Tuesday, 16 December 2025
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काली खो पुल के पत्र पर खामोशी क्यों

शिमला/शैल। क्या लोकतन्त्र सही मे खतरे मे पड़ चुका है? क्या अब इन्साफ की प्रतीक‘‘आंखो पर पटी बंधी देवी’’ का अर्थ बदल चुका है? अब न्यायधीशों को ‘‘माईलाॅर्ड’’ का सम्बोधन अर्थहीन हो चुका है? क्या अब इन्साफ राजनीति की दहलीज़ से होकर मिलेगा? आज यह सारे सवाल एकदम उठ खडे हुए हैं और जवाब मांग रहे हैं लेकिन जवाब कहीं से भी नही आ रहा है। क्योंकि आज देश के सर्वोच्च न्यायालय का भविष्य क्या हो इस पर चिन्ता और चिन्तन करने के लिये इसी सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ जजों ने प्रधान न्यायाधीश को पत्र लिखकर ‘‘फुल कोर्ट ’’ बुलाने का आग्रह किया है। इससे पहले सर्वाेच्च न्यायालय के ही चार वरिष्ठतम जजों ने पूरी प्रैस के माध्यम से अपनी चिन्ता देश के साथ सांझी की थी। यह कोई पत्रकार सम्मेलन नही था क्योंकि इसमें किसी भी तरह के कोई प्रश्न नही पूछे गये थे और जजों ने भी जो पत्र उन्होने प्रधान न्यायाधीश को लिखा वही प्रैस के सामने रखा था। इसके बाद जब जज लोया की हत्या की जांच किये जाने की मांग को सर्वोच्च न्यायालय नेे खारिज करते हुए याचिकाकर्ताओं को एक तरह से लताड़ लगाई तब प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव 71 सांसदों के हस्ताक्षरों के साथ राज्यसभा में दायर कर दिया गया। देश के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। अब इस खारिज किये जाने को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने की बात प्रस्तावकों ने की है। इसलिये महाभियोग में लगाये गये आरोपों पर अभी चर्चा करना बहुत संगत नही होगा। लेकिन महाभियोग के इस प्रस्ताव को जज लोया की मौत की जांच की मांग पर आये फैसले का प्रतिफल कहा जा रहा है। इसके लिये मेरा पाठकों से आग्रह है कि वह गोधरा काण्ड के बाद गुजरात में भड़की हिंसा पर एक किताब आयी है। ‘‘गुजरात फाईल्स’’ इसका अध्ययन अवश्य करें। इस किताब को लेकर अगले लेख में विस्तार से चर्चा करूंगा।
लेकिन इस समय इस महाभियोग में लगाये गये आरोपों से हटकर मैं पाठकों का ध्यान अरूणांचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री काली खो पुल के उस पत्र की ओर आकर्षित करना चाहूंगा जो उन्होंने अपनी मौत से पहलेे लिखा था। काली खो पुल 9 अगस्त 2017 को अपने घर में सुबह मृत पाये गये थे। जैसे ही उनकी मौत की खबर आयी थी तब सम्बन्धित प्रशासन उनके घर पहुंचा और सारी औपचारिकताओं के बाद उनका अन्तिम संस्कार किया गया था। उस समय यह 60 पन्नों का पत्र सामने आया था। इस पत्र के हर पन्ने पर स्व. पुल के हस्ताक्षर हैं। इस पत्र को आत्महत्या से पूर्व समाने आने से पुल की मौत को आत्महत्या माना गया और पत्र को आत्महत्या से पूर्व का हस्ताक्षरित ब्यान। कानूनी प्रावधानों की अनुपालना करते हुए इस पत्र के आधार पर उनकी जांच किये जाने का प्रशासन ने फैसला लिया था और राज्यपाल राज खोबा ने भी इस जांच का अनुमोदन किया था। लेकिन जब किन्ही कारणों से यह जांच नही की गयी तथा राज्यपाल को भी हटा दिया गया तब पुल की पत्नी दंगविमसाय पुल ने फरवरी 2016 में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायधीश को पत्र लिखकर इस पत्र में नामित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की अनुमति मांगी थी। यह अनुमति सर्वोच्च न्यायालय के 1991 में के वीरा स्वामी के मामले में आये फैसले के आधार पर मांगी गयी थी। इस फैसले में जजों को भी 1986 के भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत जनसेवक करार देते हुए यह प्रावधान किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के जजों के खिलाफ एफआईआर करने के लियेे प्रधान न्यायधीश से अनुमति लेनी होगी। इसी अनुमति के लिये यह पत्र लिखा गया था। लेकिन अनुमति देने की बजाये इस पत्र को याचिका में बदल दिया गया और जस्टिस आदर्श गोयल और जस्टिस यू यू ललित की खंडपीठ को सुनवायी के लिये दिया गया। जस्टिस गोयल ने अपने को मामले से यह कहकर हटा लिया कि उन्होने जस्टिस केहर के साथ काम किया है। श्रीमति पुल को अन्ततः यह पत्र वापिस लेना पड़ा जिसको लेकर बहुत कुछ कहा गया है।
कालीखो पुल कांग्रेस नेता थे और राज्य में अपने पहले चुनाव जीतने के बाद ही मन्त्री बन गये थे। जब वह मुख्यमंत्री बने उस समय केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी। प्रणव मुखर्जी वित्त मन्त्री थेे तब उन्होंने राज्य के लिये 200 करोड़ की ग्रांट लेने के लियेे कैसे कांग्रेस नेताओं नारायण स्वामी, कमलनाथ, सलमान खुर्शीद, गुलाम नवी आजाद, मोती लाल बोहरा और कपिल सिब्बल के साथ उनकी मुलाकातें रही और किसने उनसे क्या मांगा इसका पुरा खुलासा उनके पत्र में है। लेकिन सबसे बड़ा खुलासा तो सर्वोच्च न्यायालय के जजों को लेकर है। किसने कैसे कितने पैसे उनसे मांगे किसको क्या दिया इसका पूरा खुलासा है। इसमें मुख्य न्यायधीश रहे जस्टिस केहर और अब मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा तक का नाम है। सर्वोच्च न्यायालय के चार जजों का नाम इस पत्र में है। 86 करोड़ से लेकर 49 करोड़ और 37 करोड़ की मांग की गयी। कपिल सिब्बल को लेकर भयानक खुलासा है। यह पत्र एक पूर्व मुख्यमन्त्री का अपनी आत्महत्या से कुछ पहले लिखा गया पत्र है। यह पत्र सार्वजनिक हो चुका है। इसलिये आज जब महाभियोग की बात की जा रही तब क्या यह पत्र उसमें प्रसांगिक नही है? इस पत्र पर जांच क्यों नही होनी चाहिये। इस पत्र को लेकर सभी राजनीतिक दल खामोश क्यों है। इसी तरह की खामोशी गुजरात फाईल्स को लेकर है। क्या यह खामोशी पूरी व्यवस्था पर अविश्वास नही खड़ा करती है।

बढ़ता सामाजिक ध्रुवीकरण समय पूर्व चुनावों का संकेत

शिमला/शैल। मोदी सरकार को सत्ता में आये चार साल हो गये हैं। अगले चुनावों के लिये एक वर्ष बचा है। यदि तय समय मई 2019 से पहले यह चुनाव नही होते हैं तो। वैसे यह संभावना बनी हुई है कि शायद लोकसभा का चुनाव 2018 के अन्त तक ही करवा लिया जाये। इस संभावना का बड़ा आधार यह माना जा रहा है कि विपक्ष अब एक जुट होने का प्रयास कर रहा है। विपक्ष की इस संभाविक एकजुटता का असर उत्तर प्रदेश में देखने को मिल चुका है। जहां सपा-वसपा के साथ आने पर योगी सरकार दोनों ही सीटों का उपचुनाव हार गयी जबकि यह सीटें मुख्यमन्त्री और उप मुख्यमन्त्री द्वारा खाली की गयी थी। यही नही इसी के साथ भाजपा राजस्थान, मध्यप्रदेश और बिहार में भी उपचुनाव हार गयी इन सारे राज्यों में भाजपा की ही सरकारें थी। वैसे मोदी सरकार लोकसभा का कोई भी उपचुनाव नही जीत पायी है। कई केन्द्रिय विश्वविद्यालयों में हुए छात्र संघो के चुनावों में भी भाजपा के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को हार का सामना करना पड़ा है। इन विश्व़विद्यालयों में मोदी के अपने लोकसभा क्षेत्रा का बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय भी शामिल है। जहां पिछले लोकसभा चुनावों में पूरा युवा वर्ग, पूरा छात्र समुदाय बहुमत में मोदी के साथ खड़ा था वह आज वैसा हीे नही रह गया है।
पिछले चुनावों में जो वायदे आम आदमी से किये गये थे वह व्यवहार में कोई भी पूरे नही हुए हैं। कालेधन को लेकर जो दावे और वायदे किये गये थे वह पूरे नही हुए हैं। मंहगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे बड़े मुद्दों पर सरकार एकदम असफल रही है। बल्कि इनके स्थान पर देश के सामने आया है हिन्दु मुस्लिम विवाद, फिल्म पदमावत, पाकिस्तान और चीन के साथ तनाव, गौ सेवा, गौ वध, तीन तलाक, बाबा रामदेव का योग, वन्देमारतम, राष्ट्रभक्ति और अन्त में आरक्षण। चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की निष्पक्षता अदालत के फैसले से लगा प्रश्न चिन्ह सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम जजों का पहली बार पत्रकार वार्ता के माध्यम से अपना रोष जनता के सामने लाना। दर्जनों पूर्व नौकरशाहों द्वारा प्रधानमंत्री को एक सामूहिक पत्र लिखकर अपनी वेदना प्रकट करना। यह कुछ ऐसे मुद्दे आज देश के सामने आ खड़े हुए हैं जिनको लेकर परे सामज के अन्दर एक ध्रुवीकरण की स्थिति खड़ी हो गयी है। क्योंकि यह ऐसे मुद्दे हैं जिनका देश की मूल समस्याओं पर से ध्यान भटकाने का प्रयास किया जा रहा है। आज रोटी, कपड़ा और मकान के साथ शिक्षा और स्वास्थ्य बुनियादी आवश्यकताएं बन चुकी हैं। लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्थिति यह हो गयी है कि अच्छी शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सेवा साधारण आदमी की पहुंच से बाहर होती जा रही है क्योंकि यह अपने में सेवा के स्थान पर एक बड़ा बाज़ार बन चुकी है।
अभी दलित अत्याचार निरोधक अधिनियम को लेकर आया सर्वोच्च न्यायालय का फैसला कैसे आरक्षण के पक्ष-विपक्ष तक जा पहुंचा है यह अपने में एक बड़ा सवाल बन गया है। लेकिन यह हकीकत है कि आरक्षण का मुद्दा अगले चुनावों में एक प्रमुख मुद्दा बनाकर उछाला जायेगा। क्योंकि इसी मुद्दे पर वीपी सिंह की सरकार गयी थी और कई छात्रों ने आत्मदाह किये थे। इस समय भी ऐसा ही लग रहा है कि एक बार फिर इस मुद्देे को उसी आयाम तक ले जाने की रणनीति अपनाई जा रही है। इसका और कोई परिणाम हो या न हो लेकिन इससे समाज में ध्रुवीकरण अवश्य होगा। इस ध्रुवीकरण का राजनीतिक परिणाम क्या होगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन यह तय है कि यह सवाल अवश्य उछलेंगे और सरकार को इन पर जवाब देना होगा। फिर इन्ही मुद्दों के साथ उनाव और कटुआ जैसे कांड जुड़ गये हैं और ऐसे कांड देश के कई राज्यों में घट चुके हैं। संयोगवश ऐसे कांड अधिकांश में भाजपा शासित राज्यों में घटे हैं लेकिन इनकी सार्वजनिक मुखर निन्दा करने और इनपर कड़ी कारवाई करने की मांग में भाजपा नेतृत्व खुलकर सामने नही आया है।
इस परिदृश्य में यह माना जा रहा है कि इन सारे मुद्दों पर सरकार के पास कोई संतोषजनक उत्तर नही है। इसलिये आने वाले समय में 2019 के चुनावों तक इन मुद्दों का दंश ज्यादा नुकसानदेह होने से पहले ही मोदी इसी वर्ष चुनाव का दाव खेल दें तो इनमें कोई हैरानी नही होनी चाहिये।

हादसो पर राजनीति नही कड़ा संज्ञान चाहिये

शिमला/शैल। नूरपुर में एक स्कूल बस के गहरी खाई में गिर जाने से 27 लोगों की मौत हो गयी जिनमें 24 स्कूल के बच्चे थे। यह हादसा कितना दर्दनाक रहा होगा इसको शब्दों में ब्यान करना संभव नही। जिन घरों के चिराग इसमें सदा के लिये बुझ गये हैं उन परिजनों को शायद ही कोई शब्द सांत्वना दे सकते है। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह संतृप्त परिजनों को हिम्मत दे और जिन मायूस नन्हे फरिश्तों को असमय ही अपने पास बुला लिया है उन्हे अपने पास जगह दे। हादसे हो जाते हैं और हादसों के कारणों का पता लगाने के लिये जांच भी आदेशित की जाती है। इसमें भी जांच के आदेश हो चुके हैं लेकिन इसी के साथ इस मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय ने इसे अपने हाथ में लेकर सरकार ने इस पर जवाब भी तलब कर लिया है। उच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान एक अखबार में छपी खबर के कारण लिया क्योंकि अखबार के मुताबिक श्रद्धांजलि को लेकर इसमें राजनीति हो रही थी। इसमें श्रद्धांजलि देने के लिये केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा और मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर भी पहुंचेे थे। यह दोनों हादसे के दूसरे दिन सुबह पहुंचे। नड्डा शायद गगल एयरपोर्ट पर पहले पहुंच गये थे और मुख्यमन्त्री करीब एक घन्टा बाद में पहुंचे। एयरपोर्ट से इनके नूरपुर अस्पताल पहुंचने के साथ ही अस्पताल ने पोस्टमार्टम के बाद परिजनों को शव सौंपे। हादसा पिछले दिन तीन चार बजे के बीच हो चुका था। हादसे की सूचना मिलने के बाद राहत और बचाव का कार्य शुरू हुआ। शाम तक शव और घायल अस्पताल पहुंचा दिये गये थे। अस्पताल पहुंचने के बाद घायलों के उपचार और शवों का पोस्टमार्टम होना था।
शवों का पोस्टमार्टम कानूनी बाध्यता है और सर्वोच्च न्यायालय कें निर्देशों के बाद रात को पोस्टमार्टम करने की अनुमति नही है। क्योंकि रात को टयूब लाईट में खून के रंग में थोड़ा बदलाव आ जाता है, लेकिन कानून की यह शर्त उन मामलों में लागू होती है जहां पर मौत के कारणों को लेकर सन्देह व्यक्त किया जा रहा है। ऐसे बस और रेल हादसों में जहां मौत का एक ही कारण दुर्घटना रही हो वहां तो पोस्टमार्टम तुुरन्त करवाया जाता है। ताकि परिजनों को यथा शीघ्र शव सौंपे जा सके। इसमें रात को भी पोस्टमार्टम किया जा सकता है लेकिन इस हादसे में यह पोस्टमार्टम सुबह किया गया जबकि यह रात को ही हो जाना चाहिये था। ताकि सुबह शीघ्र ही इनके अन्तिम संस्कार का प्रबन्ध हो जाता क्योंकि मृतक के प्रति श्रद्धांजलि शमशान में जाकर लकड़ी डालना माना जाता है। पीछे बचे परिजनों को तो उनके घर जाकर सांत्वना दी जाती है। लेकिन यहां पर रातभर पोस्टमार्टम का ना होना सीधे प्रशासन की समझदारी पर सवाल खडे़ करता है क्योंकि प्रशासन के मुताबिक पोस्टमार्टम सुबह हुए। इसी कारण परिजनो को रातभर परेशान रहकर इन्तजार करना पड़ा और यही इन्तजार हादसे पर राजनीति की वजह बन गया। ऊपर से केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा का यह कहना कि उन्हे इस बारे में कोई जानकारी ही नही और यह देखना स्थानीय विधायक और प्रशासन का काम है। इस पर विधायक पठानिया ने मीडिया के सामने रखा है और अखबार ने अपने स्टैण्ड को कुछ और तथ्यों के साथ दोहराया हैै अब क्योंकि उच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान ले लिया है इसलिये अदालत के फैसले का इन्तजार करना ही होगा। ऐसे दर्दनाक हादसों पर भी कोई राजनीति कर सकता है यह सामान्यतः समझ से परे की बात है।
लेकिन यह हादसा जो सवाल छोड़ गया है वह अपने में गंभीर है क्योंकि स्थानीय विधायक ने एनडीआरएफ की टीम के व्यवहार को लेकर जो खुलासा किया है वह प्रशासन को कठघरे में खड़ा करता है। दूसरा केन्द्रिय स्वास्थ्य मंत्री और मुख्यमंत्री के एयरपोर्ट पर पहुंचने में एक घन्टे का अन्तर रहना फिर प्रशासन की आपसी कमजोरी को दर्शाता है। जबकि कायदे से दोनो नेताओं को लगभग एक ही समय में पहुंचना चाहिये था यह तालमेल मुख्यमन्त्री कार्यालय और जिला प्रशासन को देखना था। इसी के साथ प्रशासन को इसकी समझ न होना कि कब रात को पोस्टमार्टम नही होता है यह प्रशासन पर प्रश्नचिन्ह है। हादसे के कारणों की जांच चल रही है उम्मीद है कि इस जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक रूप से आम आदमी के सामने रखा जायेगा ताकि हर आदमी अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव सरकार तक पहुंचा पाये।

घातक होगा अदालत के फैसले पर उठा विरोध

शिमला/शैल। जब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरोध में लोग सड़कों पर उत्तर आयें! सर्वोच्च न्यायालय के ही वरिष्ठतम चार जज पत्रकार वार्ता के माध्यम से अपनी बात को जनता के सामने रखने के लिये विवश हो जायें संसद में विपक्षी दल देश के चीफ जस्टिस के खिलाफ महाअभियोग लाने पर सोचने लग जायें तब निश्चित रूप से यह स्वीकारना ही होगा कि अब सही में ही देश के लोकतन्त्र पर खतरा मंडराने लगा है क्योंकि यह सब देश में इन्ही दिनो घटा है। अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार, अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत एक मामला अपील उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील में सर्वोच्च न्यायालय में आया था। सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों पर आधारित खण्डपीठ ने इस मामले पर अपना फैसला देते हुए मूल अधिनियम में कुछ संशोधन सुझाते हुए यह प्रावधान कर दिया कि अब इस अधिनियम के तहत आयी शिकायतों पर तुरन्त गिरफ्तारी करने से पहले मामले की जांच कर ली जाये। इस जांच के साथ ही इसमें अन्तरिम जमानत का प्रावधान भी कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से पहले मामलों में जांच और अग्रिम जमानत का प्रावधान नही था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला देने से पहले इसमें केन्द्र सरकार से भी अपना पक्ष रखने को कहा था और केन्द्र ने अपना पक्ष रखा था। केन्द्र ने अपना पक्ष रखते हुए इस अधिनियम के प्रावधानों के प्रति लचीला रूख अपनाया था जिससे यह संकेत और संदेश गया कि भारत सरकार भी इसमें अब नरम रूख रखती है। इस पृष्ठभूमि में जब यह फैसला आया तो पूरे अनुसूचित जाति और जनजाति समाज में यह संदेश चला गया कि अब उनके खिलाफ अपराध बढ़ सकते हैं। इस समाज के पास ऐसी आशंका के लिये पर्याप्त आधार भी था क्योंकि पिछले दिनो गौ रक्षा आदि के नाम पर इनके खिलाफ ऐसे अपराध घट चुके हैं। इस आशंका के कारण यह समाज इस फैसले के विरोध में सड़कों पर उत्तर आया। यह विरोध कई जगहों पर हिंसक भी हो गया है। अब इस विरोध का विरोध करने के लिये उच्च जातियों के लोग भारत बन्द करने जा रहे हैं। इस बन्द के दौरान पहले से भी ज्यादा हिंसा होने की संभावनाओं की आशंका बनी हुई है।

 सर्वोच्च  न्यायालय का फैसला अनुसूचित जाति एवम् जनजाति अत्याचार निावरण अधिनियम को लेकर आया है लेकिन इस फैसले को एकदम आरक्षण के आईने में देखा जा रहा है। एकदम आरक्षण समाप्त करने की आवाज़ उठाई जा रही है। केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ रिव्यू याचिका भी दायर कर दी है जिस पर अदालत ने अपने पूर्व के फैसले पर स्टे नही दिया है। सत्तारूढ़ भाजपा के अध्यक्ष अमितशाह ने ब्यान देकर कहा है कि आरक्षण समाप्त नही होगा और किसी को भी समाप्त नही करने दिया जायेगा। अमितशाह के इस ब्यान से यह स्पष्ट हो जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का अन्तिम परिणाम एक बार फिर आरक्षण को लेकर आन्दोलन और एक बड़ी बहस होने जा रहा है क्योंकि जब से केन्द्र में मोदी सरकार आयी है तब से देश के कई राज्यों में आरक्षण को लेकर आन्दोलन सामने आ चुके हैं और हर आन्दोलन में अपने लिये आरक्षण की मांग करते हुए यह साफ कहा है कि यदि उन्हे आरक्षण नही दिया जा सकता तो अन्य का भी आरक्षण समाप्त कर दिया जाये। इसी के साथ संघ नेतृत्व भी आरक्षण पर नये सिरे से विचार करने की बात कर चुका है। स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत के ब्यान इस संद्धर्भ में आ चुके हैं। आरक्षण के विरोध में स्व. वीपी सिंह सरकार के समय में यह देश एक बहुत ही भयानक आन्दोलन देख चुका है। उस समय मण्डल आयोग की सिफारिशों के विरोध में आत्मदाह तक हो चुके हैं। मण्डल  विरोध का संचालन संघ परिवार के हाथों में उसी तरह था जिस तरह अन्ना आन्दोलन का संचालन संघ परिवार के हाथों में था। वीपी सिंह की सरकार गिरने के साथ ही यह आन्दोलन थम गया था लेकिन आरक्षण अपनी जगह जारी रहा। 

आरक्षण विरोध के उस आन्दोलन के बाद केन्द्र में पहली बार भाजपा की इतने बहुमत के साथ सरकार बनी है। भाजपा और संघ पर उन परिवारों का दबाव आज भी बना हुआ है जिनके बच्चों ने आरक्षण के खिलाफ आत्मदाह किये थे। इसलिये यह स्वभाविक है कि यह लोग तो आरक्षण की समाप्ति चाहेंगे ही। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से वातावरण बन ही गया है क्योंकि इस फैसले से पहले सर्वोच्च न्यायालय की जजों पर आधारित संविधान पीठ इसी अधिनियम के प्रावधानों पर फैसला देते हुए इन्हे जायज ठहरा चुकी है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय के एक ही विषय पर दो अलग -अलग फैसले होने इन वर्गों को आशंकित होने का पूरा माहौल बना हुआ है। आरक्षण विरोधी भी इस फैसले की व्याख्या अपने हितों के मुताबिक करेंगें। इस तरह जो माहौल बन रहा है उससे यह लग रहा है कि आने वाले लोकसभा चुनावों में आरक्षण एक केन्द्रीय मुद्दा बनकर उभरेगा। जबकि आरक्षण के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय मण्डल आन्दोलन के समय ही इसके क्रिमी लेयर का प्रावधान कर दिया था। यदि इस क्रिमी लेयर का प्रावधान का सही में अनुपालन हुआ होता तो शायद आज आरक्षण को लेकर आन्दोलन तो दूर इस पर शायद चर्चा तक नही होती लेकिन सरकारों ने इसका पालन करने की बजाये हर बार इस लेयर का दायरा ही बढ़ाया, जबकि दूसरी हकीकत यह है कि जब से केन्द्र से लेकर राज्यों तक सरकारे कर्ज के बोझ में है और नियमित नौकरीयों की जगह पर कांट्रैक्ट और आऊट सोर्स का चलन कर दिया है तबसे सीधे नौकरीयां रही ही नहीं है और कांट्रैक्ट तथा आऊट सोर्स पर आरक्षण का अनुबन्ध लागू ही नही होता है। ऐसे में आरक्षण को लेकर चलने वाली हर बहस आन्दोलन से सरकारों को ही फायदा होगा क्योंकि कांट्रैक्ट और आऊट सोर्स तो बहस के विषय ही नही बन पायेंगे और शायद सरकार चाहती भी यही है। यह मुद्दा ही इतना बड़ा बना दिया जायेगा कि इसके सामने जम्मू कश्मीर से धारा 370 का हटाना और यूनिफाईड  सिविल कोड लाने जैसे सारे वायदे इसमें दब जायेंगे।  

चुनाव आयोग ही नही पूरी नौकरशाही पर बड़ा सवाल है अदालत का फैसला

शिमला/शैल। केन्द्र की मोदी सरकार और केन्द्र शासित दिल्ली प्रदेश की केजरीवाल सरकार में राजनीतिक टकराव इनके गठन से ही शुरू हो गया था यह हर आदमी जानता है। क्योंकि मोदी के नेतृत्व में भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनावों में अप्रत्याशित प्रचण्ड बहुमत मिला था बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि इस चुनाव के बाद ही सही मायनों में भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी बनी थी। लेकिन केन्द्र के इन चुनावों के बाद दिल्ली प्रदेश की विधानसभा के लिये चुनाव हुए और यहां पर मोदी की नाक के नीचे से आम आदमी पार्टी ने केजरीवाल के नेतृत्व मे सत्ता पर कब्जा कर लिया बल्कि भाजपा को शर्मनाक हार भी दी। जबकि दिल्ली को भाजपा का गढ़ माना जाता था। दिल्ली की यह हार भाजपा के माथे पर एक बहुत बड़ा राजनीतिक कलंक है। इस हार से असहज़ भी मोदी सरकार ने केजरीवाल सरकार को फेल करने और उसे गिराने तक का हर संभव प्रयास किया है यह भी देश के सामने है। राजनीति में सत्ता प्राप्ति ही एक मात्र लक्ष्य रहता है और इसके लिये साधनों की शुचिता कोई मायने नही रखती है। यह ईवीएम मशीनों और कैम्ब्रिज एनालिटिका पर उठे सवालों से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। लेकिन सत्ता की इस भूख के लिये जब संवैधानिक स्वायतता प्राप्त संस्थानों को साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाने लग पड़े तो निश्चित रूप से यह मानना पडे़गा कि सही में अब लोकतन्त्र के लिय एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है।
चुनाव आयाोग एक संवैधानिक स्वायत संस्था है। इसकी इसी गरिमा और महता के कारण इसमें देश के वरिष्ठत्तम नौकरशाहों को बतौर चुनाव आयुक्त नियुक्त किया जाता है। चुनाव आयुक्तों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की समकक्षता हासिल है और हटाने के लिये वैसी ही प्रक्रिया अपनाई जाती है। राष्ट्रपति भी चुनाव आयोग की अन्तिम राय को मानने के लिये बाध्य है। राष्ट्रपति चुनाव आयोग की किसी राय पर स्पष्टीकरण तो मांग सकता है लेकिन चुनाव से जुडे मामलों में राष्ट्रपति चुनाव आयोग की राय को खारिज नही कर सकता है। इस स्थिति से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे लोकतन्त्र में चुनाव आयोग का स्थान क्या है। इसीे गरिमा की यह मांग भी है कि चुनाव आयोग हर स्थिति में अपनी निष्पक्षता और विश्वसनीयता बनाये रखे। लेकिन आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों को लेकर जिस तरह से चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को अपनी राय भेजी है और उस राय को दिल्ली उच्च न्यायालय ने जिस तरह से Bad in law for Failure to comply with the principles of natural justice  करार दिया है। उससे न केवल चुनाव आयोग की ही विश्वसनीयता सवालों में आ गयी है। वरन् इससे पूरे देश की नौकरशाही पर गंभीर सवाल खड़ेे हो जाते हैं। विश्वसनीयता पर लगे यह दाग लोकतन्त्र के लिये आने वाले समय में कितना बड़ा संकट बन जायेंगे इसका अन्दाजा लगाना आसान नही है। क्योंकि इससे यह संदेश गया है कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक स्वायत संस्थान न होकर सरकार का एक contractural  कार्यालय बनकर रह गया है।
स्मरणीय है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने 13 मार्च 2015 को अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया था। इस नियुक्ति को राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा ने दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी। राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा का आरोप था कि नियुक्ति को उपराज्यपाल की स्वीकृति हासिल नही है क्योंकि केन्द्र शासित प्रदेश होने के नाते उपराज्यपाल की स्वीकृति अनिवार्य है। राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा की याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने 8 सितम्बर 2016 को फैसला देते हुए इन नियुक्तियों को रद्द कर दिया। इसी बीच 22.6.15 को एक वकील प्रशांत पटेल ने राष्ट्रपति को इन विधायकों के खिलाफ शिकायत भेज दी कि यह लोग लाभ का पद भोग रहे हैं इसलिये विधायक नही रह सकते। इस शिकायत को 22.7.15 को राष्ट्रपति कार्यालय के अवर सचिव ने इसे चुनाव चुनाव आयोग के ध्यानार्थ भेज दिया लेकिन 24.08.2015 को चुनाव आयोग के अवर सचिव ने इसे वापिस भेज दिया कि यह उचित संद्धर्भ पत्र नही है। इसके बाद राष्ट्रपति सचिवालय के निदेशक ने पुनः आयोग को पत्र भेजा लेकिन इस पत्रा को भी वापिस भेज दिया। इस पर तीसरी बार राष्ट्रपति सचिवालय के सचिव ने चुनाव आयोग को पत्र भेजा। इस पत्र पर चुनाव आयोग ने विधायकों को नोटिस भेजा। इस नोटिस के जवाब में फैसले का इन्तज़ार किया जाये। यह फैसला 8 सितम्बर 2016 को आया और उसके बाद अगली कारवाई शुरू हुई। जिसमें उत्तर और एतराज आदि चले। इसी बीच चुनाव आयुक्त ओपी रावत कुछ विधायकों ने पक्षपात का आरोप लगा दिया। इस आरोप से आहत होकर 19.4.17 को रावत ने अपने को इस मामले से अलग कर लिया। इसके बाद 23.6.17 को आयोग ने विधायकों के एतराजों को अस्वीकार करते हुए यह आदेश किया कि मामले की सुनवाई के लिये अगली तारीख तय की जायेगी और उसकी सूचना इन विधायकों को दे दी जायेगी लेकिन 23.6.17 के बाद मामले की सुनवाई के लिये न कोई तारीख लगी और न ही उसकी कोई सूचना इन विधायकों को दी गयी।
इसके बाद सीधे 19.1.18 को चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को भारी भरकम राय भेज दी। इस राय पर मुख्य चुनाव आयुक्त ए केे ज्योति, चुनाव आयुक्त ओपी रावत और चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा तीनों के हस्ताक्षर दर्ज है। चुनाव आयोग की इस सिफारिश पर 20.1.18 को राष्ट्रपति ने भी अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी और इन विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी गयी। इस पर विधायकों ने चुनाव आयोग की राय को इस आधार पर चुनौती दी कि जब ओपी रावत ने 19.4.17 को अपने को मामले से अलग कर लिया था तो इनको सुचित किये बिना वह मामले से पुनः संवद्ध कैसे हो गये क्योंकि इसी अलग होने के कारण वह 23.6.17 के आदेश में हस्ताक्षरी नहीं है। फिर 23.6.17 के बाद कब मामले की तारीख लगी और उनको सूचना क्यों नही दी गयी। फिर 19.1.18 को ही तीसरे चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने आयोग में पदभार ग्रहण किया है। उनके सामने कभी मामले की सुनवाई हुई ही नही है। वह मामले से संवद्ध रहे ही नही है ऐसे में वह 19.1.18 के फैसले में हस्ताक्षरी कैसे हो सकते हैं। इससे प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त की उल्लंघना होती है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने 79 पृष्ठों के फैसले में ऐसे सवाल खड़े किये जिनसे चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पूरी तरह धूल में मिल जाती है। ऐसा लगता हैं कि इन विधायकों को येन केन प्रकारेण विधानसभा से बाहर करने के लिये आयोग पर कोई बड़ा दबाव था। लोकतन्त्र की रक्षा के लिये आयोग के इस आचरण पर एक बड़ी बहस उठनी चाहिये ताकि नौकरशाही भविष्य में इस तरह का आचरण करने से पहले कुछ विचार अवश्य कर ले। जिन चुनाव आयुक्तों की निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं उन्हे नैतिकता के आधार पर स्वयं ही देशहित में अपने पदों से त्यागपत्र दे देना चाहिये।

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