शिमला/शैल। अभी देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। इनमें किसकी सरकारें बनेगी इसका पता परिणाम आने पर ही लगेगा। इन चुनावों के बाद अगले वर्ष मई में लोकसभा के लिये चुनाव होंगे। मोदी सरकार का सत्ता में इस कार्यकाल का यह अन्तिम वर्ष चल रहा है। इस चुनावी परिदृश्य को लेकर अभी तक केवल एक ही बात स्पष्ट है कि 2014 में मोदी भाजपा के पक्ष मे जो माहौल बन गया था वैसा आज बिल्कुल नही है। इस दौरान जिन राज्यों में भी लोकसभा के लिये उपचुनाव हुए हैं वहां भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा है। इसके अतिरिक्त भी पिछले दिनों गुजरात और कर्नाटक विधानसभाओं के लिये हुए चुनावों में भी गुजरात में भले ही भाजपा की सरकार बन गयी है लेकिन वहां कांग्रेस को भी बड़ी जीत हासिल हुई है। बल्कि इसी जीत के परिणामस्वरूप कर्नाटक में भाजपा सत्ता से बाहर हो गयी। इस परिदृश्य में पांच राज्यों में हो रहे चुनाव बहुत हद तक लोकसभा की तस्वीर साफ कर देंगे। यदि इन राज्यों में भाजपा सत्ता में न आ पायी तो उसके लिये लोकसभा में जीत हासिल कर पाना आसान नही होगा। इस दृष्टि से इन राज्यों में हो रहे चुनाव प्रचार और उसमें उभर रहे मुद्दों पर नज़र रखना आवश्यक हो जाता है क्योंकि यही मुद्दे लोकसभा चुनावों में भी केन्द्रिय मुद्दे होंगे।
2014 के लोकसभा चुनावों में यूपीए सरकार का भ्रष्टाचार इतना बड़ा मुद्दा बन गया था कि सरकार भ्रष्टाचार का पर्याय ही प्रचारित हो गयी थी। इसी भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना आन्दोलन आया और लोकपाल की स्थापना मुख्य मांग बन गयी। सरकार को संसद में इस आश्य का बिल लाना पड़ा और यह विधेयक अन्ततः पारित भी हो गया। विधेयक आने के साथ ही अन्ना का आन्दोलन भी समाप्त हो गया और फिर सत्ता भी लोगों ने पलट दी। लेकिन नयी सत्ता अपने पूरे कार्यकाल में लोकपाल की नियुक्ति नही कर पायी। उल्टे भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन कर दिया गया। संशोधित कानून के तहत कोई भ्रष्टाचार की शिकायत कर पायेगा इसको लेकर कई सवालिया निशान खड़े हो गये हैं। इसी के साथ यह भी महत्वपूर्ण है कि भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों पर लोगों ने सत्ता पलटी थी उनमें से एक भी मुद्दे पर मोदी के कार्यकाल में कोई परिणाम नही आया है। उल्टे आज देश की शीर्ष जांच ऐजैन्सीयों पर इन्हीं ऐजैन्सीयों के शीर्ष अधिकारियों ने एक दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार के जिस तरह से आरोप लगाये हैं उससे न कवेल इनकी अपनी ही विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो गये बल्कि आम आदमी के विश्वास को गाहरा आघात लगा है।
आज सीबीआई का मामला सर्वाेच्च न्यायालय में पहुंचा हुआ है। इसी मामले में सीबीआई के ही उसी डीआईजी ने जो विशेष निदेशक अस्थाना के खिलाफ दर्ज एफआईआर की जांच कर रहा है ने सर्वोच्च न्यायालय में वाकायदा शपथपत्र देकर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सीजीसी केन्द्र सरकार के कानून सचिव और पीएमओ के ही राज्य मन्त्री हरिभाई पार्थीभाई चौधरी के खिलाफ जो रिश्वतखोरी के आरोप लगाये हैं वह सबसे अधिक चिन्ता का विषय बन जाता है। आज तक मोदी सरकार यह दावा करती रही है कि उसके किसी अधिकारी या मन्त्री पर भ्रष्टाचार के सीधे आरोप नही लगे हैं। लेकिन आज सीबीआई के कार्यरत डीआईजी मुनीष कुमार सिन्हा ने शपथपत्र दायर करके सर्वोच्च न्यायालय में सीधे उन लोगों पर आरोप लगाये हैं जो सीधे प्रधानमन्त्री मोदी से जुड़े हैं। इस डीआईजी के आरोप और निदेशक आलोक वर्मा का सीबीआई के पास दिया गया ब्यान सबकुछ जनता की अदालत में पहुंच चुका है। सर्वोच्च न्यायालय इससे खफा है वह ऐजैन्सी की विश्वसनीयता बहाल करना चाहती है। लेकिन आज शीर्ष अदालत को भी यह समझना होगा कि यह मुद्दा केवल अधिकारियों की प्रतिष्ठा उनके स्थानान्तरण तक का ही नही रह गया है। आज इन आरोपों की निष्पक्ष जांच देश की जनता के सामने आनी चाहिये और उसे यह लगना भी चाहिये कि सही में जांच हुई है। देश की जनता के भरोसे को अरूणाचल के स्व. मुख्यमन्त्री कालिखोपुल के आत्महत्या से पूर्व लिखे पत्र से बहुत ठेस लगी है इस पत्र का भी हर पन्ना हस्ताक्षरित है और यह पत्र भी जवाब मांग रहा है यह जवाब भी सर्वोच्च न्यायालय को ही देना होगा। इसी पत्र के साथ पत्रकार राणा अयूब की किताब ‘‘गुजरात फाइल्ज़’’ में दर्ज सारा कथ्य भी जवाब चाहता है क्योंकि राणा अयूब ने दावा किया है कि यह किताब नही बल्कि एक स्टिंग आॅप्रेशन है। इस किताब पर आज तक संघ /भाजपा की कोई प्रतिक्रिया नही आई है।
इस तरह आज डीआईजी सिन्हा का शपथपत्र, कालिखोपुल का सुसाईड नोट और राणा अयूब की ‘‘गुजरात फाईल्ज़’’ जो कथ्य और तथ्य देश की जनता के सामने रख रहे हैं उसे गंभीरता से लेते हुए प्रधानमंत्री और देश की शीर्ष अदालत की जिम्मेदारी बनती है कि वह इस पर कोई जवाब देश की जनता के सामने रखे। क्योंकि प्रधानमंत्री और सर्वोच्च न्यायालय इस सबसे सीधे जुड़े हैं।
शिमला/शैल। राम मन्दिर बनाम बाबरी मस्जिद विवाद एक लम्बे अरसे से देश की राजनीति का एक केन्द्रिय मुद्दा बना हुआ है। दिसम्बर 1992 को देश के भाजपा शासित राज्यों की सरकारें कैसे राम मन्दिर आन्दोलन की बलि चढ़ गयी थी यह सब हम देख चुके हैं। उसके बाद राममन्दिर कैसे चुनावी मुद्दा बन गया और इसी मुद्दे पर केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हो गया यह भी देश देख चुका है। लेकिन राम मन्दिर के नाम पर सत्ता परिवर्तन होने के बावजूद आजतक मन्दिर का निर्माण नही हो पाया है। यह निर्माण न हो पाने के लिये अदालत में इस मुद्दे के लंबित होने को कारण बताया जा रहा है। स्मरणीय है कि इस मुद्दे पर 30 सितम्बर 2010 को इलाहबाद उच्च न्यायालय की तीन जजों पर आधारित पीठ का फैसला आया था। इस फैसले में इसकी 2.77 एकड़ ज़मीन को तीन बराबर हिस्सो में बांट दिया गया था। एक हिस्सा जहां पर राम की मूर्ति विराजमान है उसे रामलल्ला विराजमान को, राम चबूतरा और सीता रसोई वाली जगह निर्माेही अखाड़े को और बचा हुआ एक तिहाई हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दिया था। इलाहबाद उच्च न्यायालय में इसकी सुनवाई के दौरान 524 दस्तावेज, संस्कृत, पाली, फारसी, अरबी, उर्दू और हिन्दी के 42 ग्रंथों के संद्धर्भ में 87 गवाहों के कई हजार पृष्ठों में दर्ज ब्यान रिकार्ड पर आ चुके हैं। इसके अतिरिक्त पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा 1970, 1976-77, 1992 और 2003 में की गयी खुदाई में मिले विभिन्न प्रमाणों को भी इसका हिस्सा बनाया गया है। इस सबकी समीक्षा करने के बाद पीठ ने यह फैसला दिया है लेकिन मामले के तीनों पक्षकार इस फैसले से सहमत नही हुए और तीनों ही सर्वोच्च न्यायालय में अपील में हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अबतक की
सुनवाई में यह कह दिया है कि इसमें और कोई दस्तावेज या अन्य प्रमाण नही सौंपे जायेंगे। जो कुछ इलाहबाद उच्च न्यायालय के सामने आ चुका है उसी पर विचार किया जायेगा। इस तरह यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित चल रहा है। 21 मार्च 2017 तत्कालीन प्रधान न्यायधीश जे एस खेहर की पीठ ने इसे संवदेनशील और जन भावनाओं से जुड़ा मामला माना था और सभी पक्षकारों को सलाह दी थी कि ऐसे संवदेनशील मुद्दों का सबसे अच्छा हल आपसी बातचीत से ही निकाला जा सकता है। लेकिन इस सुझाव पर कोई अमल नही हो पाया। खेहर के बाद दीपक मिश्रा मुख्य न्यायधीश बने उन्होंने कहा था कि वह जनभावनाओं या आस्था के आधार पर फैसला नही कर सकते और किस मामले की सुनवाई कब की जानी चाहिए इसका फैसला न्यायालय अपने विवेक से तय करता है। यदि उसे लगता है कि मामला त्वरित सुनवाई योग्य है तो उस पर तुरन्त पीठ गठित करके सुनवाई शुरू कर देता है। लेकिन इस अयोध्या मामले को सर्वोच्च न्यायालय ने त्वरित सुनवाई के योग्य न तब माना था और न ही अब माना है। अब मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई की पीठ ने इस पर जनवरी 2019 तक के लिये सुनवाई टाल दी है। जनवरी में इसकी सुनवाई के लिये पीठ गठित की जायेगी और फिर यह करनी है।
सर्वोच्च न्यायालय के इस रूख पर कुछ हिन्दु संगठनों की तीव्र प्रतिक्रियाएं आयी हैं। इससे जुड़ा साधु समाज पूरी तरह आक्रोशित है। सरकार को अल्टीमेटम तक दे दिये गये हैं। यह मांग की जा रही है कि सरकार इस पर एक अध्यादेश लाकर इस जमीन का अधिग्रहण करके मन्दिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करे। भाजपा के योगी आदित्यनाथ जैसे नेता भी करके तुरन्त मन्दिर निर्माण शुरू करने की बात कर रहे हैं। इस समय पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। इन चुनावों के बाद मई 2019 में लोकसभा चुनाव आने हैं। राम मन्दिर निर्माण को लेकर भाजपा पर यह सवाल दागा जा रहा है कि मन्दिर का निर्माण कब होगा ‘‘मन्दिर वहीं बनायेंगे लेकिन तारीख नही बतायेंगे’’ यह व्यंग्य सुनने को मिल रहा है। यह सवाल अबतक अलग शक्ल लेता जा रहा है कि भाजपा/संघ को राम मन्दिर के बनने में उतनी रूची नही है जितनी आवश्यकता मन्दिर मुद्दे को बनाये रखने की है। मन्दिर बन जाने के बाद मुद्दा समाप्त हो जायेगा और इसका लगातार चुनावी लाभ ले पाना संभव नही रह जायेगा। यदि भाजपा/संघ सही मन्दिर निर्माण के प्रति गंभीर होते तो मोदी सरकार जब केन्द्र में सत्ता में आयी थी तभी से इस दिशा में तुरन्त कदम उठाये होते तो शायद सरकार के कार्यकाल के शुरू के ही दो तीन वर्षों में मन्दिर बन भी चुका होता। लेकिन सरकार ने न तो अदालत में इस मामले की शीघ्र सुनवाई किये जाने के कोई प्रयास किये और न ही जब जमीन अधिग्रहण करने का प्रयास किया गया। भाजपा/संघ ने जब राहूल गांधी के मन्दिरों में जाने, उसके हिन्दु होने और मानसरोवर यात्रा आदि पर सवाल उठाये थे तब से यह धारणा पुख्ता हो गयी है कि इन्हे मन्दिर /मस्जिद, हिन्दु/मुस्लिम केवल चुनावी मुद्दों के लिये चाहिये। आज जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं वहां भाजपा ने कितने मुस्लमानों को चुनाव में उम्मीदवार बनाया है? शायद किसी को नही। इसी से मोहन भागवत के उस ब्यान की सच्चाई पर खीज सकती है कि मुस्लिमों के बिना देश संभव ही नही है। धारा 370 से लेकर युनिफाईड सिविल कोड जैसे जितने मुद्दों पर 2014 के चुनावों तक बाते की जाती थी उन पर सत्ता में आने के बाद क्या कदम उठाये गये। जिस आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय ने दो टूक स्पष्ट फैसला दे दिया था उसे संसद में लाकर पलट दिया गया क्योंकि संसद में आपका प्रचण्ड बहुमत था। ऐसे में सवाल उठता है कि यदि आरक्षण पर यह किया जा सकता था तो इसी प्रचण्ड बहुमत का सहारा लेकर मन्दिर से धारा 370 तक के मुद्दों को क्यों नही सुलझा लिया गया? जवाब सीधा है कि यदि यह सब सुलझ गया होता तो आज देश बेरोजगारी, मंहगाई और भ्रष्टाचार जैसे सवालों पर सरकार को घेर लेती। लेकिन आज मन्दिर, हिन्दु-मुस्लिम के फर्जी मुद्दों के सहारे राफेल और नोटबंदी जैसे गंभीर मुद्दों से बचने का जो प्रयास किया जा रहा है वह शायद संभव नही होता।
इस परिदृश्य में यह बहुत सही है कि अयोध्या मुद्दे का हल अस्था और जन भावनाओं के आधार पर नही करने की जो बात सर्वोच्च न्यायालय ने की है उसका स्वागत किया जाना चहिये। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समाने जो विवाद खड़ा हुआ था यह शुद्ध रूप से ज़मीन के मालिकाना हक को लेकर है और सर्वोच्च न्यायालय ने भी उसे उसी रूप में सुनने की बात की है यह एक सकारात्मक सोच है। मालिकाना हक का फैसला दस्तावेजों के आधार पर हो जायेगा और उसे उसी रूप में स्वीकार भी किया जाना चहिये। इसमें सर्वोच्च न्यायालय से यह आग्रह रहना चाहिये कि इस मामले में लोकसभा चुनावों से पहले कोई सुनवाई न की जाये और चुनावों के बाद इसे त्वरित आधार पर निपटा दिया जाये ताकि यह फिर किसी चुनाव का मुद्दा न बन पाये। क्योंकि यह विवाद अबतक कई सरकारों और लोगों की बलि ले चुका है और इसमें आगे ऐसा न हो इससे बचने का प्रयास किया जाना आवश्यक है। चुनाव देश के भाग्य का फैसला करता है। देश आगे भविष्य में किस ओर जाने वाला है इसका निर्धारण चुनाव करता है। इसलियेे देश का भविष्य भावनात्मक मुद्दों पर नहीं वरन् गंभीर मुद्दों पर तय किया जाना चाहिये।
जयराम सरकार ने प्रदेश में 80,000 करोड़ का निवेश लाने का एक स्वप्न देखा है और इसे पूरा जमीन पर उतारने के लिये देश के भीतर और प्रदेश के बाहर विदेशों में भी निवेशकों के साथ बैठकें आयोजित करने जा रही है। इस संद्धर्भ में मुख्यमन्त्री/उद्योगमंत्री तथा मुख्य सचिव की अध्यक्षता में दो कमेटीयों का गठन किया जा रहा है। विदेशों में संभावित निवेशकों के साथ यह बैठकें आयोजित करवाने के लिये दूतावासों का भी सहयोग लेगी। इस निवेश के लिये उद्योग, ऊर्जा, पर्यटन एवम् स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र भी सरकार ने चिन्हित कर लिये हैं। इस पूरे देश/विदेश के आयोजन पर करीब 50 करोड़ प्रदेश सरकार खर्च करने जा रही है।
जिस प्रदेश का कर्जभार 50 हजार करोड़ को पहुंच चुका हो उस प्रदेश में 80 हजार करोड़ का देशी /विदेशी निवेश लाने का स्वप्न देखना एक बहुत बड़ी बात है। ईश्वर करे कि यह प्रयास एक दिवा स्वप्न बन कर ही न रह जाये। क्योंकि इस सरकार के पहले पूर्व सरकारों ने भी ऐसे प्रयास किये थे। निवेशकों को सुविधायें उपलब्ध करवाने के लिये कई नियमों/कानूनो का सरलीकरण किया गया था लेकिन अन्तिम परिणाम लगभग शून्य ही रहे हैं। आज उद्योगों के संद्धर्भ में प्रदेश का वर्तमान परिदृश्य क्या है यह देखना और समझना बहुत आवश्यक होगा। वीरभद्र शासन में जब ऐसा प्रयास किया गया था उस समय उद्योग विभाग ने इस आश्य का एक प्रपत्रा तैयार किया था। इस प्रकरण के मुताबिक प्रदेश में छोटे-बड़े पंजीकृत उद्योगों की संख्या 40 हजार कही गयी थी। इनमें निवेशकां का 17 हजार करोड़ निवेश बताया गया था तथा इन उद्योगों में कार्यरत कर्मचारियों की संख्या 2,58000 कही गयी थी। सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक इन उद्योगों को 2005 से 2014 के बीच 35000 हजार करोड़ के आद्यौगिक पैकेज भी मिले हैं। इस तरह 52 हजार करोड़ के निवेश से केवल तीन लाख लोगों को ही लाभ मिल पाया है। इसी के साथ एक कड़वा सच्च यह भी है कि प्रदेश का खादी बोर्ड और वित्त निगम जैसे संस्थान जो केवल उद्योगों को वित्तिय एवम् अन्य सुविधायें देने के लिये ही स्थापित किये थे आज बन्द होने के कगार पर पहुंच चुके हैं। दोनो संस्थान अपने कर्जदारों का अता-पता खोजने के लिये कई योजनाएं तक घोषित कर चुके है लेकिन हर प्रयास असफल ही रहा है। यदि वित्त निगम द्वारा बांटे गये ट्टणों और उनकी वसूली में बरती गयी अनियमितताओं का गंभीरता से संज्ञान लिया जाये तो इसके प्रबन्धन बोर्डों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किये जाने की नौबत आ जायेगी। पर्यटन का पर्याय बन चुके होटल व्यवसाय की अनियमितताओं का संज्ञान सारी शीर्ष अदालतें ले चुकी हैं। इस प्रदेश को ऊर्जा प्रदेश घोशित करते हुए यह माना और प्रचारित-प्रसारित किया गया था कि अकेले ऊर्जा से प्रदेश के सारे संकट हल हो जायेंगे। लेकिन आज ऊर्जा का व्यवहारिक पक्ष यह है कि हर साल इससे आय में कमी होती जा रही है। सीएजी के मुताबिक ऊर्जा का योगदान प्रदेश के राजस्व में लगातार कम होता जा रहा है इस क्षेत्रा का 2012-13 में 46.28% योगदान गैर कर राजस्व के रूप में था जो कि कर 2016-17 में घटकर 41.95% रह गया है। इसी तरह कर राजस्व 2012-13 में 5.68% से घटकर 2016-17 में 4.54% रह गया है जबकि ऊर्जा के क्षेत्रा में सार्वजनिक क्षेत्रा के कुल निवेश का करीब 86% निवेशित है। ऊर्जा से हर वर्ष कर और गैर कर राजस्व में कमी आ रही है। सीएजी के मुताबिक जब उत्पादन लागत तो 4.50 रूपये यूनिट आ रही है और इसकी बिक्री करीब 2.80 यूनिट हो रही है। तब ऐसे में इस क्षेत्र के सहारे प्रदेश कर्ज के चक्रव्यूह से कैसे और कब बाहर निकल पायेगा?
आज के व्यवहारिक परिदृश्य में यदि प्रदेश की आद्यौगिक स्थिति का आंकलन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारी औद्योगिक नीतियां प्रदेश की स्थितियांं के संद्धर्भ में प्रसांगिक नही रह पायी है क्योंकि जब भी सत्ता परिवर्तन हुआ तभी आने वाली सरकार नई नीति लेकर आ गयी। यहां तक हुआ है कि 1990 से आज चार बार भाजपा सत्ता में और चारों बार अलग- अगल पॉलिसियां आयी। यही हालत कांग्रेस की रही है। किसी भी सरकार ने प्रदेश की जनता को यह नही बताया कि पिछली पॉलिसी का मूल्यांकन क्या रहा है और उसमें क्या व्यवहारिक कमियां रही है। प्रदेश में 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार आयी थी तब पहली बार औद्योगिक पॉलिसी लायी गयी। प्रदेश में चिन्हित हुए हर उद्योग के लिये सब्सिडी दी गयी। लेकिन आज उस समय के लगे उद्योगों में से शायद पांच प्रतिशत भी मौजूद नही हैं। जब - जब उद्योगों को राहतें उपलब्ध रही उद्योग यहां पर रहे और जिस दिन राहत पैकेज समाप्त हो गया उसके बाद उद्योग पलायन कर गये। इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारी पॉलिसीयों में व्यवहारिक कमीयां रही हैं।
पिछले दिनों प्रदेश के बैंको के साथ सरकार की बैठक हुई थी बैठक में यह सामने आया था कि हमारे बैंकों के पास लोगों की जितनी जमा पूंजी है उसके अनुपात में क्रैडिट बहुत कम है। क्रैडिट कम होने की चिन्ता करते हुए ऋण प्रक्रिया को और सरल करने तथा कई प्रोत्साहन देने की बात की गयी थी। सरकार ने कई घोषणाएं भी की थी लेकिन व्यवहार में ऐसा कुछ भी नही हो सका है। बैंक ऋण देते हुए सरकार की घोषणाओं से अपने को बांध नही पा रहे हैं क्योंकि बैंको को ऋणों के एनपीए होने का भी बराबर डर बैठा हुआ है। माना जा रहा है कि प्रदेश के बैंकों में जमा पड़े पैसे के निवेश के लिये ही सरकार निवेशकों को आमन्त्रित करने का प्रयास कर रही है। स्वभाविक भी है कि जब निवेशक प्रदेश के बैंको की अच्छी सेहत देखेगा तो वह निवेश के लिये यहां आ जाये। क्योंकि हर निवेशक अपनी जेब से केवल 25 से 30% तक ही निवेशित करता है और शेष वह वित्तिय संस्थानों से ऋण लेता है। ऐसे में यह सुनिश्चित करना होगा कि क्या यह निवेशक सरकार के प्रोत्साहनों से प्रभावित होकर यहां निवेश करेंगे अन्यथा स्थिति होगी कि जिस दिन प्रोत्साहन खत्म उसी दिन का पलायन।
इसलिये आज सरकार को यह बड़ा प्रयास करने से पहले एक श्वेतपत्र प्रदेश के मौजुदा उद्योगों पर जनता के सामने रखना चाहिये। जिसमें यह दर्ज रहे कि उद्योग का कुल निवेश क्या है और उसमें ऋण का अनुपात कितना है। उसमें कितने लोगों को प्रत्यक्ष /अप्रत्यक्ष रोजगार उपलब्ध है। उस उद्योग से सरकार को कितना कर और गैर कर राजस्व प्राप्त हो रहा है इस प्रयास पर पचास करोड़ सरकार खर्च करने जा रही है। यह प्रदेश की जनता का पैसा है और वह भी कर्ज का। यह प्रयास कहीं एक सैर सपाटा ट्रिप होकर ही न रह जाये इसलिये प्रदेश की जनता को यह जानने का हक है।
नोटबंदी का फैसला आठ नवम्बर 2016 को लिया गया था। आज दो साल बाद भी विपक्ष प्रधानमंत्री मोदी से सार्वजनिक माफी मांगने की मांग कर रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री एवम् जाने माने अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह ने भी कहा है कि नोटबंदी के जख्म लम्बे समय तक पीड़ा देते रहेंगे। जबकि वित्त मन्त्री अरूण जेटली इस फैसले की वकालत यह कह कर रहे हैं कि इसके बाद टैक्स अदा करने
वालों की संख्या बढ़ी है। यह सही है कि टैक्स अदा करने वालों की संख्या में करीब 80% की बढ़ौतरी हुई है। नोटबंदी से पहले यह संख्या 3.8 करोड़ जो अब बढ़ कर 6.4 करोड़ हो गयी है। लेकिन यह संख्या बढ़ने के और भी कई कारण हैं। केवल नोटबंदी से ही ऐसा नही हुआ है। यदि फिर भी जेटली के तर्क को मान लिया जाये तो यह सवाल उठता है कि क्या नोटबंदी टैक्स अदा करने वालों की सख्या बढ़ाने के लिये की गयी थी? क्या देश को यह बताया गया था कि इस उद्देश्य के लिये यह कदम उठाना अपरिहार्य हो गया है? शायद ऐसा कुछ भी नही कहा गया था। उस समय यह कहा गया था कि देश में कालाधन एक समान्तर अर्थव्यवस्था की शक्ल ले चुका है और इससे आतंकी गतिविधियों को फण्ड किया जा रहा है। प्रधानमंत्री ने देश से पचास दिन का समय मांगा था और वायदा किया था कि उसके बाद हालात एकदम सामान्य हो जायेंगे।
नोटबंदी के दौरान बैंकों के आगे लगने वाली लम्बी कतारों में देश के सौ लोगों की जान गयी है। लाखों लोगों का रोजगार छिन गया है। निर्माण उद्योग अब तक उठ नही पाया है। छोटे और मध्यम उद्योग इससे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। कालेधन को लेकर स्वामी रामदेव जैसे दर्जनों सरकार और मोदी के प्रशंसको ने इसके कई लाख करोड़ होने के ब्यान देकर एक ऐसा वातावरण देश के अन्दर खड़ा कर दिया था जिससे यह लगने लगा था कि सही में कालाधन एक असाध्य रोग बन चुका है। लेकिन अब जब आरबीआई ने पुराने नोटों को लेकर अपनी अधिकारिक रिपोर्ट देश के सामने रखी है तो उसमें यह कहा गया है कि 99.3% पुराने नोट केन्द्रिय बैंक के पास वापिस आ गये हैं। अर्थात 99.3% पुराने नोटों को नये नोटों से बदल लिया गया है। इस आंकड़े में नेपाल में वापिस आये नोट शामिल नही है। यदि यह अंकड़ा भी इसमें जुड़ जाये तो यह प्रतिशत और बढ़ जायेगा। आरबीआई के इस आंकड़े से दो ही सवाल खड़े होते हैं कि या तो देश में कालेधन को लेकर किया गया प्रचार गलत था निहित उद्देश्यों से प्रेरित था और केवल नाम मात्र ही था जो कि आरबीआई के ही 13000 करोड़ के आंकड़े से प्रमाणित हो जाता हैं। यदि कालेधन को लेकर प्रचारित हुए आंकड़े सही थे तो सीधा है कि नोटबंदी के माध्यम से उस कालेधन को सफेद में बदलने का काम किया गया है। इन दोनों स्थितियों में से कौन सी सही है इसका जवाब तो केवल प्रधानमन्त्री, वित्त मन्त्री ही दे सकते हैं और वह दोनों इस पर चुप हैं।
इस परिप्रेक्ष में आज स्थिति यहां तक आ गयी है कि मोदी सरकार आर बी आई से उसके रिजर्व फण्ड में से एक से तीन लाख करोड़ रूपये की मांग कर रही है क्योंकि चुनावी वर्ष में सरकार को खर्च करना चुनाव जीतने के लिये। इसी मकसद से तो सरकार 59 मिनट में एक करोड़ का कर्ज देने की योजना लेकर आयी हैं आरबीआई और केन्द्र सरकार के बीच इसी मांग को लेकर इन दिनो संबंध काफी तनावपूर्ण हो गये है क्योंकि आरबीआई सरकार की इस मांग का अनुमोदन नही कर रहा है। जबकि मोदी सरकार यह पैसा लेने के लिये आरबीआई एक्ट की धारा 7 के प्रावधानों को इस्तेमाल करने तक की चेतावनी दे चुकी है। आरबीआई और केन्द्र सरकर के बीच उभरे इस नये मुद्दे से यह सवाल भी खड़ा होता है कि यदि नोटबंदी का देश की अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा होता और सरकार के अपने पास पैसा होता उसे आरबीआई के रिजर्व से मांगना नही पड़ता। इस मांगने से यह भी सामने आता है कि सरकारी कोष में इतना पैसा नही है जिससे सरकार की सारी चुनावी घोषणाओं को आंख बन्द करके पूरा किया जा सके।
यही नही एनपीए की समस्या और गंभीर हो गयी हैं। 31 मार्च 2018 को यह एनपीए 9.61 लाख करोड़ हो गया जबकि मार्च 2015 में यह केवल 2.67 लाख करोड़ था। इसमें भी सबसे रोचक तथ्य तो यह है कि 9.61 लाख करोड़ में से केवल 85,344 करोड़ ही कृषि और उससे संबधित उद्योगों का है। शेष 98% बड़े आद्यौगिक घरानों का है। इस एनपीए को वसूलने के लिये कारगर कदम उठाना तो दूर इन बड़े कर्जदारो के नाम तक देश को नही बताये जा रहे हैं जबकि सर्वोच्च न्यायालय इन नामों को सार्वजनिक करने के निर्देश दे चुका है। लेकिन इसके वाबजूद भी यह नाम सुभाष अग्रवाल के आरटीआई आवेदन पर नही बताये गये। इसको लेकर अब देश के चीफ सूचना आयुक्त ने आरबीआई को कड़ी लताड़ लगाते हुए देश का पैसा डुबाने वालों के नाम उजागर करने के निर्देश दिये हैं। इन नामों को उजागर करने के लिये मोदी जेटली भी खामोश बैठे हैं और इसी से उनकी भूमिका को लेकर भी सवाल खड़े होते हैं। ऐसे में नोटबंदी के दो साल बाद भी देश की अर्थव्यवस्था आज जिस मोड़ पर पहुंच चुकी है उससे स्पष्ट कहा जा सकता है कि नोटबंदी एक घातक फैसला था।
सीबीआई देश की सर्वोच्च न्यायालय जांच ऐजैन्सी है और मन्त्री स्तर पर इसका प्रभार प्रधानमन्त्री के पास है। यह संस्था अपने में एक स्वतन्त्रा और स्वायत संस्था है। यह स्वायतता इसलिये है ताकि कोई भी इसकी निष्पक्षता पर सवाल न उठा सके। इसी निष्पक्षता और स्वायतता के लिये इसमें नियुक्तियों के लिये प्रधानमन्त्री, नेता प्रतिपक्ष तथा सर्वोच्च
न्यायालय के प्रधान न्यायधीश पर आधारित बोर्ड ही अधिकृत है। इस तरह सिद्धान्त रूप से इसकी स्वायतता और निष्पक्षता बनाये रखने के लिये पूरा प्रबन्ध किया गया है। लेकिन क्या यह सब होते हुए भी यह जांच ऐजैन्सी व्यवहारिक तौर पर स्वायत और निष्पक्ष है। यह सवाल आजकल एक सर्वाजनिक बहस का मुद्दा बना हुआ है। क्योंकि इस ऐजैन्सी के दोनों शीर्ष अधिकारियां निदेशक और विशेष निदेशक ने एक दूसरे के खिलाफ भ्रष्टाचार ओर रिश्वत खोरी के ऐसे गंभीर आरोप लगा रखे हैं जिनसे आम आदमी के विश्वास एवम् सरकार की साख को इतना गहरा आघात लगा है कि शायद उसकी निकट भविष्य में भरपाई ही न हो सके। इस संस्था के निदेशक आलोक वर्मा के खिलाफ कैबिनेट सचिव के पास करीब छः माह से शिकायतें लंबित चली आ रही रही थी और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ तो निदेशक ने एफआईआर तक दर्ज करवा दी है। इसी एफआईआर के चलते डीएसपी देवेन्द्र कुमार की गिरफ्तारी तक हो गयी और इस गिरफतारी के लिये सीबीआई को अपने ही मुख्यलाय पर छापामारी तक करनी पड़ी।
यह सारा प्रकरण जिस तरह से घटा उससे सरकार की छवि पर गंभीर सवाल उठे। सरकार ने आधी रात को कारवाई करते हुए दोनां शीर्ष अधिकारियों को छुट्टी पर भेज दिया और तीसरे आदमी नागेश्वर राव को अन्तरिम कार्यभार सौंप दिया। सरकार के इस कदम से आहत होकर दोनां अधिकारियों ने इसे अदालत में चुनौती दे दी। विशेष निदेशक दिल्ली उच्च न्यायालय और निदेशक सर्वोच्च न्यायालय पंहुच गयें दिल्ली उच्च न्यायालय ने अस्थाना की संभावित गिरफतारी पर रोक लगा दी और सर्वोच्च न्यायालय ने आलोक वर्मा के खिलाफ आयी शिकायत पर सीबीसी को दस दिन के भीतर सेवानिवृत न्यायधीश ए.के.पटनायक की निगरानी में रिपोर्ट सौंपने के आदेश दिये हैं। इसी के साथ सर्वोच्च न्यायालय ने अन्तरिम निदेशक पर कोई भी नीतिगत फैसला लेने पर प्रतिबन्ध लगाते हुए इस दौरान उसके द्वारा किये गये कार्यों की सूची भी तलब कर ली है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों से स्पष्ट हो जाता है कि शीर्ष अदालत ने सरकार की कारवाई को यथास्थिति स्वीकार नही किया है क्योंकि सीबीसी सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायधीश की निगरानी में अपनी रिपोर्ट तैयार करेंगें। इस निगरानी से सीबीसी की निष्पक्षता पर स्वतः ही सवाल खड़े हो जाते हैं। इसी के साथ अन्तरिम निदेशक के कार्य क्षेत्र को भी सीमित कर दिया है। क्योंकि अन्तरिम निदेशक के खिलाफ भी गंभीर आरोप सामने आ गये हैं। इस तरह देश की शीर्ष ऐजैन्सी के शीर्ष अधिकारियों की ईमानदारी पर लगे सवालों से यह सवाल उठना स्वभाविक है कि आखिर ऐसा क्यों और कैसे हो रहा है। इसी ऐजैन्सी के दो पूर्व निदेशकों ए पी सिंह और रंजीत सिन्हा के खिलाफ तो सर्वोच्च न्यायालय ने वर्तमान निदेशक आलोक वर्मा को ही जांच सौंपी थी जो आज तक पूरी नही हो पायी है। आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना ने स्वयं एक दूसरे को नंगा किया है। शायद यह प्रकृति का न्याय है अन्यथा देश की जनता के सामने यह कभी न आ पाता।
सीबीआई में यह जो कुछ घटा है उसका अन्तिम सच क्या रहता है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा। लेकिन इस प्रकरण से केन्द्र सरकार और खास तौर पर स्वयं प्रधानमंत्री मोदी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठते हैं क्योंकि सीबीआई का प्रभार सीधे उनके अपने पास है। फिर प्रधानमंत्री बनते ही मोदी अपने साथ गुजरात काडर के करीब 30 आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को दिल्ली ले आये थे। कैबिनट सचिव, सीबीसी और अस्थाना मोदी के विश्वस्तों की टीम का ही हिस्सा हैं। सीबीसी और कैबिनेट सचिव के संज्ञान में लम्बे अरसे से आलोक वर्मा/ राकेश अस्थाना का विवाद था। इससे यह नही माना जा सकता कि प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमितशाह के संज्ञान में यह सब लाया गया हो। इस सीबीआई प्रकरण पर पूरा विपक्ष सरकार पर पूरी गंभीरता से आक्रामक हो गया है। इन अधिकारियों द्वारा एक दूसरे के खिलाफ लगाये गये आरोपों से एक सवाल यह खड़ा हो जाता है कि इन लोगों ने जिन भी मामलों की जांच स्वयं की होगी या जिनकी निगरानी की होगी उनकी रिपोर्ट/निष्कर्ष कितने विश्वसनीय होंगे। आज विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चौकसी विदेशों में बैठकर वहां की अदालतों में सीबीआई की निष्पक्षता पर ही सवाल लगाये हुए हैं। विदेशों की अदालतों में सरकार सीबीआई की निष्पक्षता कैसे प्रमाणित कर पायेगी?
यह सवाल कल को बड़ा सवाल बनकर सामने आयेगा। फिर इस प्रकरण पर मोदी और अमितशाह की चुप्पी से यह विश्वास का संकट और गंभीर हो जाता है। आने वाले समय में कोई कैसे किसी भी मामले में सीबीआई जांच की मांग कर सकेगा? अदालतें किस भरोसे सीबीआई को कोई मामला सौंप पायेंगी। आज प्रधानमंत्री मोदी को विपक्ष को साथ लेकर जनता के विश्वास को बहाल करने के लिये कारगर कदम उठाने पड़ेंगे अन्यथा बहुत नुकसान हो जायेगा।