कुछ रिपोटों से उठा सवाल
शिमला/शैल। कोरोना को लेकर पूरा विश्व आतंकित है। सभी जगह लाकडाऊन और कर्फ्यू जैसे कदम सरकारों ने उठा रखे हैं। इन कदमों का व्यवहारिक परिणाम यह हो गया है कि हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति को कोरोना के वाहक के रूप में देख रहा है। सरकार द्वारा आदेशित की गयी सोशल डिस्टैंन्सिग ने सारे सामाजिक रिश्तों को इस तरह प्रभावित कर रखा कि कोई किसी की खुशी या गम में शरीक होने से भी डर रहा है। ऐसे परिदृश्य में जब किसी डाक्टर से यह सुनने को मिले कि यह बिमारी वैसी भयावह नही है जैसी की प्रचारित की जा रही है तो सारा दृश्य ही बदल जाता है। इस संबंध में डा. विश्वरूप राय चौधरी के कुछ विडियोज़ देखने और सुनने को मिले है। सोशल मीडिया की न्यूज़ साईटस ने इन विडियोज़ को प्रमुखता से प्रचारित किया है। डा.चौधरी का दावा है कि कोरोना भी अब तक आ चुके अन्य फ्लू जैसा ही एक साधारण फ्लू है और इसे आतंक बनाकर कुछ फार्मा कंपनीयों ने प्रचारित-प्रसारित किया है। कोरोना से आतंकित होने की आवश्यकता नही है। डा.चौधरी ने इस आश्य के पत्र केन्द्रिय स्वास्थ्य मंत्री डा.हषवर्धन को भी लिखे हैं क्योंकि वह स्वयं भी एक अच्छे डाक्टर हैं। परन्तु डा.चौधरी के पत्रों का कोई जवाब नही आया है। डा.चौधरी की ही तरह एक डाक्टर तरूण कोठारी ने भी स्पष्ट कहा है कोरोना एक सामान्य फ्लू है जिसे आतंक बनाकर पेश करने में फार्मा कंपनीयों का प्ले है। डाक्टरों के दावों को किसी ने कोई चुनौती नही दी है। केन्द्र सरकार की ओर से भी कोई खण्डन नही आया है। ऐसे में इन डाक्टरों के दावे सरकार के सारे आकलनों पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देते हैं। क्योंकि सोशल डिस्टैंसिन्ग जैसे सरकार के सुझाये कदमों का कोरोना को रोकने में कोई बड़ा असर व्यवहार में देखने को नही मिला है। हर रोज़ इसके केस बढ़ते जा रहे हैं और इन कदमों से अर्थव्यवस्था पर गहरा कुप्रभाव पड़ा है। इन डाक्टरों के दावों को 30 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय में आयी People for BETTERTREANT (PBT) की यााचिका से भी बल मिलता है। इस याचिका की पैरवी अमेरिका स्थित डा. कुनाल साहा ने स्वयं की है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह याचिका ICMR को विशेषज्ञ होने के नाते भेज दी थी। परन्तु इस पर अभी तक ICMR की ओर से कोई रिपोर्ट नही आयी है।
WP©…...D.No.10935/20
ITEM NO.4 Virtual Court 2 SECTION X
S U P R E M E C O U R T O F I N D I A
RECORD OF PROCEEDINGS
WRIT PETITION (CIVIL)..Diary No(s).10935/2020
PEOPLE FOR BETTER
TREATMENT (PBT) Petitioner(s)
THROUGH ITS PRESIDENT DR.KUNAL SAHA
VERSUS
UNION OF INDIA & ANR. Respondent(s)
Date:30-04-2020 This petition was called on for hearing today.
CORAM :
HON'BLE MR. JUSTICE N.V. RAMANA
HON'BLE MR. JUSTICE SANJAY KISHAN KAUL
HON'BLE MR. JUSTICE B.R. GAVAI
For Petitioner(s) Dr. Kunal Saha, petitioner-in-person
For Respondent(s) Mr. Tushar Mehta, SG
Mr. B.V. Balaram Das, Adv.
The PIL filed by the organization People for Better Treatment (PBT) sought for changes in the treatment guidelines and expressed concerns against the widespread use of Hydroxychloroquine (HCQ) and Azithromycin (AZM) in COVID-19 patients.
Dr. Kunal Saha, President of PBT, personally appeared in the matter from USA to explain and answer relevant medical questions as a physician-scientist.
The plea asserted that the drugs being used to treat COVID-19 patients were based primarily on anecdotal evidence and not on direct scientific data due to very little research on the new strain of Coronavirus. "Needless to say that when treating the vulnerable patients with a new and unproven drug for its off-label use, doctors should be extra vigilant about its potential harmful adverse effects on COVID-19 patients".
A Bench comprising of Justices NV Ramana, Sanjay Kishan Kaul and BR Gavai heard the matter. Dr. Saha, appearing from the US, informed the Bench that he was not challenging the treatment per se. However, Justice Ramana by placed the responsibility of choosing the right treatment on the doctors.
"Now there is no medicine, so they are trying different ways. If a particular treatment has to be given or is to be followed, it has to be decided by the doctors".
Dr. Saha countered the statement by stating that the petition did not aver whether the treatment was correct or incorrect – "We are saying that precautions must be taken. People are dying of side effects".
He continued his submission, "There should be an informed consent. Patient has a right to know if there is a risk involved. The doctor should explain to the patient about the risks involved and if the patient is willing to take the risk". Dr. Saha also submitted that the American Heart Institute had issued serious warnings on the same.
डा. चौधरी और डा. कोठारी ने जिस तरह से इसे फार्मा कंपनीयों का प्ले करार दिया है उस पर 10 फरवरी 2017 को पंजाब के भठिंडा कोर्ट में आयी याचिका से भी बल मिलता है। इसमें पता चलता है कि किस तरह से प्राईवेट अस्पताल मरीजो़ से खिलवाड़ करते है।
This most inhuman case is now being heard in the Punjab's Bathinda court. The Court has issued summons to three persons, including two doctors and a manager, for “declaring” a living person dead and advising his kin to “cremate the body”.
According to the case history, on February 10, 2017, the son of ailing man took his father to local Jindal Heart Hospital, from where he was referred to the Delhi Heart Hospital. But at Delhi Heart Hospital a doctor on duty declared him dead.
However, the "dead' man was taken to another hospital, where a compounder found him alive. After this he was then taken to another heart caring Global hospital. Here after three days of treatment, he was discharged and now he is hale and hearty
The most shocking was the efforts of Delhi Heart Hospital officials. When they came to know about this, they reached Global Hospital with the “intention that the patient should not revive” as it would damage the image of their hospital.
फार्मा कंपनीयां अपने बिजनैस को प्रोमोट करने के लिये क्या कुछ करती हैं इसको लेकर अजी़म प्रेम जी के सहयोग से एक पूणे स्थित एनजीओ ‘‘साथी’’ ने एक अध्ययन करवाया था। डा. अरूण गाद्रे और डा. अर्चना दिवेत की 72 पृष्ठों की रिपोर्ट में जो चौकांने वाले खुलासे सामने आये हैं उनसे हर आदमी यह मानने पर बाध्य हो जायेगा कि फार्मा कंपनीयां अपने व्यापार को बढ़ावा देने के लिये किसी भी हद तक जा सकती हैं। इन खुलासों से डाक्टर चौधरी और कोठारी तथा डाक्टर कुणाल साहा के दावों को झुठलाने का कोई आधार नही रह जाता है। एनजीओ साथी के अध्ययन के कुछ तथ्य पाठकों के सामने यथा स्थिति रखे जा रहे हैं ताकि पाठक स्वयं अपनी राय बना सकें।
Over the past decade in India, the Medical Council of India (MCI), pharmaceutical manufacturers and the government have instituted regulatory advisories to medical professionals and pharmaceutical and allied health sector industries for their conduct with the intention to curb unethical promotional practices. These are voluntary codes and anecdotal experience reveals that often these codes are not adhered to.
Taking a clue from the anecdotal experience, SATHI carried out a study with the aim of exploring ground level realities of promotional and marketing practices of the pharma industry and the implementation status of related regulatory codes in India. The study is qualitative in nature, 50 In-depth interviews were conducted with various key informants in six selected cities across the country. The study primarily focused on interviewing medical representatives because they are the ones who are involved as front-line key persons lon the actual field to promote drugs to doctors.
The key findings are –
Changing Trends in Promotions Practices-Inducements and New Innovations of Temptations:
In fact, the competition among a large number of private pharmaceutical companies has led them to depend on "the tried and tested 3Cs: convince if possible, confuse if necessary, and corrupt if nothing else works"
शिमला/शैल। हिमाचल प्रदेश के मज़दूर संगठनों इंटक, एटक और एटक ने एक संयुक्त मंच बनाकर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को एक पत्र लिखा है। इस पत्र में पिछले दिनों श्रम कानूनों में हुए संशोधनों और कई जगह मज़दूरों को वेतन भुगतान न हो पाने के लिये कड़ा रोष व्यक्त किया गया है। यदि सरकार इन संशोधनों को वापिस नही लेती है तो मज़दूर वर्ग राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़े आन्दोलन के लिये भी तैयार हो रहा है। स्मरणीय है कि कोरोना के कारण सारे देश में लागू की गयी तालाबन्दी के कारण सबसे ज्यादा मज़दूर वर्ग ही प्रभावित हुआ है। आज जिस तरह से यह मज़दूर सैंकड़ों मील की पैदल यात्रा करके अपने घरों को वापिस आ रहे हैं उससे देया की जो तस्वीर सामने आ रही है वह बहुत ही भयावह है। इनके वापिस आने से जो सवाल खड़े हुए हैं उनमें सबसे पहले यही आता है कि आज जिस देश में बुलेट ट्रेन, और सैन्ट्रल बिस्टा जैसे लाखों/हजारों करोड़ के कार्यक्रम देश की प्रगति के नाम खड़े की जा रहे हो, जिस देश के प्रधानमन्त्री की विदेश यात्राओं पर देश 66 अरब खर्च कर सकता हो क्या उस देश में आज भी करोड़ों लोग सैंकडों मील पैदल चलने को विवश हैं। देश का कोई भी बड़ा महानगर कोई भी प्रदेश ऐसा नही है जिसके यहां से मज़दूरों ने पलायन न किया हो। कोई भी सरकार ऐसी नही है जिसने पहले ही दिन अपने स्तर पर अपने खर्च के साथ इन मज़दूरों को उनके घर/गांव तक छोड़ने का प्रबन्ध किया हो। यही नही इससे भी बड़ी त्रासदी तो यह सामने आयी कि इसी दौरान सारी सरकारों ने श्रम कानूनों में संशोधन कर डाले। आठ घन्टे की बजाय बारह घन्टे काम लेने का प्रावधान कर दिया।
तालाबन्दी में करोड़ो लोगों ने अपना रोज़गार खोया है। इसको लेकर अज़ीम प्रेमजी विश्व विद्यालय ने एक अध्ययन किया है। इसके मुताबिक कुल 67% लोगों ने रोज़गार खोया है जिसमें शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 80% हो जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में 57% लोग रोज़गार से बाहर हुए है। 5% वेतन भोगियों को या तो कम वेतन मिला है या मिला ही नही है। 49% परिवारों के पास एक सप्ताह का आवश्यक सामान खरीदने के लिये भी उनके पास पर्याप्त पैसे नही है यह सर्वे आंध्र प्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, झारखण्ड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओड़िसा, राजस्थान, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में किया गया है। इससे स्थिति का पता चलता है कि ज़मीनी हकीकत क्या है। ऐसे में चुपचाप श्रम कानूनों में बदलाव कर देना और इस बदलाव को जायज़ ठहराने के लिये उद्योगों की परिभाषा को बदल देना नीयत और नीति को लेकर बहुत कुछ ब्यान कर देता है। प्रधानमन्त्री ने जो राहत पैकेज घोषित किया है उसमें इस मज़दूर का कहीं कोई जिक्र नही है। जबकि इस समय इसे तत्काल यह आवश्यकता है कि वह किसी भी तरह अपने घर अपनों के बीच पहुंच जाये। यह पैदल इसलिये निकल पड़ा है क्योंकि इसे कोई रेलगाड़ी या बस नही मिली है। ऊपर से इसके पास जाने के लिये कोई पैसा भी नहीं है। इसे तत्काल नकदी की आवश्यकता थी। परन्तु इसे नकदी की बजाये पांच किलो अनाज और एक किलो चना देने की बात की गयी है। यह राहत देने वाले यह नही सोच पाये हैं कि रास्ते में चलते हुए यह मज़दूर इस गेंहू/चना को पकाने का कैसे प्रबन्ध कर पायेगा। मनरेगा में तो काम तब कर पायेगा जब वह काम तक पहुंचेगा। आज की आवश्यकता तो उसे घर पहुंचाने में सहायता करने की है जो नही की गयी है।
इस मजदूर की मज़बूरी को ब्यान करते हुए जो जनहित याचिकायें शीर्ष अदालत में पहुंची हैं उन पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी सुनवायी नही की है। ऐसे में जहां यह जिनके लिये काम करता था उन्होने इसे सहारा नही दिया। सरकार के लिये भी यह प्राथमिकता में नही आया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसकी सुनने से इन्कार कर दिया है। इस परिदृश्य में श्रम कानूनों में संशोधन किया जाना स्पष्ट संदेश देता है कि कल इसे बारह घन्टे काम करने के लिये तैयार रहना होगा। इसके बच्चों को भी बाल मज़दूरी के लिये बाध्य होना होगा। ऐसे में यदि इसने इस आसन शोषण को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया तो क्या होगा। इसका आकलन कोई भी आसानी से लगा सकता है।
मज़दूर संगठनों का मुख्यमंत्री को पत्र
माननीय मुख्यमंत्री,
हिमाचल प्रदेश सरकार,
शिमला/शैल। शिमला के आई जी एम सी में 5 मई को मण्डी के सरकाघाट क्षेत्र से आये कोविड-19 से पीडित एक मरीज की मौत हो गयी। इस मरीज़ का अन्तिम संस्कार भी इसी दिन को शिमला के ही कनलोग स्थित शमशान घाट में कर दिया गया। अन्तिम संस्कार में मृतक परिवार से कोई भी शामिल नही हो सका। जबकि इस मरीज़ को जब ईलाज के लिये शिमला नैरचैक से रैफर किया गया था तब इसकी मां और ताया दोनों तामीरदारी के लिये साथ आये थे। लेकिन संस्कार के समय यह दोनों संवद्ध प्रशासन की ओर से संगरोध में चल रहे थे। ऐसी स्थिति में अन्य किसी को परिवार से बुलाया नहीं गया और प्रशासन द्वारा रात को ही अग्नि दाह कर दिया गया। इस अन्तिम संस्कार की जिम्मेदारी स्थानीय एसडीएम को सौंपी गयी। अग्नि संस्कार में शायद मिट्टी के तेल का भी प्रयोग किया। इस तरह किये गये संस्कार को लेकर शासन, प्रशासन सवालों के घेरे में आ गया है। क्योंकि मान्यताओं के अनुसार सूर्यास्त के बाद अग्निदाह निषेध है। मिट्टी के तेल का प्रयोग भी नही किया जाता है। इस संस्कार को लेकर नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने प्रदेश के राज्यपाल को पत्र लिखा है। कांग्रेस विधायक विक्रमादित्य और उंमग संस्था के अजय श्रीवास्तव ने भी इस पर आपति उठाई है। प्रदेश उच्च न्यायालय के सेवानिवृत न्यायधीश जस्टिस ठाकुर ने मुख्यमन्त्री जयराम ठाकाुर को पत्र लिखकर इस पर जांच करने की मांग की है। ज़िला प्रशासन और नगर निगम शिमला ने भी इस पर एक दूसरे की भूमिका पर सवाल उठाये हैं। हो सकता है कि इसमें प्रशासन के सबसे निचले पायदान पर बैठे अधिकारी एसडीएम पर आसानी से गाज गिरा भी दी जाये क्योेंकि रात को संस्कार तो उसी की निगरानी में हुआ है। जबकि शायद इस मामले में अस्पताल से लेकर नीचे तक हरेक संवद्ध की अपनी-अपनी जिम्मेदारी है। इस मामले में कब कितनी जांच होती है और किसको कितना जिम्मेदार ठहराया जाता है इस पर सबकी निगाहें लगी है।
यह संस्कार प्रशासन द्वारा किया गया जिसमें कोई परिजन शामिल नही था। किसी भी मृतक का प्रशासन द्वारा संस्कार तब किया जाता है जब उसे लावारिस घोषित कर दिया जाता है। लावारिस घोषित करने के लिये भी एक प्रक्रिया तय है और उसमें सबसे बड़ी भूमिका पुलिस की रहती है। इसमें नगर निगम आदि की कोई भूमिका नही होती है।
ऐसे में इस प्रकरण ने कुछ ऐसे बुनियादी सवाल खड़े कर दिये हैं जिन पर चर्चा करना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि इस युवा मृतक का परिवार है और दो लोग साथ आये थे। इसके पिता का भी ब्यान आया है। इसके परिजनों को संस्कार में शामिल होने के लिये कहा ही नही गया या उन्होने स्वयं ही इन्कार कर दिया यह एक केन्द्रिय प्रश्न बन जाता है। क्योंकि इससे जहां एक ओर से मानवीय संवदेनाओं का प्रश्न खड़ा होता है वहीं दूसरी ओर से कोरोना को लेकर सामान्य समझ और इससे प्रचारित डर सामने आता है। इसी में प्रशासन की भूमिका और भी बड़ा सवाल हो जाती है। प्रशासन की भूमिका उसी दिन से शुरू हो जाती है जब महामारी एक्ट 1897 के तहत इसको कन्ट्रोल करने के लिये तालाबन्दी जैसा कदम उठाया गया था। इस एक्ट में साफ कहा गया है कि इसके नियन्त्रण के लिये राज्य द्वारा जो भी कदम उठाया जायेगा उसकी समूचित पूर्व सूचना जनता को देनी होगी।
Short title and extent –(1) This Act may be called the Epidemic Diseases Act, 1897.
(2) It extends to the whole of India except 3(the territories which , immediately before the 1st November 1956, were comprised in part B States)
2. Power to take special measures and prescribe regulations as to dangerous epidemic diseases-(1) When at any time the 6(State Government ) is satisfied that 7(the State) or any part thereof is visited by, or threatened with, an outbreak or any dangerous epidemic diseases the 6( State Government) if 8 (ii) thinks that the ordinary provisions of the law for the time being in force are insufficient for the purpose , may take or require or empower any person to take, such measures and, by public notice, prescribe such temporary regulations to be observed by the public or by any person or class of persons as 8(it) shall deem necessary to prevent the outbreak of such disease or the spread thereof , and may determine in what manner and by whom any expenses incurred (including compensation if any) shall be defrayed.
जब 24 मार्च को तालाबन्दी की घोषणा की गयी थी यदि तब अधिनियम की इस धारा की अनुपालना करते हुए जनता को तीन चार दिन का समय दे दिया जाता तो उसमें सब अपना प्रबन्ध कर लेते और जो परेशानी आज झेलनी पड़ रही है उससे करोड़ो लोग बच जाते। क्योंकि आने जाने की अनुमति आज मामलों का आंकड़ा 60,000 होने पर दी गयी है वह तब 500 पर भी दी जा सकती थी।
महामारियां 1897 से आज 2020 तक कई आयी हैं। जिनमें स्वाईफ्लू तो फरवरी 2020 तक रहा है। स्वाईनफ्लू के लक्ष्ण भी लगभग कोरोना जैसे ही है। स्वाईनफ्लू से हमारे ही देश में हज़ारों मौतें हो चुकी हैं। लेकिन तब कोई तालाबन्दी नही हुई थी और न ही आज की तरह जनता आतंकित हुई थी। स्वाईनफ्लू में हज़ारों मौतें होने पर भी आज की तरह अन्तिम संस्कार में मानवीय संवेदनाओं के इस तरह तार-तार होने का कोई प्रसंग समाने नही आया है। आज इस बिमारी से लेकर इससे हो रही मौत के अन्तिम संस्कार तक जिस तरह व्यक्तिगत स्तर तक आतंक बैठा दिया गया है उससे सारे रिश्ते तार-तार होकर रह गये हैं। इसमें विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से जो निर्देश जारी हैं उनको समझने की आवश्यकता है। क्योंकि उन निर्देशों में इस तरह से आतंकित होने की कोई वजह नही है। यह निर्देश यथा स्थिति पाठकों के सामने रखे जा रहे है ताकि हर आदमी अपने स्तर पर समझ बना सके।
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