शिमला/शैल। नॅार्थ ईस्ट के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नागालैण्ड की विधानसभाओं के लिये हुए चुनावों में भाजपा को पहली बार इतनी जीत मिली है कि तीनों राज्यों में वह सरकार में आ गयी है। त्रिपुरा में तो शुद्ध भाजपा की सरकार बनी है। यहां पर उसने सीपीएम से सत्ता छीनी है। नाॅर्थ ईस्ट में मिली इस जीत को भाजपा ने पूरे देश में इसे एक बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रचारित भी किया है। भाजपा को यहां क्रमशः त्रिपुरा में 43% मेघालय में 9.6% और नागालैण्ड में 15.3% वोट मिले हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां भी भाजपा को कुल मतों के 50% से कम वोट मिले हैं। भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनावों में भी 31% वोट मिले थे। 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद हुए कुछ राज्य विधान सभाओं के चुनावों में भी भाजपा को 50% से कम ही वोट मिले हैं। इन आंकड़ो से स्पष्ट हो जाता है कि अभी तक भी भाजपा की स्वीकारयता 50% से भी बहुत कम में है। इस परिदृश्य में भाजपा की जीत का श्रेय उसकी वैचारिक स्वीकारयता की जगह उसके चुनाव प्रबन्धन हो जाता है क्योंकि उसने सत्ता के लिये यहां उस दल से भी गठबन्धन कर लिया है जिसने तिरंगे को सार्वजनिक रूप से जलाया था। भाजपा को सत्ता के लिये ऐसे गठबन्धन में जाना चाहिये था या नही यह एक अलग बहस का विषय हो सकता है। त्रिपुरा की वामपंथी सरकार को लेकर मराठी में लिखी गयी एक किताब के हिन्दी अंग्रेजी अनुवाद इस चुनाव में घर -घर पहुंचे हैं। इस किताब का चुनावों पर बहुत असर हुआ है जबकि किताब की प्रमाणिकता पर भी सवाल उठे हैं। यह सब ऐसे विषय हैं जिनको लेकर मतभेद हो सकते हैं लेकिन चुनावों का अन्तिम परिणाम भाजपा की सफलता है और इस सफलता में यह सारे सवाल गौण हो जाते है।
लेकिन भाजपा के सत्ता में आने के बाद त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़ दी गयी। इस मूर्ति के टूटने के बाद बंगाल में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मेरठ में बाबा साहिब अम्बेडकर, तमिलनाडू में पेरियार और केरल में महात्मा गांधी की मूर्ति के साथ तोड़ फोड़ की गयी है। उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू, प्रधानमन्त्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमितशाह ने मूर्तियां तोड़े जाने की घोर निंदा की है लेकिन राम माधव जैसे कुछ नेताओं ने इस तोड़ फौड़ को अप्रत्यक्षतः जस्टिफाई करने का भी प्रयास किया है। इन मूर्तियों के तोड़े जाने पर यह स्वभाविक है कि लोगों में इसको लेकर कुछ रोष तो अवश्य ही देखने को मिलेगा। दलित समाज आक्रोश में सडकों पर भी उत्तर आया है। मूर्तियों के टूटने का यह सिलसिला त्रिपुरा में भाजपा की सरकार आने के बाद शुरू हुआ है और संयोग से यह उन राज्यों में पहुंच गया है जहां आगे विधानसभा चुनाव होने हैं। बंगाल, तमिलनाडू और केरल में चुनाव होने हैं। उत्तर प्रदेश में उप चुनाव हो रहे हैं। जिनमें बसपा ने सपा को समर्थन देने की घोषणा की है। बंगाल में भाजपा ने खुला दावा किया है कि वह वहां सरकार बनायेगी। देश को कांग्रेस मुक्त करने का तो संकल्प लेकर भाजपा चल रही है। देश वैचारिक धरातल पर कांग्रेस को नकार कर भाजपा को अपना ले तो इसमें किसी को भी कोई एतराज नही होगा। लेकिन सत्ता के लिये रणनीतिक तौर पर मन्दिर - मस्ज़िद के झगड़े खडे़ किये जाये और इस आधार पर मतदाताओं का धु्रवीकरण किया जाये तो इससे देश का कोई भला नहीं हो सकता है। आज देश का हर राज्य आवश्यकता से अधिक कर्ज में डूबा हुआ है। हर राज्य अपनेे लिये विशेष राज्य का दर्जा मांग रहा है। आंध्रप्रेदश में टीडीपी के मन्त्री इसी मांग पर केन्द्रिय मन्त्रीपरिषद् से बाहर आ गये हैं और आन्ध्र में भाजपा के। आन्ध्र के बाद बिहार में नीतिश कुमार ने भी विशेष राज्य की मांग दोहरा दी है। बढ़ते कर्ज के कारण सभी राज्य वित्तिय बोझ के तले दबे हैं। लेकिन कोई यह समीक्षा करने को तैयार नही है कि राज्यों का कर्जभार इतना बढ़ कैसे गया। क्या इसके लिये सत्तारूढ़ दलों के अपने अपने राजनीतिक स्वार्थ जिम्मेदार नही रहे है। लेकिन निष्पक्षता से कोई भी इसे स्वीकारने और समझने को तैयार नही है।
आज बैंको का एनपीए कितना बढ़ गया है। कितने लोग बैंको का कर्जा वापिस नही कर रहे हैं। नीरव मोदी, विजय माल्या और ललित मोदी जैसे लोग देश से बाहर कैसे चले गये। कालेधन को लेकर किये गये दावों और वायदों का क्या हुआ है। यह सवाल अब जन चर्चा का विषय बन चुके हैं। देर- सवेर इन पर जवाब देना ही पड़ेगा। ईवीएम की विश्वसनीयता भी सन्देह के घेरे में है। राजनीतिक देलों का बहुमत ईवीएम की जगह फिर पुराने ‘‘पेपर मतदान’’ की मांग पर उत्तर आया है। मोदी सरकार ने ‘‘एक देश एक चुनाव’’ की बात महामहिम राष्ट्रपति के इस वर्ष के संसद में दिये गये अभिभाषण में उठाई थी। लेकिन उसपर आगे नहीं बढ़ पा रही है। बल्कि हरियाणा के मुख्यमन्त्री ने तो इसे एकदम अंसभव करार दे दिया है। नोटबन्दी और जीएसटी के लाभ देश के सामने नकारात्मकता में सामने आ रहे हैं। इन फैसलों के परिणामस्वरूप रोजगार बढ़ने की बजाये कम हो रहे है। मंहगाई में कोई कमी नही आयी है। इस परिदृश्य में आज मन्दिर -मस्ज़िद के झगड़े से भी कोई हल निकलने वाला नही है। क्योंकि यदि सारे मस्ज़िदों और चर्चाे को तोड़ कर मन्दिर ही बना दिये जाये तो भी भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और मंहगाई पर कोई फर्क पड़ने वाला नही है यह अब आम आदमी को समझ आने लग पड़ा है। आज रोटी, कपड़ा ,मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य के मूलभूत प्रश्नों को राम मन्दिर निर्माण आदि के नाम पर ज्यादा देर के लिये टालना संभव नही होगा। आज जो नार्थईस्ट की जीत का देशभर में प्रचार करने के साथ ही जो मूर्तियां तोड़ने का एक नया मुद्दा खड़ा होने लगा है जनता इसके राजनीतिक मायने शीघ्र ही समझ जायेगी। क्योंकि प्रधानमन्त्री ने जिस भाषा में इसकी निन्दा की है उसी भाषा में वह गोरक्षा और लव जिहाद को लेकर उभरी हिंसा की भी निन्दा कर चुके हैं तब भी कुछ लोगों ने उसे जस्टिफाई किया था जैसे अब कर रहे हैं। यह सब एक राजनीतिक रणनीति के तहत होता है। देश के बहुमत को इसे समझने में देर नहीं लगेगी। इसलिये इस रणनीति के स्थान पर भाजपा को अपनी वैचारिक स्वीकारयता बनानी होगी।
शिमला/शैल। पंजाब नैशनल बैंक का स्कैम सामने आने के बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पूरी सरकार बैंक फुट पर आ गयी है। जो भाजपा देश को कांग्रेस मुक्त करने का ऐजैण्डा लेकर चली थी वह आज भाजपा शासित राज्यों राजस्थान और मध्यप्रदेश में लोकसभा व विधानसभा के उपचुनाव हार गयी है और वह भी कांग्रेस के हाथों। इस बैंक स्कैम के सामने आने के बाद जिस तरह से कुछ भाजपा नेताओं ने इस पर अपनी प्रतिक्रियाएं देते हुए इसके लिये पूर्व की कांग्रेस सरकार को दोषी ठहराया उससे ही पूरी मोदी सरकार स्वतः ही सन्देह के घेरे में आ जाती है। क्योंकि इस स्कैम की जांच उस समय शुरू हुई जब इसका मुख्य आरोपी देश छोड़कर भाग गया। यही नहीं जब नीरव मोदी और नरेन्द्र मोदी की निकटता की चर्चा उठी तब इस स्कैम की जांच एसआईटी से करवाई जाने के लिये एक जनहित याचिका दायर हुई तब सरकार केे अर्टानी जनरल के.के. बेनुगोपाल ने एसआईटी गठित जाने को यह कहकर स्वीकार कर दिया कि इसकी जांच ठीक हो रही है।
इस समय जो जांच हो रही है वह सीबीआई कर रही है और वह इस पक्षपर जांच नही करेगी कि नीरव मोदी और नरेन्द्र मोदी में कोई निकटता रही है तथा उसका लाभ नीरव मोदी ने उठाया है। जबकि आरोप यह लगेे है कि प्रधानमन्त्री जब बर्लिन के दौर पर थे उस समय नीरव मोदी की ब्रांड एम्बेसेडर प्रियंका चोपड़ा प्रधानमन्त्री से मिली थी और इस मिलने की व्यवस्था नीरव मोदी ने की थी। राफेलडील कोे लेकर जो आक्रामकता राहूल गांधी ने दिखाई है वह बेबुनियाद नही है। चर्चा है कि इस सौदेे में भी नीरव मोदी की भूमिका है। प्रधानमन्त्री को जो पांच लाख का कोट भेंट किया गया था वह भी नीरव मोदी के ही किसी ने दिया था और बाद में उसकी नीलामी में भी उसी की भूमिका रही है। यह आरोप भी उछला है कि इस बैंक स्कैम की जानकारी पीएमओ को 2015 में ही हो गयी थी 2016 में तो नीरव मोदी और मेहुल चैकसी के बारे में बैंगलूरू के एक उद्यमी हरि प्रसाद ने प्रधानमन्त्री कार्यालय को दे दी थी लेकिन जांच नही हुई इससे यही प्रमाणित होता है कि नीरव मोदी और प्रधानमन्त्री के बीच निकटता रही है। इन सारे सन्देहों की जांच तो केवल एसआईटी ही कर सकती थी लेकिन यह जांच न होने देकर इन आरोपों को और हवा मिलती है।
फिर अब जब सत्तापक्ष इस स्कैम की शुरूआत कांग्रेस के कार्यालय से कर रहा है तब वह यह भूल रहा हैं कि आरोपी कांग्रेस के समय में नही बल्कि मोदी-भाजपा के कार्यालय में भागा है। कांग्रेस के कार्यालय में तो वह बैंक को पैसे लौटाता रहा जो उसने मोदी की सरकार आने के बाद बन्द कर दिये। यह तो संभव हो सकता है कि जब वह कांग्रेस के कार्यालय से व्यवसाय कर रहा था तो इसके संबंध कांग्रेस के नेताओं से भी रहे होंगे क्योंकि हर व्यवसायी हर पार्टी से अपने रिश्तेे रखता है और उसे चंदा भी देता है। यह बिजनैस मैन का स्वभाव होता है लेकिन इससे उस पार्टी और नेता को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है। फिर देश में सत्ता परिवर्तन तो तभी हुआ जब कांग्रेस और सहयोगीयों को भ्रष्टाचार का पर्याय करार दे दिया गया था। लेकिन मोदी और भाजपा को इसीलिये सत्ता सौंपी गयी थी कि वह पूरी चैकसी रखेंगे परन्तु इसी चैकसी में ललित मोदी, विजय माल्या तथा नीरव मोदी देश छोड़कर भागे क्यों? 2जी स्कैम जिसे यूपीए सरकार का सबसे बड़ा घोटाला करार दिया गया था उसमें प्रारम्भिक गिरफ्तारियां तो मनमोहन सिंह के ही कार्यालय में हुई थी लेकिन उसकी पूरी जांच और अदालत में पैरवी तो मोदी शासन में हुई और सारे लोग बरी हो गये।
इस पृष्ठभूमि में यदि मोदी के कार्यालय का आंकलन किया जाये तोे सरकार किसी भी कसौटी पर खरी नही उतरती है क्योंकि जो 12 लाख करोड़ का कालाधन होना अन्ना आन्दोलन में प्रचारित किया गया था जिसके वापिस आने से 15-15 लाख हर खाता धारक को दिये जाने का वायदा किया गया था वह सब हवाई निकला। यही नही अब तो नोटबंटी को लेकर यह धारणा पक्कीे हो गयी है कि यह कदम हर आदमी की जमापूंजी को इस माध्यम से बैंको में वापिस लाने का सफल प्रयास था। इसी पैसे के दम पर एनपीए से संकट में आये बैंको को ‘बेल इन’ का प्रावधान लाकर उबारने का माध्यम बनाया जा रहा था। इसी एनपीए से उबारने के लिये पांच बैंको का 67000 करोड़ राईट आॅफ कर दिया गया और सरकार ने स्पष्टीकरण दिया यह माफ नही किया गया है। क्या राईटआॅफ करने के बाद यह कर्जदार इस पैसे को बैंको को वापिस दे देंगे? यह तो एक सामान्य सी समझ की बात है कि जब कोई कर्ज नीयत समय के भीतर वापिस न किया जाये वह 90 दिन केे बाद एनपीए हो जाता है और जब इसके वापिस आने की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती है तब इसे राईटआॅफ कर दिया जाता है। यह एनपीए आज 6लाख करोड़ से भी अधिक हो चुका है और यह धन बहुत कम लोगों के पास है लेकिन यह सब समाज के बड़े और प्रतिष्ठित लोग हैं। सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही इनकी दांयी और बांई जेब में होतेे हैं। यदि निष्पक्षता और ईमानदारी से देखें तो सरकार का हर बड़ा फैसला परोक्ष/अपरोक्ष में इन्ही के लिये लिया जाता है। आज जो बड़ी कंपनीयां और उद्योगपति अपने को दिवालीया घोषित किये जाने के आवेदन कर रहे हैं वह लोग दिवालीया घोषित होने के बाद भुखमरी और आत्महत्या केे कगार पर आ जायेंगेे? नही। उनके पास पीढ़ीयों तक हर साधन उपलब्ध रहेंगे। दिवालीया घोषित होना तो अप्रत्यक्षत कुछ पैसे को अपरोक्ष में डकारने का माध्यम है क्योंकि उनके लियेे यह प्रावधान किया गया है। भुखमरी और आत्महत्या तो गरीब किसान के हिस्से में है। आज जब सरकार ने 95 करोड़ से ऊपर के हर कर्ज की जांच किये जाने की बात कही है तो क्या यह सुनिश्चित किया जायेगा कि पब्लिक का कोई पैसा एनपीए नही होने दिया जायेगा। ‘बेल-इन’ और ‘बेल आऊट’ जैसे प्रावधान नही लाये जायेंगे। क्योंकि जब परोक्ष-अपरोक्ष में पब्लिक मनी को डकराने के प्रावधान किये जाते हैं तो उसका लाभ उठाने वाले पहले ही तैयार खड़े मिलते हैं। इसलिये आज पीएनबी का स्कैम सामने आने के बाद वित्तिय मामलों में प्रधानमन्त्री मोदी को अपनी विश्वसनीयता बहाल रखने के लिये अपनी सरकार के फैसलों पर फिर से विचार करना होगा अन्यथा समय मोदी और भाजपा दोनों को ही क्षमा नही करेगा।
शिमला/शैल। मोदी सरकार को सत्ता संभाले चार वर्ष हो गये हैं और अब अगले वर्ष मई तक चुनाव हो जाने हैं। इन चुनावों के लिये तैयारी भी शुरू हो गयी है। इसलिये चार वर्ष का समय किसी सरकार के कामकाज़ के आंकलन के लिये बहुत पर्याप्त समय कहा जा सकता है लेकिन मोदी सरकार के आकलन से पहले यह भी सामने रखना आवश्यक है कि जब मोदी ने बागडोर संभाली थी तब राजनीतिक और अािर्थक परिदृश्य क्या था। 2014 में जब चुनाव हुए और सत्ता बदली उससे पहले पूरा देश अन्ना आन्दोलन के प्रभाव में था और जन लोकपाल की स्थापना की मांग की जा रही थी क्योंकि इस आन्दोलन से पहले देश में घटे कुछ आर्थिक घोटालों को लेकर प्रशान्त भूषण की याचिकाओं ने एक ऐसा वातावरण खड़ा कर दिया था जिसमें उस समय के यूपीए शासन को एकदम भ्रष्टाचार का पर्याय करार दे दिया था। इस भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिये जनलोकपाल की स्थापना सिविल सोसायटी की सबसे बड़ी ही नहीं बल्कि एकमात्र मांग बन चुकी थी। उस समय 2जी स्कैम और काॅमन वैल्थ गेम्ज़ जैसे घोटाले हर बच्चेे -बच्चे की जुबान पर आ चुके थे। 2जी स्कैम को लेकर विनोद राय की रिपोर्ट और काॅमन वैल्थ गेम्ज़ पर भी आॅडिट की रिपोर्ट आ चुकी थी जिनसे इन घोटालों की पुष्टि हो रही थी। इसलिये उस समय अन्ना आन्दोलन को खत्म करने के लिये सिविल सोसायटी के लोेगों से सरकार की बातचीत जनलोकपाल विधेयक का मसौदा तक तैयार हुआ और संसद की दहलीज़ तक भी गया। अन्ना आन्दोलन को संचालित करने के लिये इंण्डिया अगेंस्ट क्रप्शन एक मंच तैयार हुआ जिसका पूरा नियन्त्रण संघ के हाथ में था। देश के सारे सामाजिक, और सांस्कृतिक संगठन इस आन्दोलन में कूद पड़े थे। श्री श्री रविशंकर के आर्ट आॅफ लिविंग के लोग भी कैण्डल मार्च करते देखे गये थे। इस आन्दोलन मे स्वामी रामदेव, स्वामी अग्निवेश और किरण बेदी जैसे लोगों की भूमिका क्या रही यह भी सारा देश जानता है। फिर इस आन्दोलन के प्रभाव का प्रतिफल लेने के लिये अलग अलग से एक राजनीतिक ईकाई खड़े करने के प्रश्न पर अन्ना और केजरीवाल में कैसे मतभेद पैदा हुए जिनके कारण आन्दोलन बन्द हुआ। अन्ना ने ममता बैनर्जी के साथ मिलकर कैसे पुनः आन्दोलन का आह्वान करने के लिये रामलीला मैदान मे जन बैठक करने की घोषणा की जो की सफल नही हो सकी और अन्ना को वापिस अपने घर आना पड़ा यह सब देश ने देखा है।
इस आन्दोलन की छाया मे लोकसभा के चुनाव हुए और जो संघ आन्दोलन का संचालन कर रहा था उसकी राजनीतिक ईकाई भाजपा को केन्द्र की सत्ता मिल गयी। इसी के साथ जो केजरीवाल इस आन्दोलन के एक प्रमुख पात्र बनकर उभरे थे उन्हे दिल्ली प्रदेश की सत्ता मिल गयी। जिस तरह का प्रचण्ड बहुमत भाजपा को केन्द्र के लिये, वैसा ही प्रचण्ड बहुमत केजरीवाल को दिल्ली के लिये मिल गया। मोदी और केजरीवाल दोनो ही अन्ना आन्दोलन के प्रतिफल हैं यह कहना अंसगत नही होगा। लेकिन क्या यह दोनों ही इस आन्दोलन का आधार बने मुद्दों की कसौटी पर आज खरे उत्तरे हैं तो निश्चित रूप से उत्तर एक बड़ी ‘‘नहीं’’ के रूप में होगा। क्योंकि इस जनान्दोलन में जिस जनलोकपाल की मांग की गयी थी वह आज कहीं दूर से भी दिखाई नही दे रहा है। इससे यह समझा जा सकता है कि वास्तव में ही संघ -भाजपा और मोदी व्यवहारिक तौर पर भ्रष्टाचार के कितने खिलाफ हैं। अभी 2जी स्कैम पर जिस तरह से अदालत का फैंसला आया है उससे भी मोदी की नीयत और नीति पर ‘मुहर’ लग जाती है। उस समय भ्रष्टाचार के साथ ही मंहगाई और बेरोजगारी दो और मुद्दे इस आन्दोलन के प्रमुख प्रश्न थे जो हर आदमी को सीधे छू रहे थे। इसलिये आज जब आंकलन किया जायेगा तो क्या उसके मानदण्ड यही मुद्दे नही बनेंगे। आज कोई भी ईमानदार व्यक्ति यह नही कह पायेगा कि भ्रष्टाचार, मंहगाई और बेरोज़गारी में कोई कमी आयी है।
भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को उस दौरान प्रशान्त भूषण ने जन चर्चा में लाकर खड़ा कर दिया था और जिसके लिये संघ ने इण्डिया अगेंस्ट क्रप्शन का मंच खड़ा कर दिया था आज उन मुद्दों का हुआ क्या है। 2जी स्कैम को अदालत ने कह दिया कि स्कैम हुआ ही नही। जिसमें मन्त्री, सांसद वरिष्ठ नौकरशाह और काॅरपोरेट घरानों के भी शीर्ष अधिकारी तक गिरफ्तार हुए थे। जिस पर पूरे देश का भविष्य बदल गया। आज जब उसपर यह सुनने को मिले कि यह तो घटा ही नही था तो उसके लिये किसे तमगा दिया जाये? इस मुद्देे पर आदरणीय प्रधानमन्त्री मौन हैं क्योंकि लोगों ने अदालत का फैंसला देखा है। वह समझते हैं कि इसमें केन्द्र सरकार की भूमिका क्या रही है। यह स्पष्ट हो चुका है कि मोदी सरकार और उनकी ऐजैन्सीयों ने जानबूझ कर इसकी सही पैरवी ही नही की। आज यह आम चर्चा है कि 2जी स्कैम पर आये फैसले के बाद मोदी तमिलनाडू में एडी एम के साथ चुनाव गठबन्ध करने जा रहे हैं क्योंकि जोे जितना भ्रष्ट होगा उसे उतनी ही आसानी से अपने साथ मिलाया जा सकता है। काॅमनवैल्थ गेम्ज़ के मामलें को लेकर तो आज तक कहीं चर्चा तक नही है। आज जो पंजाब नैशनल बैंक का घपला सामने आया है उस पर भाजपा के लोग जिस प्रकार की सफाई देकर उसे यूपीए के साथ जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं वह भूल रहे हैं कि 2014 से तो आप सत्ता में है और इसी भ्रष्टाचार को पकड़ने के लिये तो आपको सत्ता सौंपी गयी थी। फिर आपने क्या किया खैर इस मामले पर वित्त मन्त्री अरूण जेटली ने पूर्व की कांग्रेस सरकार को नही कोसा है क्योंकि आज भाजपा के ही बड़े नेता को वित्त मन्त्री यशवन्त सिन्हा और सांसद शान्ता कुमार जैसे लोग अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा कर चुके हैं। लेकिन जेटली ने जिस ढंग से इस घपले के लियेे बैंक के आॅडिटर्ज़ को भी जिम्मेदार ठहराया है उससे फिर यह सवाल उठता है कि यह बैंक सरकार का बैंक और आॅडिटर्ज़ सरकार के कर्मचारी हैं। उनपर तुरन्त कारवाई करना आपकी जिम्मेदारी है। आज बैकांे के विलफुल डिफाल्टरज़ को लेकर 335 पन्नों की सूची बाहर आ चुकी है। जिसके मुताबिक यह राशी 4903180.79 लाख रूपये बनती है। यह लोगों का पैसा है बैकों की कार्यप्रणाली पर इससेे बड़ा प्रश्न चिन्ह और क्या हो सकता है? इस सद्धर्भ में अब यह सवाल पूछा जाने लगा है कि मोदी जी जनलोकपाल कहां है?
जयराम सरकार को अभी सत्ता संभाले दो माह का समय नहीं हुआ है लकिन इसी अल्प अवधि में सरकार को 1500 करोड़ का कर्ज लेना पड़ गया है। प्रदेश की वित्तिय स्थिति का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि आज प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह में ऐसा फंस चुका है कि कर्ज लेना मजबूरी बन चुकी है। कल तक भाजपा इस कर्ज के लिये वीरभद्र को कोसती थी लेकिन आज स्वयं सत्ता संभालने के बाद कर्ज लेकर काम को चलाना पड़ रहा है। आज प्रदेश का कर्जभार जीडीपी के 35% से भी बढ़ गया है। जबकि एफआरवीएम के तहत यह 3% से अधिक नही होना चाहिये। इस बढ़ते कर्ज पर भाजपा सरकार वित्त विभाग मार्च 2016 में प्रदेश सरकार को चेतावनी भी जारी कर चुका है। इसी चेतावनी का परिणाम है कि केन्द्र प्रदेश को वेल आऊट नही कर पा रहा है। क्योंकि तय वित्तिय नियमों से केन्द्र भी बंधा हुआ है। फिर यदि एक प्रदेश को केन्द्र कोई बेल पैकेज देता है तो कल उसी तर्ज पर दूसरे प्रदेश भी मांगेगे क्योंकि कर्ज के जाल में हर प्रदेश फसा हुआ है। अभी केन्द्र का जो बजट आया है और उसमे जो जो घोषणाएं की गयी हैं उन्हे पूरा करने के लिय धन कहां से आयेगा इसके लिये बजट में कुछ भी स्पष्टता से नही कहा गया है। यही केन्द्र के बजट का सबसे नकारात्मक पक्ष है और इसी को लेकर मोदी सरकार पर सबसे बड़ा आरोप भी लग रहा है।
इसी परिदृश्य में यदि प्रदेश सरकार अपने स्तर पर अपने वित्तिय हालात को नहीं सुधारती है तो आने वाला समय और भी कठिन होगा। इसलिये यह समझना बहुत आवश्यक है कि प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह में फंसा कैसे और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है। 1998 में जब प्रेम कुमार धूमल ने प्रदेश की बागडोर संभाली थी तब उन्होने सदन में प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर एक श्वेत पत्र रखा था। इस श्वेत पत्र में यह तथ्य आया था कि जब अप्रैल 83 में स्व. ठाकुर रामलाल ने सत्ता छोड़ी थी और वीरभद्र ने संभाली थी उस समय प्रदेश पर कोई कर्ज नही था बल्कि सरकार के 80 करोड़ का बैलेन्स था। सदन में आये इस श्वेत पत्र के तथ्यों को वीरभद्र और कांग्रेस झुटला नहीं पाये थे। लेकिन 1990 में जब शान्ता कुमार ने प्रदेश की बागडोर दूसरी बार संभाली तब उन्होनें विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में जेपी उद्योग समूह का पदार्पण बिजली बोर्ड से बसपा परियोजना लेकर जेपी को देकर करवाया। इस परियोजना पर बिजली बोर्ड जो निवेश कर चुका था उसे ब्याज सहित बोर्ड को वापिस किया जाना था। जोकि आज तक नही हुआ बल्कि ब्याज सहित यह रकम 92 करोड़ बन गयी थी जिसे बट्टे खाते में कैग के एतराज के बावजूद डाल दिया गया। शान्ता के इसी काल में संविधान की धारा 204 का उल्लघंन करके राज्य की समेकित निधि से खर्च करने का चलन शुरू हुआ जो आज तक लगातार चल रहा है और कैग रिपोर्ट में हर बार इसका जिक्र रहता है। लेकिन शान्ता ने जलविद्युत परियोजनाओं से 12% रायल्टी वसूलने का जो फैसला लिया उसके साये तले में यह मुद्दा ही दब गया कि विद्युत उत्पादन में निजिक्षेत्र की भागीदारी कितनी होनी चाहिये। बल्कि यह प्रचारित और प्रसारित होता रहा कि हिमाचल बिजली राज्य है। इसी बिजली राज्य के नारे के परिणामस्वरूप यहां पर औद्यौगिक क्षेत्रों का विकास हुआ है उद्योगपत्ति आये। विद्युत उत्पादन पर तो इस प्राईवेट सैक्टर ने पूरी तरह का कब्जा कर लिया है। 1990 में जब बिजली बोर्ड से कैलाश महाजन को हटाया गया था उस समय बोर्ड करीब 480 मैगावाट का उत्पादन कर रहा था जो आज 2018 में केवल 512 मैगावाट तक ही पहुंच पाया है। लेकिन आज इसी विद्युत से प्रदेश को आये होनेे की बजाये हानि हो रही है। वीरभद्र के इस बीते कार्यकाल में एक भी विद्युत परियोजना में निवेश करने वाला कोई नही आया है। आलम यह है कि निजिक्षेत्र को लाभ देने के लिये बोर्ड की अपनी परियोजनाओं में हर वर्ष हजारो घण्टों का शटडाऊन किया जा रहा है। हर वर्ष बोर्ड की बिजली बिकने से रह रही है। जबकि प्राईवेट सैक्टर के उत्पादकों से पीपीए के तहत बोर्ड को खरीदनी पड़ रही है। इस तरह नुकसान केवल सरकार का हो रहा है और यह दोहरा नुकसान है एक अपने प्रौजैक्ट शटडाऊन के बाहनेे बन्द रह रहे हैं तथा दूसरा बिजली बिक नही रही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि विद्युत उत्पादन के क्षेत्र में सरकार को अपनी नीति बदलनी होगी।
विद्युत जैसी ही स्थिति है हमारे उद्योगों की उनमें भी जितनी सब्सिडी उद्योगों को दी जा चुकी है जिसका जिक्र कैग कर चुका है। उस अनुपात में न तो उद्योगों से रोजगार मिल पाया है और न ही टैक्स के रूप में सरकार को पर्याप्त मिल पा रहा है। यहां भी पूरी नीति पर नये सिरे से विचार करने की आवश्यकता है। ऐसे और भी कई क्षेत्र है जहां इस नीति पर नये सिरे से सोचने की आवश्यकता है। शिक्षा के क्षेत्र में आज सैंकड़ो स्कूल ऐसे हैं जहां बच्चो की संख्या दस और बीस के बीच है वहां भी कम से कम तीन अध्यापक हैं जिनका वेतन एक लाख से अधिक होता है। यदि ऐसे स्कूलों को बन्द करके इन बच्चों को फ्री बस सेवा उपलब्ध करवा कर नजदीक के दूसरेे स्कूल में डाल दिया जाये तो यह खर्च केवल पांच छः हजार महीने का आयेगा। इससे हर स्कूल में अध्यापक भी पूरे होंगे और हर बच्चे को सुविधा भी पूरी मिलेगी। केवल एक बार योजना बनाकर फैसला लेने की आवश्यकता है। जब सरकार ऐसे फैसले लेकर अपनी वित्तिय सेहत को सुधारनेे का प्रयास करेगी तो जनता भी इसमें सहयोग करेगी। लेकिन ऐसे फैसले लेने के लिये एक मजबूत राजनैतिक ईच्छा शक्ति चाहिये। ऐसी ईच्छा शक्ति के लिये यह आवश्यक है कि सरकार इस सच्चाई को स्वीकार करके चले कि अगले चुनाव मेें तो सत्ता बदलनी ही है। राजनेता सत्ता के लोभ में ऐसे व्यवहारिक फैसले लेने से डरते हैं। जबकि यह सच्चाई है कि 1985 से लेकर आज तक प्रदेश में कोई भी पार्टी लगातार दूसरी बार सत्ता में नही आ पायी है। चाहे उसे सैंकड़ो के हिसाब से मीडिया से श्रेष्ठता के अवार्ड ही क्यों न मिले हों। यदि आज जयराम इस सच्चाई को स्वीकार करने का साहस दिखा पाये तो शायद प्रदेश के इतिहास में अपना स्थान बना पायेंगे अन्यथा जो कुछ वित्तिय कुशासन के नाम पर अब तक प्रदेश में घट चुका है उसके बोझ तले दबकर असमय ही असफल होने का तमगा लगने की संभवना ज्यादा है।
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने प्रदेश में हुए अवैध निर्माणों के खिलाफ प्रदेश उच्च न्यायालय से लेकर एनजीटी तक से आये फैसलों पर यथा निर्देशित करवाई करने के स्थान पर इन लोगों को राहत देनेे के लिये इस कानून में ही संशोधन करने का फैसला लिया है। इस प्रस्तावित संशोधन के मुताबिक जितना निर्माण अवैध पाया जायेगा उसे ही सील करके केवल उसी के खिलाफ कारवाई की जायेगी। सरकार के इस फैसले से अवैध निर्माण के दोषियो के खिलाफ फिलहाल कारवाई रूक गयी है। क्योंकि अदालत तो केवल कानून के मुताबिक फैसला ही दे सकती है। परन्तु उस पर अमल करते हुए दोषियों को व्यवहारिक रूप में सजा देने की जिम्मेदारी तो प्रशासनिक तन्त्र की ही होती है। यदि प्रशासन स्वार्थों से बन्धे राजनीतिक नेतृत्व के आगे घुटने टेकते हुए किसी न किसी बहाने अदालत के फैसलों पर अमल न करे तो अदालत क्या कर सकती है। संभवतः आज प्रदेश में व्यवहारिक रूप से यही स्थिति बनती जा रही है। इसमें भी सबसे बड़ा दुर्भागय यह है कि अवैधता को संरक्षण देने के लिये कानून में ही संशोधन कर नया रास्ता अपनाया जा रहा है और यह काम वह मुख्यमन्त्री करने जा रहा है जिसकी स्लेटे अब तक साफ थी। उम्मीद की जा रही थी कि शायद जयराम ठाुकर अवैधताओं के आगे झुकेंगे नही। लेकिन ऐसा हो नही पा रहा है।
आज पूरे प्रदेश में अवैध निर्माण और सरकारी भूमि पर अवैध कब्जे सबसे बड़ी समस्या बन हुए हैं। शीर्ष अदालतों ने इन अवैधताओं का कड़ा संज्ञान लेते हुए इसके खिलाफ कड़ी कारवाई करने के निर्देश दे रखे हैं। प्रदेश उच्च न्यायालय ने तो अवैध कब्जाधारकों के खिलाफ मनीलाॅंड्ररिंग के तहत कारवाई करने तक के आदेश दे रखे हैं। लेकिन यह आदेश आजतक अमली शक्ल नही ले पाये हैं। इसी तरह एनजीटी कसौली क्षेत्र में बने होटलों में हुए अवैध निर्माण का कड़ा संज्ञान लेते हुए टीसीपीपी और प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के कुछ सेवानिवृत और कुछ वर्तमान में कार्यरत अधिकारियों को चिन्हित करते हुए प्रदेश के मुख्य सचिव को इनके खिलाफ कारवाई करने के निर्देश पारित किये हुए हैं। जिन पर न तो पूर्व मुख्य सचिव वीसी फारखा और न ही वर्तमान मुख्य सचिव विनित चौधरी कारवाई करने का साहस कर पाये हैं क्योंकि इन चिन्हित हुए नामों में एक नाम प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के पर्यावरण अभियन्ता प्रवीण गुप्ता का रहा है और जयराम सरकार ने प्रवीण गुप्ता की पत्नी डा. रचना गुप्ता को सत्ता संभालते ही लोकसेवा आयोग में पद सृजित करके सदस्य नियुक्त किया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरकार भी इस संद्धर्भ में कोई कारवाई करने की बजाये कानून में ही संशोधन करके सारी अवैधताओं को राहत पहुंचाने का रास्ता निकालने का प्रयास करने जा रही है। अवैध निर्माणों और अवैध कब्जों दोनो ही मुद्दों पर कानून में संशोधन किया जा रहा है। अवैध कब्जों को लेकर लायी जा रही संशोधित नीति पर उच्च न्यायालय ने कह रखा है कि यदि इस नीति को अदालत में चुनौती दी जाती है तो अदालत इस पर विचार करेगी। इसी पृष्ठभूमि में अवैध निर्माणों को लेकर भी उच्च न्यायालय से ही यह उम्मीद है कि इन निर्माणों को लेकर अब तक सारी अदालतें जो फैसले दे चुकी हैं उनको सामने रखते हुए इन अवैधताओं को संशोधन के माध्यम से वैधता का जामा नही पहनने देगी।
आज इन अवैधताओं पर यह चर्चा उठाने की आवश्यकता इसलिये है क्योंकि इस समय अदालत के रिकार्ड पर यह आ चुका है कि 8182 तो ऐसे अवैध निर्माण हैं जिन्होने निर्माण से पहले किसी भी तरह का कोई नक्शा आदि नही दे रखा है। इस तरह यह निर्माण पूरी तरह सिरे से ही अवैध हैं। फिर भी इन्हें बिजली पानी आदि के कनैक्शन मिले हुए हैं जिसका अर्थ है कि इन निर्माणों में संबधित प्रशासन का पूरा-पूरा सहयोग रहा होगा। इसलिये इन निर्माणों के खिलाफ तुरन्त प्रभाव से कारवाई की जा सकती थी लेकिन सरकार ऐसा नही कर पायी है। इससे यह भी सवाल उठता है कि क्या यह सरकार अदालत और कानून का सम्मान भी करती है या नही। क्योंकि यदि सरकार अदालत के फैसले के अनुसार इन आठ हजार से अधिक अवैध निर्माणों के दोषियों के खिलाफ कारवाई करने के साथ कानून में संशोधन की बात करती तो सरकार की नीयत नीति की सराहना होती। परन्तु आज यह सन्देश जा रहा है कि सरकार अवैधताओं के आगे घुटने टेकती जा रही है। क्योंकि आज सत्तारूढ़ सरकार से जुडे़ कई बडे़ नेताओं के खिलाफ अवैध निर्माण के गंभीर आरोप हैं। सोलन के पवन गुप्ता को तो इसी अवैध निर्माण के कारण नगर पालिका के अध्यक्ष पद से हटना पड़ा है। बहुत संभव है कि ऐसे लोगों के दवाब में यह संशोधन लाया जा रहा है। जबकि आज पूरा प्रदेश प्राकृतिक आपदाओं के मुहानेे पर इन्ही अवैधताओं के कारण खड़ा है। प्रदेश अब तक भूकंप के 120 झटके झेल चुका है। चम्बा 53.2%हमीरपुर 90.9% कांगडा 98.6% कुल्लु 53.1% और मण्डी 97.4% एम एस के 9 के क्षेत्र में आते हैं। केन्द्रीय आपदा अध्ययन इस ओर गंभीर चेतावनी दे चुके हैं इसलिये यह सरकार से ही अपेक्षा की जायेगी कि वह भविष्य के इस खतरों को गम्भीरता से लेते हुए राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर अपनी जिम्मेदारियों को निभाये।