Tuesday, 16 December 2025
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किसानों की आय दोगुना करने के लिए सरकार के प्रयास

शिमला/शैल। कृषि हिमाचल प्रदेश के लोगों का प्रमुख व्यवसाय है और प्रदेश की अर्थव्यवस्था में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। हिमाचल प्रदेश देश का अकेला ऐसा राज्य है जहां 89.96 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है। इसलिए कृषि व बागवानी पर प्रदेश के लोगों की निर्भरता अधिक है और कृषि से राज्य के कुल कामगारों में से लगभग 62 प्रतिशत को रोज़गार उपलब्ध होता है। कृषि राज्य आय का प्रमुख स्त्रोत है तथा राज्य के कुल घरेलू उत्पाद का लगभग 10 प्रतिशत कृषि तथा इससे सम्बन्धित क्षेत्रों से प्राप्त होता है।
सरकार द्वारा प्रदेश में कृषि क्षेत्र को नई दिशा प्रदान करने के लिए कई योजनाएं चलाई गई हैं तथा अनेक नई योजनाएं चलाई जानी प्रस्तावित हैं ताकि लोगों को इस क्षेत्र में अधिक से अधिक रोज़गार प्राप्त हो तथा साथ ही कृषि उत्पादन में बढ़ौतरी होने से किसानों की आय में भी वृद्धि हो सके। प्रधानमंत्री ने वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुणी करने की घोषणा की है। प्रदेश सरकार प्रधानमंत्री की घोषणा के अनुरूप पूर्ण निष्ठा से किसानों-बागवानों की आर्थिकी को सुदृढ़ करने के हर संभव प्रयास कर रही है।
किसानों-बागवानों कि आय तभी बढ़ेगी जब उनके उत्पाद में वृद्धि होगी। कृषि व बागवानी उत्पाद में वृद्धि के लिए पर्याप्त सिचाई सुविधाओं का होना आवश्यक है। सिचाई सुविधाओं में वृद्धि के उद्देश्य से इस वर्ष तीन नई सिचाई योजनाएं-‘जल से कृषि को बल’, ‘बहाव सिचाई योजना’ व ‘सौर सिचाई योजना’ आरम्भ की जा रही हैं जिसके तहत क्रमशः 250, 150 व 200 करोड़ रुपये व्यय किए जाएंगे। प्रधानमंत्री कृषि सिचाई योजना के तहत 338 करोड़ रुपये की लागत से 111 लघु सिचाई योजनाओं के लिए एक नई इकाई मंजूर की गई है जिसके अंतर्गत केन्द्रीय सहायता के रूप में 49 करोड़ रुपये की पहली किस्त प्राप्त हो गई है। इसके साथ ही प्रदेश में लघु सिचाई योजनाओं के विकास के लिए 277 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान किया गया है। किसानों को सिचाई सुविधा प्रदान करने के लिए ही प्रदेश की पुरानी पेयजल व सिचाई योजनाओं को दुरुस्त किया जाएगा जिसके लिए केन्द्र सरकार को 800 करोड़ रुपये का प्रस्ताव भेजा जा रहा है। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा कृषकों को सिचाई के लिए बिजली की वर्तमान दर 1 रुपये प्रति यूनिट से घटाकर 75 पैसे प्रति यूनिट की जा रही है जिससे प्रदेश के लाखों किसान लाभान्वित होंगे।
प्रदेश के किसानों की आय बढ़ाने के दृष्टिगत मंत्रिमंडल की गत बैठक में शून्य लागत प्राकृतिक कृषि के माध्यम से किसानों की आय बढ़ाने तथा कृषि लागत कम करने के लिए प्रदेश में ‘प्राकृतिक खेती-खुशहाल किसान’ योजना के कार्यान्वयन के दिशा-निर्देशों को मंजूरी प्रदान कर दी गई है। इस योजना के लिए 25 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। योजना से प्राकृतिक कृषि को नई दिशा मिलेगी तथा किसानों द्वारा खेतों में रासायनिक खादों के उपयोग में कमी आएगी। प्रदेश के कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा इस योजना के कार्यान्वयन के लिए पैकेज ऑफ प्रैक्टिसिज तैयार किया जाएगा।
कृषकों की आय बढ़ाने के लिए राज्य सरकार द्वारा प्रदेश में फल एवं सब्जी उत्पादन के अंतर्गत अतिरिक्त क्षेत्र को लाया जाएगा। वर्तमान में प्रदेश के 5 जिलों में 300 करोड़ रुपये की जीका (JICA) फसल विविधिकरण योजना लागू की गई है। अब इस योजना के द्वितीय चरण को 1000 करोड़ रुपये की लागत से सभी जिलों में लागू किया जाएगा। इससे प्रदेश में कृषि क्षेत्र को नई दिशा मिलेगी।
प्रदेश में सुरक्षित खेती को बढ़ावा देने के लिए ‘वाई.एस.परमार किसान स्वरोज़गार योजना’ के तहत पॉली हाऊस के निर्माण के लिए वर्ष 2018-19 में दौरान 23 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान किया गया है। किसानों की फसलों को बन्दरों, जंगली जानवरों व आवारा पशुओं से बचाने के लिए ‘मुख्यमंत्री खेत संरक्षण योजना’ के तहत सामूहिक तौर पर सोलर बाड़ लगाने के लिए इस वर्ष 85 प्रतिशत अनुदान के प्रावधान के साथ 35 करोड़ के बजट का प्रावधान किया गया है।
इसके साथ-साथ कृषि से सम्बन्धित अन्य क्षेत्रों जैसे फूलों की खेती, मौन पालन, मत्स्य पालन, डेयरी उत्पादन जैसी गतिविधियों को विस्तार देकर भी किसानों की आय को दोगुना करने के लिए प्रदेश सरकार प्रयासरत है।
मजदूरों की कमी के कारण कृषि का यन्त्रीकरण समय की मांग है। ऊँचे दाम के कारण बहुत से कृषक ट्रैक्टर, पॉपर वीडर, पॉवर टिल्लर जैसे उपकरण नहीं खरीद पा रहे हैं। इसके लिए प्रदेश में ‘कृषि उपकरण सुविधा केन्द्र’ स्थापित किए जाएंगे, जिनमें किसान-बागवान किराए पर उपकरण प्राप्त कर सकेंगे। इन केन्द्रों की स्थापना के लिए प्रदेश के किसानों एवं युवा उद्यमियों को 25 लाख रुपये की राशि तक की मशीनरी पर सरकार 40 प्रतिशत उपदान प्रदान करेगी। कृषकों व बागवानों को पॉवर वीडर, पॉवर टिल्लर तथा अन्य उपकरणों पर उपदान के लिए 32 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान किया गया है।
उत्पादन लागत कम करने के उपायों के तहत वर्ष 2018-19 में सभी कृषकों को पोषकों के संतुलित उपयोग के लिए मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के अंतर्गत लाया जाएगा। प्रदेश की जलवायु गैर-मौसमी सब्जियों के लिए उपयुक्त है। प्रदेश सरकार किसानों को उच्च उत्पादकता वाले बीज वितरित करेगी। अच्छी किस्म वाले अनाज के बीज भी उपदान पर वितरित किए जाएंगे। जैविक कीटनाशक संयन्त्र की स्थापना के लिए 50 प्रतिशत निवेश उपदान देने का प्रावधान किया जा रहा है।
राज्य में 13 अनुसंधान केन्द्रों तथा आठ विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से किसानों तथा बागवानों को कृषि तथा बागवानी की उन्नत तथा नवीनतम जानकारियां प्रदान की जा रही हैं। सरकार ने सभी विज्ञान केन्द्रों के साथ अपनी-अपनी परिधि के किसानों-बागवानों को वाट्सएप्प के साथ जोड़ कर एक नवीन पहल की है। इससे जहां किसानों की समस्याओं के शीघ्र समाधान का मार्ग प्रसस्त हुआ है वहीं उन्हें ऋतृवार फसलों से संबंधित जानकारियां भी प्राप्त हो रही हैं। किसानों की समस्याओं व मांगों को प्राथमिकता के आधार पर निपटाने के लिए किसान कृषि विभाग की टोल फ्र्री हेल्पलाईन सेवा 1550 आरम्भ की गई है।

भारत महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश आंकड़ों पर नहीं, अवधारणाओं पर आधारित

शिमला/शैल। थॉमसन रायटर्स फाउंडेशन ने हाल में एक जनमत सर्वेक्षण किया है जिसका शीर्षक है ‘महिलाओं के लिए विश्व के सबसे खतरनाक देश 2018’ फाउंडेशन ने कहा है कि भारत महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है। यह घोषणा किसी रिपोर्ट या आंकडों पर नहीं बल्कि एक जनमत सर्वेक्षण पर आधारित है।
इस नतीजे तक पहुंचने के लिए रायटर्स ने एक दोषपूर्ण प्रक्रिया का उपयोग किया है। रैकिंग, अवधारणा आधारित है। यह मात्र 6 प्रश्नों के जवाब पर आधारित है। ये परिणाम आंकडों के आधार पर नहीं निकाले गये हैं। ये पूर्णतया विचारों पर आधारित है। इसके अतिरिक्त इस सर्वेक्षण में मात्र 548 लोगों को शामिल किया गया है। रायटर्स के अनुसार ये व्यक्ति महिला संबंधी मामलों के विशेषज्ञ हैं। इन व्यक्तियों के पद, संबंधित देश, अकादमिक योग्यता व विशेषज्ञता आदि के संबंध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। ये सभी चीजें सर्वेक्षण की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। संगठन द्वारा प्रक्रिया संबंधी दी गयी जानकारी के अनुसार सर्वेक्षण में शामिल कुछ लोग नीति निर्माता है। हालांकि मंत्रालय ने इस सर्वेक्षण के संबंध में कोई जानकारी नहीं मांगी है।
सर्वेक्षण में पूछे गये 6 प्रश्न एक समान रूप से सभी देशों पर लागू नहीं किये जा सकते। जैसे विभिन्न देशों में बाल विवाह की उम्र सीमा अलग-अलग है। इसके अलावा महिला के जनानंगों की विकृति, दोषी व्यक्ति को पत्थर मारना आदि प्रथायें भारत में नहीं हैं।
इसके अतिरिक्त उपलब्ध आंकडों को साझा करना, नीति निर्माण में सुझाव लेना तथा सरकार की पारदर्शी प्रणालियों के आधार पर भारत में महिलाओं की समस्याओं को रेखांकित किया जाता है। सरकार मीडिया, शोधकर्ताओं तथा स्वयं सेवी संगठनों के साथ खुले रूप से विचारों का आदान-प्रदान करती है। इससे आम लोगों को बहस में जुड़ने का अवसर प्राप्त होता है। आम लोग और स्वतां मीडिया, महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा पर खुले रूप से चर्चा कर सकती हैं। ऐसी बहसों को प्रोत्साहित किया जाता है। ऐसी खुली व्यवस्था में महिलाओं से संबंधित मामले भारत में जोर-शोर से उठाये जाते हैं। संभवतः इसी कारण ऐसी अवधारणा बनती है कि देश की स्थिति खराब है।
सर्वेक्षण में स्वास्थ्य देखभाल, भेदभाव, सांस्कृतिक परम्परायें, यौन हिंसा, गैर यौन हिंसा, मानव तस्करी, जैसे विषयों पर 548 व्यक्तियों का जनमत संग्रह किया गया है। इन क्षेत्रों में भारत अन्य देशों की तुलना में बहुत आगे है। इसके अलावा पिछले वर्षों की तुलना में स्थितियां बेहतर हुई है। इसलिए भारत की रैंकिंग स्पष्ट रूप से गलत है।
उदाहरण के लिए जून 2018 में जारी नमूना पंजीयन सर्वे (एसआरएस) के अनुसार प्रसव के दौरान मातृ मृत्यु दर में 2013 की तुलना में 22 प्रतिशत की कमी आयी है। इसके अलावा जन्म के समय लिंग अनुपात भी बेहतर हुआ है। इससे यह भी पता चलता है कि लिंग आधारित गर्भपात की संख्या में भी कमी आयी है।
आर्थिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। महिलाओं की आजीविका के लिए लगभग 45.6 लाख स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा दिया गया है और इसके लिए 2 हजार करोड रुपये की धनराशि उपलब्ध कराई गयी है। बालिकाओं के वित्तीय समावेश के लिए सुकन्या समृद्ध योजना के तहत 1.26 करोड़ बैंक खाते खोले गये हैं। कुल जनधन खातों में से आधे महिलाओं के हैं। प्राथमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर लड़के और लड़कियों के नामांकनों की संख्या समान है। इस प्रकार यह कहना गलत है कि भारत ने महिलाओं को आर्थिक संसाधन उपलब्ध नहीं हैं।
बाल विवाह की संख्या में भी महत्वपूर्ण कमी आयी है। 0-9 वर्ष की आयु सीमा में बाल विवाह की संख्या शून्य है। 15 से 19 वर्ष की आयु सीमा में लड़कियों के मां बनने या गर्भवती होने की संख्या में भी कमी आयी है। यह 2005-06 में 16 प्रतिशत से घटकर 2015-16 में 7.9 प्रतिशत हो गयी है।
एनसीआरबी आंकड़ों के अनुसार 2016 में दुष्कर्म के 38,947 मामले दर्ज किये गये हैं। 2014 और 2015 में क्रमशः 36735 और 34651 मामले दर्ज किये गये थे। मामलों की संख्या में वृद्धि पुलिस तक आसानी से पहुंचने का परिणाम है। इसके अतिरिक्त भारत में दुष्कर्म की दर प्रति हजार पर 0.03 है, जबकि यूएस में यह प्रति हजार पर 1.2 है। तेजाब फेंकने के मामले भी गिने चुने हैं। जैसा कि पहले कहा गया है कि दोषियों को पत्थर मारने तथा महिलाओं के जननांगों को विकृत करने की प्रथा भारत में नहीं है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि हिंसा के मामले में भारत विश्व का सबसे खतरनाक देश नहीं है।
बंधुआ मजदूरी और जबरन मजदूरी के मामलों में भी कमी आयी है। अपराध की रिपोर्ट होने पर सख्ती से कार्रवाई की जाती है। मानव तस्करी (रोकथाम, सुरक्षा और पुर्नवास) अधिनियम, 2018 के अंतर्गत मानव तस्करी की समस्या को काफी हद तक नियंत्रित कर लिया गया है।
भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश घोषित करने का प्रयास केवल भारत की छवि को धूमिल करने जैसा है। यह प्रयास महिलाओं के पक्ष में हो रहे वास्तविक प्रगतियों से ध्यान हटाने जैसा है।
2012 के दुर्भाग्य पूर्ण घटना के पश्चात पूरा देश महिलाओं की सुरक्षा के प्रति सजग है तथा उन्हें घर में, अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में तथा समाज में बराबरी का हक देने के लिए कृत संकल्प है। सरकार इस दिशा में नेतृत्व प्रदान कर रही है।
यौन हिंसा से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012, अपराध कानून संशोधन अधिनियम 2013 तथा अपराध कानून संशोधन अध्यादेश, 2018 के तहत बलात्कार के मामलों में कड़ी सजा का प्रावधान किया गया है। इसकी परिभाषा को विस्तार दिया गया है और इसमें तेजाब से हमला, स्टॉकिंग, यौन उत्पीड़न, महिला के सम्मान को चोट पहुंचाना, 18 साल से कम उम्र के लड़कों से किया गया यौन अपराध आदि को शामिल किया गया है। किशोर न्याय अधिनियम 2015 में भी बच्चों की देखभाल और सुरक्षा की जरूरत को विस्तार दिया गया है और इसमें उन बच्चों को भी शामिल किया गया है जिन पर बाल विवाह का खतरा है। इस अधिनियम में 16 वर्ष या इससे अधिक के किशोरों को व्यस्क के समान माने जाने का प्रावधान है यदि वे बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर अपराधों में लिप्त पाये जाते हैं।
राज्य सरकारें पुलिस बल में महिलाओं की संख्या को 33 प्रतिशत तक ले जाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। महिलाओं की सहायता के लिए 193 वनस्टॉप केन्द्र तथा 31 राज्यों में हेल्पलाईन की शुरूआत की गयी है। इन हेल्पलाईनों से महिलाओं को 24 घंटे सहायता व सुझाव प्राप्त होते हैं। इनमें पुलिस सहायता, कानूनी सहायता, कानूनी सलाह, मेडिकल सुविधा, मानसिक सामाजिक परामर्श, अस्थाई निवास आदि शामिल है। पिछले तीन वर्षों में संस्थानों ने 12 लाख महिलाओं को सहायता प्रदान की है।
तीन तलाक को अपराध घोषित करने वाले विधेयक को मंजूरी दी गयी है। यह मुस्लिम महिलाओं को समानता का अवसर उपलब्ध करायेगा। महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है।
महिलाओं को समान अवसर प्रदान करने के तहत मुद्रा योजना के अंतर्गत 7.88 करोड़ महिला उद्यमियों को 2,25,904 करोड रुपये का ऋण दिया गया है। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत प्रमाण पत्र प्राप्त करने वालों में 50 प्रतिशत महिलायें हैं। कार्यबल में महिलाओं की संख्या बढ़ रही है और वे आर्थिक संसाधनों को नियंत्रित कर रही हैं। 5 लाख से अधिक महिलायें कंपनियों में निदेशक के पद पर कार्यरत हैं।
प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत आवासों का आवंटन महिलाओं या संयुक्त रूप से महिला व पुरूष के नाम पर किया जा रहा है। प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण के तहत 2 लाख आवासों का आवंटन महिलाओं के नाम पर किया गया है। पैतृक संपत्ति में भी महिलाओं की हिस्सेदारी मिलने को बढ़ावा दिया जा रहा है।
माध्यमिक और उच्च शिक्षा में लड़कियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देते हुए सरकार ने विभिन्न छात्रवृत्ति योजनाओं की शुरूआत की है। इसके सुखद परिणाम सामने आये हैं। स्कूल छोड़ने की संख्या में कमी आयी है। कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करने के संदर्भ में लड़कियों की संख्या में वृद्धि हुई है।
माताओं के स्वास्थ्य की स्थिति में भी सुधार हुआ है। एक महत्वपूर्ण कदम के तहत मातृत्व अवकास को बढ़ाकर 6 महीने कर दिया गया है। इससे महिलाओं को नौकरी छोड़ने की नौबत नहीं आयेगी और गर्भावस्था के दौरान उनकी आय में भी कमी नहीं होगी। पूरे देश में माताओं को नकद प्रोत्साहन दिया जा रहा है ताकि वे गर्भावस्था का पंजीयन कर सकें, अस्पताल में शिशु का जन्म हो और शिशु के जन्म के पहले और बाद उनकी देखभाल हो।
इन प्रयासों से स्थितियां बेहतर हुई हैं। भारतीय महिलाओं का जीवन बेहतर हुआ है। विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारतीय महिलाएं बेहतर स्थिति में हैं। तथ्य स्पष्ट रूप से बताते हैं कि भारत को महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश कहना वास्तविकता से परे है।

कर्ज मुक्ति के लिये नीयत और नीति चाहिये

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने एक साक्षात्कार में यह कहा है कि प्रदेश को कर्ज से मुक्ति मिलना संभव नही है। जयराम की सरकार को बने हुए अभी छः माह का समय हुआ है। इन छः महिनों में सरकार ने जनवरी से 31 मार्च तक ही एक हजा़र करोड़ से अधिक का ऋण लिया है। 29 मार्च को जायका के साथ 700 करोड़ का ऋण अनुबन्ध साईन किया है। इसके बाद मई में राज्य विद्युत बोर्ड की ऋण सीमा मे दो हज़ार करोड़ की वृद्धि की है। जून में एशियन विकास बैंक से 437 करोड़ का ण भारत सरकार के माध्यम से स्वीकृत करवाया है। ऋण के इन आंकड़ों का जिक्र इसलिये किया जा रहा है ताकि यह समझ आ सके कि सरकार का पूरा ध्यान इस दौरान ऋण जुटाने की ओर ही ज्यादा केन्द्रित रहा है। सरकार अपनी आय के साधन कैसे बढ़ाये और अपने अनुपयोगी खर्चों में कैसे कमी करे इस ओर शायद ज्यादा ध्यान नही दिया गया है। इसमें सबसे चिन्ताजनक यह है कि युवा मुख्यमन्त्री ने बिना कोई प्रयास किये ही यह मान लिया है कि कर्ज से मुक्ति मिल ही नही सकती है।
मुख्यमन्त्री ने अपने साक्षात्कार में कर्ज का आंकड़ा 46000 करोड़ का दिया है। राज्य के वित्त की वास्तविक स्थिति क्या है। सरकार के खर्चे कितने उत्पादक और अनुत्पादिक है। राज्य के कर्ज की स्थिति क्या इसका पूरा आकलन करने के लिये नियन्त्रक महालेखा परीक्षक की संवैधानिक जिम्मेदारी है और कैग की रिपोर्ट वाकायदा सदन के पटल पर रखी जाती है। इसलिये कैग की रिपोर्ट को प्रमाणिक माना जाता है। इस बार के बजट सत्र वर्ष 2016-2017 के लेखे सदन में रखे गये हैं। इन लेखों के मुताबिक 31 मार्च 2016 को प्रदेश सरकार का कुल कर्जभार 47,244 करोड़ है। इसमें वित्तिय वर्ष 2017-2018 और 2018-2019 का कर्ज जब जुड़ेगा तब यह कर्जभार 60,000 करोड़ से अधिक हो जायेगा यह तय है। सरकार जब भी कर्ज लेती है तब कर्ज का उद्देश्य विकास कार्यो मे निवेश दिखाया जाता है लेकिन कैग की रिपोर्ट के मुताबिक यह कर्ज विकास की बजाये कर्ज की किश्त देने और दूसरे खर्चों के लिये उठाये जा रहे हैं। 2012-13 से 2016-17 तक हर वर्ष, कर्ज की किश्त और अन्य खर्चों के लिये ऋण उठाया जा रहा है। 2012-13 में 2359, 2013-14 में 2367, 2014-15 में 2345, 2015-16 में 2450 और 2016-17 में 3400 करोड़ का ऋण इन खर्चों के लिये उठाया गया है जबकि एफआरबीएम 2005 की सीधी अवहेलना है। इसमें एक चिन्ताजनक गंभीरता यह है कि कर्ज तय समय पर लौटाया नही जा रहा है। 31 मार्च 2016 को Outstading ऋण का आंकड़ा 32570 करोड़ हो गया है। हर वर्ष यह आंकड़ा बढ़ता जा रहा है यह स्थिति यदि ऐसे ही चलती रही तो यह तय है कि अगले पांच- सात वर्षो में कर्ज उठाने लायक भी स्थिति नही रहेगी।
इसलिये सबसे पहला सवाल यह खड़ा होता है कि कर्ज के सिर पर विकास कब तक किया जाये। इस समय जितना कर्ज प्रदेश पर खड़ा है वह आखिर निवेश कहां हुआ है? क्योंकि आज भी प्रदेश में दस हज़ार अध्यापकों की कमी है, अस्पतालों में डाक्टरों की कमी है। रोजगार कार्यालयों में बेरोजगारों का आंकड़ा आठ लाख से ऊपर पहुंच चुका है। लोगों को पीने का पानी नही है यह अभी सामने आया है। पानी की गुणवत्ता कितनी और कैसी है यह पीलिया से हुई मौतों मे सामने आ चुका है। हां प्रदेश में सरकारी भूमि पर अवैध कब्जों का अांकड़ा 1,67000 का 2002 में उस समय सामने आया था तब अवैध कब्जों को नियमित करने की योजना बनाई गयी थी। इसी तरह का विकास अवैध निर्माणों में हुआ है क्योंकि सरकारें बार-बार रिटैन्शन पॉलिसियां लाती रही। इस समय प्रदेश के सार्वजनिक उपक्रमों के क्षेत्रा में बारह हज़ार करोड़ से कुछ अधिक का कुल निवेश है। इसमें अकेले ऊर्जा के क्षेत्र में ही ग्यारह हजार करोड़ से अधिक का निवेश है लेकिन प्रदेश की चारो ऊर्जा कंपनीयों की स्थिति लगातार घाटे की है। एक भी परियोजना कभी समय पर पूरी नही हुई है। कैग की हर रिपोर्ट में इस ओर ध्यान खिंचता आ रहा है। अभी कशांग परियोजना पर कैग ने साफ कहा है कि आज ही इसकी स्थिति यह हो गयी है कि प्रति यूनिट उत्पादक लागत 4.50 रूपये पहुंच चुकी है जबकि बिजली 2.50 रूपये यूनिट बिक रही है। बिजली बोर्ड की अपनी रिपोर्टों के मुताबिक बोर्ड की सभी परियोजनाओं में हर वर्ष हज़ारों घन्टो का शट डाऊन हो रहा है और इसके कारण प्रतिदिन करोड़ो के राजस्व का नुकसान हो रहा है जबकि निजिक्षेत्र की परियोजनाओं में छः आठ घन्टे से अधिक का साल में शट डाऊन नही है। इस प्रतिदिन हो रहे करोड़ों के राजस्व के नुकसान की ओर संवद्ध प्रशासन से लेकर विजिलैन्स तक का ध्यान नही गया है जबकि इस संद्धर्भ में उसके पास वाकायदा शिकायत रिकॉर्ड पर है। पिछले पांच वर्षों में बिजली की किसी भी बड़ी परियोजना के लिये कोई निवेशक नही आया है। इस तरह की स्थिति प्रदेश में बहुत सारे क्षेत्रों की है। प्रदेश का प्रशासन कितनी सक्षमता और गंभीरता से काम करता रहा है इसका साक्षात प्रमाण राज्य का वित्त निगम है जिसकी अध्यक्षता हर समय प्रदेश के मुख्य सचिव के पास पदेन रही है।
इस वस्तुस्थिति से यही उभरता है कि अब तक हमारी नीयत और नीति कर्ज लेकर घी पीने तक की ही रही है। सारी योजना का मुख्य बिन्दु हर रोज़ कर्ज के नये स्त्रोत तलाशने तक ही रहा है। प्रशासन से लेकर राजनीतिक नेतृत्व तक सभी तदर्थवाद पर ही चलते रहे हैं। किसी ने भी यह चिन्ता करने का प्रयास नही किया कि जिस दिन यह सब कुछ अचानक धराशायी हो जायेगा तो तब क्या होगा। यह कहना कतई गलत है कि प्रदेश के पास संसाधन नही है और यह आत्मनिर्भर नही हो सकता। इसके लिये नीयत और नीति चाहिये। लेकिन शायद तन्त्र की नीयत ‘‘ऋणम् कृत्वा धृतम पीवेत’’ की हो गयी है। नीति के लिये अध्ययन और जानकारी चाहिये। वह थोड़ा कठिन काम है परन्तु असंभव नही। इसलिये युवा मुख्यमन्त्री से यही आग्रह है कि कर्ज की स्थिति से बाहर निकलने के लिये नीयत दिखाओगे तो नीति भी कोई दिखा देगा।

घातक होगा मर्यादाएं लांघता वाकयुद्ध

शिमला/शैल। इन दिनों मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर की विपक्षी दल कांग्रेस के नेता सदन और पूर्व मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह को लेकर की गयी एक टिप्पणी के बाद दोनों दलों के बीच एक ऐसा वाकयुद्ध छिड़ गया है जो मर्यादा की सीमाएं लांघता जा रहा है। जयराम को लेकर वीरभद्र ने एक टिप्पणी करते हुए कहा कि जयराम अभी राजनीति में बच्चे हैं। कांग्रेस के नेता सदन मुकेश अग्निहोत्री ने जयराम और उसकी सरकार की कार्यशैली तथा उनके द्वारा लिये जा रहे फैसलों की आलोचना तो बतौर नेता प्रतिपक्ष की है परन्तु कभी मुख्यमन्त्री पर व्यक्तिगत स्तर का आरोप नही लगाया है। जबकि जयराम ने वीरभद्र की टिप्पणी का तो कोई सीधा जवाब नही दिया लेकिन मुकेश अग्निहोत्री को लेकर व्यक्तिगत टिप्पणी पर आ गये। जयराम ने छुटट्भईया नेता कहने के साथ ही यह भी कह दिया कि वह पंजाब से लगते क्षेत्रा से ताल्लुक रखते हैं लेकिन उनका पंजाबी कल्चर यहां नही चलेगा। जब मुकेश अग्निहोत्रा ने भी ऊना में एक प्रैस वार्ता करके जयराम की टिप्पणी का जवाब दिया तो उससे भाजपा के अन्दर कितनी अंशाती पैदा हुई है इसका इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इस पर करीब आधा दर्जन मन्त्रीयों के नाम से प्रतिक्रियाएं आयी हैं। जब मुकेश ने जयराम को उसी की तर्ज पर जवाब दिया था तब कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने सोशल मीडिया के माध्यम से यह कहा था कि मुकेश को सयंम बरतना चाहिये था। तब लगा था कि शायद इस नेक सलाह का असर होगा। लेकिन जब इस सलाह के बावजूद आधा दर्जन मन्त्रीयों की प्रतिक्रियाएं उसी तर्ज पर आयीं तब लगा कि इस विषय पर एक सार्वजनिक चर्चा उठाने की आवश्यकता है।
जिस पत्रकार वार्ता में जयराम ने यह टिप्पणी की थी उसमें कोई भी दूसरा मन्त्री वहां पर उपस्थित नही था। इसलिये प्रतिक्रिया देने वाले मन्त्रीयों को उतनी ही जानकारी है जितनी की उन्हे तन्त्र के उन अधिकारयों द्वारा दी गयी होगी जो वहां मौजूद थे या फिर स्वयं मुख्यमन्त्री द्वारा जो बताया गया होगा। राजनीति में मुख्यमन्त्री या किसी भी दल का कोई भी दूसरा नेता एक दूसरे को बड़ा नेता कहे या छुट्टभईया नेता कहे यह उनकी अपनी समझ और उनके मानने की बात है। उससे किसी को कोई फर्क नही पड़ता है लेकिन जब ‘‘पंजाबी कल्चर’’ यहां नहीं चलेगा तो इससे एक बड़ा वर्ग आहत हो जाता है। एक तरह से देश के एक पूरे राज्य को अपने एक ही वाक्य के साथ अमान्य और अभद्र करार दे दिया जो कि किसी भी कसौटी पर जायज़ नही ठहराया जा सकता है। पंजाब की अपनी एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है और पूरा प्रदेश उसका सम्मान करता है। हिमाचल का वर्तमान आकार पंजाब के 1966 में हुए पुनर्गठन के बाद बना है। आज 68 विधायकों की विधानसभा में 31 विधायक पंजाब से हिमाचल में शामिल हुए क्षेत्रा से आते हैं। भाजपा के दोनो पूर्व मुख्यमन्त्री शान्ता कुमार और प्रेम कुमार इसी पंजाब की संस्कृति से आये हैं। भाजपा के इस समय के अध्यक्ष भी इसी कल्चर से हैं। जयराम के आधे मन्त्री भी इसी पंजाबी कल्चर से कुछ ताल्लुक रखते है। सबके आज भी पंजाब के साथ गहरे रिश्ते हैं। फिर जयराम के तो मुख्य सचिव शुद्ध पंजाबी है। क्या इन सबके आचार-व्यवहार से मुख्यमन्त्री खुश नही है या सहमत ही नही है। मुख्यमन्त्री की पंजाबी कल्चर की टिप्पणी का पूरे क्षेत्र पर नकारात्मक असर हुआ है और आने वाले समय में इन पंजाब से आये क्षेत्रों के लोग अपने विधायकों और मन्त्रीयो से जवाब मांगे तो इस पर कोई आश्चर्य नही होना चाहिये।
राजनीति में आप किसे बड़ा छोटा मानते हैं इससे आम आदमी को फर्क नही पड़ता है लेकिन जब आप एक टिप्पणी से पूरे एक वर्ग को एक क्षेत्र को नकार देते हैं तो उस पर हर संवेदनशील व्यक्ति आहत होता है और ऐसी टिप्पणीयों के अर्थ समझने का प्रयास करता है। कई बार ऐसी टिप्पणीयां गंभीर मुद्दों पर से आम आदमी क्या ध्यान हटाने के लिये भी की जाती है परन्तु उसका स्थायी लाभ नही मिल पाता है। क्योंकि आज हर आदमी चीजों पर अपने -अपने ढंग से नज़र रखता है। फिर यह तो एक छोटा सा प्रदेश है और इसका छोटा सा सचिवालय है जिसमें किसी भी चीज़ को ज्यादा देर तक गुप्त रख पाना संभव नही है। कौन मंत्री या अधिकारी क्या कर रहा है कौन किससे मिल रहा है यह सारी जानकारियां पत्रकारों के पास तो आ ही जाती है। क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी भी तरह तन्त्र से पीड़ित रहता है तब वह अपनी आवाज़ को जनता तक पहुंचाने के लिये मीडिया का ही सहारा लेता है। सरकार के शासन सुशासन पर हरेक की नज़र बनी हुई है। किसको कितना जायज़ या नाजायज़ लाभ दिया जा रहा है इस पर भी सबकी नज़र है। फिर आरटीआई से तो जानकारियां जुटाना और आसान हो गया है इसलिये सत्ताप़क्ष और विपक्ष दोनो से ही यह आग्रह है कि इस तरह के वाक्युद्ध में उलझ कर जनता के मुद्दों की बलि मत दीजिये। क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ दोनों दलों की सरकारों का पुराना रिकार्ड बहुत अच्छा नही है। भ्रष्टाचार पर ब्यान केवल जनता का ध्यान बांटने के लिये आते हैं इसके खिलाफ कारवाई करने की गंभीरता से नही। लेकिन यह सब अब जनता की सहन शक्ति से बाहर होता जा रहा है जनता सरकारें इसके लिये चुनकर नही भेजती है कि सरकार उसके सिर पर कर्ज का बोझ बढ़ाती जाये और जनता के पैसे को लुटाती रहे जैसा कि अब कुछ मुद्दों में सामने आ रहा है।

क्या अप्रसांगिक हो रही है आईएएस व्यवस्था

भारत सरकार ने पैट्रोलियम, वित्त, आर्थिक मामले कृषि और स्टील आदि कुछ मन्त्रालयों में संयुक्त सचिवों के दस पद भरने के लिये निजिक्षेत्र में काम कर रहे लोगां से आवेदन मांगे हैं। यह पद तीन वर्ष के अनुबन्ध पर भरे जायेंगे और अनुबन्ध की अवधि दो वर्ष बढ़ाई जा सकती है। निजिक्षेत्र से अनुभवी लोगों को पहले भी ऐसी एक-आध नियुक्तियां दी जाती रही है। बल्कि भारत सरकार में सचिव स्तर तक ऐसे लोग सेवाएं दे चुके हैं। पैट्रोलियम और वित्त मंत्रालयों में निजिक्षेत्र से आये लोग सचिव रह चुके हैं। लेकिन ऐसे लोगों को जब भी लाया गया तो उन्हें स्थायी नियुक्तियां दी गयी थी। अनुबन्ध के आधार पर ऐसी नियुक्तियांं का प्रयोग पहली बार हो रहा है। इन लोगों का चयन संघ लोक सेवा आयोग नहीं बल्कि कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में बनी कमेटी करेगी। एक साथ दस लोगों को विभिन्न मन्त्रालयों में संयुक्त सचिव के पद पर तीन वर्ष के अनुबन्ध पर नियुक्ति किये जाने से स्वभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या सरकार देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में कोई नियोजित प्रयोग करने जा रही है। यदि यह प्रयोग सरकार के अघोषित लक्ष्यों की पूर्ति के मानदण्ड पर सफल रहता है तो क्या आईएएस की जगह कोई नयी प्रशासनिक व्यवस्था देखने को मिलेगी? ऐसे बहुत सारे सवाल सरकार के इस फैसले के बाद उठ खड़े हुए हैं। क्योंकि इस फैलले से पहले यह भी एक फैसला चर्चा में रहा है कि अब आईएएस को लोकसेवा आयोग के चयन पर ही राज्यों का आबंटन नही हो जायेगा बल्कि प्रशिक्षण पूरा करने के बाद जो परिणाम रहेगा उसके आधार पर आवंटन किया जायेगा।
सरकार के इन फैसलों से पहली चीज तो यह उभरती है कि सरकार आईएएस की मौजूदा व्यवस्था को उपयोगी नही मान रही है। इसके विकल्प के रूप में कुछ नया लाना चाहती है। इस समय जो लोग इन पदों पर अनुबन्ध के आधार पर नियुक्त होंगे वह निश्चित तौर पर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी या किसी बड़े औद्यौगिक घराने में अपनी सेवायें दे रहे होंगे। क्योंकि इन पदों के लिये योग्यता की शर्त यही है कि वह इसके लिये अपने को Talented मानते हों। आईएएस बनने के लिये शैक्षणिक योग्यता आज भी स्नातक ही है चाहे वह किसी भी स्ट्रीम से स्नातक हो। आईएएस हो जाने के बाद सोलह वर्ष के कार्यकाल के बाद संयुक्त सचिव बन जाता है लेकिन निजिक्षेत्र से आने वाले का न्यूनतम अनुभव कितने वर्ष का होगा यह स्पष्ट नही किया गया है। इसका आकलन यह चयन कमेटी ही करेगी। आईएएस एक प्रशासनिक सेवा है उसका प्रशिक्षण प्रशासन चलाने के उद्देश्य से किया जाता है। प्रशासन में सबसे निचले कर्मचारी से लेकर शीर्ष अधिकारी तक सबके दायरे अधिकार और कर्तव्य पूरी तरह परिभाषित हैं। हम एक वेल्फेयर स्टेट हैं जहां हर कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक सबसे लोक कल्याण के हित में काम करना अपेक्षित रहता है। इसमें "Public interest " सर्वोपरि रहता है। इसीलिये सरकार में हर अधिकारी /कर्मचारी को उसकी सेवानिवृति उसे सेवा की सुरक्षा मिली हुई है।
इसके विपरीत निजिक्षेत्र में यह नही है कि उसके अधिकारी/कर्मचारी को एक निश्चित अवधि तक सेवाकाल की सुरक्षा नही है। निजिक्षेत्र में वेल्फेयर स्टेट की अवधारणा भी लागू नही होती है। वहां तो नौकर को मालिक वेल्फेयर की पूर्ति करनी है। उसे मालिक को अधिक से अधिक लाभ कमाकर देना है। निजिक्षेत्र लाभ की अवधारणा पर चलता है जबकि सरकार वेल्फेयर की। सबका हित- सबका कल्याण, सबका विकास यह वेलफेयर स्टेट के मूल उद्देश्य हैं। इसमें लाभ से पहले कल्याण रहता है लेकिन निजिक्षेत्र में यह कल्याण और लाभ एक व्यक्ति, एक कंपनी या एक औ़द्यौगिक घराने तक ही सीमित रहता है। ऐसे में जिस व्यक्ति को तीन या पांच वर्ष के अनुबन्ध पर नियुक्त किया जायेगा उसे प्रशासन की सारी बारिकियां समझने में समय लगेगा। बल्कि वह तो जिस भी संस्थान से पूर्व में जुड़ा रहा होगा उसी कार्य संस्कृति से प्रभावित रहेगा और उन्ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिये कार्य करेगा। सयुंक्त सचिव कृषि के पद पर बैठकर वह किसान के हित में स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू करवाने में नीति के स्तर पर क्या योगदान दे पायेगा। वह किसान का कर्जा माफ किये जाने की वकालत कैसे कर पायेगा वित्त और आर्थिक मामलों का संयुक्त सचिव क्या एनपीए की व्यवस्था को समाप्त करने की राय दे पायेगा। क्या वह बहुराष्ट्रीय कंपनीयों के हितों से विपरीत जा पायेगा। यदि कोई अंबानी- अदानी औद्यौगिक घरानों से जुड़ा व्यक्ति पैट्रोलियम या रक्षा उत्पादन में संयुक्त सचिव हो जाता है तो क्या वह पैट्रोलियम को जीएसटी के दायरे में लाने की वकालत करेगा। रक्षा उत्पादन में क्या वह शफेल डील पर सवाल उठा पायेगा? इसलिये सरकार को यह प्रयोग करने से पहले इसके निहित उद्देश्यों की जानकारी जनता के सामने रखनी होगी।
यदि सरकार को लगता है कि आईएएस व्यवस्था अप्रसांगिक होती जा रही है और उसे हर मन्त्रालय में विषय विशेषज्ञ चाहिये तो उसे आईएएस व्यवस्था में अलग से सुधार करने चाहिये। जिन क्षेत्रों में विशेषज्ञ चाहिये उनके लिये आईएएस मे ही पोस्टल, राजस्व और आडिट की तर्ज पर अलग सेवाआें की व्यवस्था करनी होगी। इसके लिये शैक्षणिक योग्यताएं भी स्नातक से बढ़ाकर विषय विशेषज्ञता की तय करनी होंगी, अन्यथा जो प्रयोग अब किया जाने लगा है उससे यही संदेश जायेगा कि सरकार संघ की विचारधारा से जुड़े लोगों को कुछ प्रमुख पदों पर बैठाने की जुगाड़ भिड़ा रही है।

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