंश पंरपरा से ताल्लुक रखने वाले दीपक मिश्रा को भूमिहीन होने के नाते दो एकड़ ज़मीन सरकार से लीज़ पर लेने की नौबत रही हो यह अपने में एक बड़ी बात है।
आज सर्वोच्च न्यायालय में सहारा- बिरला डायरीज़, मैडिकल काऊंसिल रिश्वत मामला और जज बी एच लोया की हत्या के मामले लंबित हैं। इन मामलों की सुनवाई संविधान पीठ से करवाई जाये न कि कनिष्ठ जजों के बैंच से। इसको लेकर प्रधान न्यायधीश और इन चार वरिष्ठतम जजों में मतभेद चल रहा है। देश की जनता की नज़र इन मामलों पर लगी हुई है।

निर्दलीय विधायकों से एक सवाल

इस बार प्रदेश विधानसभा के लिये देहरा और जोगिन्द्रनगर से दो निर्दलीय विधायक जीत कर आये हैं। इन दोनों विधायकों ने विधायक के तौर पर शपथ ग्रहण से पहले ही भाजपा का सहयोगी सदस्य बनने के प्रयास शुरू कर दिये हैं। इनके इन प्रयासों का देहरा और जोगिन्द्रनगर के भाजपा मण्डलों ने तो विरोध किया है लेकिन भाजपा विधायक दल और पार्टी के अध्यक्ष या अन्य पदाधिकारियों ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नही दी है। इनके इस प्रयास पर कांग्रेस की ओर से भी कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। यह प्रतिक्रिया का सवाल मैं इसलिये उठा रहा हूं क्योंकि पिछले सदन में भी कुछ निर्दलीय चुनकर आये थे। सरकार कांग्रेस ने बनाई थी और यह सभी लोग कांग्रेस के सहयोगी सदस्य बन गये थे। इनके सहयोगी सदस्य बनने को भाजपा ने अपने मुख्य सचेतक अब शिक्षा मन्त्री सुरेश भारद्वाज के माध्यम से विधानसभा अध्यक्ष के पास दलबदल कानून के तहत चुनौती दी थी । इनकी सदस्यता रद्द करने की गुहार लगायी थी। क्योंकि दलबदल कानून के तहत एक निर्दलीय विधायक भी इस तरह से किसी दल की सदस्यता ग्रहण नही कर सकता। ऐसा करने के लिये उसे अपनी सदस्यता छोड़नी होती है यह कानूनी बाध्यता है।
पिछली बार जो याचिका दायर हुई थी उसका फैसला चुनावों से कुछ समय पूर्व ही आया था। बल्कि उस समय तक दो विधायक बलवीर वर्मा और मनोहर धीमान तो औपचारिक रूप से ही कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हो चुके थे लेकिन हमारे विधानसभा अध्यक्ष ने यह याचिका रद्द कर दी थी। उन्होने अपने फैसले में साफ कहा है कि याचिकाकर्ता अपनी याचिका को प्रमाणित करने के लिये पर्याप्त साक्ष्य नही दे पाये हैं। इस बार भी यदि यह निर्दलीय विधायक ऐसा करते हैं और कांग्रेस इसको चुनौती देती है तो तय है कि उस याचिका का फैसला भी पहले जैसा ही आयेगा क्योंकि न तो अध्यक्ष इतना नैतिक साहस दिखा पायेंगे कि वह इनके खिलाफ फैसला देकर इनकी सदस्यता को रद्द कर दें और न ही यह विधायक इतनी नैतिकता दिखा पायेंगे कि अपनी-अपनी सदस्यता से त्यागपत्र देकर दोबारा भाजपा के टिकट पर चुनाव जीत कर आयें।
राजनीति में नैतिकता की नेताओं से उम्मीद करना शायद स्वर्गीय लालबहादुर शास्त्री के बाद से समाप्त ही हो गया है। आज राजनीति में सविधानुसार इस तरह से सहायक सदस्य बनना और मन्त्रीयों के अतिरिक्त संसदीय सविच या मुख्य संसदीय नियुक्त किया जाना एक सामान्य राजनीतिक आचरण बन गया है। भले ही इस सबके खिलाफ संसद कानून बना चुकी है और वह लागू भी हो चुके हैं। जिन सांसदो/विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले हैं उन मामलों को एक वर्ष के भीतर निपटाने के निर्देश सर्वोच्च न्यायालय बहुत पहले दे चुका है। इस बार तो इन्हे पुनः दोहरा कर मार्च में इस संद्धर्भ में विशेष अदालतें गठित करके ऐसे मामलों को एक वर्ष के भीतर निपटाने की बात की गयी है। सर्वोच्च न्यायालय के अब के निर्देश पर व्यवहारिक तौर पर कितना अमल हो पायेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। इस बार हमारे सदन में ही करीब एक दर्जन विधायक ऐसे हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामलें दर्ज हैं। यदि वास्तव में ही इनके मामलों पर एक वर्ष के भीतर फैसले आ जाते हैं तो निश्चित तौर पर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य ही बदल जायेगा। इसलिये आज मीडिया से लेकर आम आदमी तक को यह भूमिका निभानी होगी कि वह इस संद्धर्भ में जन दबाव बनाये रखे ताकि अदालत में तय समय सीमा के भीतर यह मामले अपने अंजाम तक पहुंच जायें।
इसी संद्धर्भ में इन निर्दलीय विधायकों से भी यह अनुरोध और अपेक्षा है कि जब आप भाजपा और कांग्रेस दोनों को हराकर आये हैं तो स्पष्ट है कि आपके क्षेत्र की जनता ने इन दलों की बजाये आपके ऊपर भरोसा करके आपको समर्थन दिया है। इस समर्थन के लिये आपने अपनी जनता से जो भी वायदा किया होगा जनता ने उस पर विश्वास किया है, क्या आपने उस समय जनता से यह वायदा किया था कि चुनाव जीतने के बाद आप भाजपा या कांग्रेस के सहयोगी सदस्य बन जायेंगें क्या आज आप विधित रूप से सदस्यता फार्म भरकर भाजपा की सदस्यता लेने के लिये तैयार है और इसके लिये नये सिरे से चुनाव लड़ने को तैयार है। यदि आप में यह करने का साहस है तो यह करके दिखायें आपका स्वागत होगा। यदि यह नहीं कर सकते हैं तो जनता के विश्वास को ऐसे आघात मत पहुंचायें। आप अपने साधनों से चुनाव जीतकर आये हैं। भाजपा का सहयोगी सदस्य बनकर भी आप मन्त्री या अन्य कोई पद पा नही सकेंगे। ऐसे में यदि आज आप प्रदेश की सामाजिक और आर्थिक स्थिति का सही अध्ययन करके एक राजनीतिक विकल्प बनने का प्रयास करोगे तो शायद जनता आपको उचित समर्थन देगी। क्योंकि प्रदेश में एक तीसरे विकल्प की बहुत आवश्यकता है और इसके लिये आपके पास समय और सामर्थय दोनों ही है। जब आप सक्रिय राजनीति में आ ही गये हैं तो इस राजनीति को ईमानदारी से अध्ययन करने का प्रयास तो करें। अन्यथा आप भी राजनीतिक भीड़ का एक हिस्सा बनकर ही रह जाओगे।

धूमल के स्पष्टीकरण के मायने

शिमला/शैल।  हिमाचल में जयराम ठाकुर की सरकार ने पूरी तरह से काम संभाल लिया है। मन्त्रिमण्डल की दो बैठकें भी हो चुकी है। धर्मशाला में नई विधानसभा का पहला सत्र होने जा रहा है। इस सत्र में विधानसभा का नया अध्यक्ष और उपाध्यक्ष भी चुन लिया जायेगा। राज्यपाल सत्र को संबोधित भी करेंगे और उनके संबोधन से भी काफी कुछ संकेत मिले जायंेगे कि उनकी सरकार आगे किस तरह से काम करने जा रही है। मुख्यमन्त्री ने प्रशासनिक फेरबदल को भी अजांम दे दिया है। इस तरह नयी सरकार को अपना काम सुचारू रूप से चलाने के लिये प्रशासनिक स्तर पर जो कुछ वांच्छित था उसे पूरा कर लिया गया है। 44 सीटें जीतकर यह सरकार सत्ता में आयी है। इसलिये राजनीतिक स्तर पर उसेे किसी तरह का कोई खतरा नही है। अब सरकार का कामकाज ही जनता में उसकी छवि का आंकलन करने का आधार बनेगा।
  लेकिन अभी पूर्व मुख्यमन्त्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता प्रेम कुमार धूमल ने एक ब्यान जारी करके स्पष्टीकरण दिया है कि आरएसएस उनकी हार के लिये कतई भी जिम्मेदार नही है। उन्होने संघ/भाजपा के प्रति आभार व्यक्त किया है कि आज उन्हें जो भी मान सम्मान मिला है वह केवल संघ/भाजपा के कारण ही है। धूमल ने जोर देकर कहा है कि संघ तो सदैव राष्ट्रनिमार्ण के कार्य में संलग्न रहा है। राजनीतिक और प्रशासनिक हलकों में धूमल के इस स्पष्टीकरण के कई अर्थ निकाले ज रहें है। यह अर्थ क्यों निकाले जा रहे हैं और यह चर्चा क्यों और कैसे उठी कि संघ कुछ लोगों की हार के लिये जिम्मेदार है। भाजपा की इस बड़ी चुनावी जीत के बाद संघ के हवाले से मीडिया में यह रिपोर्ट आयी कि इन चुनावों में संघ के तीस हजार कार्यकर्ता सक्रिय रूप सेे चुनाव के कार्य में लगे हुए थे। आज प्रदेश का कोई भी विधानसभा क्षेत्र ऐसा नही है जहां संघ की शाखाएं न लगती हों। संघ परिवार की हर इकाई विधानसभा क्षेत्रवार स्थापित है इस दृष्टि से चुनावों में संघ कार्यकर्ताओं की सक्रिय भूमिका होने के दावे को नकारा नही जा सकता है। इस परिदृश्य में यह प्रश्न हर राजनीतिक कार्यकर्ता के सामने खड़ा होता ही है कि इतनी बड़ी जीत में भाजपा के यह बड़े नेता कैसे अपने क्षेत्रों में हार गये? भाजपा के जो भी बेड़े नेता हारे हैं क्या उनके क्षेत्रों में संघ के चुनावी कार्यकर्ताओं की सक्रियता कम थी या उन क्षेत्रों से इन कार्यकर्ताओं को हटा ही लिया गया था। भाजपा बड़े नेताओं की हार के कारणों का आंकलन क्या करती है इसका खुलासा तो आने वाले समय में ही होगा। लेकिन यह स्पष्ट है कि इन बडे नेताओं की हार के बाद पार्टी के आन्तरिक समीकरणों में काफी बदलाव आये हैं। यह बदलाव आने वाले लोकसभा चुनावों में क्या प्रभाव दिखाते हैं यह तो चुनावों में ही पता लगेगा। परन्तु यह तो स्पष्ट है कि यदि यह बड़े नेता अपने -अपने कारणों से चुनाव हारे हैं तो फिर इनके स्थान पर नये नेताओं का चयन पार्टी को अभी से करने की आवश्यकता होगी क्योंकि इस हार से हमीरपुर, ऊना और बिलासपुुर में काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है जिसका असर हमीरपुर लोकसभा सीट पर भी पड़ सकता है।
 पार्टी अभी से 2019 के लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुट गयी है। इसके लिये मिशन मोदी 2019 के नाम से एक मंच का भी गठन हो चुका है। 24-11-17 को शिमला के होटल हिमलैण्ड ईस्ट में हुई बैठक में इसकी 25 सदस्यीय प्रदेश ईकाई का भी गठन कर दिया गया है। इस गठन के मौके पर नागपुर स्थित संघ मुख्यालय के प्रतिनिधियों सहित देश के अन्य भागों से भी नेता शामिल रहे हैं। मिशन मोदी 2019 को मोदी सरकार की नीतियों और उसके बडे फैसलों की मार्किटिंग की जिम्मेदारी सौंपी गयी है। यह मिशन प्रदेश के हर भाग में इन फैसलों और नीतियों को जनता तक ले जाने के लिये बैठकों और सैमिनारों का आयोजन करेगा। जहां पार्टी 2019 के लोकसभा चुनावों के लिये अभी से इतनी सतर्क और सक्रिय हो गयी है वहीं पर धूमल जैसे बड़े नेता को इस तरह से स्पष्टीकरण देने पर आना इन सारी तैयारीयों के लिये एक गंभीर सवाल भी खड़ा कर जाता है जबकि यह मिशन इसपर भी जन मानस को टटोलेगा कि लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने के बारे में आम आदमी की राय क्या रहती है। क्योंकि एक समय तक तो यह दोनो चुनाव एक साथ होते ही रहे हैं। यदि आम आदमी  की राय का बहुमत दोनो चुनाव एक साथ करवाने की ओर होता है तो हो सकता हैं कि मोदी सरकार इस आश्य का संसद में संशोधन लाकर यह बड़ा फैसला ले ले। यह फैसला जो भी रहेगा वह तो आने वाले समय में सामने आ ही जायेगा लेकिन इस परिदृश्य में धूमल के स्पष्टीकरण के राजनीतिक मायने और गंभीर हो जाते हैं।                              

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