Tuesday, 16 December 2025
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शिमला से श्यामला की कवायद क्यों

जयराम सरकार ने शिमला का नाम बदलकर श्यामला करने की मंशा जाहिर की है। इस पर लोगों की प्रतिक्रियाएं क्या रहती हैं इसका इन्तजार किया जा रहा है। यह नाम बदलनेे का सुझाव विश्वहिन्दु परिषद् की ओर से आया है। ऐसे में यह तय माना जाना चाहिये की कुछ दिनों की बहस के बाद इसे बहुमत की मंाग करार देकर यह नाम बदल दिया जायेगा। नाम बदलने से सरकार के ना एक बड़ीे उपलब्धि दर्ज हो जायेगी कि उसनेे ब्रिटिशशासन के एक प्रतीक को बदलकर पुरानी सांस्कृतिक पहचान को पुनः स्थापित करने की दिशा में पहला कारगर कदम उठा लिया है। वैसेे तो सरकार की नीयत का पता तो तभी चल गया था जब शिमला के सौन्दर्यकरण के ऐजैन्डे से यहां स्थित चर्चां की रिपेयर को अचानक नज़र अन्दाज कर दिया गया और उस पर कहीं से भी कोई आवाज नहीं उठी। सरकार के पास अपना पूर्ण बहुमत है इसलिये किसी भी विरोध से कोई फर्क नही पड़ेगा। संघ परिवार का ब्रिटिश और मुग्ल दासत्तां के प्रतीकों के प्रति किस तरह की धारणा है इसे सभी जानते हैं। ऐसे में उनके द्वारा बनाये गये भवनों और बसाये गये शहरों के नाम बदलकर अपनी पुरातन संस्कृति की स्थापना करना सबसे आसान काम है। फिर जब योगी आदित्यनाथ इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज कर सकते है तो जयराम शिमला को श्यामला क्यों नहीं कर सकते।
आज शिमला को सही में ही श्यामला बनाने की आवश्यकता है। क्योंकि आज का शिमला कंकरीट के जंगल में बदल चुका है। यह बदलाव कितना भयानक आकार ले चुका है इस पर एनजीटी, प्रदेश उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय तक गंभीर चिन्ता व्यक्त कर चुके हैं। इसी चिन्ता को स्वर देते हुए यहां नये निर्माणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। लेकिन शिमला का नाम बदलकर श्यामला करने वाली जयराम सरकार अदालत के इस प्रतिबन्ध को अधिमान देने की बजाये अदालत के फैसले को चुनौती देेने की बात कर रही है। अवैध निर्माणों को सख्ती से रोकने की बजाये उन्हे राहत देने के रास्ते निकाले जा रहे है। जब अवैध निर्माणों को रोका नही जायेगा तो फिर नाम बदलकर ही आप शिमला को श्यामला नही बना पायेंगे शिमला में पिछले दिनों पेयजल की कितनी गंभीर समस्या रही है यह पूरे देश के सामनेे आ चुका है। शहर में पार्किंंग की समस्या कितनी गंभीर है इसका आकलन इसी से किया जा सकता है कि प्रदेश उच्च न्यायालय ने नये वाहनों के पंजीकरण के लिये अपनी पार्किंग होने की शर्त लगा दी है। जब तक अपनी पार्किंग उपलब्ध नहीं होगी आप गाड़ी खरीदकर उसका पंजीकरण नही करवा सकते हैं। हर सड़क पर घन्टों टैªफिक जाम लग रहे हैं। यह आज के शिमला की व्यवहारिक सच्चाई बन चुकी है। इस समय शहर को इन समस्याओं से निजात दिलाने की आवश्यकता है और इसमें नाम बदलने से कुछ भी हल होने वाला नही है।
बल्कि नाम बदलने की बहस छेड़कर क्या सरकार असली समस्याओं पर से ध्यान हटाने का प्रयास करने जा रही है यह सवाल उठने लग पड़ा है। क्योंकि इस बार बरसात में जो नुकसान हुआ है वह आने वाले समय में एक स्थायी फीचर होने जा रहा है यदि इस समय एनजीटी के आदेशो का आक्षरशः पालन नही किया गया तो निश्चित रूप से ही इसके परिणाम बहुत गंभीर होंगे। सरकार वोट की राजनीति के चलतेे अदालत के फैसलों पर अमल करने का साहस नही जुटा पा रही है। जबकि प्राकृतिक आपदाओं के संकट की चेतावनी हर जिम्मेदार मंच से सामनेे आ चुकी है। शिमला का रिज और लक्कड़ बाज़ार एरिया 1971-72 में धंसना शुरू हुआ था जो अब स्थायी फीचर बन चुका है। सैंकड़ो करोड़ इस धंसने को रोकने पर खर्च हो चुके हैं। इसलिये आज की आवश्यकता शिमला को संभावित प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लियेे ठोस और कड़े कदम उठाने की है और यह नाम बदलने से ही होने वाले नही है। फिर आज शिमला को शिमला होने के कारण ही हैरिटेज के नाम पर सौन्दर्यकरण आदि केे लिये विश्व संस्थाओं से करोड़ो रूपये मिल रहे हैं क्योंकि हैरिटेज को संजो कर रखा हुआ है। लेकिन कल जब शिमला श्यामला हो जायेगा तो हैरिटेज के नाम पर मिलने वाली सहायता के भी बन्द होने का खतरा हो जायेगा। ऐसे में यह नाम बदलनेे की कवायद किसी भी तरह से लाभदायक नही रहेगी। इससे केवल एक राजनीतिक बहस चलेगी। हो सकता है कि उससे वैचारिक धु्रवीकरण तो खड़ा हो जाये लेकिन व्यवहारिक रूप से यह नुकसादेह ही रहेगा।

राफेल की जद में सरकार

  फ्रांस से खरीदा जा रहा लड़ाकू विमान राफेल दुश्मनों के खिलाफ का इस्तेमाल होगा यह तो इसके अव्यहारिक तौर पर आ जाने के बाद ही पता चलेगा। लेकिन अभी इसकी खरीद प्रक्रिया पर उठते सवालों ने ही जो हमला देश की सियासत पर बोला है उसने सबकुछ हिला कर रख दिया है। कांग्रेस और अन्य विपक्षीदल इस पर जेबीसी की मांग कर रही है और सरकार इसके लिये तैयार नही हुई है। इसके बाद सीबीसी के संज्ञान में भी यह मामलां दिया गया है। सीएजी से भी इसकी जांच करवाने की मांग की जा चुकी है। पूर्व मन्त्री यशवन्त सिंह, और अरूण शोरी तथा वरिष्ठ वकील प्रंशात भूषण इसमें एफआईआर दर्ज किये जाने का लिखित आग्रह कर चुके हैं। लेकिन मोदी सरकार इस सौदे की गोपनीयता को आधार बनाकर हर तरह की मांग को ठुकरा चुकी है। इस सौदे पर उठा विवाद प्रशांत किशोर के जुमले ‘‘ चौकीदार ही चोर निकला’’ के मुकाम तक पहुंच गया है। इस जुमले से हर कहीं दिवारें पोती जा रही हैं और कई जगह तो पुलिस इसे देशद्रोह की संज्ञा देती नज़र आ रही है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो इसी सौदे को लेकर प्रधानमन्त्री पर भ्रष्टता का आरोप लगाते हुए उनसे त्पागपत्रा तक की मांग कर डाली है। यह मामला एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुका और शीर्ष अदालत ने इसकी खरीद से जुड़ी सारी प्रक्रिया का रिकार्ड सरकार से तलब कर लिया है।

फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलाँद के ब्यान से राहूल गांधी के आरोपों को बल मिला है। पर्वू राष्ट्रपति ओलाँद के अतिरिक्त फ्रांस की ही एक न्यूज साईट मीडिया पार्टनर ने इस सौदे से जुड़ी कंपनी दसॉल्ट के कुछ दस्तावेज सार्वजनिक करते हुए अनिल अंबानी की सहभागिता पर और गंभीरता जोड़ दी है। कुल मिलाकर यह मुद्दा आज देश की राजनीति का कन्द्रीय सवाल बन चुका है। इस मुद्दे पर भाजपा प्रवक्ता डॉ. संबित पात्रा जिस तरह से सरकार का पक्ष मीडिया के सामने रखते आ रहे हैं उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके पास इस सौदे से जुड़े सारे दस्तावेज उपलब्ध हैं। क्योंकि जिस विस्तार से डॉ. पात्रा इस पर बोलते आ रहे हैं उस विस्तार से तो रक्षामंत्री सीता रमण और सेना अध्यक्ष भी नही बोले हैं। निश्चित है कि डॉ. पात्रा जिन दस्तावेजों के सहारे बोले आ रहे हैं वह उनके पास सरकार से ही आये होंगे क्योंकि वह सत्तारूढ़ दल के ही प्रवक्ता हैं। इसलिये यहां यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब संबित पात्रा के पास दस्तावेज हो सकते हैं तो वही दस्तावेज देश की जनता के सामने क्यों नही आ सकते? पात्रा सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता हैं लेकिन वह सरकार नही हैं। यदि उनके पास दस्तावेज सरकार के माध्यम से नही आये हैं तो फिर यह गोपनीय दस्तावेज उनके पास कहां से आ गये? क्योंकि न तो उनके वक्तव्यों का सरकार ने कभी कोई खण्डन किया है और न ही उनके स्त्रोत को लेकर किसी ने कोई सवाल उठाया है। जब इस मुद्दे को ‘‘राष्ट्रीय सुरक्षा गोपनीयता’’ के नाम पर संयुक्त संसदीय दल के सामने नही रखा जा रहा है तो फिर पात्रा के पास इतनी जानकरी कैसे? और इसी जानकारी को देश के साथ सांझा क्यों नही किया जा सकता? सरकार के इस आचरण से सरकार का अपना ही पक्ष कमज़ोर है।
इसी के साथ जुड़ा दूसरा सवाल यह है कि जब सरकार यह दावा कर रही है कि उसने कुछ भी गलत नही किया है तो फिर वह इसकी जांच से पीछे क्यों भाग रही है? यदि अंबानी को इस सौदे में शामिल करना पूरी तरह नियम सम्मत हुआ है तो इसका प्रमाण देश के सामने रखने से सरकार क्यों हिचक रही है। जब अंबानी इस सौदे में उनकी भूमिका को लेकर सवाल उठाने वालों के खिलाफ मानहानि के नोटिस भेज सकते हैं तो वह इसकी जांच के लिये आगे क्यों नही आ रहे हैं। अपने ऊपर लग रहे आरोपों पर कोई सफाई देने से ज्यादा अच्छा तो यही होगा कि वह स्वयं इसमें जांच किये जाने की मांग करें। सरकार इसकी जांच से जिस तरह भागती जा रही है उससे उस पर लगने वाले आरोप उतने ही गंभीर होते जा रहे हैं। यदि सरकार इस जांच के लिये आगे नही आती है तो उसे आने वाले चुनावों में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।

फैसलों के आईने में जयराम सरकार

जयराम सरकार को सत्ता में आये नौ माह का समय हो गया है। इस दौरान दर्जनों मन्त्रीपरिषद की बैठकें हो चुकी है और हर बैठक में दर्जनों फैसले लिये गये है। लेकिन क्या इन सभी फैसलों की समीक्षा गुण दोष के आधार पर किये जाने की कोई आवश्यकता कभी उभरी है शायद नही क्योंकि अधिकांश फैसले तो ऐसे रहे है जो हर सरकार की सामान्य प्रक्रिया की एक अभिन्न अंग होते है। सरकार की सामान्य प्रक्रिया में हर कार्य के निष्पादन के लिये रूल्ज़ ऑफ विजनैस बने हुए है। इन रूल्ज़ के साथ ही हर विभाग में अपना-अपना स्टैण्डिंग आर्डर भी रहता है। ऐसे में सामान्यत जब प्रशासन स्वभाविक रूप से इन नियमों का पालन करते हुए अपना काम निपटाता रहता है तब उस पर कहीं से कोई सवाल उठता ही नही है। सवाल तब उठने शुरू होते है जब इस तय प्रक्रिया को नजर अन्दाज किया लाना शुरू होता है। वैसे तो प्रशासन के मनोविज्ञान को समझने वाले जानते हैं कि प्रशासन अपनी पकड को बनाये रखने के लिये हर सत्ता परिवर्तन के बाद राजनीतिक नेतृत्व के सामने कई ऐसे मसलों को लेकर चला जाता है जिसकी कायदे से आवश्यकता ही नही होती है। प्रशासन ऐसा करके राजनीतिक नेतृत्व की प्रशासनिक समझ और महत्वकांक्षाओं का आसानी से आंकलन कर लेता है और जब इस आकलन में राजनीतिक नेतृत्व की अक्षमता सामने आ जाती है। तब यह प्रशासन राजनीतिक नेतृत्व पर हावि हो जाता है शायद जयराम प्रशासन के साथ भी ऐसा ही हुआ है।
अभी जयराम ने नये मुख्य सचिव की नियुक्ति की है। इस नियुक्ति पर हमने इसे सरकार का पहला सही फैसला कहा था। हमारे ऐसा लिखने पर सभी संवद्ध क्षेत्रों में अपनी-अपनी तरह की प्रतिक्रियाएं हुई है। ऐसी प्रतिक्रियाएं होगी ऐसा हमारा विश्वास भी था। इसलिये अब सरकार के कुछ फैसलों पर आकलन की दृष्टि से लिखना आवश्यक हो जाता है। इस आकलन का आधार हमे उस सबसे मिल जाता है जो विधानसभा चुनावों से पूर्व घटा था। पाठकों को याद होगा कि विधानसभा चुनावों के दौरान ही भाजपा ने एक प्रपत्र जारी किया था ‘‘हिमाचल मांगे हिसाब’’ इस प्रपत्र में कुछ मुद्दों को उछालते हुए वीरभद्र सरकार से उन पर जब जवाब मांगा गया था। इसमें बहुत सारे तात्कालिक मुद्दे थे और इनसे यह विश्वास बना था कि यह पार्टी सत्ता में आकर कम सके कम इस सबको दोहराने का प्रयास नही करेगी। लेकिन जब सत्ता में आकर अपने ही स्वतः प्रचारित-प्रसारित मुद्दों पर अपना ही आचरण एकदम यूटर्न ले गया तो आम आदमी के विश्वास को इससे आघात पहुंचना स्वभाविक था और ऐसा हुआ भी। वीरभद्र सरकार पर बड़ा आरोप था कि उसने प्रदेश को कर्ज के गर्त में डाल दिया है। यह आरोप था और है भी सही। इसमें जयराम से यह उम्मीद थी और प्रशासनिक सूझ-बूझ का तकाजा भी था कि प्रदेश की वित्तिय स्थिति पर एक ‘‘सफेद पत्र’’ लाया जाता और जनता को असलीयत की जानकरी दी जाती । यदि जनता के सामने यह स्थिति रख दी जाती तो शायद इस पर कांग्रेस के पास कोई जवाब न होता। क्योंकि 27 मार्चे 2016 को भारत सरकार के वित्त विभाग से प्रदेश सरकार को एक पत्र आया था और कर्जों की सीमा तय करते हुए सरकार को गंभीर चेतावनी दी गयी थी। परन्तु 2017 के चुनावी वर्ष में केन्द्र के इस चेतावनी पत्र को नज़रअन्दाज करके कर्ज की सीमाओं का खुलकर दुरूपयोग किया गया। सफेद पत्रा आने से उस वक्त के संवद्ध प्रशासनिक और राजनीति नेतृत्व का असली चेहरा जनता के सामने आ जाता। लेकिन जयराम के सलाहकारों ने ऐसे नही होने दिया और यह इस सरकार की पहली सबसे बड़ी भूल रही।
इसके अतिरिक्त चुनावों के दौरान लगाये गये आरोप में कुछ नियुक्तियों पर गंभीर एतराज उठाया गया था। लेकिन सत्ता में आने उपर इन नियुक्तियों को रद्द करने की बजाये उन्ही संस्थानों में पदों का सृजन करे और नियुक्तियां कर दी गयी। भाजपा वीरभद्र सरकार पर यह आरोप लगाती थी कि इसे ‘‘रिटायड-टायरड’’ लोग चला रहे है। परन्तु सता में आने पर स्वंय भी वैसा ही जब किया जाने लगा तो निश्चित रूप से इससे सरकार और इसके मुखिया की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगे हैं। मुख्यमुन्त्री के अपने ही गृहक्षेत्र में एसडीएम कार्यालय को लेकर जो कुछ घटा है उसे मुख्यमन्त्री के गिर्द बैठे शीर्ष प्रशासन की धूर्तता करार देने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नही है। प्रशासनिक स्तर पर जो तबादले किये उसमें भी रोज बदलाव होते रहे। इसके लिये भी शीर्ष प्रशासन को ही ज्यादा जिम्मेदार माना जायेगा और शायद यह इसलिये हुआ है क्योंकि संभवतः इनकी निष्ठाएं बंटी हुई थी। क्योंकि पिछले मुख्य सचिव के अपने ही गिर्द ऐसे आरोप चल रहे थे जिनके लिये मुख्यमन्त्री को स्वयं उनकी रक्षा के लिये आना पड़ा। इस परिदृश्य में अब जो नियुक्ति की गयी है शायद उसके साथ ऐसी कोई स्थिति नही है और इसी संद्धर्भ में हमने इसे सही फैसला कहा है।
अब तक के नौ माह में कई ऐसे फैसले भी हुए है जिनसे सरकार पर आने वाले समय में कई गंभीर आरोप लगेंगे। उनपर अगले अंको में चर्चा करेंगे।

घातक होगी यह यौन स्वच्छन्दता

मैं हूं । मैं स्वतन्त्र हूं। मेरी अपनी निज की सत्ता है। मैं अपनी इच्छानुसार कुछ भी कर सकता हूं। मैं कोई वस्तु नही हूं जिस पर किसके स्वामीत्व का हक हो। क्या इस बोध का मानक केवल यौन स्वच्छन्दता ही है। यह सवाल सर्वोच्च न्यायालय के आईपीसी की धारा 377 और 497 को लेकर आये फैसलों से उभरा है। इन फैसलों से समलैंगिकता और व्यभिचार अब अपराध नही माने जायेंगे। व्यभिचार तलाक का आधार तो हो सकता है लेकिन अपराध नही। सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों का समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है। क्या इन फैसलों को समाज सहजता से स्वीकार कर लेता है या नही यह सब आने वाले समय में ही स्पष्ट होगा। इस तरह के आचरण का प्रभाव उस परिवार पर क्या पड़ेगा जिसमें संयोगवश यह सब घट जाता है। क्या आचरण को सांस्कृतिक मान्यता मिल पायेगी? क्या इसे मूल्य आधारित जीवन करार दिया जा सकेगा? यह सारे सवाल सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों के बाद एक सार्वजनिक बहस का मुद्दा बनेंगे यह तय है। क्योंकि अभी तक भारतीय समाज ऐसे आचरण को स्वीकार नही कर पाया है। जहां पर लव-जिहाद, खाप पंचायतें और वैल्नटाईन डे तथा पहरावे तक को लेकर विवाद खड़े हों वहां पर इस तरह की व्यवस्था को सामान्यता तक पहुंचने में समय लगेगा यह भी तय है।

सर्वोच्च न्यायालय के इन फैसलों से परिवार की संरचना कितनी प्रभावित होगी यह सबसे बड़ा सवाल रहेगा। क्योंकि जब विवाह के बाद इस तरह के संबधों की स्थिति उभर आती है तब स्वभाविक है कि बात तलाक तक पंहुच जायेगी और इसी आधार पर तलाक हो भी जायेगा। ऐसे में उस सन्तान की जिम्मेदारी किसकी रहेगी जो इस तलाक से पहले जन्म ले लेती है। उसकी देखभाल कौन करेगा। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण होगा कि ऐसे तलाक से पहले यह पति-पत्नी जो भी संपति बनायेंगे उसका बंटवारा, उसकी मलकियत किसकी कितनी रहेगी। जिस परिवार में समलैंगिकता पसर जायेगी वहां पर परिवार की वंश वृद्धि की धारणा क्या होगी। ऐसे बहुत सारे सवाल हैं जो इन फैसलों से परोक्ष/अपरोक्ष में जुड़े हैं और देर-सवेर समाज के व्यवस्थापकों से जवाब मांगेंगे। यौन संबधों की स्वतन्त्रता तलाक को बढ़ावा देगी और उसी अनुपात में बहु विवाह को यह स्वाभाविक है। क्योंकि यौन संबंध शरीर का स्वभाविक धर्म और गुण है जो अपने समय पर स्वतः ही प्रस्फुटित होता है । आज जो हमारा खान-पान और अन्य व्यवहार हो गये हैं उसके परिणामस्वरूप शरीर की यह आवश्यकता कुछ एडवांस हो गयी है। बल्कि इससे तो विष्णु पुराण में कलियुग को लेकर दिया गया विवरण व्यवहार में शतप्रतिशत घटता नज़र आ रहा है। वहां कहा गया है कि कलियुग में कुल आयु बीस वर्ष की होगी और आठ नौ वर्ष की आयु में ही सन्तान पैदा हो जायेगी। आज ही यह सब घटना शुरू हो गया है। स्कूल जाने वाली बच्ची कि मां बनने की घटना चण्डीगढ़ में पिछले दिनों सामने आ चुकी है।
ऐसे में जब समाज में यौन संबंधो की स्वतन्त्रता एक प्रभावी शक्ल ले लेगी तब समाज में व्यवस्था की स्थिति क्या हो जायेगी? क्या इस पर विचार नही किया जाना चाहिये। जिस समाज में यौन संबंध एक वैचारिक और शारीरिक स्वछन्दता की संज्ञा ले लेंगे उसमें व्यवस्था की स्थापना क्या एक गंभीर चुनौती नही बन जायेगी। सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान जजों ने भविष्य में सामने आने वाले इन प्रश्नों पर विचार नही किया है। मानवीय व्यवहार में तो यह बहुत पहले कह दिया गया था कि ‘‘ योनी नही है रे नारी वह भी मानवी स्वतन्त्रत, रहे न नर पर आश्रित ’’ महिला सशक्तिकरण आन्दोलन में उसे पुरूष के बराबर अधिकारों की वकालत का परिणाम है कि वह आज हर क्षेत्र में पुरूष के बराबर खड़ी है। लेकिन इस आन्दोलन में यौन संबधों की स्वच्छन्दता तो कभी कोई मांग नही रही है। आज जहां विश्व के कई देशों में व्यभिचार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है लेकिन कई जगह यह अपराध है और इस पर कड़ाई से अमल हो रहा है। अभी इस मुद्दे पर आरएसएस की ओर से कोई प्रतिक्रिया नही आयी है। संघ अपने को हिन्दु संस्कृति का एकमात्र पक्षधर और संरक्षक मानता है। ऐसे में यह दखना दिलचस्प होगा कि संघ इस नयी संस्कृति को कैसे लेता है? क्या वह सरकार को इस संद्धर्भ में एससीएसटी एक्ट की तर्ज पर नये सिरे से विचार करने का आग्रह करता है या नही

भागवत जी यह प्रवचन है या स्पष्टीकरण या कूटनीति

अभी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने ‘‘भविष्य का भारत और संघ का दृष्टिकोण’’ नाम से एक आयोजन किया है। इस आयोजन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने यह कहा है कि संघ में निरंकुशता और अंहकार नही है। इसी कड़ी में उन्होने यह भी स्पष्ट किया कि संघ की स्थापना हिन्दुओं को संगठित करने के लिये हुई है और भारत हिन्दु राष्ट्र है और रहेगा भी। फिर यह भी स्पष्ट किया कि मूल्यों पर आधारित जीवन जीने वाला और पाप न करने वाला हिन्दु है। भागवत ने यह भी माना कि भारत विविधताओं का देश है तथा विविधताओं का सम्मान होना चाहिये। देश की आजादी में कांग्रेस के योगदान को स्वीकारते हुए यह भी माना कि मुस्लमानों के बिना हिन्दुत्व का कोई अर्थ नही है। संघ प्रमुख ने जो कुछ कहा है क्या वह एक ईमानदारी पूर्ण सीधा ओर सरल स्पष्टीकरण है या यह एक राजनीतिक कुटलता है यह सवाल इस आयोजन के बाद हर विश्लेष्क के सामने खड़ा हो गया है। क्योंकि संघ का इस तरह का आयोजन पहली बार हुआ है और उसमें इस तरह का वक्तव्य आया है।
संघ अपने को एक गैर राजनीतिक संगठन मानता है लेकिन व्यवहार में संघ एक परिवार है जिसकी भाजपा एक राजनीतिक इकाई है और यह सभी जानते है कि इकाई कभी अपने मूल से अलग और बड़ी नही होती है। संघ के स्वयं सेवक भाजपा के सदस्य नहीं हो सकते ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। इसी तरह भाजपा के सदस्य एक साथ संघ भाजपा के सदस्य हो सकते हैं। बल्कि इसी दोहरी सदस्यता के कारण 1980 में जनता पार्टी की सरकारी टूटी थी यह सभी जानते हैं आज भी भाजपा का हर स्तर का संगठन मन्त्रा संघ का मनोनीत सदस्य होता है जो कि भाजपा और संघ के बीच संपर्क सूत्रा का काम करता है। इसलिये इस सबको सामने रखते हुए यह नही स्वीकारा जा सकता कि संघ का कोई राजनीतिक मंतव्य नही हैं बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि भाजपा संघ की राजनीति का एक माध्यम है। यदि ऐसा निहित नही है तो फिर संघ को भाजपा के नाम से राजनीतिक इकाई स्थापित करने की आवश्यकता ही क्यों है। संघ का जो भी सांस्कृतिक मन्तव्य है क्या उसे राजनीतिक समर्थन के बिना प्राप्त किया जा सकता है। बल्कि क्या कोई भी संगठन राजनीतिक समर्थन के बिना काम कर सकता है और आगे बढ़ सकता है? शायद नही। इसलिये आज की परिस्थितियों की यह मांग है कि संघ परिवार अपने में जितना बड़ा संगठन है उसे सीधे स्पष्ट रूप से राजनीतिक भूमिका में आना चाहिये। हर व्यक्ति जानता है कि भाजपा सरकारो ंमेंं संघ की स्वीकृति के बिना कोई बड़ा काम नही होता है इसलिये संघ को अपरोक्षता का लवादा उतार कर सीधे जिम्मेदारी स्वीकारनी चाहिये। यदि संघ ऐसा नही करता है तो इसका अर्थ यही होगा संघ भाजपा सरकार की असफलताओं को स्वीकारने का साहस नही जुटा पा रहा है। क्या संघ भी रामदेव की मानसिकता का अनुसरण करने जा रहा है।क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों रामदेव की जो सक्रिय भूमिका रही है उसे सभी जानते है लेकिन आज वही राम देव अपने को जब निर्दलीय और सर्वदलीय कहने पर आ गये हैं तो यह सीधा संदेश जाता है कि स्वामी रामदेव भी अब मोदी सरकार की असफलताओं को स्वीकारने से भागने का प्रयास कर रहे हैं।
आज संघ प्रमुख भागवत यह मान रहे हैं कि मुस्लमानों के बिना हिन्दुत्व संभव नही है क्योंकि हिन्दु तो वह है जो मूल्यों पर आधारित और पाप रहित जीवन जीता है। इस परिप्रेक्ष में पूरे विश्व में कौन व्यक्ति होगा जो पाप पूर्ण जीवन जीना चाहते हो। जीवन मूल्य तो देश-काल और उसकी परिस्थितियां बनाती हैं क्योंकि संसार में हर प्राणी के जन्म लेने और उसकी मृत्यु की प्रक्रिया तो एक जैसी ही है । संस्कारिक विविधता तो उसके बाद होती है जब यह सवाल आता है कि जन्म लेने के बाद उसका पालन पोषण कैसे करना है और मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर का क्या करना है। फिर पाप और अपराध में केवल इतना ही अन्तर है कि अपराध की सजा़ देने के लिये स्थापित कानून है और पाप आपके अपने मन बुद्धि का विवके है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि जब संघ यह मान रहा है कि मुस्लमानों के बिना हिन्दुत्व संभव नही है तो क्या इस बार चुनावों में संघ की राजनीतिक ईकाई भाजपा मुस्लमानों को टिकट देगी या फिर इस प्रवचन के बावजूद 2014 और उत्तर प्रदेश ही दोहराया जायेगा। क्या इस प्रवचन के बाद लव जिहाद और भीड़ हिंसा पर प्रतिबन्द लग पायेगा।
आज जो प्रवचन रूपी अपरोक्ष स्पष्टीकरण संघ का आया है उसमें संघ प्रमुख ने मंहगाई बेरोजगारी और भ्रष्टाचार पर कुछ भी क्यों नही बोला? इस समय तेल की बढ़ती कीमतों तथा रूपये के अवमूल्यन से सारी अर्थव्यवस्था संकट में आ खड़ी हुई है। नोटबंदी सबसे घातक फैसला सिद्ध हुआ है। यह सब आज के ज्लवन्त मुद्दे बने हुए हैं। लेकिन संघ प्रमुख का इन मुद्दों पर मौन रहना क्या अपने में सवाल नही खड़े करता। क्योंकि अभी से चुनावी महौल बनता जा रहा हैं ऐसे में इस संघ का यह प्रवचन रूपी स्पष्टीकरण कूटनीति नही माना जायेगा? आज जिस ढंग से राहूल के मन्दिर जाने और मानसरोवर यात्रा पर भाजपा/संघ के लोगों की प्रतिक्रियाएं रही हैं क्या उनके परिप्रेक्ष में संघ प्रमुख को इस पर कुछ कहना नही चाहिये था। क्या राहूल गांधी को लेकर आयी प्रतिक्रियाएं किसी भी अर्थ में विविधता का सम्मान कही जा सकती हैं।

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