Wednesday, 17 December 2025
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कहां है यह 50000 करोड़ का निवेश

जयराम सरकार ने सत्ता में एक वर्ष पूरा कर लिया है। इस अवसर पर सरकार की ओर से धर्मशाला में वैसा ही एक बड़ा आयोजन किया गया जैसा कि एक वर्ष पहले सत्ता संभालते हुए शिमला में किया गया था। दोनो अवसरों पर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी मौजूद रहे हैं। यह सरकार के लिये एक अच्छा संदेश रहा है। इस एक वर्ष का आंकलन प्रधानमन्त्री और केन्द्र सरकार की नज़र में क्या रहा है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि प्रधानमन्त्री के अनुसार इस समय प्रदेश में केन्द्र की ओर सेे 36000 करोड़ की योजनाएं चल रही है। यह जानकारी प्रधानमन्त्री ने धर्मशाला मे अपने संबोधन में दी है। इससे पूर्व सोलन के पन्ना प्रमुखों के सम्मेलन में केन्द्रिय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा ने यह दावा किया है कि प्रदेश के लिये 5000 करोड़ की और परियोजनाएं पाईप लाईन में है। मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर पहले ही 9000 करोड़ की योजनाएं प्रदेश को मिल चुकी होने की जानकारी प्रदेश की जनता के साथ सांझा कर चुके हैं। इस तरह प्रधानमन्त्री, केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्री जगत प्रकाश नड्डा और मुख्यमन्त्री जयराम ठाकुर सबके द्वारा दिये गये आंकड़ो को जोड़कर देखा जाये तो यह राशी 50,000 करोड़ बन जाती है। अब जब इतने बड़े स्तर के नेता यह आंकड़े प्रदेश की जनता को परोस रहे हैं तो स्वभाविक है कि इसे झूठ नही माना जा सकता। इसलिये आज प्रदेश की जनता को यह जानने का हक है कि इस 50000 करोड़ के आंकड़े का पूरा विवरण क्या है? वह कौन -कौन सी योजनाएं हैं जिन पर 36000 करोड़ के निवेश का काम चल रहा है और शेष 14000 करोड़ की योजनाएं कौन सी हैं जो प्रदेश को मिली हैं और उन पर काम कब तक शुरू हो जायेगा। क्योंकि यह पचास हजार करोड़ का आंकड़ा प्रदेश के लिये एक बहुत बड़ी बात है। जबकि इस समय प्रदेश का कर्जभार ही पचास हजार करोड़ को पहुंच चुका है। प्रदेश सरकार अब तक बजट में दर्ज पूंजीगत प्राप्तियों के अतिरिक्त ही 3500 करोड़ का कर्ज ले चुकी है।
इस परिदृश्य में यदि प्रधानमन्त्री की जानकारी सही है कि प्रदेश में केन्द्र की ओर से 36000 करोड़ की योजनाएं चल रही हैं तो यह आंकड़ा प्रदेश के कुल बजट के आंकड़े से कहीं बड़ा है। क्योंकि 36000 करोड़ के निवेश से प्रदेश में बेरोजगारी की समस्या पर कुछ तो अंकुश लगना चाहिये था। प्रदेश सरकार को आऊटसोर्स के माध्यम से एक चैथाई वेतन पर कर्मचारियों की भर्ती करने की नौबत नही आती है। आज जिस ढंग से चुतर्थ श्रेणी कर्मचारियों की भर्ती के लिये बी.ए. और एम.ए. पास नौजवानों के कतारों में खड़े होने की खबरें आ रही हैं उससे इन निवेश के आंकड़ो की प्रमाणिकता पर स्वतः ही एक बड़ा सवाल लग जाता है। अभी अगले वर्ष मई में लोकसभा चुनाव होने हैं। राजनीतिक दल अभी से इन चुनावों की तैयारीयों में जुट गये हैं। ऐसे में यह निवेश का आंकड़ा एक दोधारी तलवार सिद्ध हो सकता है। यदि यह सही हुआ तो इससे विपक्ष का गला कटेगा और यदि यह गलत हुआ तो यह अपनी ही गर्दन काट देगा। क्योंकि इस समय प्रदेश पर जो पचास हजार करोड़ का कुल कर्ज है वह एक लम्बे अरसे से इकट्ठा होता चला आ रहा है इसमें हर वर्ष कुछ न कुछ जुड़ता रहा है। इसका बड़ा भाग प्रदेश के कर्मचारियों के वेतन भत्तों और पैन्शन पर खर्च होता रहा है। यहां तक की कर्ज का ब्याज चुकाने के लिये भी कर्ज लिया जाता रहा है। लेकिन अभी किसी सरकार ने केन्द्र सरकार की ओर से प्रदेश में एक मुश्त इतने बड़े निवेश का दावा नही किया है। ऐसे में दावे की हकीकत जानने का हर आदमी को हक है।
मुख्यमन्त्री ने अपने इस एक वर्ष के कार्यकाल को ‘‘ईमानदार प्रयास का एक वर्ष’’ कहा है। मुख्यमन्त्री के इस कथन को एक हदतक माना जा सकता है क्योंकि उन्होने कोई बड़ा दावा अब तक ऐसा नही किया है जिस पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया जायें लेकिन इसके बावजूद एक पक्ष यह भी है कि जयराम 1998 से लगातार विधायक चले आ रहे हैं। इस दौरान दो बार धूमल के नेतृत्व में भाजपा की सरकारें रह चुकी हैं और वह एक बार मन्त्री तथा एक बार पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं। इस नाते उन्हे प्रदेश का अनुभव होना ही चाहिये। बतौर विपक्ष जयराम के नेतृत्व में भी वीरभद्र शासन के खिलाफ आरोप पत्र सौंपा गया है। विपक्ष में रहते हुए लगातार वीरभद्र सरकार पर प्रदेश को कर्ज में डूबोने का आरोप लगाते रहे हैं। 1993 से 1998 के बीच हुई चिट्टो पर भर्तियांे की जांच रिपोर्ट भी जयराम के सामने ही आयी है। उन रिपोर्टों पर कोई कारवाई क्यों नही हुई वह भाजपा और जयराम अच्छे से जानते हैं मैं उस ब्योरे में नही जाना चाहता लेकिन इस सबके जिक्र से यह सवाल तो उठता ही है कि जो गलतियां पिछली सरकारों के वक्त में हुई हैं क्या उनको आज दोहराने के लिये लाईसैन्स के रूप में इस्तेमाल करना जरूरी है? शायद नही। जयराम को कर्ज विरासत में मिला है लेकिन आज उसको दोहराने में फिजूल खर्ची का आरोप लग रहा है। राजभवन से लेकर मन्त्रीयों तक की मंहगी गाड़ियां चर्चा में आ चुकी हैं। चिट्टो पर भर्तियांें के स्थान पर आऊटसोर्स पर भर्तीयां की जाने लगी है। इस तरह ऐसे अनेक मामलें हैं जहां सरकार की दूरदर्शिता पर सवाल उठ रहे हैं। बेशक कांग्रेस का आरोप पत्र कोई बड़ा प्रभावी दस्तावेज नही है लेकिन अब जिस तरह से वीरभद्र और उनका बेटा अपने स्वर बदलते जा रहे हैं उसे हल्के में लेना गलत होगा। फिर सरकार में जिस तरह से कुछ मन्त्रीयों की असहजता चर्चा में आ गयी है और कुछ विधायक भी मुखर होते जा रहे हैं यह जयराम के भविष्य के लिये कोई अच्छे संकेत नहीं है। जयराम को मोदी का पूरा सहयोग और समर्थन हासिल है यह धर्मशाला में सामने आ चुका है। जयराम ने भी बदले में मोदी को यह भरोसा दिला दिया है कि वह हर समय उनके साथ खड़े रहेंगे। पांच राज्यों में मिली हार के बाद केन्द्र में जिस तरह से गडकरी जैसे लोगों की प्रतिक्रियाएं आयी हैं वह केन्द्र के भविष्य के प्रति भी गंभीर संकेत है। इस परिदृश्य में प्रदेश में पचास हजार करोड़ के निवेश का जो आंकड़ा अचानक सामने आ गया है वह घातक भी सिद्ध हो सकता है।

किसान की कर्ज माफी पर सवाल क्यों

शिमला/शैल। अभी हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने वायदा किया था कि यदि उसकी सरकार बन जायेगी तो वह सत्ता संभालते ही दस दिन के भीतर यहां के किसानों के दो लाख तक के कर्जे माफ कर देगी। चुनाव परिणाम आने पर तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसकी सरकारें बन गयी और इन राज्यों के मुख्यमन्त्रीयों ने सबसे पहला काम कर्ज माफी का किया। इस कर्ज माफी को लेकर कई हल्कों में एतराज के स्वर भी सामने आये हैं। इस तरह की कर्ज माफी को सत्ता की सीढ़ी करार दिया जाने लगा है। इससे जीडीपी पर कुप्रभाव पडे़गा यह तर्क भी सामने आया है कुल मिलाकर सारे गैर कांग्रेसी दलों ने इस कर्ज माफी का समर्थन नही किया है। इन दलों की पीड़ा समझी जा सकती है क्योंकि आज भी देश की 70% जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है। इसी जनसंख्या से आने वाला किसान कर्ज के कारण आत्म हत्यायें कर रहा है यह कड़वा सच भी सबके सामने आ चुका है। किसान की आय 2022 तक दोगुनी हो जायेगी केन्द्र के इस आश्वासन के बावजूद आज का किसान अपनी फसले सड़क पर फैंकने के लिये विवश हो गया है। जब प्याज सड़कों पर फैंका गया तब सरकार ने उसके लिये मुआवजे़ की घोषणा की। देश के हर कोने से आये किसानों ने दिल्ली में कितना लम्बा प्रदर्शन किया यह भी देश देख चुका है। हर तरह का खाद्यान खेत से ही पैदा होता है यह एक धु्रव सत्य है। खेत का कोई विकल्प नही है और न ही हो सकता है यह एक सच्चाई है और सदैव बनी रहेगी। इस सच्चाई के कारण किसान को ‘‘अन्नदाता’’ की संज्ञा दी गयी है।
इस परिप्रेक्ष में जब किसान की स्थिति का आंकलन किया जाता है और उसकी आत्महत्याओं का सच सामने आता है तो यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि ऐसा हो क्यों हो रहा है और इस स्थिति से बाहर कैसे आया जा सकता है। इसमें सबसे पहले यही आता है कि इन आत्महत्याओं को कैसे रोका जाये इसके लिये तत्काल उपाय सीमान्त और छोटे किसान के कर्ज माफी के अतिरिक्त और कुछ नही हो सकता। इसलिये यह कर्ज माफी एकदम व्यवहारिक और अपरिहार्य कदम हो जाता है। इसका विरोध एकदम गलत है। हां इसी के साथ यह प्रयास भी साथ ही शुरू हो जाना चाहिये कि भविष्य में किसान को कृशि ऋण के कारण आत्महत्या करने की नौबत न आये। यहां यह उल्लेख करना भी प्रसांगिक होगा कि देश में सबसे पहले किसान के कर्जे माफ करने का कदम 1990 में उठाया गया था। जब 1989 में भाजपा के सहयोग के साथ केन्द्र में वीपी सिंह की सरकार बनी थी और 1990 में विधानसभाओं के चुनाव भी इसी तालमेल के साथ लड़े गये थे। तब स्व. चौधरी देवी लाल ने किसानों की कर्ज माफी की घोषणा की थी और उस पर अमल किया था। आज जो लोग इसे कांग्रेस का सत्ता प्राप्ति का शाॅर्टकट करार दे रहे हैं उन्हे 1989 और 1990 को याद रखना आवश्यक है। यह सही है कि कर्ज माफी इस समस्या का कोई स्थायी हल नहीं हो सकता क्योंकि यह कर्जमाफी अन्ततः आम आदमी पर ही भारी पड़ती है।
इस कर्ज माफी का स्थायी हल खोजने के लिये आवश्यक है कि यह तय किया जाये कि हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं। आज जो आंकड़े सामने हैं उनके अनुसार देश में बेरोज़गारी हर वर्ष 9% की दर से बढ़ रही है। आंकडे यह भी बताते हैं कि पिछले तीन वर्षों में निवेश लगातार कम हुआ है। यह निवेश कम होने के साथ ही एनपीए का आंकड़ा भी बढ़ा है। 31 मार्च 2018 को यह एनपीए 12.5 लाख करोड़ हो गया था और देश के अनिल अंबानी जैसे उद्योग घराने पर भी दो लाख करोड़ का कर्ज है। विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहूल चौकसी जैसे बड़े-बड़े एनपीए वाले लोगों की आत्महत्या की खबर कभी नहीं आती है क्योंकि यह लोग एनपीए लेकर विदेश चले जाते हैं। उनके कर्जे को एनपीए का नाम दे दिया जाता है। लेकिन किसान के साथ ऐसा नही होता। बैंक कर्ज वसूली के लिये उसके सिर पर खड़ा रहता है और फिर मज़बूर होकर वह आत्महत्या का रूख करता है। इसलिये यह समझना और मानना आवश्यक है कि कृषि को जबतक उद्योग से ऊपर का दर्जा नही दिया जायेगा तब तक स्थिति में सुधार हो पाना कठिन होगा। कृषि को उद्योग से ऊपर का दर्जा इसलिये चाहिये क्योंकि रोज़गार के जितने अवसर खेत पैदा करता है उतने उद्योग से नहीं। किसान का पूरा परिवार खेत में काम करता है लेकिन उसकी विडम्बना यह है कि उसे अपनी उपज की पूरी कीमत नही मिलती है। वह अपनी ऊपज की कीमत खुद तय नहीं कर पाता। उसके पास यह विकल्प नहीं होता कि यदि उसे पूरा दाम नहीं मिल रहा है तो वह उस ऊपज को अपने पास जमा करके रख ले क्योंकि उसके पास कोल्ड स्टोर की सुविधा नही है न ही उसके पास ऐसा कोई विकल्प रहता है कि उसकी उपज की प्रौसेसिंग से वह कुछ और तैयार कर सके। इसमें सबसे बड़ी हैरानी तो इस बात ही है कि आज तक किसी भी पार्टी के घोषणा पत्र में यह नहीं आता कि वह अपने चुनावक्षेत्र में इतने कोल्डस्टोर बनवा देगा और स्थानीय उपज पर आधारित कोई उ़द्योग इकाई वहां पर सहकारी क्षेत्र में लगा देगा। जब तक किसान के लिये यह सुविधायें उपलब्ध नही होगी उसे कर्ज से मुक्ति दिला पाना आसान नही होगा। आज हर सांसद और विधायक को क्षेत्रिय विकास निधि मिलती है लेकिन इनमें से कभी भी किसी ने इस तरीके से इस पर विचार नही किया। आज हर सांसद/विधायक अपने -अपने क्षेत्र की उपज के आधार पर कोल्ड स्टोर और प्रसंस्करण इकाईयां लगाने की बात शुरू करे दे तो निश्चित रूप से किसान और देश की स्थिति बदल जायेगी। गांवों में अच्छे रोज़गार के साधन उपलब्ध रहेंगे और शहरों की ओर पलायन रूक जायेगा।

चुनावी हार के आईने में भाजपा

शिमला/शैल। पांच राज्यों के लिये हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा को सभी में हार का सामना करना पड़ा है। जबकि कांग्रेस तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा से सत्ता छीनने में सफल रही है। अन्य दो राज्यों में भी कांग्रेस का प्रदर्शन भाजपा से बहुत अच्छा रहा है। यह चुनाव भाजपा बनाम कांग्रेस ही हो गये थे। इन राज्यों में सपा और बसपा ने भी कांग्रेस से गठबन्धन नही किया था और इसी आधार पर मीडिया ने यह धारणा फैला दी थी कि कांग्रेस के लिये जीत आसान नही होगी। क्योंकि भाजपा के चुनाव प्रचार की कमान स्वयं प्रधानमन्त्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमितशाह ने संभाल रखी थी। फिर उत्तरप्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी इस चुनाव प्रचार का एक और बड़ा चेहरा बन गये थे। राम मन्दिर निर्माण को फिर केन्द्रिय मुद्दा बना दिया गया था। संघ प्रमुख ने भी यह कह दिया था कि अब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का इन्तजार नही किया जा सकता। सरकार पर इसके लिये अध्यादेश लाने का पूरा दवाब बना दिया गया था। राफेल डील पर लग रहे आरोपों की काट के लिये मिशेल का प्रत्यार्पण को बड़ा हथियार बना दिया गया। यह भी आरोप लगाया गया कि इन राज्यों में जब कांग्रेस कोई नेता ही घोषित नही कर पायी है तो लोग किसे वोट देंगे। राहुल की छवि ‘‘पप्पु’’ से आगे नही बढ़ने दी जा रही थी। हर तरह का मीडिया पूरी तरह भाजपा के साथ खड़ा था। इसी के साथ भाजपा का अपना कोई ‘‘आईटी सैल’’ हर कुछ जनता में परोस रहा था। नेहरू गांधी परिवार की छवि और उसकी विरासत पर हर तरह का हमला किया जा रहा था। यह सब इसलिये किया जा रहा था क्योंकि देश को कांग्रेस मुक्त करने का संकल्प ले रखा था। फिर चुनाव के दौरान कुछ कांग्रेस नेताओं के ब्यानों को भी कांग्रेस के खिलाफ हथियार बनाकर प्रयोग किया गया। कांग्रेस की ओर से केवल राहूल गांधी पर ही सारा कुछ निर्भर कर रहा था। क्योंकि कई कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता राहूल के नेतृत्व से स्वयं आश्वस्त नही थे। इस तरह एक चुनाव के लिये जो कुछ भी अपेक्षित रहता है उसमें हर तरह से भाजपा कांग्रेस पर भी भारी थी। लेकिन इतना सबकुछ होने के बावजूद कांग्रेस की जीत देश के लिये एक बहुत बड़ा सन्देश दे जाती है।
यह चुनाव परिणाम देश के भविष्य के प्रति बहुत बड़ा सवाल खड़ा कर जाते हैं। यह देश बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुजातिय है। इस देश में जब काका कालेश्वर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी और उसके लिये जो मानक उस समय तय किये गये थे उनमें आज भी बहुत बड़ा अन्तर नही आया है। जो भी अन्तर इस दौरान आया है उसके आधार पर आरक्षण को जाति से उठाकर आर्थिक आधार देने की बात की जा चुकी है जिस पर सर्वोच्च न्यायालय भी अपनी मोहर लगा चुका है लेकिन क्या इसकी व्यवहार में अनुपालना हो पा रही है शायद नही। आरक्षण के खिलाफ यह देश वीपी सिंह के शासनकाल में बहुत आन्दोलन देख चुका है। जिसमें स्कूल के बच्चों तक ने आत्मदाह किये थे। जो लोग इस आन्दोलन को उस समय प्रायोजित कर रहे थे वह आज सत्ता में है। इन्ही लोगों के सामने आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आया और उसे संसद में विधेयक लाकर पलट दिया गया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आरक्षण का समर्थन और विरोध केवल राजनीतिक लाभ के गणित के आधार पर किया जा रहा है उसमें वैचारिक स्पष्टता कहीं पर भी दिखाई नहीं पड़ रही है। आज देश की जनता इतनी समझदार हो चुकी है कि वह सब आसानी से समझ पा रही है और उसी समझ का परिणाम है यह चुनाव नतीजे।
इसी के साथ राम मन्दिर का मुद्दा भी आज देश की जनता के सामने स्पष्ट होता जा रहा है। राम मन्दिर निर्माण का आन्दोलन अब ज्यादा देर तक चुनावी हथकण्डा बनकर नही भुनाया जा सकेगा। मन्दिर के लिये जो अध्यादेश आज लाने का दबाव बनाया जा रहा है क्या वह सत्ता संभालते ही किया जा सकता था? कितने लम्बे अरसे से यह मामला अदालत में चल रहा है आज यह आरोप अदालत के सिर लगाया जा रहा है कि वह शीघ्र सुनवाई नही कर रही है। लेकिन यह नही बताया जा रहा है कि सरकार ने इसकी शीघ्र सुनवाई सुनिश्चित करने के लिये क्या पग उठाये? आज मुद्दा भी सरकार के खिलाफ जा रहा है। शायद ‘‘श्री राम’’ को भी यह पता चल गया है कि उन्हे केवल राजनीति के लिये ही उपयोग किया जा रहा है। इसी कारण से आज ‘‘राम’’ भी विमुख हो गये हैं। इस देश में करीब 25 करोड़ मुस्लिम आबादी है। पिछले दिनों संघ प्रमुख मोहन भागवत ने स्वयं कहा था कि मुस्लिमों के बिना देश संभव नही है। जब संघ प्रमुख भी यह मानते हैं तो फिर इनको भाजपा इनके अनुपात में इन्हे लोकसभा/विधानसभा में अपना उम्मीदवार क्यों नही बनाती है। इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि 25 करोड़ जनता के प्रति आपकी सोच क्या है। केन्द्र में मोदी सरकार का सत्ता में पांचवा साल है। भाजपा का यह दावा है कि सदस्यता के आधार पर वह विश्व की सबसे बड़ी पार्टी है। यदि भाजपा का यह दावा जमीनी हकीकत है तो वह तेलंगाना और मिजोरम में क्यों हार गयी? उसका यहां प्रदर्शन कांग्रेस से भी नीचे क्यों रहा? क्या यहां भाजपा की सदस्यता नही है? क्या यहां पर भाजपा की स्वीकार्यता अभी तक नही बन पायी है और उसका सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा केवल मीडिया रिपोर्टों पर ही आधारित था? यही नहीं जिस राफेल डील पर सर्वोच्च न्यायालय से मिली क्लीनचिट को भुनाकर राहूल गांधी से देश से क्षमा मांगने की मांग की जा रही थी उसका जब राहूल और खडगे ने खुलासा कर दिया कि कैसे सर्वोच्च न्यायालय से झूठ बोला गया है तब पूरी भाजपा तिलमिला उठी थी। लेकिन जब जमीन पर आये तब इसका दोष सर्वोच्च न्यायालय पर लगा दिया गया कि उसने उनके तर्क को गलत समझा। सरकार को शपथपत्र देकर सर्वोच्च न्यायालय से यह गलती सुधारने की गुहार लगानी पड़ी है। इससे यह प्रमाणित हो गया है कि सर्वोच्च न्यायालय को गुमराह करके फैसला ले लिया गया। जो सीएजी रिपेार्ट बनी ही नहीं और पीएसी में गयी ही नहीं उसे अदालत ने गलती से कैसे मान लिया। यह दलील गले नहीं उतरती है। अब इसमें सर्वोच्च न्यायालय के लिये भी परीक्षा जैसी स्थिति पैदा हो गयी है क्योंकि देश की सुरक्षा के लिये भ्रष्टाचार से बड़ा कोई खतरा नहीं हो सकता और राफेल डील में भ्रष्टाचार होने का ही सबसे बड़ा आरोप है।

प्रस्तावित अन्ना आन्दोलन-कुछ सवाल

शिमला/शैल। अन्ना हजारे ने पहली दिसम्बर को प्रधानमन्त्री कार्यालय में तैनात राज्य मन्त्री जितेन्द्र सिंह को पत्र लिखकर सूचित किया है कि बार -बार आश्वासन दिये जाने के बाद भी सरकार लोकपाल और लोकायुक्त की नियुक्तियां नही कर रही है। इसलिये वह अपने गांव रालेगन सिद्धि में 30 जनवरी 2019 से आन्दोलन करने जा रहे हैं। अन्ना ने अपने पत्र में यह भी लिखा है कि 2011 में उनके साथ देश के करोड़ों लोगो ने इसके लिये आन्दोलन किया था। इस आन्दोलन पर 27 अगस्त 2011 को तत्कालीन सरकार ने लिखित आश्वासन और 2013 में इसके लिये कानून भी बना दिया। इससे लोगों को उम्मीद बंधी थी कि अब लोकपाल/लोकायुक्त नियुक्त हो जायेंगे और भ्रष्टाचार पर अंकुश लग जायेगा। लेकिन इसके बाद सरकार बदल गयी और अब इस सरकार का कार्यकाल समाप्त होने में पांच माह का समय बचा है लेकिन अभी तक यह नियुक्तियां नही हो पायी है। अन्ना ने यह भी लिखा है कि उन्होंने तीस बार इस विषय पर मोदी सरकार से पत्राचार किया लेकिन एक बार भी जवाब तक नही आया है।
अन्ना ने अपने पत्र में जो कुछ लिखा है वह सही है। इसी से सरकार की नीयत पर सवाल खड़े़ होते हैं और इसी से कुछ सवाल अन्ना की ओर भी उछलते हैं। यह पूरा देश जानता है कि केन्द्र मेें मोदी सरकार और दिल्ली प्रदेश की केजरीवाल सरकार दोनों ही अन्ना आन्दोलन के ही प्रतिफल हैं। केन्द्र की मोदी सरकार का कामकाज कैसा रहा है इसका प्रमाणपत्र अन्ना का यह पत्र ही बन जाता है जिसमें कहा गया है कि तीस बार पत्राचार करने के बावजूद एक बार भी जवाब तक नही आया। यही नही इससे भी बड़ा प्रमाणपत्र है मोदी सरकार द्वारा भ्रष्टाचार निरोधी अधिनियम को ही संशोधित कर देना। नये संशोधित अधिनियम के जुलाई 2018 से लागू हो जाने के बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई भी शिकायत करना आसान नही होगा। बल्कि यदि कहीं किसी शिकायत की जांच के बाद किसी के खिलाफ मामला खड़ा भी हो जाता है तो उसे आगे चलाने के लिये सरकार की पूर्व अनुमति चाहिये। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सरकार व्यवहारिक रूप से भ्रष्टाचार के प्रति कितनी गंभीर है। सरकार के कार्यकाल के अन्तिम दिनों में राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जांच ऐजैन्सीयां कितनी सक्रिय हो उठी हैं उससे यही सामने आता है कि भ्रष्टाचार केवल राजनीतिक विरोधीयों को दबाने का ही एक साधन रह गया है, इससे अधिक कुछ नही। इस सरकार के कार्यकाल में भ्रष्टाचार हुआ है या नही इसका प्रमाण राफेल सौदा और सीबीआई के शीर्ष अधिकारियोें के झगड़े से बड़ा और क्या हो सकता है।
इस परिदृश्य में सवाल उठता है कि क्या आज लोकपाल/लोकायुक्त नियुक्त होने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा? नहीं इसके लिये तो मौजुदा कानून भी पर्याप्त है लालू यादव और ओम प्रकाश चैटाला को सज़ा के लिये लोकपाल की आवश्यकता नही पड़ी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रतिबद्धता चाहिये। आज की सरकार आम आदमी के प्रति कितनी गंभीर है इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरदार पटेल की प्रतिमा स्थापित करने में 3000 करोड़ खर्च किया गया है यह सामने आया है। इस देश की आबादी 125 करोड़ है यदि यह प्रतिमा लगाने की बजाये हर व्यक्ति को एक- एक करोड़ दे दिया जाता तो देश की स्थिति वैसे ही बदल जाती। यह दिया जा सकता था लेकिन ऐसा हुआ नही क्योंकि आम आदमी को संपन्न बनाना उद्देश्य नही है उसको केवल वोट के लिये इस्तेमाल करना ही मकसद है। अभी चुनावों में राजनीतिक दलों ने जिस तरह के वायदे मतदाताओं से किये हैं वह सब प्रलोभन की परिभाषा में आते हैं। लेकिन हमारा चुनाव आयोग इन प्रलोभनों पर पूरी तरह खामोश है। चुनाव प्रचार के लिये एक आचार संहिता जारी कर दी जाती है। लेकिन इसकी उल्लंघना करने पर सजा कोई नही है क्योंकि इसे अभी तक अपराध अधिनियम के दायरे में नही लाया गया है। इस पर केवल चुनाव जीतने वाले के खिलाफ याचिका ही दायर की जा सकती है जिसका फैसला अगले चुनावों से पहले आने की कोई संभावना नही होती है। चुनाव आयोग ने चुनाव का खर्च इतना बढ़ा दिया है कि केवल राजनीतिक दल ही चुनाव लड़ सकते हैं आम आदमी नहीं।
इसलिये आज भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिये लोकपाल का नियुक्त होना कोई उपाय नही रह गया है। इसके लिये सबसे पहले चुनाव प्रक्रिया में सुधार की आवश्यकता है। आचार संहिता उल्लंघन को दण्डनीय अपराध बनाने की आवश्यकता है और इसमें उम्मीदवार के साथ ही संबंधित राजनीतिक दल के खिलाफ भी दण्ड का प्रावधान किया जाना चाहिये। जिसके भी खिलाफ कहीं कोई आपराधिक मामला दर्ज हो उसे चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिये। आज जिन माननीयों के खिलाफ मामले हैं वह दशकों तक इनकी जांच और फैसला नही होने देते। यदि चुनाव लड़ने पर रोक लग जाये तो यह लोग स्वयं अपने मामलों के शीघ्र निपटारे का प्रचार करेंगे। राजनीतिक दलों के खर्च की सीमा तय होनी चाहिये और किसी भी दल का चुनावी वायदा व्यक्तिगत प्रलोभन के दायरे में नही आना चाहिये इसकी व्यवस्था की जानी चाहिये। इसलिये अन्ना से यह अनुरोध है कि वह लोकपाल को मुद्दा बनाने की बजाये इन चुनाव सुधारों को मुद्दा बनाये। इसके लिये जन आन्दोलन का आह्वान करें। अन्यथा आज जो आन्दोलन का आह्वान किया जा रहा है उससे कोई परिणाम नही निकलेगा। उल्टे इससे सत्तारूढ़ दल को ही लाभ मिलेगा और फिर यह आरोप लगेगा कि यह प्रस्तावित आन्दोलन भी संघ/ भाजपा का प्रायोजित है यही आरोप पहले भी लग चुका है।
ऐसे में आज यदि अन्ना सही में भ्रष्टाचार पर लगाम लगती देखना चाहते हैं तो उनके आन्दोलन का मुद्दा लोकपाल की जगह यह चुनाव सुधार होना चाहिये। जिस सरकार ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन करके शिकायत करने का रास्ता कठिन बना दिया और अन्ना जैसे व्यक्ति के पत्रों का जवाब तक नही दिया उस सरकर की नीयत का खुलासा इससे अधिक और क्या हो सकता है। इसलिये आज नैतिकता की मांग यह हो जाती है कि अन्ना इस सरकार को ही सत्ता से बाहर करने का आह्वान करें ताकि आम आदमी को यह विश्वास हो जाये की जो सरकार उनके ही आन्दोलन का प्रतिफल रही है। अन्ना गुण दोष के आधार पर उस सरकार का भी विरोध कर सकते हैं।

भ्रष्टाचार के प्रति गंभीरता पर उठे सवाल

 देश की शीर्ष जांच ऐजैन्सी सीबीआई के शीर्ष अधिकारियों के बीच उभरे विवाद और इस विवाद के कारण जो कुछ घटा वह सब सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुका है और इस पर सुनवाई चल रही है। इस सुनवाई और उसके अन्तिम परिणाम पर पूरे देश की नज़रें लगी हुई हैं। कानून की बारीकियों पर परत दर परत सवाल और बहस हो रही है और इसका जो भी परिणाम परिणाम रहेगा उसका देश पर दूरगामी असर पड़ेगा इसमें कोई दो राय नही है। अस्थाना के खिलाफ दर्ज हुई एफआईआर कानून की नजर में कैसे आंकलित होती है और आलोक वर्मा तथा अस्थाना को सीबीआई द्वारा छुट्टी पर भेजना जायज़ था या नही? इन सब सवालों के जवाब इस विवाद के फैसले में आ जायेंगें लेकिने क्या इस फैसले का असर भ्रष्टाचार के मामलों की जांच पर पड़ेगा? यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि इस समय देश की संसद से लेकर राज्यों की विधानसभाओं तक सैंकड़ो में ऐसे लोग जब प्रतिनिधि होकर बैठे हैं जिनके खिलाफ वर्षों से आपराधिक मामले लंबित चल रहे हैं इन मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय चिन्ता व्यक्त करते हुए अधिनस्थ न्यायपालिका को ऐसे लोगों के मामले दैनिक आधार पर सुनवाई करते हुए एक वर्ष के भीतर निपटाने के निर्देश दे चुका है। इसके लिये विशेष अदालतें तक गठित करने के निर्देश हैं? लेकिन क्या इन निर्देशों की अनुपालना हो पायी है? क्या माननीयों के खिलाफ मामलों की सुनवाई एक वर्ष के भीतर हो पायी है? क्या सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्देशों की अनुपालना पर रिपोर्ट तलब की है?
इन सवालों का यदि निष्पक्षता और निर्भिकता से आंकलन किया जाये तो शायद जवाब नही मे ही होगा क्योंकि हिमाचल जैसे छोटे राज्य में ही जहां पर माननीयों के खिलाफ केवल सात दर्जन के करीब मामले दर्ज हैं वहां पर ही सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार न कोई सुनवाई हो पायी है और न ही कोई फैसला आ पाया है। यहां पर सरकार और उच्च न्यायालय ने विशेष अदालत के गठन कीे आवश्यकता इसलिये नही समझी थी क्योंकि मामलों की संख्या कम थी। लेकिन क्या जो मामलें हैं उनकी सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार नही हो जानी चाहिये थी परन्तु ऐसा हुआ नही है बल्कि कई माननीयों के मामलों को अदालत से वापिस लेने के प्रयास किये जा रहे हैं यदि हिमाचल में यह स्थिति हो सकती है तो देश के अन्य राज्यों में भी ऐसा ही होगा ऐसा माना जा सकता है। कई मामलों में अदालत से कई अधिकारियों/कर्मचारियों के खिलाफ कारवाई करने के निर्देश सरकार को मिले हैं। लेकिन सरकार की ओर से कोई कारवाई नही की गयी है। इसमें सबसे ताजा उदाहरण कसौली कांड का है। जिसमें एनजीटी ने कुछ लोगों को नामतः चिन्हित करते हुए उनके खिलाफ कारवाई करने के निर्देश प्रदेश के मुख्य सचिव को दिये थे। एनजीटी के इस फैसले पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी अपनी मोहर लगा दी है। लेकिन इन निर्देशों पर आज तक कोई कारवाई नही हुई है। इसी तरह धर्मशाला के मकलोड़गंज बस अड्डा प्रकरण पर भी सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदेश के मुख्य सचिव को दोषी कर्मचारियों/अधिकारियों को चिन्हित करके उनके खिलाफ कारवाई के निर्देश दिये थे। फिर इस मामले में जब एक अपील सर्वोंच्च न्यायालय में आयी तब शीर्ष अदालत ने अपने निर्देशों को संशोधित करते हुये यह जिम्मेदारी मुख्य सचिव की वजाये सत्रा न्यायधीश कांगड़ा धर्मशाला को दे दी थी। तीन माह में यह रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय में जानी थी जो कि आज तक नही जा पायी है और इन निर्देशों को हुए करीब दो वर्ष हो गये हैं। ऐसे ही प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्देशों पर एक अभय शुक्ला कमेटी गठित हुई थी इस कमेटी ने अपनी रिर्पोट में खुलासा किया है। चम्बा में 65 किलोमीटर तक रावी हाईडल परियोजनाओं की भेंट चढ़ चुकी है। ऐसी ही एक एसआईटी जेपी उद्योग थर्मल प्लांट को लेकर एडीजीपी के तहत गठित की गयी थी। यह एसआईटी भी अपनी रिर्पोट उच्च न्यायालय को सौंप चुकी है। लेकिन इन रिर्पोटों पर आज तक कोई कारवाई नही हुई है। इससे यह जन धारणा बन जाती है कि कुछ भी करते रहो अन्ततः कोई कारवाई नही होती है क्योंकि इन मामलों में ऐसा ही हुआ है जबकि यह अति संवेदनशील और गंभीर मामले थे।
जब शीर्ष अदालत के निर्देशों को सरकारी तन्त्र ऐसे हल्के से लेगा तब भ्रष्टाचार के खिलाफ कभी कोई ईमानदारी से गंभीरता आ पायेगी यह उम्मीद करना ही बेमानी हो जाता है। जब देश की शीर्ष ऐजैन्सी के शीर्ष लोगों के खिलाफ ही एक दूसरे द्वारा रिश्वतखोरी तक के आरोप जनता के सामने आ जाये तो फिर आम आदमी किस पर और कैसे भरोसा करे। जो स्थिति इस समय सामने है उस पर एक बार फिर आम आदमी की नजरें सर्वोच्च न्यायालय पर लगी हुई हैं। सवाल शीर्ष ऐजैन्सी की विश्वनीयता बहाल करने का ही नही है। बल्कि आम आदमी को आश्वस्त करने का है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ गंभीरता है और देाषी को अवश्य सजा मिलेगी। इस संद्धर्भ में यह सुझाव है कि जब भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई शिकायत आती है उस पर तुरन्त मामला दर्ज किया जाये जो अबतक नही हो रहा है। मामला दर्ज होने के बाद जांच अधिकारी को छः माह से एक वर्ष के भीतर जांच पूरी करके चालान दायर करने के निर्देश दिये जायें जब तक जांच पूरी न हो जाये और अदालतत से फैसला न आ जाये तब तक जांच अधिकारी को मामले से ना बदला जाये जो अधिकारी मामला दर्ज करे वही अदालत में उसकी पैरवी के समय मामले से संवद्ध रहे। जब तक जांच अधिकारी और उसके कन्ट्रोलिंग अधिकारी को व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार बनाना होगा बल्कि जांच अधिकारी की पदोन्नति इस पर आधारित की जाये कि उसने कितने मामलों मे जांच की और उसमें दोषीयों को सजा मिली। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे निर्देश जारी भी कर रखे हैं कि यह देखा जाये कि कोई आपराधिक मामला अदालत में यदि सिद्ध नही हो पाया तो उसमें देखा जाये कि जांच में कमी रहने के कारण या सरकारी वकील द्वारा ठीक से पैरवी न करने के कारण मामला असफल हुआ है। जिसका भी दोष निकले उसके खिलाफ कारवाई की जाये। लेकिन व्यवहार में ऐसा हो नही रहा है। दशकों तक मामले जांच में लंबित रह रहे हैं। कई कई अधिकारी बदल जाते हैं और इससे किसी की भी जिम्मेदारी नही रह जाती है। ऐसे में यदि हम सही में भ्रष्टाचार के खिलाफ गंभीर और ईमानदार हैं तो इन मामलो की जांच को समयवद्ध करने के साथ ही जांच अधिकारी और सरकारी वकील को इसमें जवाबदेही बनाना होगा। यह जवाबदेह तन्त्र सरकारों से उम्मीद करना संभव नही रह गया है। इसके लिये सर्वोच्च न्यायालय को ही कोई व्यवस्था खड़ी करनी होगी। यदि ऐसा न हो पाया तो देश में शीघ्र ही अराजकता फैल जायेगी क्योंकि सीबीआई विवाद से सरकार और ऐजैन्सी दोनों पर से ही आम आदमी का विश्वास उठ चुका है।

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