Friday, 19 September 2025
Blue Red Green
Home सम्पादकीय क्या एक देश एक कानून चुनावी हथियार बन पायेगा?

ShareThis for Joomla!

क्या एक देश एक कानून चुनावी हथियार बन पायेगा?

संसद के मानसून सत्र में सरकार एक सामान्य नागरिक संहिता का कानून ला सकती है। उत्तराखंड सरकार ने तो एलान कर दिया है कि वह इस कानून को सबसे पहले लागू करेगी। यह कानून विपक्ष की एकजुटता के प्रयासों को रोकने का सबसे बड़ा साधन माना जा रहा है। इस कानून के आने से मुस्लिम पर्सनल लॉ सबसे ज्यादा प्रभावित होगा और इस समय मुस्लिम वोटों का सबसे बड़ा लाभार्थी गैर भाजपा विपक्ष माना जा रहा है। कुछ मुस्लिम संगठनों ने इसका विरोध करने का ऐलान भी कर दिया है। सभी राजनीतिक दलों को इस प्रस्तावित विधेयक पर अपना-अपना स्टैंड स्पष्ट करना होगा। इस कड़ी में नीतीश कुमार और केजरीवाल ने तो इसका समर्थन करने का ऐलान कर दिया है। उद्धव ठाकरे भी इसके समर्थन की घोषणा कर सकते हैं क्योंकि वह इसकी मांग तो पहले से ही करते रहे हैं। ऐसी धारणा बनाई जा रही है जो दल इस प्रस्तावित विधेयक का समर्थन करेंगे उनकी मुस्लिम वोटों की दावेदारी उतनी ही कमजोर होती जायेगी। सारा मुस्लिम बोर्ड संगठित रूप से किसी एक दल को नहीं जायेगा और इसी से भाजपा का बड़ा नुकसान होने से बच जायेगा। इस परिपेक्ष में एक सम्मान नागरिक संहिता से जुड़े कुछ मूल प्रश्नों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
देश का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था और इसके तहत पहला आम चुनाव 1952 को हुआ था। देश की 1952 से पहले की सरकार और संविधान सभा में सभी दलों के सदस्य थे। संविधान सभा के प्रमुख डॉ. अम्बेडकर थे। संविधान के राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत धारा 44 में निर्देश है "The state shall endeavour to secure the citizen uniform civil code throughout the territory of India"   देने की आवश्यकता क्यों हुई थी इसके लिये कहा गया है कि the object behind this article is to effect an integration of India by bringing all communities on common platform on matters which are governed by divorce personal laws but do not form the essence of any religion e.g. divorce, maintenance for divorced wife." संविधान के इस उल्लेख से स्पष्ट हो जाता है कि एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता उस समय भी मानी गयी थी। लेकिन ऐसा कानून तब बनाया नही गया और इसे भविष्य के लिये छोड़ दिया गया। क्योंकि विस्थापन से उभरी समस्याएं प्राथमिकता थी। यह एक स्थापित सत्य है कि हर धर्म और समाज में जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त तक अपने-अपने संस्कार और मान्यता होती है। हर धर्म अपने को दूसरे से श्रेष्ठ मानता है। इसीलिए भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया था। सब धर्म को एक समान माना गया है।
ऐसे में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि यदि देश की परिस्थितियां उस समय एक समान नागरिक संहिता लाने की नही थी तो क्या आज बन गयी हैं। उस समय यह आवश्यकता तलाक और तलाकशुदा औरतों के भरण-पोषण की समस्या के परिदृश्य में सामने आयी थी। आज गैर मुस्लिम समाज के लिये तलाक और भरण-पोषण दोनों के लिये कानून उपलब्ध है। मुस्लिम समाज के लिये भी तीन तलाक समाप्त कर दिया गया है। विवाह तलाक और तलाकशुदा का भरण पोषण सब कानून के दायरे में आ चुका है। इसलिए आज जिस तरह से एक देश एक कानून को जनसभाओं में जनता के बीच रखा जा रहा है यह पूछा जा रहा है कि एक देश में एक कानून होना चाहिए या नही। इससे स्वतः ही राजनीतिक गंध आनी शुरू हो गयी है। यही सन्देश जा रहा है कि यह सब मुस्लिम समाज के खिलाफ किया जा रहा है। क्योंकि यह स्पष्ट नहीं किया जा रहा है कि कौन से मुद्दे ऐसे हैं जिनके लिये एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता है। इस प्रस्तावित विधेयक को लाने से पहले आम नागरिक के सामने इसकी अनिवार्यता स्पष्ट की जानी चाहिए। क्योंकि सत्तारूढ़ सरकार और भाजपा के खिलाफ यह धारणा बन चुकी है कि वह मुस्लिम विरोधी है तथा राजनीतिक प्रशासनिक भागीदारी से इस इतने बड़े समाज को बाहर रखना चाहती है।
आज देश के हर जाति और धर्म के संस्कारों में भिन्नता है। अभी हरियाणा की ही कुछ खाप पंचायतों से यह मांग आयी है कि उनके समाज में एक गोत्र और एक ही गांव में शादी वर्जित है और इसे कानूनी मान्यता दी जानी चाहिए। कई मंदिरों और धार्मिक स्थलों में महिलाओं और शूद्रों का प्रवेश वर्जित है। क्या एक समान नागरिक संहिता लाकर इन सारे सवालों को हल कर लिया जायेगा? क्या इससे इसका जवाब मिल जायेगा कि केदारनाथ के गर्भगृह से लाखों का सोना पीतल कैसे हो गया? इस पर कोई अधिकारिक रूप से स्पष्टीकरण क्यों जारी नहीं किया जा रहा है। भाजपा 2014 में सत्ता में आने से पहले से ही एक देश एक कानून की मांग करती रही है। फिर उसे आज 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इस विधेयक को लाने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? क्या इसकी आड़ में महंगाई और बेरोजगारी पर उठते सवालों से बचने का प्रयास किया जायेगा? लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थानों को कमजोर करने के सवालों से बचने की कवायद होगा यह विधेयक? हिण्डनवर्ग रिपोर्ट और अदाणी-मोदी के रिश्तों पर उठते सवालों से ऐसे बचा जा सकेगा?

 

Add comment


Security code
Refresh

Facebook



  Search