Friday, 19 September 2025
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कर्ज मुक्ति के लिये नीयत और नीति चाहिये

शिमला/शैल। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने एक साक्षात्कार में यह कहा है कि प्रदेश को कर्ज से मुक्ति मिलना संभव नही है। जयराम की सरकार को बने हुए अभी छः माह का समय हुआ है। इन छः महिनों में सरकार ने जनवरी से 31 मार्च तक ही एक हजा़र करोड़ से अधिक का ऋण लिया है। 29 मार्च को जायका के साथ 700 करोड़ का ऋण अनुबन्ध साईन किया है। इसके बाद मई में राज्य विद्युत बोर्ड की ऋण सीमा मे दो हज़ार करोड़ की वृद्धि की है। जून में एशियन विकास बैंक से 437 करोड़ का ण भारत सरकार के माध्यम से स्वीकृत करवाया है। ऋण के इन आंकड़ों का जिक्र इसलिये किया जा रहा है ताकि यह समझ आ सके कि सरकार का पूरा ध्यान इस दौरान ऋण जुटाने की ओर ही ज्यादा केन्द्रित रहा है। सरकार अपनी आय के साधन कैसे बढ़ाये और अपने अनुपयोगी खर्चों में कैसे कमी करे इस ओर शायद ज्यादा ध्यान नही दिया गया है। इसमें सबसे चिन्ताजनक यह है कि युवा मुख्यमन्त्री ने बिना कोई प्रयास किये ही यह मान लिया है कि कर्ज से मुक्ति मिल ही नही सकती है।
मुख्यमन्त्री ने अपने साक्षात्कार में कर्ज का आंकड़ा 46000 करोड़ का दिया है। राज्य के वित्त की वास्तविक स्थिति क्या है। सरकार के खर्चे कितने उत्पादक और अनुत्पादिक है। राज्य के कर्ज की स्थिति क्या इसका पूरा आकलन करने के लिये नियन्त्रक महालेखा परीक्षक की संवैधानिक जिम्मेदारी है और कैग की रिपोर्ट वाकायदा सदन के पटल पर रखी जाती है। इसलिये कैग की रिपोर्ट को प्रमाणिक माना जाता है। इस बार के बजट सत्र वर्ष 2016-2017 के लेखे सदन में रखे गये हैं। इन लेखों के मुताबिक 31 मार्च 2016 को प्रदेश सरकार का कुल कर्जभार 47,244 करोड़ है। इसमें वित्तिय वर्ष 2017-2018 और 2018-2019 का कर्ज जब जुड़ेगा तब यह कर्जभार 60,000 करोड़ से अधिक हो जायेगा यह तय है। सरकार जब भी कर्ज लेती है तब कर्ज का उद्देश्य विकास कार्यो मे निवेश दिखाया जाता है लेकिन कैग की रिपोर्ट के मुताबिक यह कर्ज विकास की बजाये कर्ज की किश्त देने और दूसरे खर्चों के लिये उठाये जा रहे हैं। 2012-13 से 2016-17 तक हर वर्ष, कर्ज की किश्त और अन्य खर्चों के लिये ऋण उठाया जा रहा है। 2012-13 में 2359, 2013-14 में 2367, 2014-15 में 2345, 2015-16 में 2450 और 2016-17 में 3400 करोड़ का ऋण इन खर्चों के लिये उठाया गया है जबकि एफआरबीएम 2005 की सीधी अवहेलना है। इसमें एक चिन्ताजनक गंभीरता यह है कि कर्ज तय समय पर लौटाया नही जा रहा है। 31 मार्च 2016 को Outstading ऋण का आंकड़ा 32570 करोड़ हो गया है। हर वर्ष यह आंकड़ा बढ़ता जा रहा है यह स्थिति यदि ऐसे ही चलती रही तो यह तय है कि अगले पांच- सात वर्षो में कर्ज उठाने लायक भी स्थिति नही रहेगी।
इसलिये सबसे पहला सवाल यह खड़ा होता है कि कर्ज के सिर पर विकास कब तक किया जाये। इस समय जितना कर्ज प्रदेश पर खड़ा है वह आखिर निवेश कहां हुआ है? क्योंकि आज भी प्रदेश में दस हज़ार अध्यापकों की कमी है, अस्पतालों में डाक्टरों की कमी है। रोजगार कार्यालयों में बेरोजगारों का आंकड़ा आठ लाख से ऊपर पहुंच चुका है। लोगों को पीने का पानी नही है यह अभी सामने आया है। पानी की गुणवत्ता कितनी और कैसी है यह पीलिया से हुई मौतों मे सामने आ चुका है। हां प्रदेश में सरकारी भूमि पर अवैध कब्जों का अांकड़ा 1,67000 का 2002 में उस समय सामने आया था तब अवैध कब्जों को नियमित करने की योजना बनाई गयी थी। इसी तरह का विकास अवैध निर्माणों में हुआ है क्योंकि सरकारें बार-बार रिटैन्शन पॉलिसियां लाती रही। इस समय प्रदेश के सार्वजनिक उपक्रमों के क्षेत्रा में बारह हज़ार करोड़ से कुछ अधिक का कुल निवेश है। इसमें अकेले ऊर्जा के क्षेत्र में ही ग्यारह हजार करोड़ से अधिक का निवेश है लेकिन प्रदेश की चारो ऊर्जा कंपनीयों की स्थिति लगातार घाटे की है। एक भी परियोजना कभी समय पर पूरी नही हुई है। कैग की हर रिपोर्ट में इस ओर ध्यान खिंचता आ रहा है। अभी कशांग परियोजना पर कैग ने साफ कहा है कि आज ही इसकी स्थिति यह हो गयी है कि प्रति यूनिट उत्पादक लागत 4.50 रूपये पहुंच चुकी है जबकि बिजली 2.50 रूपये यूनिट बिक रही है। बिजली बोर्ड की अपनी रिपोर्टों के मुताबिक बोर्ड की सभी परियोजनाओं में हर वर्ष हज़ारों घन्टो का शट डाऊन हो रहा है और इसके कारण प्रतिदिन करोड़ो के राजस्व का नुकसान हो रहा है जबकि निजिक्षेत्र की परियोजनाओं में छः आठ घन्टे से अधिक का साल में शट डाऊन नही है। इस प्रतिदिन हो रहे करोड़ों के राजस्व के नुकसान की ओर संवद्ध प्रशासन से लेकर विजिलैन्स तक का ध्यान नही गया है जबकि इस संद्धर्भ में उसके पास वाकायदा शिकायत रिकॉर्ड पर है। पिछले पांच वर्षों में बिजली की किसी भी बड़ी परियोजना के लिये कोई निवेशक नही आया है। इस तरह की स्थिति प्रदेश में बहुत सारे क्षेत्रों की है। प्रदेश का प्रशासन कितनी सक्षमता और गंभीरता से काम करता रहा है इसका साक्षात प्रमाण राज्य का वित्त निगम है जिसकी अध्यक्षता हर समय प्रदेश के मुख्य सचिव के पास पदेन रही है।
इस वस्तुस्थिति से यही उभरता है कि अब तक हमारी नीयत और नीति कर्ज लेकर घी पीने तक की ही रही है। सारी योजना का मुख्य बिन्दु हर रोज़ कर्ज के नये स्त्रोत तलाशने तक ही रहा है। प्रशासन से लेकर राजनीतिक नेतृत्व तक सभी तदर्थवाद पर ही चलते रहे हैं। किसी ने भी यह चिन्ता करने का प्रयास नही किया कि जिस दिन यह सब कुछ अचानक धराशायी हो जायेगा तो तब क्या होगा। यह कहना कतई गलत है कि प्रदेश के पास संसाधन नही है और यह आत्मनिर्भर नही हो सकता। इसके लिये नीयत और नीति चाहिये। लेकिन शायद तन्त्र की नीयत ‘‘ऋणम् कृत्वा धृतम पीवेत’’ की हो गयी है। नीति के लिये अध्ययन और जानकारी चाहिये। वह थोड़ा कठिन काम है परन्तु असंभव नही। इसलिये युवा मुख्यमन्त्री से यही आग्रह है कि कर्ज की स्थिति से बाहर निकलने के लिये नीयत दिखाओगे तो नीति भी कोई दिखा देगा।

घातक होगा मर्यादाएं लांघता वाकयुद्ध

शिमला/शैल। इन दिनों मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर की विपक्षी दल कांग्रेस के नेता सदन और पूर्व मुख्यमन्त्री वीरभद्र सिंह को लेकर की गयी एक टिप्पणी के बाद दोनों दलों के बीच एक ऐसा वाकयुद्ध छिड़ गया है जो मर्यादा की सीमाएं लांघता जा रहा है। जयराम को लेकर वीरभद्र ने एक टिप्पणी करते हुए कहा कि जयराम अभी राजनीति में बच्चे हैं। कांग्रेस के नेता सदन मुकेश अग्निहोत्री ने जयराम और उसकी सरकार की कार्यशैली तथा उनके द्वारा लिये जा रहे फैसलों की आलोचना तो बतौर नेता प्रतिपक्ष की है परन्तु कभी मुख्यमन्त्री पर व्यक्तिगत स्तर का आरोप नही लगाया है। जबकि जयराम ने वीरभद्र की टिप्पणी का तो कोई सीधा जवाब नही दिया लेकिन मुकेश अग्निहोत्री को लेकर व्यक्तिगत टिप्पणी पर आ गये। जयराम ने छुटट्भईया नेता कहने के साथ ही यह भी कह दिया कि वह पंजाब से लगते क्षेत्रा से ताल्लुक रखते हैं लेकिन उनका पंजाबी कल्चर यहां नही चलेगा। जब मुकेश अग्निहोत्रा ने भी ऊना में एक प्रैस वार्ता करके जयराम की टिप्पणी का जवाब दिया तो उससे भाजपा के अन्दर कितनी अंशाती पैदा हुई है इसका इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इस पर करीब आधा दर्जन मन्त्रीयों के नाम से प्रतिक्रियाएं आयी हैं। जब मुकेश ने जयराम को उसी की तर्ज पर जवाब दिया था तब कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने सोशल मीडिया के माध्यम से यह कहा था कि मुकेश को सयंम बरतना चाहिये था। तब लगा था कि शायद इस नेक सलाह का असर होगा। लेकिन जब इस सलाह के बावजूद आधा दर्जन मन्त्रीयों की प्रतिक्रियाएं उसी तर्ज पर आयीं तब लगा कि इस विषय पर एक सार्वजनिक चर्चा उठाने की आवश्यकता है।
जिस पत्रकार वार्ता में जयराम ने यह टिप्पणी की थी उसमें कोई भी दूसरा मन्त्री वहां पर उपस्थित नही था। इसलिये प्रतिक्रिया देने वाले मन्त्रीयों को उतनी ही जानकारी है जितनी की उन्हे तन्त्र के उन अधिकारयों द्वारा दी गयी होगी जो वहां मौजूद थे या फिर स्वयं मुख्यमन्त्री द्वारा जो बताया गया होगा। राजनीति में मुख्यमन्त्री या किसी भी दल का कोई भी दूसरा नेता एक दूसरे को बड़ा नेता कहे या छुट्टभईया नेता कहे यह उनकी अपनी समझ और उनके मानने की बात है। उससे किसी को कोई फर्क नही पड़ता है लेकिन जब ‘‘पंजाबी कल्चर’’ यहां नहीं चलेगा तो इससे एक बड़ा वर्ग आहत हो जाता है। एक तरह से देश के एक पूरे राज्य को अपने एक ही वाक्य के साथ अमान्य और अभद्र करार दे दिया जो कि किसी भी कसौटी पर जायज़ नही ठहराया जा सकता है। पंजाब की अपनी एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है और पूरा प्रदेश उसका सम्मान करता है। हिमाचल का वर्तमान आकार पंजाब के 1966 में हुए पुनर्गठन के बाद बना है। आज 68 विधायकों की विधानसभा में 31 विधायक पंजाब से हिमाचल में शामिल हुए क्षेत्रा से आते हैं। भाजपा के दोनो पूर्व मुख्यमन्त्री शान्ता कुमार और प्रेम कुमार इसी पंजाब की संस्कृति से आये हैं। भाजपा के इस समय के अध्यक्ष भी इसी कल्चर से हैं। जयराम के आधे मन्त्री भी इसी पंजाबी कल्चर से कुछ ताल्लुक रखते है। सबके आज भी पंजाब के साथ गहरे रिश्ते हैं। फिर जयराम के तो मुख्य सचिव शुद्ध पंजाबी है। क्या इन सबके आचार-व्यवहार से मुख्यमन्त्री खुश नही है या सहमत ही नही है। मुख्यमन्त्री की पंजाबी कल्चर की टिप्पणी का पूरे क्षेत्र पर नकारात्मक असर हुआ है और आने वाले समय में इन पंजाब से आये क्षेत्रों के लोग अपने विधायकों और मन्त्रीयो से जवाब मांगे तो इस पर कोई आश्चर्य नही होना चाहिये।
राजनीति में आप किसे बड़ा छोटा मानते हैं इससे आम आदमी को फर्क नही पड़ता है लेकिन जब आप एक टिप्पणी से पूरे एक वर्ग को एक क्षेत्र को नकार देते हैं तो उस पर हर संवेदनशील व्यक्ति आहत होता है और ऐसी टिप्पणीयों के अर्थ समझने का प्रयास करता है। कई बार ऐसी टिप्पणीयां गंभीर मुद्दों पर से आम आदमी क्या ध्यान हटाने के लिये भी की जाती है परन्तु उसका स्थायी लाभ नही मिल पाता है। क्योंकि आज हर आदमी चीजों पर अपने -अपने ढंग से नज़र रखता है। फिर यह तो एक छोटा सा प्रदेश है और इसका छोटा सा सचिवालय है जिसमें किसी भी चीज़ को ज्यादा देर तक गुप्त रख पाना संभव नही है। कौन मंत्री या अधिकारी क्या कर रहा है कौन किससे मिल रहा है यह सारी जानकारियां पत्रकारों के पास तो आ ही जाती है। क्योंकि जब कोई व्यक्ति किसी भी तरह तन्त्र से पीड़ित रहता है तब वह अपनी आवाज़ को जनता तक पहुंचाने के लिये मीडिया का ही सहारा लेता है। सरकार के शासन सुशासन पर हरेक की नज़र बनी हुई है। किसको कितना जायज़ या नाजायज़ लाभ दिया जा रहा है इस पर भी सबकी नज़र है। फिर आरटीआई से तो जानकारियां जुटाना और आसान हो गया है इसलिये सत्ताप़क्ष और विपक्ष दोनो से ही यह आग्रह है कि इस तरह के वाक्युद्ध में उलझ कर जनता के मुद्दों की बलि मत दीजिये। क्योंकि भ्रष्टाचार के खिलाफ दोनों दलों की सरकारों का पुराना रिकार्ड बहुत अच्छा नही है। भ्रष्टाचार पर ब्यान केवल जनता का ध्यान बांटने के लिये आते हैं इसके खिलाफ कारवाई करने की गंभीरता से नही। लेकिन यह सब अब जनता की सहन शक्ति से बाहर होता जा रहा है जनता सरकारें इसके लिये चुनकर नही भेजती है कि सरकार उसके सिर पर कर्ज का बोझ बढ़ाती जाये और जनता के पैसे को लुटाती रहे जैसा कि अब कुछ मुद्दों में सामने आ रहा है।

क्या अप्रसांगिक हो रही है आईएएस व्यवस्था

भारत सरकार ने पैट्रोलियम, वित्त, आर्थिक मामले कृषि और स्टील आदि कुछ मन्त्रालयों में संयुक्त सचिवों के दस पद भरने के लिये निजिक्षेत्र में काम कर रहे लोगां से आवेदन मांगे हैं। यह पद तीन वर्ष के अनुबन्ध पर भरे जायेंगे और अनुबन्ध की अवधि दो वर्ष बढ़ाई जा सकती है। निजिक्षेत्र से अनुभवी लोगों को पहले भी ऐसी एक-आध नियुक्तियां दी जाती रही है। बल्कि भारत सरकार में सचिव स्तर तक ऐसे लोग सेवाएं दे चुके हैं। पैट्रोलियम और वित्त मंत्रालयों में निजिक्षेत्र से आये लोग सचिव रह चुके हैं। लेकिन ऐसे लोगों को जब भी लाया गया तो उन्हें स्थायी नियुक्तियां दी गयी थी। अनुबन्ध के आधार पर ऐसी नियुक्तियांं का प्रयोग पहली बार हो रहा है। इन लोगों का चयन संघ लोक सेवा आयोग नहीं बल्कि कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में बनी कमेटी करेगी। एक साथ दस लोगों को विभिन्न मन्त्रालयों में संयुक्त सचिव के पद पर तीन वर्ष के अनुबन्ध पर नियुक्ति किये जाने से स्वभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि क्या सरकार देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा में कोई नियोजित प्रयोग करने जा रही है। यदि यह प्रयोग सरकार के अघोषित लक्ष्यों की पूर्ति के मानदण्ड पर सफल रहता है तो क्या आईएएस की जगह कोई नयी प्रशासनिक व्यवस्था देखने को मिलेगी? ऐसे बहुत सारे सवाल सरकार के इस फैसले के बाद उठ खड़े हुए हैं। क्योंकि इस फैलले से पहले यह भी एक फैसला चर्चा में रहा है कि अब आईएएस को लोकसेवा आयोग के चयन पर ही राज्यों का आबंटन नही हो जायेगा बल्कि प्रशिक्षण पूरा करने के बाद जो परिणाम रहेगा उसके आधार पर आवंटन किया जायेगा।
सरकार के इन फैसलों से पहली चीज तो यह उभरती है कि सरकार आईएएस की मौजूदा व्यवस्था को उपयोगी नही मान रही है। इसके विकल्प के रूप में कुछ नया लाना चाहती है। इस समय जो लोग इन पदों पर अनुबन्ध के आधार पर नियुक्त होंगे वह निश्चित तौर पर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी या किसी बड़े औद्यौगिक घराने में अपनी सेवायें दे रहे होंगे। क्योंकि इन पदों के लिये योग्यता की शर्त यही है कि वह इसके लिये अपने को Talented मानते हों। आईएएस बनने के लिये शैक्षणिक योग्यता आज भी स्नातक ही है चाहे वह किसी भी स्ट्रीम से स्नातक हो। आईएएस हो जाने के बाद सोलह वर्ष के कार्यकाल के बाद संयुक्त सचिव बन जाता है लेकिन निजिक्षेत्र से आने वाले का न्यूनतम अनुभव कितने वर्ष का होगा यह स्पष्ट नही किया गया है। इसका आकलन यह चयन कमेटी ही करेगी। आईएएस एक प्रशासनिक सेवा है उसका प्रशिक्षण प्रशासन चलाने के उद्देश्य से किया जाता है। प्रशासन में सबसे निचले कर्मचारी से लेकर शीर्ष अधिकारी तक सबके दायरे अधिकार और कर्तव्य पूरी तरह परिभाषित हैं। हम एक वेल्फेयर स्टेट हैं जहां हर कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक सबसे लोक कल्याण के हित में काम करना अपेक्षित रहता है। इसमें "Public interest " सर्वोपरि रहता है। इसीलिये सरकार में हर अधिकारी /कर्मचारी को उसकी सेवानिवृति उसे सेवा की सुरक्षा मिली हुई है।
इसके विपरीत निजिक्षेत्र में यह नही है कि उसके अधिकारी/कर्मचारी को एक निश्चित अवधि तक सेवाकाल की सुरक्षा नही है। निजिक्षेत्र में वेल्फेयर स्टेट की अवधारणा भी लागू नही होती है। वहां तो नौकर को मालिक वेल्फेयर की पूर्ति करनी है। उसे मालिक को अधिक से अधिक लाभ कमाकर देना है। निजिक्षेत्र लाभ की अवधारणा पर चलता है जबकि सरकार वेल्फेयर की। सबका हित- सबका कल्याण, सबका विकास यह वेलफेयर स्टेट के मूल उद्देश्य हैं। इसमें लाभ से पहले कल्याण रहता है लेकिन निजिक्षेत्र में यह कल्याण और लाभ एक व्यक्ति, एक कंपनी या एक औ़द्यौगिक घराने तक ही सीमित रहता है। ऐसे में जिस व्यक्ति को तीन या पांच वर्ष के अनुबन्ध पर नियुक्त किया जायेगा उसे प्रशासन की सारी बारिकियां समझने में समय लगेगा। बल्कि वह तो जिस भी संस्थान से पूर्व में जुड़ा रहा होगा उसी कार्य संस्कृति से प्रभावित रहेगा और उन्ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिये कार्य करेगा। सयुंक्त सचिव कृषि के पद पर बैठकर वह किसान के हित में स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू करवाने में नीति के स्तर पर क्या योगदान दे पायेगा। वह किसान का कर्जा माफ किये जाने की वकालत कैसे कर पायेगा वित्त और आर्थिक मामलों का संयुक्त सचिव क्या एनपीए की व्यवस्था को समाप्त करने की राय दे पायेगा। क्या वह बहुराष्ट्रीय कंपनीयों के हितों से विपरीत जा पायेगा। यदि कोई अंबानी- अदानी औद्यौगिक घरानों से जुड़ा व्यक्ति पैट्रोलियम या रक्षा उत्पादन में संयुक्त सचिव हो जाता है तो क्या वह पैट्रोलियम को जीएसटी के दायरे में लाने की वकालत करेगा। रक्षा उत्पादन में क्या वह शफेल डील पर सवाल उठा पायेगा? इसलिये सरकार को यह प्रयोग करने से पहले इसके निहित उद्देश्यों की जानकारी जनता के सामने रखनी होगी।
यदि सरकार को लगता है कि आईएएस व्यवस्था अप्रसांगिक होती जा रही है और उसे हर मन्त्रालय में विषय विशेषज्ञ चाहिये तो उसे आईएएस व्यवस्था में अलग से सुधार करने चाहिये। जिन क्षेत्रों में विशेषज्ञ चाहिये उनके लिये आईएएस मे ही पोस्टल, राजस्व और आडिट की तर्ज पर अलग सेवाआें की व्यवस्था करनी होगी। इसके लिये शैक्षणिक योग्यताएं भी स्नातक से बढ़ाकर विषय विशेषज्ञता की तय करनी होंगी, अन्यथा जो प्रयोग अब किया जाने लगा है उससे यही संदेश जायेगा कि सरकार संघ की विचारधारा से जुड़े लोगों को कुछ प्रमुख पदों पर बैठाने की जुगाड़ भिड़ा रही है।

सम्पर्क से समर्थन तक

भाजपा ने इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर ‘‘संपर्क से समर्थन’’ की एक रणनीति योजना शुरू की है। इसके तहत पार्टी ने अपने मन्त्रिायों सहित तमाम बड़े नेताओं को निर्देश दिये हैं कि वह अपने अपने राज्यों में विभिन्न क्षेत्रों के बड़े लोगों से मिलकर उनसे पार्टी के लिये समर्थन हासिल करें। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने इस रणनीति की शुरूआत महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे व अन्य लोगों तथा पंजाब में प्रकाश सिंह बादल से मिलकर की है। केन्द्र में भाजपा की मोदी सरकार को 26 मई को सत्ता में आये चार साल हो गये हैं। 2014 में जब लोकसभा के चुनाव हुए थे तब इन चुनावों से पूर्व राम देव और अन्ना हज़ारे के आन्दोलनों से देश में बड़े स्तरों पर हो रहे भ्रष्टचार के खिलाफ एक बड़ा जनान्दोलन खड़ा हो गया था। इस आन्दोलन की जमीन तैयार करने में प्रशांत भूषण ने भ्रष्टाचार के कई बड़े मामलों को सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाकर कर एक बड़ी भूमिका निभाई थी। क्योंकि अदालत ने इन मामलों की सीबीआई जांच के आदेश देकर इसकी गंभीरता और विश्वसनीयता बढ़ा दी थी। इसी परिदृश्य में सिविल सोसायटी ने लोकपाल की मांग उठाई थी। इस तरह कुल मिलाकर जो वातावरण उस समय देश के अन्दर खड़ा हो गया था उससे तब सत्तारूढ़ यूपीए सरकार के खिलाफ बदलाव का माहौल खड़ा हुआ। इसका लाभ भाजपा को मिला जो अकेले अपने दम पर 283 सीटें जीत गयी। उस समय विदेशों में पड़े लाखों करोड़ों के कालेधन की वापसी से हर व्यक्ति के खाते में पन्द्रह लाख आने के दावों और अच्छे दिनों के वायदे ने भाजपा को यह सफलता दिलाई थी। उस समय भाजपा को बड़े लोगों से संपर्क करके समर्थन मांगने की आवश्यकता नही पड़ी थी।
अब इन चार वर्षों में जो कुछ घटा है और अच्छे दिनों के वायदे के तहत लोगों को जो जो लाभ मिले हैं उसी की व्यवहारिकता का परिणाम है भाजपा इस दौरान हुए लोकसभा के अधिकांश उपचुनाव हार गयी है। देश के सबसे बडे़ राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है। भाजपा के अपने ही घटक दलों के साथ रिश्ते अब बिखरास पर आ गये हैं। इस परिदृश्य में भाजपा को आज ‘‘संपर्क से समर्थन’’ की योजना पर उतरना पड़ा है। 2014 में किये गये वायदे कितने पूरे हुए हैं यह हर आदमी के सामने आ चुका है। संघ-भाजपा की वैचारिक स्वीकार्यता कितनी बन पायी है और इस विचारधारा की सोच कितनी सही है इसका एक बहुत बड़ा खुलासा संघ मुख्यालय में पूर्व राष्ट्रपति महामहिम प्रणव मुखर्जी के भाषण के बाद सामने आ गया है। इस तरह कुल मिलाकर जो वातावरण आज भाजपा के खिलाफ खड़ा होता जा रहा है उसी का परिणाम है कि भाजपा नेताओं को सामज के बुद्धिजीवि वर्ग के लोगों से संपर्क बढ़ाने और समर्थन मांगने की आवश्यकता आ खड़ी हुई है।
इसी कड़ी में केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा को शिमला आकर सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज लोकेश्वर पांटा, प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव एसएस परमार, पूर्व जज अरूण गोयल, पूर्व नौकरशाह जोशी और लेखक एसआर हरनोट के यहां दस्तक देनी पड़ी है। यह लोग कोई सक्रिय राजनीति के कार्यकर्ता नहीं है और न ही किसी बड़े समाजिक आन्दोलन के अंग हैं जो भाजपा की नीतियों और विचारधारा से आश्वस्त होकर आम आदमी में उसकी पक्षधरता की वकालत करेंगे या संघ भाजपा के पक्ष मे कोई बड़ा ब्यान देकर किसी बहस को अंजाम देंगे। नड्डा ने इन लोगों से मिलकर पार्टी की ओर से दी गयी जिम्मेदारी निभा दी है और अखबारों में इसकी खबर छपने से उनको इसका प्रमाण पत्र भी मिल गया है। लेकिन इसी परिदृश्य में नड्डा से बतौर केन्द्रिय मन्त्री कुछ सवाल प्रदेश की जनता की ओर से पूछे जाने आवश्यक है। सवाल तो कई हैं लेकिन मैं केवल दो सवाल ही उठाना चाहूंगा। पहला सवाल है कि प्रधानमन्त्री मोदी से लेकर नड्डा तक भाजपा के हर बड़े नेता ने पिछले लोकसभा चुनावों से लेकर विधानसभा चुनावों तक वीरभद्र के भ्रष्टाचार को प्रदेश की जनता के सामने एक बड़ा मुद्दा बनाकर उछाला था। यह कहा था कि इनके तो पेड़ों पर भी पैसे लगते हैं। नड्डा जी इन आरोपों की जांच आपकी केन्द्र की ऐजैन्सीयों ने ही की है इन ऐजैन्सीयों ने वीरभद्र के साथ बने सहअभियुक्तों आनन्द चौहान और वक्कामुल्ला को तो इसलिये गिरफ्तार कर लिया कि इन्होने भ्रष्टचार करने में वीरभद्र का सहयोग किया। लेकिन जिसको इस सहयोग से लाभ मिला उस वीरभद्र को तो आप हाथ नही लगा सके। ऐसा क्यों और कैसे हुआ? क्या वीरभद्र के खिलाफ जानबूझ झूठे मामले बनाये गये थे या कुछ और था क्या इसका कोई जवाब आप प्रदेश की जनता को दे पायेंगे?
इस कड़ी में मेरा दूसरा सवाल यह है कि मोदी जी ने मण्डी की चुनावी जनसभा में प्रदेश की वीरभद्र सरकार से 72 हजार करोड़ का हिसाब मांगा था। यह कहा था कि उनकी सरकार ने केन्द्र की ओर से 72000 करोड़ की आर्थिक सहायत दी है मोदी ने वीरभद्र से पूछा था कि उन्होने यह पैसा कहां खर्च किया। अखबारों में यह बड़ी खबर छपी थी क्योंकि यह बड़ी जानकारी थी आम आदमी के लिये। लेकिन अब प्रदेश में आपकी सरकार बन गयी उसके बाद आये अपने पहले ही बजट भाषण में मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर ने केन्द्र से प्रदेश को मिली सारी धनराशी का आंकड़ा 46000 करोड़ कहा है। जयराम का बजट भाषण सदन के रिकार्ड में मौजूद है। मोदी और जयराम के आंकड़ो में 26,000 करोड़ का अन्तर है। मोदी के भाषण की रिकार्डिंग भी उपलब्ध है। ऐसे में नड्डा जी क्या आप बतायेंगे कि मोदी और जयराम में कौन सही और सच्च बोल रहा है। इसी तरह के कई सवाल जयराम सरकार से भी उठाये जायेंगे। लेकिन अभी नड्डा जी से इतना ही अनुरोध है कि इन सवालों के परिदृश्य में मोदी सरकार समर्थन की कितनी हकदार है।

फिर हुई भाजपा की वैचारिक हार

शिमला/शैल। कर्नाटक विधानसभा चुनावों के बाद देश में चार लोकसभा और ग्यारह विधानसभा सीटों के लिये उपचुनाव हुआ है। इस उपचुनाव में भाजपा लोकसभा की तीन और विधानसभा की दस सीटें हार गयी है। कर्नाटक चुनाव के बाद जद(एस) और कांग्रेस ने मिलकर उस समय सरकार बनायी जब भाजपा सदन में अपना बहुमत सिद्ध नही कर पायी। लेकिन भाजपा और उसके पक्षधरों ने जिस तरह से इस गठबन्धन को लोकतन्त्र की हत्या करार दिया तथा इसके तर्क में पूर्व के सारे राजनीतिक इतिहास को जनता के सामने परोसा उसमें लगा था कि अब भाजपा एक भी उपचुनाव अन्य दलों को जीतने नही देगी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने दावा किया था कि वह पिछला उपचुनाव अति विश्वास के कारण हारे हैं लेकिन आगे हम कोई भी सीट नही हारेंगे पूरी ताकत और रणनीति से लड़ेंगे। सही में इस उपचुनाव में योगी सरकार ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी यहां तक की बागपत में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की एक रैली तक करवाई। इस रैली में हर तरह की घोषणाएं प्रधानमन्त्री से यहां के लोगों के लिये करवाई। लेकिन इस सब के बावजूद यूपी की दोनों सीटों पर भाजपा हार गयी। बिहार में नीतिश भाजपा की सरकार होने के बावजूद वहां पर आरजेडी भारी बहुमत से जीत गयी।
भाजपा की यह हार क्या विपक्ष की एक जूटता के प्रयासों का परिणाम है या यह हार संघ भाजपा की नीयत -नीति और विचारधारा की हार है। यह एक बड़ा सवाल इन उपचुनावों के बाद विश्लेष्कों के सामने खड़ा हो गया है। क्योंकि भाजपा ने पिछले चुनावों में किसी भी मुस्लिम को अपना उम्मीदवार नही बनाया था। फिर पिछले दिनों जिस तरह तीन तलाक के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया और उसे भाजपा ने केन्द्र सरकार की एक बड़ी सफलता करार दिया तथा दावा किया कि मुस्लिम समाज उनके साथ खड़ा हो गया है। आज यूपी में आरएलडी के उम्मीदवार के रूप में एक मुस्लिम महिला का चुनाव जीत जाना भाजपा के दावे और धारणा दोनों को नकारता है। यूपी से शायद पहली मुस्लिम महिला सांसद बनकर संसद में पहुंची है। इस उपचुनाव से पहले आरएलडी प्रमुख अजीत चौधरी के खिलाफ मुकद्दमा तक दर्ज किया गया। बिहार में लालू परिवार के खिलाफ तो मामले आगे बढ़ाये गये लेकिन नीतिश कुमार के खिलाफ बने आपराधिक मामले में एक दशक से भी अधिक समय से कोर्ट का स्टे चल रहा है। रविशंकर प्रसाद जब विधानसभा चुनावों के दौरान शिमला आये तब उनकी प्रैस वार्ता में मैने उनसे यह सवाल पूछा था। उन्होनें इस स्टे को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया था। यह संद्धर्भ यहां इसलिये प्रासंगिक हो जाता है क्योंकि बिहार की जनता के सामने लालू और नीतिश -भाजपा में किसी एक को चुनने का विकल्प था। बिहार की जनता ने दूसरी बार लालू की आरजेडी को उपचुनाव में समर्थन दिया है।
इस परिदृश्य में भाजपा की हार का विश्लेषण किया जाना आवश्यक हो जाता है क्योंकि उत्तर प्रदेश के इन उप चुनावों में पचास से अधिक केन्द्रिय मन्त्रीयों की बूथ वाईज़ डयूटीयां लगायी गयी थी। एक मन्त्री राही ने जनता को संबोधित करते हुए यहां तक कह दिया था कि यदि आप भाजपा को वोट नही दोगे तो मै तुम्हे श्राप दे दुंगा और उससे तुम्हें पीलिया हो जायेगा। न्यूज चैनल ने मन्त्री का यह संबोधन लाईव दिखाया था। इसी मन्त्री की तरह संघ भाजपा के कई कट्टर कार्यकर्ता सोशल मीडिया में नेहरू गांधी परिवार को गाली देने के लिये जिस तरह की हल्की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं जिस तरह सेे इतिहास के तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर मनचाही व्यख्या दे रहे उससे उनके मानसिक स्तर का ही पता चलता है। प्रधानमन्त्री स्वयं जिस तरह से कई बार इतिहास की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं और एकदम हल्की भाषा का प्रयोग करते हैं उस पर तो कर्नाटक चुनावों के बाद पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह स्वयं राष्ट्रपति को पत्र लिख चुके हैं। संघ अपने को इस देश की संस्कृति का एक मात्र ध्वज वाहक मानता है। इस देश की सांस्कृतिक विरासत में भाषा की शालीनता सर्वोपरि रही है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज अपने को संघ स्वयंसेवक करार देने वाले सोशल मीडिया की पोस्टों में भाषाई मर्यादा का उल्लंघन कर रहें हैं। ऐसे लोग जिस तरह का झूठ परोस रहे हैं उससे अन्ततः संघ और भाजपा का ही नुकसान हो रहा है। क्योंकि जिस तरह के तथ्य नेहरू गांधी परिवार को लेकर परोसे जा रहे हैं उस पर जनता विश्वास करने की बजाये परोसने वालों के प्रति ही एक अलग धारणा बनाती जा रही है। मेरा स्पष्ट मानना है कि अतार्किक ब्यानों और हल्की भाषा के प्रयोग से केवल यही संदेश जाता है कि आप केवल सत्ता हथियाने के लिये ही ऐसे ओछे हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। आज यह आम माना जाने लगा है कि भाजपा के आई टी सैल में नियुक्त हजा़रों लोग केवल गोयल के इसी प्रयोग पर अमल कर रहे हैं कि एक झूठ को सौ बार बोलने से वह सच बन जाता है।
आज प्रधानमन्त्री यह दावा कर रहे हैं कि देश में रिकार्ड विदेशी निवेश हुआ है जबकि दूसरी ओर मूडीज़ ने सरकार के विकास दर 7.5% रहने के आकलन को 7.3% आंका है। यदि प्रधानमन्त्री का विदेशी निवेश का दावा सच्च है तो फिर विकास दर तो 8ः से ऊपर होनी चाहिये थी। आज जनता ने प्रधानमन्त्री के दावों और ब्यानों को गंभीरता से लेने की बजाये शुद्ध शब्द जाल करार देना शुरू कर दिया है। कुल मिलाकर अच्छे दिनो का जो भरोसा देश की जनता को दिया गया था वह पूरी तरह टूट चुका है। यूपी के उपचुनावों की हार योगी से अधिक मोदी की हार है। भाजपा के पास मोदी और शाह के अतिरिक्त कुछ भी नही है और यह दोनों अपनी विश्वनीयता तेजी से खोते जा रहे हैं। क्योंकि इस उपचुनाव में कैराना में हुई हार पर भाजपा समर्थकों की यही प्रतिक्रिया आई है कि यह हिन्दुत्व की हार है। ऐसी प्रतिक्रिया पर यह सवाल उठना स्वभाविक है कि क्या यह चुनाव यह जानने के लिये हो रहा था कि हिन्दु मुस्लिम में से कौन अच्छा इन्सान है या देश की संसद के लिये एक अच्छा सांसद चुनकर भेजने के लिये हो रहा था। इस उपचुनाव में जिस तरह जिन्ना का प्रकरण लाया गया और उसपर मुख्यमन्त्री योगी की यह प्रतिक्रिया आना कि हम यहां पर जिन्ना की फोटो नही लगने देंगे। एक मुख्यमन्त्री की इस तरह का वैचारिक हल्कापन जब सार्वजनिक रूप से सामने आता है तब संगठनों को लेकर एक अलग ही आंकलन का धरातल तैयार होता है आज भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण यही बनता जा रहा है।

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