Friday, 19 September 2025
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हादसो पर राजनीति नही कड़ा संज्ञान चाहिये

शिमला/शैल। नूरपुर में एक स्कूल बस के गहरी खाई में गिर जाने से 27 लोगों की मौत हो गयी जिनमें 24 स्कूल के बच्चे थे। यह हादसा कितना दर्दनाक रहा होगा इसको शब्दों में ब्यान करना संभव नही। जिन घरों के चिराग इसमें सदा के लिये बुझ गये हैं उन परिजनों को शायद ही कोई शब्द सांत्वना दे सकते है। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह संतृप्त परिजनों को हिम्मत दे और जिन मायूस नन्हे फरिश्तों को असमय ही अपने पास बुला लिया है उन्हे अपने पास जगह दे। हादसे हो जाते हैं और हादसों के कारणों का पता लगाने के लिये जांच भी आदेशित की जाती है। इसमें भी जांच के आदेश हो चुके हैं लेकिन इसी के साथ इस मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय ने इसे अपने हाथ में लेकर सरकार ने इस पर जवाब भी तलब कर लिया है। उच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान एक अखबार में छपी खबर के कारण लिया क्योंकि अखबार के मुताबिक श्रद्धांजलि को लेकर इसमें राजनीति हो रही थी। इसमें श्रद्धांजलि देने के लिये केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा और मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर भी पहुंचेे थे। यह दोनों हादसे के दूसरे दिन सुबह पहुंचे। नड्डा शायद गगल एयरपोर्ट पर पहले पहुंच गये थे और मुख्यमन्त्री करीब एक घन्टा बाद में पहुंचे। एयरपोर्ट से इनके नूरपुर अस्पताल पहुंचने के साथ ही अस्पताल ने पोस्टमार्टम के बाद परिजनों को शव सौंपे। हादसा पिछले दिन तीन चार बजे के बीच हो चुका था। हादसे की सूचना मिलने के बाद राहत और बचाव का कार्य शुरू हुआ। शाम तक शव और घायल अस्पताल पहुंचा दिये गये थे। अस्पताल पहुंचने के बाद घायलों के उपचार और शवों का पोस्टमार्टम होना था।
शवों का पोस्टमार्टम कानूनी बाध्यता है और सर्वोच्च न्यायालय कें निर्देशों के बाद रात को पोस्टमार्टम करने की अनुमति नही है। क्योंकि रात को टयूब लाईट में खून के रंग में थोड़ा बदलाव आ जाता है, लेकिन कानून की यह शर्त उन मामलों में लागू होती है जहां पर मौत के कारणों को लेकर सन्देह व्यक्त किया जा रहा है। ऐसे बस और रेल हादसों में जहां मौत का एक ही कारण दुर्घटना रही हो वहां तो पोस्टमार्टम तुुरन्त करवाया जाता है। ताकि परिजनों को यथा शीघ्र शव सौंपे जा सके। इसमें रात को भी पोस्टमार्टम किया जा सकता है लेकिन इस हादसे में यह पोस्टमार्टम सुबह किया गया जबकि यह रात को ही हो जाना चाहिये था। ताकि सुबह शीघ्र ही इनके अन्तिम संस्कार का प्रबन्ध हो जाता क्योंकि मृतक के प्रति श्रद्धांजलि शमशान में जाकर लकड़ी डालना माना जाता है। पीछे बचे परिजनों को तो उनके घर जाकर सांत्वना दी जाती है। लेकिन यहां पर रातभर पोस्टमार्टम का ना होना सीधे प्रशासन की समझदारी पर सवाल खडे़ करता है क्योंकि प्रशासन के मुताबिक पोस्टमार्टम सुबह हुए। इसी कारण परिजनो को रातभर परेशान रहकर इन्तजार करना पड़ा और यही इन्तजार हादसे पर राजनीति की वजह बन गया। ऊपर से केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा का यह कहना कि उन्हे इस बारे में कोई जानकारी ही नही और यह देखना स्थानीय विधायक और प्रशासन का काम है। इस पर विधायक पठानिया ने मीडिया के सामने रखा है और अखबार ने अपने स्टैण्ड को कुछ और तथ्यों के साथ दोहराया हैै अब क्योंकि उच्च न्यायालय ने इसका संज्ञान ले लिया है इसलिये अदालत के फैसले का इन्तजार करना ही होगा। ऐसे दर्दनाक हादसों पर भी कोई राजनीति कर सकता है यह सामान्यतः समझ से परे की बात है।
लेकिन यह हादसा जो सवाल छोड़ गया है वह अपने में गंभीर है क्योंकि स्थानीय विधायक ने एनडीआरएफ की टीम के व्यवहार को लेकर जो खुलासा किया है वह प्रशासन को कठघरे में खड़ा करता है। दूसरा केन्द्रिय स्वास्थ्य मंत्री और मुख्यमंत्री के एयरपोर्ट पर पहुंचने में एक घन्टे का अन्तर रहना फिर प्रशासन की आपसी कमजोरी को दर्शाता है। जबकि कायदे से दोनो नेताओं को लगभग एक ही समय में पहुंचना चाहिये था यह तालमेल मुख्यमन्त्री कार्यालय और जिला प्रशासन को देखना था। इसी के साथ प्रशासन को इसकी समझ न होना कि कब रात को पोस्टमार्टम नही होता है यह प्रशासन पर प्रश्नचिन्ह है। हादसे के कारणों की जांच चल रही है उम्मीद है कि इस जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक रूप से आम आदमी के सामने रखा जायेगा ताकि हर आदमी अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव सरकार तक पहुंचा पाये।

घातक होगा अदालत के फैसले पर उठा विरोध

शिमला/शैल। जब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरोध में लोग सड़कों पर उत्तर आयें! सर्वोच्च न्यायालय के ही वरिष्ठतम चार जज पत्रकार वार्ता के माध्यम से अपनी बात को जनता के सामने रखने के लिये विवश हो जायें संसद में विपक्षी दल देश के चीफ जस्टिस के खिलाफ महाअभियोग लाने पर सोचने लग जायें तब निश्चित रूप से यह स्वीकारना ही होगा कि अब सही में ही देश के लोकतन्त्र पर खतरा मंडराने लगा है क्योंकि यह सब देश में इन्ही दिनो घटा है। अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार, अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत एक मामला अपील उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील में सर्वोच्च न्यायालय में आया था। सर्वोच्च न्यायालय के दो जजों पर आधारित खण्डपीठ ने इस मामले पर अपना फैसला देते हुए मूल अधिनियम में कुछ संशोधन सुझाते हुए यह प्रावधान कर दिया कि अब इस अधिनियम के तहत आयी शिकायतों पर तुरन्त गिरफ्तारी करने से पहले मामले की जांच कर ली जाये। इस जांच के साथ ही इसमें अन्तरिम जमानत का प्रावधान भी कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से पहले मामलों में जांच और अग्रिम जमानत का प्रावधान नही था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला देने से पहले इसमें केन्द्र सरकार से भी अपना पक्ष रखने को कहा था और केन्द्र ने अपना पक्ष रखा था। केन्द्र ने अपना पक्ष रखते हुए इस अधिनियम के प्रावधानों के प्रति लचीला रूख अपनाया था जिससे यह संकेत और संदेश गया कि भारत सरकार भी इसमें अब नरम रूख रखती है। इस पृष्ठभूमि में जब यह फैसला आया तो पूरे अनुसूचित जाति और जनजाति समाज में यह संदेश चला गया कि अब उनके खिलाफ अपराध बढ़ सकते हैं। इस समाज के पास ऐसी आशंका के लिये पर्याप्त आधार भी था क्योंकि पिछले दिनो गौ रक्षा आदि के नाम पर इनके खिलाफ ऐसे अपराध घट चुके हैं। इस आशंका के कारण यह समाज इस फैसले के विरोध में सड़कों पर उत्तर आया। यह विरोध कई जगहों पर हिंसक भी हो गया है। अब इस विरोध का विरोध करने के लिये उच्च जातियों के लोग भारत बन्द करने जा रहे हैं। इस बन्द के दौरान पहले से भी ज्यादा हिंसा होने की संभावनाओं की आशंका बनी हुई है।

 सर्वोच्च  न्यायालय का फैसला अनुसूचित जाति एवम् जनजाति अत्याचार निावरण अधिनियम को लेकर आया है लेकिन इस फैसले को एकदम आरक्षण के आईने में देखा जा रहा है। एकदम आरक्षण समाप्त करने की आवाज़ उठाई जा रही है। केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ रिव्यू याचिका भी दायर कर दी है जिस पर अदालत ने अपने पूर्व के फैसले पर स्टे नही दिया है। सत्तारूढ़ भाजपा के अध्यक्ष अमितशाह ने ब्यान देकर कहा है कि आरक्षण समाप्त नही होगा और किसी को भी समाप्त नही करने दिया जायेगा। अमितशाह के इस ब्यान से यह स्पष्ट हो जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का अन्तिम परिणाम एक बार फिर आरक्षण को लेकर आन्दोलन और एक बड़ी बहस होने जा रहा है क्योंकि जब से केन्द्र में मोदी सरकार आयी है तब से देश के कई राज्यों में आरक्षण को लेकर आन्दोलन सामने आ चुके हैं और हर आन्दोलन में अपने लिये आरक्षण की मांग करते हुए यह साफ कहा है कि यदि उन्हे आरक्षण नही दिया जा सकता तो अन्य का भी आरक्षण समाप्त कर दिया जाये। इसी के साथ संघ नेतृत्व भी आरक्षण पर नये सिरे से विचार करने की बात कर चुका है। स्वयं संघ प्रमुख मोहन भागवत के ब्यान इस संद्धर्भ में आ चुके हैं। आरक्षण के विरोध में स्व. वीपी सिंह सरकार के समय में यह देश एक बहुत ही भयानक आन्दोलन देख चुका है। उस समय मण्डल आयोग की सिफारिशों के विरोध में आत्मदाह तक हो चुके हैं। मण्डल  विरोध का संचालन संघ परिवार के हाथों में उसी तरह था जिस तरह अन्ना आन्दोलन का संचालन संघ परिवार के हाथों में था। वीपी सिंह की सरकार गिरने के साथ ही यह आन्दोलन थम गया था लेकिन आरक्षण अपनी जगह जारी रहा। 

आरक्षण विरोध के उस आन्दोलन के बाद केन्द्र में पहली बार भाजपा की इतने बहुमत के साथ सरकार बनी है। भाजपा और संघ पर उन परिवारों का दबाव आज भी बना हुआ है जिनके बच्चों ने आरक्षण के खिलाफ आत्मदाह किये थे। इसलिये यह स्वभाविक है कि यह लोग तो आरक्षण की समाप्ति चाहेंगे ही। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से वातावरण बन ही गया है क्योंकि इस फैसले से पहले सर्वोच्च न्यायालय की जजों पर आधारित संविधान पीठ इसी अधिनियम के प्रावधानों पर फैसला देते हुए इन्हे जायज ठहरा चुकी है। इस तरह सर्वोच्च न्यायालय के एक ही विषय पर दो अलग -अलग फैसले होने इन वर्गों को आशंकित होने का पूरा माहौल बना हुआ है। आरक्षण विरोधी भी इस फैसले की व्याख्या अपने हितों के मुताबिक करेंगें। इस तरह जो माहौल बन रहा है उससे यह लग रहा है कि आने वाले लोकसभा चुनावों में आरक्षण एक केन्द्रीय मुद्दा बनकर उभरेगा। जबकि आरक्षण के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय मण्डल आन्दोलन के समय ही इसके क्रिमी लेयर का प्रावधान कर दिया था। यदि इस क्रिमी लेयर का प्रावधान का सही में अनुपालन हुआ होता तो शायद आज आरक्षण को लेकर आन्दोलन तो दूर इस पर शायद चर्चा तक नही होती लेकिन सरकारों ने इसका पालन करने की बजाये हर बार इस लेयर का दायरा ही बढ़ाया, जबकि दूसरी हकीकत यह है कि जब से केन्द्र से लेकर राज्यों तक सरकारे कर्ज के बोझ में है और नियमित नौकरीयों की जगह पर कांट्रैक्ट और आऊट सोर्स का चलन कर दिया है तबसे सीधे नौकरीयां रही ही नहीं है और कांट्रैक्ट तथा आऊट सोर्स पर आरक्षण का अनुबन्ध लागू ही नही होता है। ऐसे में आरक्षण को लेकर चलने वाली हर बहस आन्दोलन से सरकारों को ही फायदा होगा क्योंकि कांट्रैक्ट और आऊट सोर्स तो बहस के विषय ही नही बन पायेंगे और शायद सरकार चाहती भी यही है। यह मुद्दा ही इतना बड़ा बना दिया जायेगा कि इसके सामने जम्मू कश्मीर से धारा 370 का हटाना और यूनिफाईड  सिविल कोड लाने जैसे सारे वायदे इसमें दब जायेंगे।  

चुनाव आयोग ही नही पूरी नौकरशाही पर बड़ा सवाल है अदालत का फैसला

शिमला/शैल। केन्द्र की मोदी सरकार और केन्द्र शासित दिल्ली प्रदेश की केजरीवाल सरकार में राजनीतिक टकराव इनके गठन से ही शुरू हो गया था यह हर आदमी जानता है। क्योंकि मोदी के नेतृत्व में भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनावों में अप्रत्याशित प्रचण्ड बहुमत मिला था बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि इस चुनाव के बाद ही सही मायनों में भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी बनी थी। लेकिन केन्द्र के इन चुनावों के बाद दिल्ली प्रदेश की विधानसभा के लिये चुनाव हुए और यहां पर मोदी की नाक के नीचे से आम आदमी पार्टी ने केजरीवाल के नेतृत्व मे सत्ता पर कब्जा कर लिया बल्कि भाजपा को शर्मनाक हार भी दी। जबकि दिल्ली को भाजपा का गढ़ माना जाता था। दिल्ली की यह हार भाजपा के माथे पर एक बहुत बड़ा राजनीतिक कलंक है। इस हार से असहज़ भी मोदी सरकार ने केजरीवाल सरकार को फेल करने और उसे गिराने तक का हर संभव प्रयास किया है यह भी देश के सामने है। राजनीति में सत्ता प्राप्ति ही एक मात्र लक्ष्य रहता है और इसके लिये साधनों की शुचिता कोई मायने नही रखती है। यह ईवीएम मशीनों और कैम्ब्रिज एनालिटिका पर उठे सवालों से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। लेकिन सत्ता की इस भूख के लिये जब संवैधानिक स्वायतता प्राप्त संस्थानों को साधन के रूप में इस्तेमाल किया जाने लग पड़े तो निश्चित रूप से यह मानना पडे़गा कि सही में अब लोकतन्त्र के लिय एक बड़ा खतरा पैदा हो गया है।
चुनाव आयाोग एक संवैधानिक स्वायत संस्था है। इसकी इसी गरिमा और महता के कारण इसमें देश के वरिष्ठत्तम नौकरशाहों को बतौर चुनाव आयुक्त नियुक्त किया जाता है। चुनाव आयुक्तों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की समकक्षता हासिल है और हटाने के लिये वैसी ही प्रक्रिया अपनाई जाती है। राष्ट्रपति भी चुनाव आयोग की अन्तिम राय को मानने के लिये बाध्य है। राष्ट्रपति चुनाव आयोग की किसी राय पर स्पष्टीकरण तो मांग सकता है लेकिन चुनाव से जुडे मामलों में राष्ट्रपति चुनाव आयोग की राय को खारिज नही कर सकता है। इस स्थिति से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे लोकतन्त्र में चुनाव आयोग का स्थान क्या है। इसीे गरिमा की यह मांग भी है कि चुनाव आयोग हर स्थिति में अपनी निष्पक्षता और विश्वसनीयता बनाये रखे। लेकिन आम आदमी पार्टी के बीस विधायकों को लेकर जिस तरह से चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को अपनी राय भेजी है और उस राय को दिल्ली उच्च न्यायालय ने जिस तरह से Bad in law for Failure to comply with the principles of natural justice  करार दिया है। उससे न केवल चुनाव आयोग की ही विश्वसनीयता सवालों में आ गयी है। वरन् इससे पूरे देश की नौकरशाही पर गंभीर सवाल खड़ेे हो जाते हैं। विश्वसनीयता पर लगे यह दाग लोकतन्त्र के लिये आने वाले समय में कितना बड़ा संकट बन जायेंगे इसका अन्दाजा लगाना आसान नही है। क्योंकि इससे यह संदेश गया है कि चुनाव आयोग एक संवैधानिक स्वायत संस्थान न होकर सरकार का एक contractural  कार्यालय बनकर रह गया है।
स्मरणीय है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने 13 मार्च 2015 को अपने 21 विधायकों को संसदीय सचिव नियुक्त किया था। इस नियुक्ति को राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा ने दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी। राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा का आरोप था कि नियुक्ति को उपराज्यपाल की स्वीकृति हासिल नही है क्योंकि केन्द्र शासित प्रदेश होने के नाते उपराज्यपाल की स्वीकृति अनिवार्य है। राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा की याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने 8 सितम्बर 2016 को फैसला देते हुए इन नियुक्तियों को रद्द कर दिया। इसी बीच 22.6.15 को एक वकील प्रशांत पटेल ने राष्ट्रपति को इन विधायकों के खिलाफ शिकायत भेज दी कि यह लोग लाभ का पद भोग रहे हैं इसलिये विधायक नही रह सकते। इस शिकायत को 22.7.15 को राष्ट्रपति कार्यालय के अवर सचिव ने इसे चुनाव चुनाव आयोग के ध्यानार्थ भेज दिया लेकिन 24.08.2015 को चुनाव आयोग के अवर सचिव ने इसे वापिस भेज दिया कि यह उचित संद्धर्भ पत्र नही है। इसके बाद राष्ट्रपति सचिवालय के निदेशक ने पुनः आयोग को पत्र भेजा लेकिन इस पत्रा को भी वापिस भेज दिया। इस पर तीसरी बार राष्ट्रपति सचिवालय के सचिव ने चुनाव आयोग को पत्र भेजा। इस पत्र पर चुनाव आयोग ने विधायकों को नोटिस भेजा। इस नोटिस के जवाब में फैसले का इन्तज़ार किया जाये। यह फैसला 8 सितम्बर 2016 को आया और उसके बाद अगली कारवाई शुरू हुई। जिसमें उत्तर और एतराज आदि चले। इसी बीच चुनाव आयुक्त ओपी रावत कुछ विधायकों ने पक्षपात का आरोप लगा दिया। इस आरोप से आहत होकर 19.4.17 को रावत ने अपने को इस मामले से अलग कर लिया। इसके बाद 23.6.17 को आयोग ने विधायकों के एतराजों को अस्वीकार करते हुए यह आदेश किया कि मामले की सुनवाई के लिये अगली तारीख तय की जायेगी और उसकी सूचना इन विधायकों को दे दी जायेगी लेकिन 23.6.17 के बाद मामले की सुनवाई के लिये न कोई तारीख लगी और न ही उसकी कोई सूचना इन विधायकों को दी गयी।
इसके बाद सीधे 19.1.18 को चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति को भारी भरकम राय भेज दी। इस राय पर मुख्य चुनाव आयुक्त ए केे ज्योति, चुनाव आयुक्त ओपी रावत और चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा तीनों के हस्ताक्षर दर्ज है। चुनाव आयोग की इस सिफारिश पर 20.1.18 को राष्ट्रपति ने भी अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी और इन विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी गयी। इस पर विधायकों ने चुनाव आयोग की राय को इस आधार पर चुनौती दी कि जब ओपी रावत ने 19.4.17 को अपने को मामले से अलग कर लिया था तो इनको सुचित किये बिना वह मामले से पुनः संवद्ध कैसे हो गये क्योंकि इसी अलग होने के कारण वह 23.6.17 के आदेश में हस्ताक्षरी नहीं है। फिर 23.6.17 के बाद कब मामले की तारीख लगी और उनको सूचना क्यों नही दी गयी। फिर 19.1.18 को ही तीसरे चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने आयोग में पदभार ग्रहण किया है। उनके सामने कभी मामले की सुनवाई हुई ही नही है। वह मामले से संवद्ध रहे ही नही है ऐसे में वह 19.1.18 के फैसले में हस्ताक्षरी कैसे हो सकते हैं। इससे प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त की उल्लंघना होती है।
दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने 79 पृष्ठों के फैसले में ऐसे सवाल खड़े किये जिनसे चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पूरी तरह धूल में मिल जाती है। ऐसा लगता हैं कि इन विधायकों को येन केन प्रकारेण विधानसभा से बाहर करने के लिये आयोग पर कोई बड़ा दबाव था। लोकतन्त्र की रक्षा के लिये आयोग के इस आचरण पर एक बड़ी बहस उठनी चाहिये ताकि नौकरशाही भविष्य में इस तरह का आचरण करने से पहले कुछ विचार अवश्य कर ले। जिन चुनाव आयुक्तों की निष्पक्षता पर सवाल उठे हैं उन्हे नैतिकता के आधार पर स्वयं ही देशहित में अपने पदों से त्यागपत्र दे देना चाहिये।

पत्रकार कितना सुरक्षित

दिव्य हिमाचल के शिमला स्थित व्यूरोे चीफ सुनील शर्मा का 19 मार्च को शिमला में उनके आवास पर ह्रदयगति रूक जाने से देहान्त हो गया है। 47 वर्षीय पत्रकार का इस तरह असमय निधन हो जाना उनके परिवार के लिये तो एक ऐसी क्षति है जिसकी भरपाई हो पाना कतई संभव नही है। लेकिन यह निधन पत्रकार जगत के लिये भी आसानी से भुला दी जाने वाली घटना नही है। वैसे तो मौत एक निश्चित सच है लेकिन इसके वक्त और बहाने की जानकारी किसी को भी नही हो पाती है। यही रहस्य जीवन को चलाये रखने का भी माध्यम रहता है यह भी सच है। ईश्वर सुनील शर्मा केे परिवार को इस दुख को सहने की शक्ति प्रदान करे यही प्रार्थना है।
सुनील शर्मा के निधन का समाचार जैसे ही फैला सारे पत्रकार उनके आवास पर पंहुच गये। पत्रकारों के साथ ही लोक संपर्क विभाग के निदेशक और अन्य अधिकारी तथा मीडिया सलाहकार भी पंहुच गये। मुख्यमन्त्री और शिक्षा मन्त्री भी परिवार के साथ दुःख बांटने पंहुचे। लोक संपर्क विभाग ने सुनील शर्मा के पार्थिव शरीर को अन्तिम संस्कार के लिये बिलासपुर ले जाने हेतु पूरे प्रबन्ध किये। जिलाधीश शिमला ने भी इसमें पूरा सहयोग दिया। मुख्यमन्त्री जब शोक व्यक्त करने के बाद वापिस लौटे तो पत्रकारों ने उनसे आग्रह किया कि सुनील शर्मा के परिवार को सहायता देने के लिये सरकार को कुछ व्यवस्था करनी चाहिये। इस व्यवस्था के नाम पर सुनील शर्मा की विधवा को सरकार में कोई समुचित नौकरी दिये जाने की मांग रखी है। प्रैस क्लब में शोक सभा करने के बाद पत्राकारों का एक प्रतिनिधि मण्डल इस संबंध में मुख्यमन्त्री से मिला भी है। मुख्यमन्त्री ने इस संबध में आवश्यक कदम उठाने का आश्वासन भी दिया है।
सुनील शर्मा एक दैनिक समाचार पत्र के ब्यूरो चीफ थे। मीडिया को लोक तन्त्र का चैथा खम्भा माना जाता है। सरकार मीडिया को एक अरसे से सुविधाएं देने का दावा करती आ रही है। सुविधा के नाम पर ही प्रैस क्लब के लिये कार्यालय का स्थान दिया गया है। अब ज़मीन भी दी गयी है और उस पर निर्माण के लिए आर्थिक सहायता भी दी गयी है। पत्रकार हाऊसिंग सोसायटी के नाम जगह दी गयी जहां पत्रकार विहार का निर्माण हुआ है। इस पत्रकार विहार में कितने पत्रकारों के आवास है। कितने पत्रकार वास्तव में ही वहां रह रहे हैं और कितनो ने वहां पर अन्य गतिविधियां चला रखी हैं। कितनों को वहां पर प्लाटों का सही आवंटन हुआ है। इस सबको लेकर राज्यपाल के पास एक शिकायत भी पंहुची हुई है। राज्यपाल ने इस शिकायत को सरकार को कारवाई के लिये भेज दिया है। आज सुनील शर्मा के निधन के साथ इस सारे प्रंसग को इसलिये उठा रहा हूं कि इससे अन्दाजा लगाया जा सकता है कि क्या वास्तव में ही पत्रकारों को सुविधा मिल रही है या नही। क्योंकि यदि वास्तव में ही यह सुविधा मिल रही होती तो सुनील शर्मा की विधवा के लिये नौकरी मांगने की आवश्यकता न आती। पत्रकार हाऊसिंग सोसायटी की तरह कर्मचारियों /अधिकारियों विधायकों एवम् अन्य की हाऊसिंग सोसायटीयां है। इसलिये इसे पत्रकारों को सुविधा देना नही कहा जा सकता। प्रैस क्लब भी इस तरह सुविधा में नही गिना जा सकता। स्वास्थ्य चिकित्सा के नाम पर बीमा सुविधा एक सुविधा है लेकिन इसका लाभ बिमारी की सूरत में ही है।
इसलिये यदि सरकार और समाज वास्तव में ही मीडिया को लोकतन्त्र का चैथा स्तम्भ मानता है तो इसे मजबूत करने और सुरक्षा प्रदान करने की आवश्यकता है। मीडिया को भी व्यवहारिक तौर पर लोकतन्त्र के एक सजग प्रहरी की भूमिका में आना होगा। आज मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठते जा रहे हैं। ग्लोबल ट्रस्ट इंडेक्स द्वारा पिछले दिनों किये गये सर्वे के अनुसार मीडिया और सरकार पर जनता के भरोसे में लगातार कमी आती जा रही है। कैम्ब्रिज ऐनेलिटिका और फेसबुक को लेकर विश्वस्तर पर अभी जो बहस उठी है वह एक गंभीर सवाल खड़ा करती है। पिछले चुनावों में कैम्ब्रिज ऐनेलिटिका का इस्तेमाल करने पर भाजपा और कांग्रेस दोनो एक दूसरे पर गंभीर आरोप लगा रहे हैं। फेसबुक को लेकर भी इन दोनों पार्टियों ने गंभीर आशंकाएं व्यक्त की हैं और फेसबुक को चेतावनी भी जारी की है। मीडिया जब अपनी सही भूमिका को छोड़कर कवेल व्यापार बनकर काम करता है प्रायोजित हो जाता है तब अन्ततः समाज और सरकार दोनो का ही अहित होता है। आज मीडिया पर पंूजीपति घरानो का कब्जा बढ़ता जा रहा है। अब तो सरकार ने मीडिया में विदेशी निवेश को पूरी छूट दे दी है। इस परिदृश्य मंे पत्रकार कितनी देर अपनी निष्पक्षता को बनाये रखेगा यह एक बड़ा सवाल खड़ा होता जा रहा है।
पत्रकार जब अपनी निष्पक्षता को छोड़कर केवल प्रायोजित माऊथपीस होकर रह जाता है तब वह जनता का भरोसा खोना शुरू कर देता है। हमारेे ही प्रदेशों में इसका स्पष्ट उदाहरण है कि शान्ता, वीरभद्र और धूमल तीनो के ही गिर्द एक पत्रकार विशेष का वर्ग घूमता रहा है। इनका सलाहकार होने का दावा करता है। मीडिया सरकारों को सर्वश्रेष्ठता के आवार्ड देता रहा है लेकिन इस सबका परिणाम यही रहा कि कोई भी लगातार दूसरी बार सत्ता में वापसी नही कर पाया। सबके घोषित अघोषित मीडिया सलाहकार रहे हैं और परिणाम सबके सामने रहा है। आज इस दुःखद अवसर पर यह सारा प्रसंग उठाने की आवश्यकता इसलिये मान रहा हूं कि जयराम सरकार ने भरोसा दिया है कि वह इस परिवार की सहायता के लिये अवश्य ही कुछ करेंगे। इसलिये यह आशा और आग्रह है कि इस सद्धंर्भ में कोई स्थायी नीति बनाई जाये जो स्वतः ही हर पत्रकार पर लागू हो जाये। किसी के लिये भी अलग से कोई आग्रह न करना पड़े। इसके लिये सरकार को अपनी मीडिया पाॅलिसी पर नये सिरे से विचार करना होगा जिसमें मीडिया के दुरूपयोग भी स्वतः ही रूक जाये इसके लिये अलग से चिन्ता करने की आवश्यकता ही न रहे। आज सुनील की विधवा के लिये रोज़गार मांगने की आवश्यकता क्यों आ रही है क्योंकि जिस घराने में वह काम कर रहे थे उसकी ओर से ऐसा कोई ऐलान नही आया है।

बाजार बनते जा रहे हैं निजी स्कूल

प्रदेश में चल रहे निजी स्कूलों ने इस शैक्षणिक सत्र से 15% फीसें बढ़ा दी हैं। अभिभावक इस फीस वृद्धि से परेशान ही नही आतंकित हैं। फीस ही नही यह स्कूल अब किताबें और वर्दीयां भी अपरोक्ष में बेच रहे हैं क्योंकि इसके लिये कुछ ही दुकानें चिन्हित की जाती हैं। वर्दी आदि में अकसर कोई न कोई छोटा सा बदलाव कर दिया जाता है। जिसके कारण हर साल यह वर्दी नयी लेनी पड़ती है। अपने आप कपड़ा लेकर अभिभावक खुद वर्दी सिला नही सकते। इसलिये उस चिन्हित दुकान से ही यह सब कुछ लेना पड़ता है। किताबें-काॅपियां भी स्कूल से लेनी पड़ती है और उन पर जिल्द चढ़ाने का काम अभिभावकों को स्वयं करना होता है। स्कूल या चिन्हित दुकान द्वारा दिये जा रहे सामान की गुणवत्ता पर कोई सवाल पूछने का असर बच्चे पर पड़ता है। उसे एक तरह से प्रताड़ित किया जाता है। पढ़ाई के स्तर की स्थिति यह रहती है कि यदि अभिभावक खुद घर में न पढ़ायें तो बच्चा स्कूल में चल ही नही सकता। क्योंकि होम वर्क और टेस्ट का इक्ट्ठा इतना बोझ बच्चे पर आ जाता है कि दोनों काम एक साथ कर पाना स्वभाविक रूप से संभव ही नही हो सकता। हर रोज बच्चे की नोट बुक पर कोई न कोई नोट रहता है लेकिन बच्चे को गलती पर समझाया नही जाता है कि यह गलती है और इसका सही यह है। यह व्यवहारिक स्थिति लगभग सभी स्कूलों की है।
आज आर्य समाज, डीएवी (दयानन्द ऐंग्लो वैदिक) और दयानन्द पब्लिक नाम से अलग-अलग संस्थाएं हो गयी हैं जो कभी एक ही हुआ करती थी। यह कब और क्यों अलग-अलग हुई मैं इसमें नही जाना चाहता। यह संस्थाएं इंग्लिश पब्लिक स्कूलों के विकल्प के तौर पर आयी थी और कुछ समय तक सही में इन्होनंे इस दिशा में काम भी किया है। लेकिन आज यह सारी व्यापारिकता इन संस्थाओं के स्कूलों में इस कदर आ गयी है कि इंग्लिश स्कूलों को भी इन्होनें पीछे छोड़ दिया है। पिछले दिनों शिमला के लक्कड़ बाज़ार स्थित डीएवी स्कूल की नौंवी कक्षा केे विद्यार्थी को लेकर अभिभावकों ने मीडिया में भी दस्तक दी थी। सरोकार था कि इस क्लास के बीस छात्र वार्षिक परीक्षा परिणाम में फेल दिखा दिये गये। इनके अभिभावक इक्ट्ठे हुए और उन्होने स्कूल से प्रार्थना की कि उनके बच्चों की छुट्टियांे के बाद फिर से परीक्षा ले ली जाये। काफी अनुनय-विनय के बाद स्कूल इसके लिये सहमत हो गया। बच्चों ने छुट्टियों में और मेहनत की फिर परीक्षा दी लेकिन इस बार फिर सारे बच्चे पहले से भी ज्यादा अन्तर से फेल हो गये। इस पर अभिभावकों ने स्कूल से इनके पेपर दिखाने का आग्रह किया। लेकिन इस आग्रह को माना नही गया। पेपर न दिखाने का कोई ठोस कारण भी नही बताया गया। यह एक निजी स्कूल है सरकारी तन्त्र का इसमें कोई दखल नही है। इस कारण से इन अभिभावकों के पास स्कूल की इस हठधर्मी का कोई ईलाज नही है। सिवाय इसके कि वह बच्चों को यहां से निकालकर कहीं और ले जायें और फिर दूसरा स्कूल इन फेल बच्चों को अपने यहां दाखिला क्यों दे इसकी कोई गारंटी नही। ऐसे में अभिभावकों की पीड़ा का अनुमान लगाया जा सकता है क्योंकि इन्होनें हजा़रो रूपये इन पर खर्च किये हैं। इसी तरह पिछले वर्ष शैमराॅक स्कूल को लेकर भी अभिभावक शिकायत कर चुके हैं।
इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि नर्सरी के बच्चे की फीस 42000 रूपये जायेगी तो अगली क्लासों में यह कहां तक बढे़गी और जिन माता-पिता को दो बच्चांे की फीस ऐसी देनी पडे़गी उनकी हालत क्या हो जायेगी। प्रदेश में जब कई निजी विश्वविद्यालय धूमल शासन में खुले थे तब इनके विरोध में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् जैसे छात्र संगठन ने भी सवाल उठाया था कि शिक्षा का बाजा़रीकरण कब तक। हर संवदेनशील व्यक्ति ने इसका समर्थन किया था। आज संयोगवश प्रदेश के मुख्यमन्त्री और शिक्षा मंत्री से लेकर कई अन्य मन्त्री और विधायक इसी छात्र संगठन से जुड़े रहे हैं। इस नाते यह लोग इस पीड़ा को आसानी से स्वयं समझ सकते हैं कि सही में स्कूल शिक्षा कितनी मंहगी होती जा रही है और यह मंहगा होना ही इसका बाज़ारीकरण है।
अब सवाल उठता है कि इसका हल क्या है। इसके लिये सबसे पहले यह मानना होगा कि आज रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी आवश्यकताओं में शिक्षा और स्वास्थ्य भी शामिल हो गया है। रोटी,कपड़ा और मकान अपने में एक बहुत बड़ा बाज़ार बन चुका है क्योंकि भीख मांगने वाले से लेकर अरबपति तक यह सबकी एक बराबर आवश्यकता हैं। शिक्षा भी अब ऐसी ही आवश्यकता हो गयी है। रोटी और मकान की सुनिश्चितता के लिये सस्ते राशन और सस्ते मकान तक सरकार कई योजनाएं ला चुकी हैं। इन योजनाओं का देश की अर्थव्यवस्था पर उपदानों और अनुदानों के माध्यम से कितना बड़ा असर पड़ा है यह अलग से एक विस्तृत चर्चा का विषय है और इस पर चर्चा चल भी पड़ी है। लेकिन क्या शिक्षा को भी उसी स्तर का बाज़ार बनने दिया जा सकता है। क्योंकि रोटी, कपड़ा और मकान में तो स्तर भेद हो सकता है। एक आदमी एक कमरे के मकान में भी गुजारा कर सकता है। साधारण खाना खा सकता है, दूसरे को बड़ा बंगला और फाईव स्टार का खाना चाहिये। लेकिन शिक्षा में ऐसा नही है। सारी शिक्षा का परीक्षा नियन्त्रण अलग-अलग बोर्डों के पास है। इन बोर्डों का पाठ्यक्रम और परीक्षा पेपर सबके लिये एक जैसा ही रहता है। अभी तक किसी भी नीजि स्कूल को अपने में एक अलग बोर्ड के रूप में मान्यता नही है। सरकारी स्कूल और निजी स्कूल के छात्र के लिये अलग-अलग परीक्षा पेपर नही होते हैं। ऐसे में इन स्कूलों की फीस का ढंाचा एक सा क्यों नही रखा जा सकता। क्योंकि अन्तिम कसौटी तो परीक्षा का परिणाम ही है। उसमे यह कोई मायने नही रखता की किसकीे पढ़ाई सरकारी स्कूल से और किसकी नीजि स्कूल से हुई है। आज के निजी स्कूल तो समाज में केवल वर्ग भेद पैदा करने के माध्यम होकर रह गये हैं। इन स्कूलों ने शिक्षा को एक बड़ा बाज़ार बनाकर रख दिया है। क्योंकि हरेक के बच्चे को अच्छी शिक्षा चाहिये और अच्छी शिक्षा की कसौटीे परीक्षा परिणाम की जगह यह हो गया है कि किसने कितने मंहगे स्कूल में शिक्षा ली है। यदि इस स्थिति को समय रहते न नियन्त्रित किया गया तो इसके परिणाम भयानक होंगे।

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