Friday, 19 September 2025
Blue Red Green
Home सम्पादकीय वोट डालने के साथ ही जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती

ShareThis for Joomla!

वोट डालने के साथ ही जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती

मतदान और मतगणना के बीच 25 दिन का अन्तराल है। इतना लम्बा अन्तराल शायद इससे पहले नहीं रहा है और न ही इतने लम्बे अन्तराल का कोई तर्क दिया गया है। मतदान के बाद मत पेेटियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। लेकिन जिस तरह से रामपुर में ईवीएम मशीनें एक अनाधिकृत वाहन में मिली है और उसके बाद घुमारवीं से भी कांग्रेस प्रत्याशी राजेश धर्माणी ने स्ट्रांग रूम में ईवीएम के साथ छेड़छाड़ किये जाने का आरोप लगाया है उससे कई गंभीर सवाल अवश्य खड़े हो जाते हैं। क्योंकि 19 लाख ईवीएम मशीनें गायब हो जाने का सवाल अभी तक अदालत में लंबित चल रहा है। चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाये बिना भी यह आशंका तो बराबर बनी रह सकती है कि रामपुर जैसे तत्व कहीं भी पाये जा सकते हैं। ऐसे में चुनाव प्रत्याशियों के अतिरिक्त आम मतदाता की भी यह ज्यादा जिम्मेदारी हो जाती है कि वह इस पर चौकसी बरते। क्योंकि इन घटनाओं पर जिस तरह के तीखे सवाल मीडिया द्वारा पूछे जाने चाहिये थे वह नहीं पूछे गये हैं। इसी के साथ यह सवाल भी स्वतः ही उठ खड़ा होता है कि क्या मतदाता की जिम्मेदारी वोट डालने के साथ ही समाप्त हो जाती है? क्या अगले चुनाव तक वह अप्रसांगिक होकर रह जाता है? क्योंकि उसके पास चयनित उम्मीदवार को वापस बुलाने का कोई वैधानिक अधिकार हासिल नहीं है। चुनाव सुधारों के नाम पर कई वायदे किये गये थे। संसद और विधानसभा को अपराधियों से मुक्त करवाने का दावा किया गया था। एक देश एक चुनाव का सपना दिखाया गया था। लेकिन इन वायदों को अमली शक्ल देने की दिशा में कोई काम नहीं किया गया। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि इन वायदों को उछाल कर ईवीएम पर उठते सवालों की धार को कम करने का प्रयास किया गया है। इसलिये आज के परिदृश्य में लोकतंत्र में जनादेश की निष्पक्षता बनाये रखने के लिये आम आदमी का चौकस होना बहुत आवश्यक हो जाता है। क्योंकि जनादेश को किस तरह जांच एजेंसियों और धनबल के माध्यम से प्रभावित करके चयनित सरकारों को गिराने के प्रयास हो रहे हैं यह लम्बे अरसे से देश में चर्चा का विषय बना हुआ है। इसलिए ईवीएम को लेकर जो घटनाएं सामने आ चुकी है उनके परिदृश्य में आम आदमी का सतर्क रहना बहुत आवश्यक हो जाता है। पिछले लम्बे अरसे से गंभीर आर्थिक सवालों से आम आदमी का ध्यान हटाने के लिए समानान्तर में भावनात्मक मुद्दे उछालने का सुनियोजित प्रयास होता आ रहा है। पिछले दिनों मुफ्ती योजनाओं के वायदों को लेकर प्रधानमंत्री से आरबीआई तक ने चिंता व्यक्त की है। क्या उसका कोई असर इन चुनावों में बड़े दलों के दृष्टि पत्र और गारंटी पत्र में देखने को मिला है? इन्हीं चुनाव के दौरान प्रदेश की वित्तीय स्थिति उस मोड़ तक पहुंच गयी थी जहां कोषागार को भुगतान से हाथ खड़े करने पड़ गये थे। इसका असर आम आदमी पर पड़ेगा यह तय है। यह भी स्पष्ट है कि अधिकांश मीडिया के लिये यह कोई सरोकार नहीं रहेगा। दृष्टि पत्र और गारंटी पत्र दोनों की प्रतिपूर्ति आज प्रदेश की आवश्यकता है। सरकार किसी की भी बने लेकिन आम आदमी के सामने प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर श्वेत पत्र लाया जाना आवश्यक होगा। यदि श्वेत पत्र नहीं लाया जाता है तो सरकार को वित्तीय स्थिति पर कोई सवाल उठाने का अधिकार नहीं रह जायेगा। सरकार बनने पर यह आम आदमी की जिम्मेदारी होगी कि सरकार को श्वेत पत्र जारी करने के लिए बाध्य करें।

Add comment


Security code
Refresh

Facebook



  Search