क्या आरक्षण एक बार फिर सरकार की बलि लेने जा रहा है? यह सवाल एक बार फिर प्रंसागिक हो उठा है। क्योंकि जैसे-जैसे लोकसभा के चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं ठीक उसी अनुपात में आरक्षण एक गंभीर राजनीतिक मुद्दे की शक्ल लेता जा रहा हैं। इस मुद्दे से जुड़ी राजनीति की चर्चा करने से पहले इसकी व्यवहारिकता को समझना आवश्यक होगा। देश जब आज़ाद हुआ था तब पहली संसद में ही काका कालेकर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन हुआ था। यह पड़ताल करने के लिये की अनुसचित जाति और जन-जातियों के लोगों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति क्या है? इनको समाज की मुख्य धारा में कैसे लाया जा सकता है? क्योंकि उस समय के समाज में अस्पृश्यता जैसे अभिशाप मौजूद थे जबकि संविधान की धारा 15 में यह वायदा किया गया है कि जाति-धर्म और लिंग के आधार किसी के साथ अन्याय नही होने दिया जायेगा। काका कालेकर कमेटी की रिपोर्ट जब संसद में आयी थी तो वह रौंगटे खड़े कर देने वाली थी। इसी कमेटी की सिफारिशां पर अनुसूचित जाति और जन-जाति के लोगों के लिये उनकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण का प्रावधान किया गया था। यह प्रावधान दस वर्षो के लिये किया गया था। क्योंकि संविधान की धारा 15 में यह प्रावधान किया गया है कि हर दस वर्ष के बाद इन जातियों की स्थिति का रिव्यू होगा और तब आरक्षण को आगे जारी रखने का फैसला लिया जायेगा। संविधान के इसी प्रावधान के तहत आरक्षण आजतक जारी चला आ रहा है।
इसके बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तब इस सरकार ने देश के अन्य पिछड़े वर्गों की पहचान के लिये जनवरी 1979 में सांसद वी पी मण्डल की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। इस आयोग ने भी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक क्षेत्रों के ग्यारह मानकों के आधार पर यह अध्ययन किया। इस आयोग के सामने 3743 जातियां/उपजातियां सामने आयी। आयोग ने ग्यारह मानकों पर इनका आकलन किया। इस आकलन में यह सामने आया कि अन्य पिछड़े वर्गों की जनसंख्या अनुसूचित जाति और जन जाति को छोड़कर देश की शेष जनसंख्या का 52% है। आयोग ने इनके लिये 27% आरक्षण दिये जाने की सिफारिश की और अन्य पिछड़े वर्गों के लिये एक अलग आयोग गठित किये जाने की सिफारिश की। मण्डल आयोग की सिफारिश पर ही अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग गठित हुआ है जो सीधे राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट सौंपता है। अब मोदी सरकार ने इस आयोग को एकस्थायी वैधानिक आयोग का दर्जा प्रदान कर दिया है। मण्डल आयोग ने 1980 में ही अपनी रिपोर्ट जनता पार्टी सरकार को सौंप दी थी। लेकिन 1980 में सरकार टूट गयी और इन सिफारिशों को अमली जामा नही पहनाया जा सका। जबकि संसद इस रिपोर्ट को स्वीकार कर चुकी थी। फिर 1983 में कांग्रेस सरकार ने इस पर कुछ कदम उठाये लेकिन अन्तिम फैसला नही लिया। फिर जब 1989 में वी पी सिंह के नेतृत्व में भाजपा के साथ नैशलनफ्रंट की सरकार बनी तब इस सरकार ने मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू करने का फैसला लिया। अगस्त 1990 में वी पी सिंह सरकार ने इसकी घोषणा की। लेकिन घोषणा के साथ इसका विरोध शुरू हो गया और सर्वोच्च न्यायालय में इन्दिरा साहनी बनाम भारत सरकार एक याचिका आ गयी। अदालत ने इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सरकार का फैसला स्टे कर दिया। इसके बाद 16 नवम्बर 1992 को सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ गया और मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू हो गयी। इसके बाद संविधान के 93वें संशोधन में इन सिफारिशों को उच्च शैक्षणिक संस्थानों में भी लागू कर दिया गया। इस संद्धर्भे में 5 अप्रैल 2006 को अर्जुन सिंह की अध्यक्षता में एक आल पार्टी बैठक हुई तब उस बैठक में भाजपा, वाम दलों और अन्य सभी बैठक में शामिल हुए दलों ने सरकार के इस फैसले का समर्थन किया तथा सुझाव दिया की आरक्षण का आधार आर्थिक कर दिया जाना चाहिये। इस बैठक में केवल शिव सेना ने इसका विरोध किया था। आज भी सभी राजनीति दल आरक्षण में आर्थिक आधार की वकालत करते हैं। विरोध केवल जातिय आधार का है। सर्वोच्च न्यायालय भी क्रिमी लेयर को आरक्षण से बाहर रखने के निर्देश दे चुका है। लेकिन आज तक किसी भी सरकार ने क्रिमी लेयर के निर्देशों की ईमानदारी से अनुपालना करने की बजाये क्रिमी लेयर का दायरा ही बढ़ाया है। क्रिमी लेयर का दायरा बढ़ा दिये जाने से यह संदेश जाता है कि सही में आरक्षण का लाभ गरीब आदमी को नही मिल रहा है और यहीं से सारी समस्या खड़ी हो जाती है।
आज केन्द्र में भाजपा की सरकार है जिसके मुखिया मोदी स्वयं ओबीसी से ताल्लुक रखते हैं। जिसकी अपनी जनसंख्या 52% है। वोट की राजनीति में यह आंकड़ा बहुत बड़ा होता है। अगस्त 1990 में जब वी पी सिंह ने मण्डल सिफारिशें लागू करने की घोषणा की थी तब 19 सितम्बर को दिल्ली के देशबन्धु कॉलिज के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह का प्रयास किया और 24 सितम्बर को सुरेन्द्र सिंह चौहान की आत्मदाह में पहली मौत हो गयी। इस दौरान मण्डल के विरोध में 200 आत्मदाह की घटनाएं घटी हैं। इन आत्मदाहों से वी पी सिंह सरकार हिल गयी। भाजपा ने समर्थन वापिस ले लिया। सरकार गिर गयी और सरकार गिरने के साथ ही आन्दोलन भी समाप्त हो गया। लेकिन आरक्षण अपनी जगह कायम रहा। अब जब मोदी सरकार बनी तब से हर भाजपा शासित राज्य से किसी न किसी समुदाय ने आरक्षण की मांग की है। इस मांग के साथ यह मुद्दा जुड़ा रहा है कि या तो हमें भी आरक्षण दो या सारा आरक्षण बन्द करो। अभी जब सर्वोच्च न्यायालय ने एस सी एस टी एक्ट में कुछ संशोधन किये तब न्यायालय के फैसले को पलटने के लिये संसद का सहारा लिया और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया। सरकार के इस फैसले से स्वभाविक रूप से सवर्ण जातियों में रोष है और यह रोष भारत बन्द के रूप में सामने भी आ गया है। सवर्णो ने यह नारा दिया है कि वह भाजपा को वोट न देकर ’’नोटा‘‘ का प्रयोग करेंगे। उत्तरी भारत में सवर्णो का विरोध आन्दोलन तेज है लेकिन उत्तरी भारत में सवर्णो की जनसंख्या ही 12% है। फिर जब ओबीसी की कुल जनसंख्या का 52% है और उसके साथ 22.5% एससीएसटी छोड़ लिये जाये तो यह आंकड़ा करीब 75% हो जाता है। आज भाजपा ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलटकर और सवर्णो से आरक्षण के विरोध में आन्दोलन चलवाकर अपरोक्ष में 75% जनसंख्या को यह संदेश दे दिया है कि केवल भाजपा ही उनके हितों की रक्षा कर सकती है। लेकिन इसी के साथ भाजपा को यह भी खतरा है कि आरक्षण विरोध में जिन लोगों ने आत्मदाहों में अपनी जान गंवाई है यदि आज उनके साथ खड़ी नही हो पायी तो वह मण्डल विरोध के ऐसे रणनीतिक रहस्यों को बाहर ला सकते हैं जो भाजपा के साथ-साथ संघ के लिये भी परेशानी खड़ी कर सकते हैं। ऐसे में यह तय है आरक्षण विरोध में उठा यह आन्दोलन फिर सरकार की बलि ले लेगा जैसा कि वी पी सिंह सरकार के साथ हुआ था।
नवम्बर 2016 को लागू की गयी नोटबंदी के बाद पुरानी मुद्रा के 500 और 1000 रूपये के नोटों का चलन बन्द कर दिया गया था। इस आदेश के साथ ही जनता को पुराने नोटों को नये नोटों से बदलने के लिये समय दिया गया था। इस दिये गये समय में कितने पुराने नोट वापिस बैंको में जमा हुए और अन्ततः रिजर्व बैंक के पास पंहुचे इसकी अब 21 माह बाद फाईनल रिपोर्ट आ गयी है। आरबीआई ने संसदीय दल को सौंपी रिपोर्ट में कहा है कि देश में पुरानी 500 और 1000 की मुद्रा के कुल 15.44 लाख करोड़ के नोट थे। जिनमें से 15.31 लाख करोड़ के नोट वापिस आ गये हैं जो कि 99.3% होते हैं। इसी के साथ यह भी कहा गया है कि इन वापिस आये नोटों में नेपाल और भूटान से आये नोट शामिल नही हैं। आरबीआई की रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुरानी मुद्रा के लगभग सौ प्रतिशत ही नोट वापिस आ गये हैं।
इससे सबसे पहले यह सवाल उठता है कि जो प्रचार हो रहा था कि देश में कालेधन की समानान्तर अर्थव्यवस्था खड़ी हो गयी है वह प्रचार निराधार था। स्वामी राम देव जैसे कई लोग आये दिन लाखों करोड़ के कालेधन के आंकड़े देश के सामने रख रहे थे। आज आरबीआई की रिपोर्ट आने के बाद यह सारा प्रचार एक सुनियोजित षडयंत्र लग रहा है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह प्रचार शायद प्रायोजित था। क्योंकि जब नोटबन्दी की घोषणा की गयी थी तब प्रधानमन्त्री ने नोटबन्दी का यही तर्क दिया था कि यह कदम कालेधन को रोकने के लिये उठाया गया है। क्योंकि कालेधन का निवेश आंतकवाद के लिये हो रहा था। प्रधानमन्त्री ने जब यह तर्क देश के सामने रखा था तब देश की जनता ने उन पर विश्वास कर लिया था। इसी विश्वास के कारण लोग इस फैसले के विरोध में लामबन्द होकर सड़कों पर नही उतरे थे। देश को लगा था कि जब प्रधानमन्त्री इतना बड़ा फैसला ले रहे हैं तो निश्चित रूप से उनके पास कालेधन और उसके निवेश को लेकर ठोस जानकारियां रही होंगी। उनके वित्तमन्त्रा ने पूरी तस्वीर उनके सामने रखी होगी। लेकिन आज यह सब पूरी तरह गलत साबित हुआ है। क्योंकि इसी का दूसरा प़क्ष तो और भी घातक हो जाता है कि क्या यह कदम आम आदमी की कीमत पर कालेधन को सफेद बनाने के लिये उठाया गया था। क्योंकि आज तक यह नही बताया गया है कि कितना कालाधन पकड़ा गया है। आरबीआई की रिपोर्ट के बाद प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री और उनकी सरकार की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लग जाता है।
आरबीआई की रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस फैसले से देश को दो गुणा नुकसान हुआ है। क्योंकि मुद्रा की प्रिंटिग का एक नियम है। किसी भी देश की करेंसी उस देश के जीडीपी के अनुपात में छापी जाती है भारत में यह अनुपात 10.6 प्रतिशत है। रिजर्व बैंक इस संतुलन को बनाये रखता है। लेकिन भारत में जब से सरकारी क्षेत्र में निजिक्षेत्र का प्रभाव बढ़ा है तक से सरकारी बैंक खतरे में पड़ गये हैं और विजय माल्या,मेहुल चौकसी और नीरव मोदी जैसे प्रकरणों ने इस खतरे को पुख्ता भी कर दिया है। इस संद्धर्भ मे आरबीआई की वेबसाईड पर पड़े मनी स्टोक के आंकड़े यह बताते है कि अप्रैल 2012 में परिचलन में कुल 11,08,232 करोड़ रूपये थी जिसमें से बैंकों की तिजोरी में 43,377 करोड और जनता की जेब में 10,64,855 करोड़ थी। जुलाई 2016 में परिचलन 17,36,177 करोड़ रूपये थी जिसमें से बैंको के पास 75034 करोड़ रूपये और बैंको से बाहर जनता की जेब 16,61,143 करोड़ रूपये थे। आरबीआई के इन आंकड़ो को शायद यह मान लिया गया कि देश में इतना कालाधन है जिसे नोटबंदी से एक ही झटके में समाप्त किया जा सकता है। लेकिन वास्तव में यह सब बैंकां पर कम होते जा रहे विश्वास का परिणाम था। नोटबंदी के बाद जिस तरह से सरकारी बैंकों का घाटा सामने आता जा रहा है उससे यह भरोसा और कम हो रहा है। इसी के कारण जहां 15.44 की पुरानी करेंसी को बदलना पड़ा है उसी के साथ उतनी ही नयी करेंसी को छापना पड़ा है। इस दोहरे नुकसान के कारण क्या आज करेंसी के मुद्रण में आरबीआई 10.6 प्रतिशत के अुनपात को बनाये रख पाया है या नही इसको लेकर अधिकारिक तौर पर कुछ भी सामने नही आया है।
नोटबन्दी के कारण देश की अर्थव्यवस्था को एक बड़ा आघात पंहुचा है अब इस तथ्य को स्वीकारना ही पड़ेगा। अर्थव्यवस्था तो देश की बुनियाद होती है। जब बुनियाद एक बार हिल जाती है तो उसे संभलने में समय लगता है। आज देश इस स्थिति से गुज़र रहा है। इससे प्रधानमन्त्री की अपनी समझ और विश्वसनीयता दोनों पर जो प्रश्नचिन्ह लगा दिया है उसके परिणाम घातक होंगे। क्योंकि यदि इस असफलता को सीधे और ईमानदारी से स्वीकारने की बजाये कुछ और मुद्दे खड़े करके देश का ध्यान बांटने का प्रयास किया जायेगा तो शायदे वह स्वीकार्य नही होगा।
अभी पिछले दिनों लंदन में खालिस्तान समर्थकों की एक रैली हुई और आयोजन के लिये वहां की सरकार ने वाकायदा अनुमति दी थी। लेकिन आयोजन के बाद वहां की सरकार ने इस रैली से अपना पल्ला झाड़ लिया है। खालिस्तान समर्थकों की रैली होने का भारत के संद्धर्भ में क्या अर्थ होता है शायद इसे समझने की जरूरत नही है। इस रैली के बाद भारत रत्न पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी जी का निधन हो गया। इस निधन पर पूरा देश शोकाकुल था। वाजपेयी जी की अन्तयेष्ठी पर कुछ नेताओं की सैल्फी तक वायरल हो गयी। इसी दौरान प्रधानमन्त्री मोदी का एम्ज़ के डाक्टरों के साथ एक फोटो फेसबुक पर वायरल हुआ। इस फोटो पर विवाद भी उठा और अन्त में यह प्रमाणित भी हो गया कि यह फोटो इस निधन के बाद का ही था। इसी बीच हिमाचल के पूर्व विधायक नीरज भारती की वाजपेयी जी को लेकर एक पोस्ट फेसबुक पर आ गयी। यह पोस्ट शायद कभी वाजपेयी जी की ही स्वीकारोक्ति रही है इस पोस्ट को लेकर उठे विवाद के परिणामस्वरूप नीरज भारती के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने तक की नौबत आ गयी है।
इसी दौरान पंजाब के मन्त्री पर्व क्रिकेटर सिद्धु पाकिस्तान के नव निर्वाचित प्रधानमन्त्री इमरान खान के शपथ समारोह में शामिल होने पाकिस्तान गये थे। वहां हुए समारोह के फोटो जब सामने आये तो उसमें सिद्धु पाकिस्तान के सेना प्रमुख से गले मिलते हुए देखे गये। सिद्धु के गले मिलने पर भाजपा प्रवक्ता डा. संबित पात्रा ने बहुत ही कड़ी प्रतिक्रिया दी है। कांग्रेस ने सिद्धु की पाकिस्तान यात्रा को व्यतिगतयात्रा करार देकर पल्ला झाड़ लिया और पंजाब के मुख्यमन्त्री ने सिद्धु के गले मिलने को जायज़ नही ठहराया है। लेकिन जब प्रधानमन्त्री मोदी अचानक नवाज शरीफ के घर पंहुच गये थे और वेद प्रकाश वैदिक हाफिज सैय्द को मिले थे तब इस मिलने पर भाजपा की ओर से कोई प्रतिक्रिया नही आयी थी। आज लंदन में खालिस्तान समर्थकों की एक रैली हो जाती है जिसका कालान्तर में पूरे देश पर और खासतौर पर पंजाब पर असर पड़ेगा। लेकिन इस रैली को लेकर भाजपा केन्द्र सरकार, कांग्रेस और पंजाब सरकार सब एक दम खामोश हैं। क्या इस पर इनकी प्रतिक्रिया नही आनी चाहिये थी। जब पाकिस्तान में प्रधानमन्त्री मोदी और वेद प्रकाश वैदिक के व्यक्तिगत तौर पर जाने को लेकर कोई प्रतिक्रिया नही आयी तो फिर आज सिद्धु को लेकर बजरंग दल की ऐसी प्रतिक्रिया क्यों?
इसी तरह आज केरल में आपदा की स्थिति आ खड़ी हुई है। पूरा देश केरल की सहायता कर रहा है। विदेशों से लेकर केरल के लिये सहायता आयी है लेकिन इसी सहायता को लेकर एक सतपाल पोपली की फेसबुक पर पोस्ट आयी है। इस पोस्ट से इन्सानियत शर्मसार हो जाती है। इसकी जितनी निंदा की जाये वह कम है लेकिन इस पोस्ट को लेकर यह प्रतिक्रिया नही आयी है कि इसके खिलाफ भी एफआईआर दर्ज की जाये। हां कुछ लोगों ने इस प्रतिक्रिया को व्यक्त करते हुए गांधी, नेहरू परिवार को लेकर आ रही पोस्टों का जिक्र अवश्य किया है। इस समय सोशल मीडिया पर किसी भी विषय और व्यक्ति को लेकर किसी भी हद तक की नकारात्मक पोस्ट पढ़ने को मिल जाती है। सोशल मीडिया पर बढ़ती इस तरह की नाकारात्मक और फेक न्यूज को लेकर केन्द्रिय मन्त्री रविशंकर प्रसाद ने व्हाटसअप के सीईओ से मिलकर गंभीर चिन्ता व्यक्त की है। इसका परिणाम कब क्या सामने आता है इसका पता तो आने वाले समय में ही लगेगा।
लेकिन अभी जो यह कुछ सद्धर्भ हमारे सामने आये हैं उससे यही स्पष्ट होता है कि अब समाज से सहिष्णुता लगभग समाप्त हो गयी है। हमारे वैचारिक मतभेद जिस हद तक पंहुच गये हैं उससे केवल स्वार्थ की गंध आ रही है और जब यह स्वार्थ सीधे राजनीति से प्रेरित मिलता है तो इसका चेहरा और भी डरावना हो जाता है। इस समय देश बेरोज़गारी, गरीबी, मंहगाई और भ्रष्टाचार की गंभीर समस्याओं से गुजर रहा है। डालर के मुकाबले रूपये का कमजोर होना इन्ही समस्याआें का प्रतिफल है। इसी के साथ यह भी याद रखना होगा कि इन समस्याआें की जाति और धर्म केवल अमीर और गरीब ही है। इसमें हिन्दु मुस्लिम और कांग्रेस-भाजपा कहीं नही आते हैं। इन समस्याओं पर तो जो भी सत्ता पर काबिज होगा उसकी ही जवाब देही होगी। लेकिन इस जवाब देही से बचने के लिये ही सत्ता पर काबिज रहने का जुगाड़ बैठा रहे हैं। आज सिद्धु और नीरज भारती को लेकर जो विवाद, खड़ा कर दिया गया है क्या सही में उसकी कोई आवश्यकता है। मेरी नज़र में इस तरह की प्रतिक्रियाओं से तो आने वाले दिनों में और कड़वाहट बढ़ेगी। आज सभी राजनीतिक दलों ने जिस तरह से अपने -अपने आईटी प्रोकोष्ठां में हजा़रों की संख्या में अपने सक्रिय कार्यकर्ताओं को काम पर लगा रखा है उससे एक दूसरे के चरित्र हनन् और फेक न्यूज़ को ही बढ़ावा मिलता नज़र आ रहा है। क्योंकि राजनीतिक दल अपनी-अपनी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सोच पर तो कोई भी सार्वजनिक बहस चलाने को तैयार नही हैं। 2014 भ्रष्टाचार के जिस मुद्दे पर सत्ता परिवर्तन हुआ था उस पर इन पांच वर्षों में यह कारवाई हुई है कि 1,76,000 हज़ार करोड़ के कथित 2जी स्कैम के सारे आरोपी बरी हो गये हैं। बैंक घोटालों के दोषी विदेश भाग गये हैं। भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम को संशोधित करके हल्का कर दिया गया है और इसके हल्का हो जाने के बाद लोकपाल की आवश्यकता ही नही रह जाती है। 2019 का चुनाव आने वाला है और इसको लेकर कई सर्वे रिपोट आ चुकी है।हर रिपोट में भाजपा की अपने दम पर सरकार नही बन रही है। हर रिपोट प्रधानमन्त्री की लोकप्रियता में लगातार कमी आती दिखा रही है। ऐसे परिदृश्य में यह बहुत संभव है कि कुछ फर्जी मुद्दे खड़े करके जनता का ध्यान बांटने का प्रयास किया जाये और इसमें इस तरह की सोशल पोस्टों की भूमिका अग्रणी होगी। इसलिये इन पोस्टों पर प्रतिक्रिया से पहले इनकी व्यहारिकता पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
भारत रत्न पूर्व प्रधान मन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर पूरा देश शोकाकुल रहा है। हर आंख उनके निधन पर नम हुई है और हर शीष ने उन्हे अपने-अपने अंदाज में नमन किया है। वाजपेयी बहुअयामी व्यक्तित्व के मालिक थे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को शब्दों में समेट पाना संभव नही है। लेकिन वह वक्त के ऐसे मोड़ पर स्वर्ग सिधारे हैं जहां से आने वाले समय में वह राजनीति से जुड़े हर सवाल में सद्धर्भित रहेंगे। वह तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन हर बार सत्ता छोड़ते समय वह कुछ ऐसे नैतिक मानदण्ड छोड़ गये जिन पर उनके हर
वारिस का आकलन किया ही जायेगा। खासतौर पर भाजपा नेतृत्व के लिये तो वह एक कड़ी रहेंगे ही। वाजपेयी का स्वास्थ्य लगभग एक दशक से अस्वस्थ्य चल रहा था। पिछले दो माह से तो वह एम्ज़ में भर्ती ही थे। इस दौरान किन लोगां ने उनके स्वास्थ्य की कितनी चिन्ता की कितने और कौन नेता उनका कुशलक्षेम जानने उनसे मिलने गये हैं यह सब आने वाले दिनों में चर्चा का विषय बनेगा यह तय है। उनके परिजनों में से कितने लोग आज भी भाजपा में सम्मानित रूप से सक्रिय हैं यह सब मरणोपरान्त चर्चा में आता ही है क्योंकि ऐसे महान लोगों का मरणोपरान्त भी लाभ लिया जाता है और इस लाभ की शुरूआत इसी से हो जाती है जब केन्द्र से लेकर राज्यां तक हर सरकार अपनी-अपनी सुविधानुसार निधन पर छुट्टी की घोषणा करती है। क्योंकि सभी भाजपा शासित राज्यों भी यह छुट्टी अगल-अलग रही है।
वाजपेयी भाजपा के वरिष्ठतम नेता थे। आडवानी और वाजपेयी ने भाजपा को कैसे सत्ता तक पंहुचाया है यह भाजपा ही नही सारा देश जानता है। यह वाजपेयी-आडवानी ही थे जिन्होने दो दर्जन राजनीति दलों को साथ लेकर सरकार बनायी और चलाई। संघ की विचारधारा के प़क्षधर होते हुए भी गुजरात दगों पर मोदी सरकार की भूमिका को लेकर यह कहने से नही हिचकिचाए की मोदी ने राजधर्म नही निभाया है। भले ही इस वक्तव्य के बाद वाजपेयी हाशिये पर चले गये थे। लेकिन उन्होने यह धर्म निभाया। संघ के मानस पुत्र होते हुए भी वाजपेयी शासन में मुस्लिमों की देश के प्रति निष्ठा पर कोई सवाल नही उठा था। वह वास्तव में ही सर्वधर्म समभाव की अवधारणा पर व्यवहारिकता में ही अमल करते थे। यही कारण है कि आज वाजपेयी के जाने के बाद भाजपा के लिये यह मुस्लिम सवाल एक नये रूप में खड़ा है। क्यांकि वाजपेयी के वक्त में भाजपा ने मुस्लिमों को चुनाव में टिकट देने के लिये अछूत नही समझा था। जबकि आज की भाजपा में मुस्लिम चुनावी टिकट के लिये अछूत होने के बाद भीड़ हिंसा का शिकार होने के कगार पर पंहुच गये हैं। वाजपेयी ने सत्ता के लिये अनैतिक जोड़ तोड़ से कैसे कोरे शब्दों में इन्कार कर दिया था इसके लिये उनके निधन पर उनके इस भाषण को सभी चैनलों ने अपनी चर्चा में विशेष रूप से उठाया है।
वाजपेयी के शासन में पहली बार विनिवेश मंत्रालय का गठन हुआ था और कुछ सार्वजनिक उपक्रमों को प्राईवेट सैक्टर को सौंपा गया था। लेकिन इसके बावजूद भी उन पर यह आरोप नही लगा था कि वह कुछेक औद्यौगिक घरानों की ही कठपुतली बनकर रह गये हैं। जबकि आज मोदी सरकार को अंबानी-अदानी की सरकार करार दिया जा रहा है। रफाल सौदा मोदी और अबानी के रिश्तों की ही तस्वीर माना जा रहा है। वाजपेयी सरकार में करंसी का मुद्रण कभी भी प्राईवेट सैक्टर को नही दिया गया था। जबकि आज नोटबंदी के बाद मोदी सरकार ने करंसी का मुद्रण अबानी की प्रैस से करवाया। आज सरकारी क्षेत्रा के बैंकों का 31000 करोड़ का डुबा हुआ ट्टण जिस ढंग से एआरसी लाकर माफ किया गया है ऐसा देश की आर्थिकी के साथ उस समय नही हुआ था। आज सरकारी क्षेत्र की कीमत पर प्रोईवेट सैक्टर को खड़ा किया जा रहा है। ऐसे बहुत सारे मुद्दे आने वाले समय में देश के सामने आयेंगे जहां मोदी के हर काम को वाजपेयी के आईने से परखा जायेगा।
अभी पन्द्रह अगस्त को मोदी का जो भाषण लाल किले से आया है और उसमें उपलब्धियों के जो आंकड़े देश के सामने परोसे गये हैं अब उन आंकड़ो को हर गांव और हर घर में खोजा जायेगा। जब वह आंकड़े व्यवहारिकता के धरातल पर नही मिलेंगे तब मोदी का एकदम तुलनात्मक आकलन वाजपेयी के साथ किया जाने लगेगा। क्योंकि वाजपेयी जनता को लुभाने के लिये तथ्यों को बढ़ा चढ़ाकर पेश नही करते थे। जो दावा किया जाता था वह ज़मीन पर मिल जाता था। जबकि आज मोदी को लेकर यह धारणा बनती जा रही है कि वह कहीं भी कुछ भी बोल सकते हैं। अभी जो रूपया डालर के मुकाबले गिरावट की सारी हदें पार करता जा रहा है उसको लेकर जब मोदी के 2013 में दिये गये ब्यानों के आईने में भाजपा से सवाल पूछे जायेंगे तो उसकी स्थिति निश्चित रूप से खिसयानी बिल्ली खम्भा नोचे वाली होना तय है। ऐसे में देश की जनता वर्तमान भाजपा का आकलन वाजपेयी के कार्यकाल से करने पर विवश हो जायेगी और तब यह एक और सवाल पूछा जायेगा कि जिस मोदी शासन में वाजपेयी के सहयोगी रहे सभी बड़े नेताओं को आज हाशिये पर धकेल रखा गया है उसके हाथों में भविष्य कितना सुरक्षित रह सकता है। आज वाजपेयी की सियासी विरासत को भाजपा कितना सहेजती है और कितना हाशिये पर धकेलती है। आज वाजपेयी के निधन के बाद भाजपा के लिये यह सबसे ज्वलंत प्रश्न होंगे। आने वाले दिनों में वाजपेयी की विरासत भाजपा के लिये हर समय एक कड़ी कसौटी बन कर खड़ी रहेगी। भाजपा-मोदी के हर कार्य को वाजपेयी के तराजू में तोलकर देखा जायेगा। वाजपेयी को अब कौन और कितना याद करेगा उसके लिये तो यही कहना सही होगा-
अब कोई याद करे या न करे
हम तो पैमाने पे भी निशां छोड़ चलें
भाजपा ने अगले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ‘‘संपर्क से समर्थन’’ का कार्यक्रम शुरू किया है। इसके तहत भाजपा पार्टी और सरकार के प्रमुख लोग समाज के विभिन्न वर्गों के प्रबुद्ध लोगों से व्यक्तिगत स्तर पर संपर्क स्थापित करके उनसे समर्थन मांग रहे हैं। यह समर्थन मांगते हुए इन लोगों को सरकार की योजनाओं की जानकरी दी जा रही है। मोदी सरकार की जन कल्याणकारी 109 योजनाओं की एक सूची सोशल मीडिया के माध्यम से भी सामने आयी है। इस सूची में पहली योजना प्रधानमन्त्री जन-धन योजना और अन्तिम योजना चप्पल पहनने वाला आम नागरिक भी हवाई जहाज में सफर कर सके इसके लिये 900 नये हवाई जहाज का आर्डर दे दिया गया है। सरकार की इन योजनाओं से आम आदमी को व्यवहारिक तौर पर कितना लाभ पंहुचा है इसका कोई आंकलन अभी तक सामने नही आया है। न ही यह सामने आया है कि यदि यह योजनाएं न लायी जाती तो समाज का कितना नुकसान हो जाता। क्योंकि किसी भी योजना का मूल्यांकन इस बात पर निर्भर करता है कि क्या सही में ही इस योजना की आवश्यकता थी भी या इसे केवल अपना प्रचार करने के लिये ही लाया गया है। क्योंकि बेरोजगारी, मंहगाई और भ्रष्टाचार की जो हकीकत 2014 के चुनावों से पहले थी वह आज भी है इसलिये इन योजनाओं का होना और न होना ज्यादा मायने नही रखता है।
बल्कि प्रधानमन्त्री जन-धन योजना के तहत जो गरीब लोगों के बैंको में खाते खुलावाये गये थे उस समय इनमें जीरो बैलेन्स का दावा किया गया था। लेकिन आगे चलकर इसमें न्यूनतम बैलेन्स की शर्त जोड़ दी गयी। न्यूनतम बैलेन्स न रहने पर इसमें जुर्माना लगाये जाने की बात कर दी गयी। अभी भारतीय स्टेट बैंक ने पिछले महीनों में यह न्यूनतम बैलेन्स न रहने पर 235.06 करोड़ रूपये का जुर्माना इन खाताधारकां से वसूल किया है। जो लोग न्यूनतम बैलेन्स भी नही रख पाये हैं वह सही में ही गरीब मेहनतकश लोग हैं। जिनके पास यह न्यूनतम राशी भी नही थी। न्यूनतम बैलेन्स गरीब की समस्या है अमीर की तो अधिकतम बैलेन्स की होती है। ऐसे में जिन करोड़ों लोगों पर यह जुर्माना लगा होगा क्या उन्हें सही में इस योजना का लाभार्थी माना जा सकता है। फिर यह आंकड़ा तो अकेले एसबीआई का ही है और यही स्थिति अन्य बैंकों की भी होगी। ऐसे में यदि प्रधानमन्त्री जन-धन योजना के तहत यह खाते न खुलवाये जाते तो इन गरीबों का यह करोड़ों रूपया बच जाता।
इसी तरह अब राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में वित्त राज्य मन्त्री ने एक लिखित उत्तर में यह जानकारी दी है कि पिछले तीन वित्तिय वर्षों में बैंको का धोखधड़ी के कारण 70,000 करोड ़का नुकसान हुआ है। 2015-16 में 16409, करोड़ 2016-17 में 16652 करोड़ और 2017-18 में 36694 करोड़ का नुकसान हुआ है। यह नुकसान इन बैंको द्वारा अंधाधुंध एडवांस देने के कारण हुआ है। 2008 में यह एडवांस 25.03 लाख करोड़ था जो कि 2014 में 68.75 लाख करोड़ तक पंहुच गया। यह एडवांस आज Bad Loan बन गया है। लेकिन इसके लिये बैंक प्रबन्धनां के खिलाफ कारवाई की बजाय इन बैंकां की सहायता के लिये । ARC बनाई जा रही है। यह asset reconstruction company, Bad bank तैयार किया जा रहा है। क्योंकि इन बैंकों का एनपीए जो 2013 में 88500 लाख करोड़ था आज 31 मार्च 2017 को यह 8.41 लाख करोड़ को पहुंच गया है। सरकार इस स्थिति को सुधारने के लिये कोई ठोस कदम नही उठा रही है। क्योंकि यह एनपीए और धोखाधड़ी सब बड़े लोगों के ही काम हैं। अदानी जैसे उद्योगपति ने कैसे एक सम्प्रेषण नेटवर्क विकसित करने के ठेके में ही 1500 करोड़ की काली कमाई कर ली। इसको लेकर राजस्व निदेशक ने 97 पेज की जांच रिपोर्ट सरकार को सौंपी। यह रिपोर्ट 15 अगस्त 2017 के गार्डियन अखबार ने पूरे विस्तार के साथ छापी है। लेकिन भारत सरकार ने इस रिपोर्ट पर आज तक कोई कारवाई नही की है। अडानी जैसे दर्जनों और मामले हैं जिनके कारण देश की पूरी अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पंहुचा है। लेकिन मोदी सरकार इन लोगों के खिलाफ कारवाई करने की बजाये जन-धन में न्यूनतम बैलेन्स न रहने पर जुर्माना लगाकर फिर गरीब की कीमत पर अमीर के साथ खड़ी हो रही है।
आज जब सत्तारूढ़ दल प्रबुद्ध लोगों से संपर्क साध कर उनसे समर्थन मांग रहा है तब यह आवश्यक हो जाता है कि यह कुछ सवाल इन लोगों के सामने रहे हैं। ताकि जब यह अपने समर्थन का वायदा करें तक इन मुद्दों को भी अपने जहन में रखें। क्योंकि यह चुनाव देश के भविष्य के लिये एक महत्वपूर्ण घटना होने जा रही है। 2014 के चुनाव में देश ने देखा है कि भाजपा ने एक भी मुस्लिम को लोकसभा का उम्मीदवार नही बनाया था। आज तो स्थिति चुनाव टिकट न देने से आगे निकलकर भीड़ हिंसा तक पंहुच गयी है। जहां इस भीड़ हिंसा पर सर्वोच्च न्यायालय तक ने चिन्ता जताई है वहीं पर एक वर्ग अपरोक्ष में इसकी वकालत भी कर रहा है। इसलिये प्रबुद्ध वर्ग से यह आग्रह रहेगा कि वह इन व्यवहारिक सच्चाईयों पर आंख मूंद कर ही अपना फैसला न ले।