इस समय प्रदेश अवैध कब्जों और निर्माणों की समस्या से जूझ रहा है। यह समस्याएं कितना विकाशल रूप धारण कर चुकी हैं इसका आकलन इसी से किया जा सकता हैं कि यह मुद्दे आज सरकार से निकलकर अदालत तक पंहुच चुके हैं। अवैध कब्जे छुड़ाने के लिये उच्च न्यायालय को सेना को यह जिम्मेदारी देने की नौवत आ गयी। अवैध निर्माणों पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अनुपालना सुनिनिश्चत करने के लिये गोली चल गयी जिसमें दो लोगों की मौत हो गयीं यह मसले एक लम्बे अरसे से अदालतों में चले आ रहे थे। अदालतों तक इसलिये मामलें पंहुचे थे क्योंकि लोगों ने इस संद्धर्भ में सरकार द्वारा ही बनाये गये नियमों/कानूनों को अंगूठा दिखाते हुए अवैध कब्जों और अवैध निर्माणों को अंजाम दिया था। जब यह अवैधताएं हो रही थी तब संवद्ध प्रशासन ने इस ओर से ऑंखे मूंद ली थी। अवैध कब्जों को नियमित करने के लिये तो वर्ष 2000 में एक पॉलिसि तक बना दी गयी थी। इसके तहत अवैध कब्जाधारकों से वाकायदा आवेदन मांगे गये थे और 1,67000 आवदेन आ गये थे लेकिन प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस योजना पर रोक लगा दी थी। आज उसी न्यायालय ने एक ईंच से अवैध कब्जे हटाने के आदेश कर दिये हैं। अवैध कब्जों में ऐसे-ऐसे कब्जे सामने आये हैं जहां लोगों ने सैंकड़ों -सैकड़ों बीघे पर कब्जे किये हुए थे। इन कब्जों को हटाने के लिये एसआईटी तक का गठन करना पड़ा है।
यह अवैध कब्जे कई दशको से चले आ रहे थे। वर्ष 2000 से तो वाकायदा शपथपत्रों के साथ सरकार के रिकार्ड और संज्ञान में आ गये थे। लेकिन सरकार ने इन्हे हटाने के लिये कोई कारगर कदम नही उठायें जबकि जो काम आज उच्च न्यायालय को करना पड़ा है यह काम तो कायदे से सरकार को करना चाहिये था। कांग्रेस और भाजपा दोनो की ही सरकारें सत्ता में रही है। दोनो की ही सरकारें कानून का शासन स्थापित करने में बुरी तरह असफल ही नही पूरी तरह बेईमान रही है।
प्रदेश में 1977 से टीपीसी एक्ट लागू हैं यह अधिनियम इसलिये लाया गया था ताकि पूरे प्रदेश में सुनियोजित निर्माणों को अंजाम दिया जा सके। नगर एवम् ग्राम नियोजन विभाग को यह जिम्मेदारी दी गयी थी कि वह प्रदेशभर के लिये एक सुनिश्चित विकास योजना तैयार करे। इस जिम्मेदारी के तहत 1997 में एक अन्तरिम प्लान अधिसूचित किया गया था। इस प्लान में परिभाषित किया गया था कि किस एरिया में कितना मंजिल का निर्माण कैसा किया जा सकता है और उस निर्माण के अन्य मानक क्या रहेंगे यह सब उस अन्तरिम प्लान में समायोजित था। इस प्लान की अनुपालना सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी नगर निगम पालिका आदि स्थानीय निकायों के साथ नगर एवम् ग्राम नियोजन विभाग को सौंपी गयी थी। जहां कहीं विशेश नगर/कालोनी बनाने -बसाने की योजनाएं बनाई गयी थी वहां पर इस अधिनियम की अनुपालना सुनिश्चित करने के लिये साडा का गठन करने का भी प्रावधान किया गया था। लेकिन यह सब होते हुए भी आज प्रदेया के हर बडे़ शहर में अवैध खड़ें हैं क्योंकि 1979 से लेकर 2018 तक नगर एवम् ग्राम नियोजन विभाग प्रदेश को एक स्थायी विकास योजना नही दे पाया हैं यही अन्तरिम प्लान में ही अठारह बार संशोधन किये गये है। नौ बार तो रिटैन्शन पॉलिसियां लायी गयी है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस मुद्दे पर भी कांग्रेस और भाजपा दोनों की ही सरकारें बराबर की दोषी रही हैं। अवैध निर्माणों की स्थिति यह है कि यदि कल को राजधानी शिमला में ही भूकंम्प का ठीक सा झटका आ जाता है तो 50%भवन क्षतिग्रस्त हो जायेंगे और 30,000 से ज्यादा लोगों की जान जा सकती है। अवैध निर्माण शिमला , कसौली, कुल्लु, मनाली ओर धर्मशाला में खतरे की सीमा से कहीं अधिक हो चुके है। अवैध निर्माणों पर प्रदेश उच्च न्यायालय एनजीअी और सर्वोच्च न्यायालय कड़ा संज्ञान लेकर इन्हें गिराने के आदेश जारी कर चुके है। एनजीटी ने नये निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगा रखा हैं प्रदेश सरकार ने एनजीटी के फैसले पर एक रिव्यू याचिका दायर की थी जो अस्वीकार हो चुकी है। लेकिन राज्य सरकार इस बारे मे सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर करने की बात कर रही हैं मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने पिछले दिनों कुल्लु-मनाली के अवैध निमाणों के दोषियों को यह आश्वासन दिया है कि इन अवैध निर्माणों को कानून के दायरे में लाकर उन्हे राहत प्रदान करेंगीं मुख्यमन्त्री जयराम का यह आश्वासन ओर प्रयास इन अवैधताओं को रोकने में नही बल्कि इन्हे प्रात्साहित करने वाला होगा। मुख्यमन्त्री को यह स्मरण रखना होगा कि दनकी पूर्ववर्ती सरकारें भी अन्तरिम प्लान में बार- बार संशोधन करके और रिटैन्शन पॉलिसियां लाकर इन्हे बढ़ावा ही देती रही हैं आज यदि जयराम ठाकुर भी ऐसा ही प्रयास करेंगे तो उनका नाम भी उसी सूची में जुड़ जायेगा और वह भी भविष्य के बराबर के दोषी बन जायेंगे। जयराम के साथ भी यह जुड़ जायेगा कि वह भी कानून का शासन स्थापित करने में असफल ही नहीं वरन् पूर्ववर्तीयों की तरह बेईमान रहे हैं। सरकार का अपना आपदा प्रबन्धन इस बारे में आंकड़ो सहित गंभीर चेतावनी दे चुका है। एनजीटी के पास जब निर्माणों की अनुमतियां मांगने की कुछ सरकारी विभागों की याचिकाएं गयी थी तब इन्हें अस्वीकार करते हुए एनजीअी ने शिमला पर और निर्माणों का बोझ डालने की बजाये इन कार्यालयों को ही प्रदेश के दूसरे भागों में ले जाने का सुझाव दिया है। आज आवश्यकता इन अवैध निर्माणों के खिलाफ कठोर कदम उठाने की है न कि इन्हें कानून के दायरे में लाकर राहत प्रदान करने की।
भीड़ हिंसा की बढ़ती घटनाओं पर सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ी चिन्ता व्यक्त करते हुए सरकारी तन्त्र को कड़े निर्देश देते हुए सरकार को भी कहा है कि वह इन घटनाओं को रोकने के लिये कानून बनाये। जब शीर्ष अदालत ने यह निर्देश जारी किये उसी दिन झारखण्ड में भीड़ ने सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश पर हमला कर दिया। हमला करने वाले जयश्रीराम के नारे लगा रहे थे। इस घटना के बाद अलवर में हिंसक भीड़ ने एक व्यक्ति की जान ले ली। इस भीड़ में शामिल लोग भी अपने को स्थानीय विधायक के आदमी होने का दम्मभर रहे थे। यह दोनां घटनाए संसद में उठी और विपक्ष ने इस पर सरकार को घेरा। शीर्ष अदालत जब ऐसी घटनाओं पर चिन्ता व्यक्त करते हुए निर्देश तक जारी कर चुकी हो तब मामले की गंभीरता का अन्दाजा लगाया जा सकता है। इसलिये यह उम्मीद की जा रही थी कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इस पर संसद में चर्चा होगी। लेकिन इस विषय पर उठी बहस का जबाव गृहमन्त्री राजनाथ सिंह ने यह कहकर दिया कि देश 1984 में भीड़ हिंसा का सबसे बड़ा ताण्डव देख चुका है और आज की हिंसा उसके मुकाबले में कही कम है। इस बहस में एक दूसरे पर आरोप लगाने के अतिरिक्त कुछ भी सामने नही आया है। यही नही संसद के बाहर आरएसएस नेता इन्द्रेश कुमार ने तो यहां तक कह दिया कि यदि लोग वीफ खाना और गाय को मारना छोड़ दे तो इस तरह की घटनाएं अपने आप ही बन्द हो जायेगीं।
आज केन्द्र में भाजपा की सरकार है इस नाते इन घटनाओं पर सबसे पहला सवाल उसी से पूछा जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कानून बनाने के निर्देश दिये हैं तो उनकी अनुपालना भी मोदी सरकार को ही करनी है। अलवर की घटना के बाद एक और घटना घट गयी है। कुल मिलाकर एक ऐसा वातावरण बनता जा रहा है कि जहां आदमी को आदमी से ही डर लगने लग गया है। कानून का डर बिल्कुल खत्म होता जा रहा है। जब कानून का डर खत्म हो जाये और आदमी को आदमी से ही डर लगने लगे तथा भीड़ कहीं भी किसी की हत्या कर दे तो ऐसी स्थिति को ‘‘सिविल वार’’ के संकेतक माना जाता है। आज गोरक्षा के नाम पर भीड़ को हिंसक होने के लिये एक तरह से लाईसैन्स मिल गया है। कानून का डर खत्म हो चुका है इसका प्रमाण बढ़ती बलात्कार की घटनाएं है। निर्भया कांड के बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और अरूणाचल प्रदेश बलात्कार के दोषियों को मौत की सजा़ देने का प्रावधान कर चुकी है और भी कई राज्य ऐसे ही कानून लाने की बात कर चुके हैं। मौत से बड़ी कोई सज़ा नही हो सकती है लेकिन यह सब होने के बाद भी बलात्कार की घटनाएं खत्म नही हुई है। कानून का जब डर खत्म हो जाता है व समाज में अराजकता का माहौल खड़ा हो जाता है जो किसी भी सभ्य समाज के लिये एक घातक स्थिति हो जाती है।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसा हो क्यां रहा है। यह एक स्थापित सत्य है कि "Justice delayed is justice denied" देर से मिला न्याय न मिलने के ही बराबर होता है। हमारे देश में अभी तक व्यवस्था नही हो पायी है कि आपराधिक मामले के फैसले एक निश्चित समय सीमा के भीतर आ पायें। 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो माहौल खड़ा हुआ था उसी के कारण इस तरह का सत्ता परिर्वतन देखने को मिला था। उस समय लोकपाल की व्यवस्था लाने के लिये पूरा देश आन्दोलित हो उठा था। अन्ना हजा़रे, स्वामी राम देव, किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल उस आन्दोलन के सबसे बड़े चेहरे बन गये थे। सरकार को लोकपाल विधेयक संसद में लाना पड़ा था मोदी और केजरीवाल की सरकारें इसी आन्दोलन का प्रतिफल हैं। आज मोदी प्रधानमन्त्री हैं, केजरीवाल मुख्यमन्त्री हैं। किरण बेदी उपराज्यपाल, अन्ना हजारे सुरक्षा कवच लेकर बैठ गये हैं और स्वामी राम देव एक स्थापित उद्योगपति हो गये हैं। लेकिन अब तक देश को लोकपाल नही मिल पाया है। मोदी सरकार इसके लिये वांछिच्त कमेटीयों का गठन नही कर पायी है। सर्वोच्च न्यायालय इस पर भी अपनी नाराज़गी जाहिर कर चुका है। यही नही भ्रष्टाचार निरोधक कानून का जो नया रूप कुछ दिनों में अधिसूचित होने जा रहा है उसके लागू होने के बाद किसी भी भ्रष्टाचारी को आसानी से सज़ा नही मिल पायेगी। इस कानून में संशोधन का प्रारूप 2013 में तैयार हुआ था जिसे अब मोदी सरकार ने लोकसभा और राज्यसभा से पारित करवाया है। उम्मीद थी की इसमें कुछ नये कड़े उपबन्ध जोड़े जायेंगें लेकिन ऐसा नही हुआ है। इससे भ्रष्टाचार और अपराध पर सरकार की सोच और गंभीरता का अन्दाजा लगाया जा सकता है।
2014 लोकसभा चुनावों में भाजपा ने एक भी मुस्लिम को टिकट नही दिया था। अब गो हिंसा को लेकर जो वातावरण खड़ा किया जा रहा है और उसके लिये एक वर्ग विशेष को ही जिम्मेदार ठहराने की नीति चल रही है इससे ध्रुवीकरण के लिये एक और भी ठोस ज़मीन तैयार की जा रही है। गोरक्षा के नाम पर की जा रही हिंसा को जब जयश्रीराम के नारे के आवरण में परोसा जायेगा तो एकदम सारा आयाम ही बदल जायेगा अगला पूरा चुनाव इसी गोरक्षा के नाम पर केन्द्रित किये जाने की पूरी-पूरी संभावना बनती जा रही है। जबकि मंहगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार जैसे गंभीर सवाल आज भी उसी धरातल पर खड़े हैं जहां 2014 में थे। आज अन्तर केवल इतना है कि आने वाला चुनाव इन बुनियादी मुद्दों पर न लड़ा जाये। उसके लिये गोरक्षा और आरक्षण जैसे मुद्दे खड़े किये जा रहे हैं। क्योंकि यदि गोरक्षा सही में एक प्रमुख मुद्दा है तो उसकी हत्या के खिलाफ कानून क्यों नही लाया जा रहा है जबकि संसद में पूरा बहुमत है फिर जो ऐसे कानून का विरोध करेगा वह स्वयं जनता के सामने नंगा हो जायेगा। लेकिन जब कानून बन जायेगा तब सब कुछ कानून के अनुसार होगा भीड़ के अनुसार नही। कानून बन जाने के बाद भीड़ की हिंसा की वकालत नही हो पायेगी।
शिमला/शैल। क्या देश अराजकता की ओर बढ़ रहा है? यह सवाल अभी कुछ दिन पहले झारखण्ड के पाकुड में लिट्टीपाड़ा में सामाजिक कार्यकर्ता स्वार्थी अग्निवेश पर भीड़ द्वारा किये गये हमले के बाद फिर से चर्चा में आ गया है। क्योंकि हमला करने वाली भीड़ साथ में जय श्री राम के नारे भी लगा रही थी। इन नारों से सीधा यह संदेश गया है कि हमला करने वाले लोग संघ-भाजपा से ताल्लुक रखते हैं। केन्द्र में भी भाजपा की सरकार है और झारखण्ड में भी। इसीलिये यह लोग अपने को कानून से ऊपर मानकर क्या कानून हाथ मे लेकर जांच, फैसला और सज़ा सबकुछ एक साथ मौके पर ही कर दे रहे हैं। पुलिस और प्रशासन ऐसे मामलो मे लाचारगी की भूमिका से बाहर नही आ पाया है। पिछले डेढ़ वर्ष में देश के विभिन्न भागों में भीड़ ने तैतीस लोगों को मौत के घाट उतार दिया है। यह घटनाएं कम होने की बजाये लगातार बढ़ती जा रही है। स्वामी अग्निवेश पर हुए हमले की निन्दा संघ- भाजपा की ओर से कोई प्रभावी ढंग से सामने नही आयी है और यह खामोशी पूरे मामले को कुछ और ही अर्थ दे जाती है
भीड़ के हिंसक होने को लेकर महात्मा गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी और कांग्रेस नेता तहसीन पूनावाला ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका भी दायर की थी। इस याचिका पर ठीक उसी दिन फैसला आया है जिस दिन स्वामी अग्निवेश पर भीड़ ने जानलेवा हमला किया। स्वामी अग्निवेश पर यह आरोप था कि उन्होंने हिन्दुओं के खिलाफ बोला है। स्वामी अग्निवेश एक समारोह में भाग लेने गये थे। समारोह में भाग लेकर जब वह सभागार से बाहर निकले अपनी गाड़ी में बैठकर जाने के लिये तभी भीड़ ने उनपर हमला कर दिया। सभागार में स्वामी अग्निवेश ने क्या बोला और वह हिन्दुओं के खिलाफ था तथा इसके लिये उन्हे यहीं मौके पर ही बिना उनका पक्ष जाने सजा देनी है यह फैसला कुछ ही क्षणों मे उस भीड़ ने ले लिया जो शायद स्वयं सभागार में उपस्थित भी नही थी। जब भीड़ इस तरह से कानून अपने हाथ में लेकर सड़कों पर फैसले करने लगेगी तो फिर देश में कानून, पुलिस, प्रशासन और अदालत के लिये कहां जगह रह जाती है। यह सबसे बड़ा और गम्भीर सवाल उभरकर सामने आता है। पिछले डेढ़ वर्षे में बल्कि यह कहना ज्यादा संगत होगा कि नोटबंदी के बाद देश में इस तरह की घटनाओं में अचानक बाढ़ आ गयी है। गो रक्षा, गो काशी, बच्चा चोरी और अमुक समुदाय के लोगों ने अमुक समुदाय के व्यक्ति को मार दिया जैसी फर्जी घटनाओं की अफवाह फैलते ही इनके नाम पर अचानक भीड़ इकट्ठा हो जाती है और हिंसक होकर किसी की भी जान ले लेती है लेकिन आज तक भीड़ के हिंसक होने के लिये फैली किसी भी अफवाह की पुष्टि नही हो पायी है कि वास्तव में रोष का कारण बनी सूचना अफवाह नही सच्ची घटना थी। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसी झूठी खबरें एक मकसद के साथ फैलायी जाती हैं ताकि दो समुदायों/वर्गों के बीच ऐसी नफरत फैल जाये कि वह उस खबर के स्त्रोत और सत्यता को जांच के बिना ही हिंसक होकर किसी की जान ले ले।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस भीड़ हिंसा का कड़ा संज्ञान लेकर इसको रोकने के उपाय करने के लिये सरकारों को कड़े निर्देश दिये हैं। इन निर्देशों की अनुपालना सुनिश्चित करने के लिये चार सप्ताह के भीतर रिपोर्ट भी तलब की है। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी अफवाहों के लिये सोशल मीडिया को सबसे बड़ा जिम्मेदार माना है। घृणा, नफरत फैलाने वाले पोस्टों पर कड़ी निगरानी रखते हुए ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ी कारवाई करने के भी निर्देश दिये हैं। उम्मीद की जानी चाहिये कि सरकार और उसका तन्त्र तुरन्त इस दिशा मे प्रभावी कदम उठायेगा। यहां पर एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि जो लोग सोशल मीडिया में यह सब फैला रहे हैं उनका संरक्षक कौन है? जब इस पर विचार करते हैं तो तुरन्त सत्तारूढ़ और विपक्ष की ओर से ध्यान जाता है क्योंकि यह स्वतः सिद्ध सत्य है कि जब हमारी असफलताएं इतनी हो जाती है कि उनके सार्वजनिक हो जाने से हमे सत्ता से बेदखल होने का डर लग जाता है जब आम जनता का ध्यान बंटाने और उसे विभाजित रखने के लिये इस तरह के हथकण्डे अपनाये जाते हैं। आज केन्द्र में भाजपा की सरकार है और अगला लोकसभा चुनाव कभी भी घोषित हो सकता है कि स्थिति बनी हुई है। ऐसे मे जनता के अन्दर अगर किसी की पहली जवाबदेही बनेगी तो वह निश्चित रूप से भाजपा की ही बनेगी। जब 2014 में लोकसभा के चुनाव हुए थे तब जनता से जो वायदे किये गये थे उनमें साथ ही यह भी कहा गया था कि जहां कांग्रेस को 60 वर्ष दिये है वहां हमें 60 महीने दें। हम इसी में सारे वायदे पूरे करेंगे। लेकिन सत्ता में आकर 60 महीने भूलकर 60 वर्ष की योजना परोसी जाने लगी है। निश्चित तौर पर सरकार अपना कोई भी बड़ा वायदा पूरा नही कर पायी है। आज रूपये की कीमत डॉलर के मुकाबले मे बहुत गिर गयी है। जिसके कारण हजा़रों करो़ड़ का ऋण बिना लिये ही बढ़ गया है। विकासदर सबसे निचले स्तर पर आ गयी है और मंहगाई पिछले दस वर्षों का रिकार्ड तोड़ गयी है। नोटबंदी से जो लाभ गिनाये गये थे वह सब हानि में सामने आ रहे हैं। इस परिदृश्य में आज यदि किसी को कुछ खोने का डर है तो वह सबसे अधिक सत्तारूढ़ भाजपा को ही है। क्यांकि जब हिंसक भीड़ किसी को मारते हुए ‘‘जयश्रीराम’’ का नारा लगाती है तो उसी नारे से सबकुछ स्पष्ट हो जाता है। हिंसक भीड़ के नारे और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से इस वस्तुस्थिति को नियंत्रित करने की सबसे बड़ी और पहली जिम्मेदारी भाजपा पर ही आ जाती है क्योंकि जिन राज्यों मे यह सब घटा है वहां पर या तो भाजपा की सरकारें है या फिर इनमें शामिल लोग अधिकांश में भाजपा के रहे हैं। इसलिये यह हिंसक भीड़ तंत्र भाजपा के लिये ही घातक सिद्ध होगा यह तय है।
शिमला/शैल। इन दिनों ‘‘एक देश एक चुनाव’’ पर एक चर्चा चल रही है। यह सुझाव महामहिम राष्ट्रपति ने अपने संसद के संबोधन में दिया था। आज इस पर देश के चुनाव आयोग ने कह दिया है कि वह इसके लिये तैयार है। विधि आयोग ने इस पर राजनीतिक दलों के साथ बैठकें शुरू कर दी हैं। कुछ दलों ने इससे सहमति जताई है तो कुछ ने असहमति। भाजपा और कांग्रेस ने इस पर अपना पक्ष आयोग के सामने नहीं रखा है। जिन दलों ने सहमति व्यक्त की है उन्होंने भी यह कहा है कि यह 2019 में होने जा रहे लोकसभा चुनाव में ही हो जाना चाहिये। यह विचार अमली शक्ल ले पाता है या जुमला बनकर ही रह जाता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन राष्ट्रपति के माध्यम से बाहर आये इस विचार पर सत्तारूढ़ भाजपा की सहमति रही है या नहीं, या यह राष्ट्रपति का ही एक आदर्श विचार रहा है यह भी सामने नहीं आ पाया है। लेकिन यह विचार भाजपा के लिये एक बड़ा सवाल बन जायेगा क्योंकि इस विचार के लिये तर्क दिया जा रहा है कि इससे समय और धन दोनों की बचत होगी। व्यवहारिक रूप से यह कदम सही है कि पांच साल के कार्यकाल में केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों तक को विधानसभा /लोकसभा/शहरी निकायों और ग्राम पंचायतों के चुनावों का सामना करना पड़ता है। हर चुनाव में आदर्श संहिता लागू होती है और उतने समय तक विकास कार्य प्र्र्रभावित होते हैं। इस गणित से सारे नहीं तो कम से कम लोकसभा और विधानसभा के चुनाव तो एक साथ हो जाने चाहिये। राजनीतिक दलों को अपने राजनीतिक स्वार्थों से ऊपर उठकर देश हित में यह फैसला सर्वसम्मति से ले लेना चाहिये।
इस समय अधिकांश राज्यों में भाजपा की ही सरकारे हैं। कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के पास बहुत कम राज्य है। बल्कि राष्ट्रीय दलों के नाम पर आज भाजपा और कांग्रेस दो ही दल रह गये हैं। क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्य से बाहर नहीं हैं। इस नाते भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही राष्ट्रहित में यह फैसला लेकर ‘‘एक देश एक चुनाव’’ को सार्थक बनाने में आगे आना चाहिये। यदि सही में ही हम समय और धन दोनों को बचाना चाहते हैं। इस समय चुनाव कितना महंगा हो गया है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि चुनाव आयोग ने अधिकारिक तौर पर हिमाचल जैसे राज्य के लिये लोकसभा के लिये यह खर्च सीमा 70 लाख कर रखी है। इसका अर्थ यह है कि चुनाव आयोग भी मानता है कि लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिये 70 लाख रूपये खर्च हो सकते हैं। खर्च की यह सीमा उम्मीदवार पर व्यक्तिगत तौर पर लागू होती है, राजनीतिक दल पर नहीं। राजनीतिक दल प्रति उम्मीदवार कई करोड़ खर्च कर सकता है उसके लिये कोई सीमा नहीं है। यहां पर यह सवाल सामने आता है कि ऐसे कितने लोग हैं जो 70 लाख सफेद धन खर्च करके चुनाव लड़ सकता हो, शायद कोई भी नहीं। इसका यह अर्थ है कि चुनाव लड़ने के लिये व्यक्ति को किसी न किसी दल का सहारा लेना ही पड़ेगा। क्योंकि राजनीतिक दलों में आज चुनाव जीतने के लिये विचारधारा की बजाये चुनाव खर्च ही प्रमुख बन गया है। बल्कि इसके लिये होड़ लग जाती है कि कौन कितना अधिक खर्च करता है। राजनीतिक दलों के पास यह धन उद्योगपतियों से कैसे आता है और सरकार बनने पर किस शक्ल में वापिस किया जाता है और उसका भ्रष्टाचार, मंहगाई और बेरोज़गारी पर कैसे प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है इस पर महींनो बहस की जा सकती है और ढ़ेरों लिखा जा सकता है।
इसलिये आज जब यह मुद्दा राष्ट्रपति के माध्यम से सार्वजनिक बहस का विषय बना है तो इस पर ईमानदारी और गंभीरता से विचार कर लिया जाना चाहिये। इस संद्धर्भ में इसी के साथ जुड़े कुछ प्रसांगिक विषयों पर भी बात कर ली जानी चाहिये। इस समय विधानसभाओं से लेकर संसद तक आपराधिक छवि के सैंकड़ो माननीय बन कर बैठे हुए हैं। हर चुनाव के बाद यह आंकड़े आते हैं, चिन्ता व्यक्त की जाती है लेकिन परिणाम कोई नहीं निकलता। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह निर्देश दे रखे हैं कि माननीयों से जुड़े आपराधिक मामलों में एक वर्ष के भीतर फैसला आ जाना चाहिये चाहे इसके लिये दैनिक आधार पर सुनवाई क्यों न करनी पड़े। इसके लिये विशेष अदालतें तक गठित करने की बात की गयी है लेकिन इसका अब तक कोई परिणाम नहीं निकला है। आपराधिक छवि के व्यक्ति का भी यही तर्क होता है कि वह जनता की अदालत से चुनकर आया है। यहां यह सवाल उठता है कि क्या जब वह व्यक्ति चुनाव लड़ता है तो क्या उसका सारा रिकॉर्ड जनता के सामने आ पाता है। क्या जनता को पता होता है कि उसके खिलाफ किस तरह के कितने आपराधिक मामले कब से चल रहे हैं। आपराधिक छवि के लोगों को चुनाव लड़ने का अधिकार ही न रहे इसको लेकर अभी तक न तो चुनाव आयोग, न ही सर्वोच्च न्यायालय और न ही संसद कोई व्यवस्था दे पायी है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने भी देश की जनता को यह वायदा किया था कि वह संसद को अपराधियों से मुक्त करवायेंगे। लेकिन यह वायदा पूरा नहीं हुआ है।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि राजनैतिक दलों में इस पर सहमति न बन पाये तो क्या यह विचार जुमला बनकर ही रह जाना चाहिये? आज चुनाव राजनैतिक दलों ने अपने बहुआयामी चुनाव प्रचार अभियानों से इतना महंगा बना दिया है कि यह केवल राजनैतिक दलों के ही बस की बात बनकर रह गया है। इसी कारण से हर राजनैतिक दल अपराधियों को अपना उम्मीदवार बना रहा है। धन और बाहुबल के सहारे जनता की अदालत से जीतकर आ रहे हैं। राजनीतिक दल चुनाव जीतने के लिये जनता से ऐसे ऐसे वायदे कर लेते हैं जिन्हें कानूनन सार्वजनिक रिश्वतखोरी की संज्ञा दी जा सकती है लेकिन ऐसे वायदों का संज्ञान न तो चुनाव आयोग ले रहा है और न ही संसद तथा सर्वोच्च न्यायालय। फिर ऐसे वायदों को सरकार बनने के बाद कर्ज लेकर पूरा किया जाता है। ऐसे में राजनीतिक दलों पर बंदिश लगा दी जानी चाहिये कि सार्वजनिक रिश्वतखोरी की परिधि में आने वाले वायदे न किये जायें और ऐसा करने वाले दलों को चुनाव से बाहर कर दिया जाना चाहिये। दूसरा जिस भी व्यक्ति के खिलाफ कोई भी आपराधिक मामला किसी भी स्तर पर लम्बित है उसे भी चुनाव लड़ने का अधिकार न दिया जाये। राजनैतिक दलों पर भी चुनाव खर्च की सीमा होनी चाहिये और आचार संहिता की उल्लंघना को आई पी सी के तहत दण्डनीय अपराध बना दिया जाना चाहिये। यदि यह कदम भी उठा लिये जाते हैं तो निश्चित रूप से हमारी विधानसभाओं से लेकर संसद तक के चरित्र में एक बड़ा बदलाव आ जायेगा। आज की व्यवस्था में तो उम्मीदवार के साथ आया शपथ पत्र भी सार्वजनिक बहस का विषय नहीं बन पाता है। राजनीतिक दलों के आगे उनके अपने ही उम्मीदवार बौने बन कर रह जाते हैं। आज पहला सुधार तो यह लाना होगा कि उम्मीदवार दलों के व्यवहारिक बन्धक होकर ही न रह जायें।
शिमला/शैल। केन्द्रशासित राज्य दिल्ली की चुनी हुई सरकार और एलजी के बीच अधिकारों के वर्चस्व को लेकर चल रही लड़ाई में अब सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद कानूनी रूप से स्पष्ट हो गया है कि उपराज्यपाल मन्त्रीमण्डल के सर्वसम्मत फैसलो को मानने के लिये बाध्य है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि दिल्ली सरकार मन्त्रीमण्डल के फैसलों की जानकारी तो एलजी को देगी लेकिन जानकारी देने का अर्थ यह नही होगा कि इन फैसलों पर एलजी की सहमति और स्वीकृति भी आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय की प्रधान न्यायाधीश पर आधारित पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने अपने 535 पन्नो के फैसले मे पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है कि जनता द्वारा चुनी गयी सरकार के अधिकार सर्वोपरि है। पिछले दिनों जिस तरह से कई बार केजरीवाल केन्द्र सरकार के खिलाफ धरने पर बैठने और एलजी हाऊस में ही धरने पर बैठ गये थे इस तरह के सारे कृत्यों को भी सर्वोच्च न्यायालय ने अराजकता करार देते हुए इस सबकी भी निन्दा की है। कुल मिलाकर इस ऐतिहासिक फैंसले से यह स्पष्ट हो गया है कि केन्द्र सरकार उप राज्यपालों के माध्यम से केन्द्रशासित राज्यों की सरकारों को परेशान करने /अस्थिर करने का प्रयास नही कर सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की सर्वत्र सराहना की गयी है और इस फैलसे से एक बार फिर न्यायपालिका पर आम आदमी का भरोसा बढ़ा है जो कि अब अन्यथा टूटने लग पड़ा था। लेकिन इस फैसले पर जिस तरह की प्रतिक्रिया भाजपा की उसके प्रवक्ता डा. पात्रा के माध्यम से आयी है और इसी तरह की प्र्रतिक्रिया एलजी और दिल्ली सरकार की वरिष्ठ अफसरशाही की आयी है उससे लग रहा है कि यह टकराव इस फैसले से ही खत्म होने वाला नही है। क्योंकि पिछले दिनों दिल्ली सरकार के आईएएस अधिकारियों का काम पर न आने का मामला अदालत तक पहुंच गया था तथा मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री के बीच अभद्र व्यवहार का प्रकरण पुलिस और अदालत तक जा पहुंचा है उससे जो तनाव और अविश्वास पनपा है वह अपरोक्ष में इन प्रतिक्रियाओं के रूप में सामने आया है। इसी के साथ यह भी खुलकर स्पष्ट हो गया है कि दिल्ली में जो कुछ वरिष्ठ अफसरशाही और एलजी कर रहे थे वह सब केन्द्र द्वारा ही प्रायोजित था। तीन मसलों भूमि, पुलिस और व्यवस्था पर ही केन्द्र फैसले ले सकता है। शेष सारे विभागों पर दिल्ली सरकार का फैसला ही सर्वोपरि होगा। विजिलैन्स भी राज्य सरकार का ही एक विभाग होता है और इस नाते सरकार कोई भी मामला जांच के लिये विजिलैन्स को भेज सकती है। अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट भी मुख्यमन्त्री से ही फाईनल होगी। अधिकारियां की पोस्टिंग, ट्रांसफर पर सरकार का अधिकार होगा एलजी का नही। संभवतः इसी सबको देखते हुए अधिकारी दुविधा में आ गये हैं।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से दिल्ली सरकार का एलजी पर वर्चस्व प्रमाणित हो गया है। अब इस वर्चस्व को स्वीकार करना और उसे अधिमान देने के अतिरिक्त नौकरशाही के पास और कोई विकल्प नही रह गया है। इस फैसले से दिल्ली सरकार और आम आदमी पार्टी तथा केजरीवाल का व्यक्तिगत स्तर पर भी मान सम्मान बढ़ा है। आम आदमी पार्टी इस फैसले से मजबूत होगी इसमें किसी को भी शक नही होगा चाहिये। अगर इस फैसले के बाद भी केन्द्र सरकार एलजी और अफरशाही के माध्यम से फिर टकराव जारी रखते हैं तो इससे अब मोदी सरकार की साख ही राष्ट्रीय स्तर तक प्रभावित होगी। यह सही है कि यह केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ही थी जिसने भाजपा को लोकसभा में इतना प्रचण्ड बहुमत मिलने के बाद ही दिल्ली प्रदेश के चुनावों में ‘‘स्कूटर पार्टी ’’ तक सीमित कर दिया था। क्योंकि लोकसभा की जीत के बाद ही जिस तरह से कुछ भाजपा संघ नेताओं के मुस्लिमों को लेकर ब्यान आने शुरू हो गये थे उसी का नज़ला भाजपा पर गिरा था। आज तो चार वर्षों में और भी बहुत कुछ भाजपा और मोदी सरकार के खिलाफ खड़ा हो गया है। लोकसभा चुनाव सिर पर खड़े हैं इन चुनावों के लिये फिर से एक लोक लुभावन भावनात्मक मुद्दें की तलाश जारी है। इसके लिये जम्मू- कश्मीर में धारा 370 को समाप्त करने और एक देश एक-चुनाव की संभावनाओं पर विचार किया जा रहा है। लेकिन यह सारी संभावनाएं अर्थहीन हो जायेंगी यदि सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को अक्षरशः अधिमान न दिया गया। यह फैसला भाजपा के भविष्य को प्रभावित करेगा क्योंकि इससे यह सामने आयेगा कि पार्टी न्यायालय का कितना मान सम्मान करती है।