शिमला/शैल। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से गलवां घाटी में चीन सेना द्वारा भारतीय जमीन पर कब्जे को लेकर स्थिति स्पष्ट करने को कहा है। कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने जारी एक बयान में कहा है कि इससे पहले कभी भी चीन ने भारतीय सीमा में प्रवेश नही किया था। यह देश के लिए कोई शुभ संकेत नही है।
सिंघवी ने कहा है कि वर्ष 2013 में जब केंद्र में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार थी, उस समय याई जेक्शन पर से उन्हें पीछे खदेड़ा गया था। 2017 में डोकलाम पर चीन के साथ विवाद के चलते प्रधानमंत्री चीन के प्रधानमंत्री के साथ झूला झूल रहे थे।
उन्होंने कहा है कि हर बार मोदी सरकार से चीन के गलवां घाटी, पांगोंग त्सो लेख, हाॅट स्प्रिंग और देपसांग प्लेन्स बारे पूछा गया पर इसकी कोई भी जानकारी देश को नही दी गई। उन्होंने कहा कि कांग्रेस राष्ट्रीय हित मे इसकी पूरी जानकारी चाहती है, जबकि उन्हें पता है कि चीन के प्रति प्रधानमंत्री का बहुत ही नरम रुख रहा है। उन्होंने कहा है कि यही वह नेता है जो गुजरात के मुख्यमंत्री के समय पांच बार चीन की यात्रा पर गए थे।
सिंघवी ने प्रधानमंत्री से पूछा है कि उन्हें देश को बताना चाहिए कि पीएम केअर फंड में कितना पैसा चीन से आया। उन्होंने कहा है कि कोई नही जानता कि इस फंड में अब तक कितना पैसा आया, किसने कितना दिया और यह कहां खर्च किया जा रहा है, क्योंकि यह आरटीआई के दायरे से बाहर रखा गया है। उन्होंने कहा है कि उनकी सूचना के अनुसार 20 मई तक इसमें 9678 करोड़ इकट्ठा हो गया है। हैरानी की बात है कि प्रधानमंत्री चीन की कंपनियों से पैसा ले रहे हैं और चीन की सेना भारत की सीमा में घुसपैठ कर रही है।
कांग्रेस ने सात बिंदुओं पर प्रधानमंत्री से सवाल किए है कि वह बताए कि उन्होंने चीन के साथ विवाद के चलते फंड क्यों लिया। क्या उन्होंने हावेल से सात करोड़ का फंड नही लिया, जबकि यह कंपनी विवादो में रहते हुए इसका संबंध चीन की लिबरेशन आर्मी से नही रहा है। क्या चीन की टिक टाक कंपनी ने 30 करोड़ का फंड नही दिया है। पेटिम जो 38 प्रतिशत चीन की हिस्सेदारी की है 100 करोड़ का फंड नही दिया है। क्सिओमी चीन की कंपनी ने क्या 15 करोड़ नही दिए है। ओप्पो ने 1 करोड़ नही दिए है। क्या पीएमएनआरएफ का फंड पीएम केअर फंड में ट्रांसफर किया गया और अगर किया गया है तो कितना।
सिंघवी ने कहा है कि जब चीन से प्रधानमंत्री इतना फंड ले रहे हो तो जाहिर है कि वह उनकी सेना का भी विरोध नही कर सकते। उन्होंने कहा है वह देश को अपनी पूरी स्थिति स्पष्ट करें।
हर महीने कर्मचारियों से एक-एक दिन का वेतन क्यों लिया
जी पी एफ पर ब्याज दर क्यों घटाई
विधायक क्षेत्र विकास निधि स्थगित क्यों की
शिमला/शैल। जयराम सरकार ने दावा किया है कि उसके पास बारह हज़ार करोड़ रूपया ऐसा है जिसे सरकार खर्च ही नही कर पायी है। बल्कि जलशक्ति मन्त्री महेन्द्र सिंह ने तो मण्डी में एक पत्रकार वार्ता में यहां तक कहा है कि यह राशी बारह हजार करोड़ से भी ज्यादा हो सकती है। उन्होनें यह भी खुलासा किया है कि ऐसा पैसा जो खर्च ही नही किया गया है वह सबसे ज्यादा लोक निर्माण विभाग और ग्रामीण विकास विभागों के पास है। सरकार का यह स्वीकार एक बहुत बड़ा ब्यान है। इस ब्यान की प्रासंगिकता उस समय और भी बढ़ जाती है जब प्रदेश सरकार को एक मीडिया हाऊस से बेस्ट परफारमर का अवार्ड भी मिल चुका है। इस सरकार को सत्ता में आये अढ़ाई वर्ष हो चुके हैं और तीन बजट पेश कर चुकी है। सरकार ने हर वर्ष कर्ज उठाया है। आज कर्ज के चक्रव्यूह की स्थिति यह है कि इस कर्ज का ब्याज अदा करने के लिये भी कर्ज लेना पड़ रहा है। अब जब कोरोना के कारण प्रदेश में कफ्रर्यू लगाना पड़ा और सारी आर्थिक गतिविधियों पर विराम लग गया तब सरकार को संसाधन जुटाने के लिये हर माह कर्मचारियों से एक-एक दिन का वेतन दान में लेना पड़ा है। विधायकों, मन्त्रीयों के वेतन भत्तों में 30% की कटौती करनी पड़ी है। विधायक क्षेत्र विकास निधि स्थगित करनी पड़ी है। यही नही अब कर्मचारियों के जीपीएफ पर करीब 1% ब्याज दर घटानी पड़ी है।
जयराम सरकार को दो वर्षों में केन्द्र से कुल मिलाकर 38018 करोड़ रूपया मिला है। यह जानकारी इस वर्ष के बजट सत्र में विधायक विक्रमादित्य के एक सवाल के जवाब में आयी है। इस परिप्रेक्ष में सरकार के वित्तिय प्रबन्धन की प्रक्रिया को समझना बहुत आवश्यक हो जाता है। क्योंकि यदि कोई सरकार अपने धन को खर्च ही न कर पाये और उसके बाद भी कर्ज लेती रही तथा कर्मचारियों से भी एक-एक दिन का वेतन ले ले और जीपीएफ पर ब्याज दर घटा दे तो यह सरकार की असफलता और उसमें फैली अराजकता का सबसे बड़ा प्रमाण बन जाता है। क्योंकि उसको यह पता भी तीसरा बजट पेश करने के भी तीन माह बाद चल रहा है। सरकार ने यह खुलासा नही किया है कि यह बिना खर्च किया पड़ा पैसा किस काल का है। क्या यह वीरभद्र सरकार के समय से पड़ा हुआ पैसा है या फिर इसी सरकार के समय का है। यह पैसा किसी भी काल का रहा हो अपने में एक बड़ा अपराध है क्योंकि आप पैसा होते हुए भी प्रदेश की जनता पर कर्ज का बोझ डाल रहे थे। फिर इस अपराध के लिये अभी तक किसी को भी दण्डित न किया जाना और भी गंभीर हो जाता है।
सरकार के वित्तिय प्रबन्धन की जिम्मेदारी सरकार के वित्त और योजना विभाग की होती है। इसी जिम्मेदारी के कारण सरकार के हर विभाग को हर कार्य के लिये जहां प्रशासनिक अनुमति की आवश्यकता होती है वहीं पर वित्त विभाग से वित्तिय स्वीकृति लेना भी अनिवार्य होती है। सारे सार्वजनिक उपक्रमों के बोर्डो की बैठकों में भी वित्त विभाग का प्रतिनिधि इसी कारण से उपस्थित रहता है।
इतनी प्रबन्धकीय प्रक्रिया के बाद एजी आफिस की जिम्मेदारी आती है और इसके तहत विभागों में आन्तरिक आडिट और सार्वजनिक उपक्रमों में सीए की तैनाती की व्यवस्था रहती है। अन्त में आडिटर जनरल हर वर्ष सरकार के वित्तिय प्रबन्धन का आडिट करता है। इस आडिट के बाद इसकी रिपोर्ट राज्यपाल को सौंपी जाती है और राज्यपाल सुनिश्चित करते हैं कि यह रिपोर्ट विधानसभा के पटल पर भी चर्चा के लिये रखी जाये। फिर इसके बाद सदन की लोक लेखा समीति कैग रिपोर्ट पर अगली कारवाई सुनिश्चित करती है। यदि कोई पैसा इतनी विस्तृत जांच पड़ताल के बाद भी नज़रअन्दाज रह जाये तो यह एक बड़ा सवाल बन जाता है। क्योंकि जिस तरह से सरकार ने इस पैसे का रहस्य उद्घाटन किया है उससे यही संदेश उभरता है कि इस पैसे की किसी को जानकारी ही नही थी और अचानक सरकार के सामने यह सच प्रकट हुआ है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि जब कैग की रिपोर्ट तैयार होती है तो उसमें यह विभाग दर्ज रहता है कि उसे कितने पैसे का आवंटन हुआ था और क्या उसी आवंटन में उसका काम निपट या उसे और पैसा लेना पड़ा या उसके पास पैसा बच गया जो उसने सरण्डर कर दिया। फिर हर खर्च किये हुए पैसे का उपयोगिता प्रमाणपत्र सौंपना होता है। कैग रिपोर्ट में यह दर्ज रहता है कितने उपयोगिता प्रमाणपत्र विभागों को सौंपना होता है। कैग रिपोर्ट में यह दर्ज रहता है कितने उपयोगिता प्रमाणपत्र विभागों से आ चुके हैं। कितने लंबित है और कितने ऐसे हैं जो ओवरडयू हो चुके हैं। इस तरह कैग में दर्ज सरण्डर रिपोर्ट और उपयोगिता प्रमाणपत्रों की रिपोर्ट से सरकार के वित्तिय प्रबन्धन की सारी तस्वीर सामने आ जाती है। अभी तक कैग की रिपोर्ट 31 मार्च 2018 तक के वित्तिय वर्ष की ही आयी है। जयराम सरकार के कार्यकाल की अभी तक कोई रिपोर्ट नही आयी है। 31 मार्च 2018 तक की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017-18 में 1,92,603.26 लाख के कुल प्रावधान में से 1,53,909.11 लाख सरण्डर किया गया था। इसी तरह कुछ विभागों में वर्ष 2010-11 के उपयोगिता प्रमाणपत्र अभी तक नही आये। वर्ष 2017-18 तक 531740.33 लाख के उपयोगिता प्रमाणपत्र लंबित हैं और 27,99,73.86 लाख के आऊटस्टैण्डिंग हो चुके हैं। लेकिन सारे उपयोगिता प्रमाणपत्र और सरण्डर का सारा पैसा जोड़ दिया जाये तो यह बारह हज़ार करोड़ नही होता है। इस परिदृश्य में यह सवाल उठना स्वभाविक है कि फिर यह बारह करोड़ रूपया कौन सा है जो आज तक खर्च ही नही हो पाया है। 31 मार्च 2018 तक की कैग रिपोर्ट आ चुकी है और उसके मुताबिक इतना पैसा सरण्डर तथा लंबित उपयोगिता प्रमाण पत्रों का नही बनता है। ऐसे में या तो इतने पैसे के फर्जी उपयोगिता प्रमाण पत्र जारी कर दिये गये हैं और वास्तव में पैसा खर्च ही नही हुआ है। इस स्थिति में यह एक गंभीर अपराध बन जाता है जिसकी जांच होना आवश्यक हैं या फिर यह पैसा इसी सरकार के कार्यकाल का है जिसे सरकार खर्च नहीं पायी है। इस सरकार के कार्यकाल की कैग रिपोर्ट अभी तक आयी नहीं है और जब तक ये रिपोर्ट न आ जाये तब तक यह कहना आसान नहीं होगा कि वास्तविक स्थिति क्या है
वैसे चर्चा है कि सरकार ने सभी विभागों से यह पूछा था कि उन्हे पिछले बीस वर्षों में कितना-कितना पैसा मिला है और उसमें से वह कितना खर्च कर चुके हैं। इसी के साथ यह भी पूछा गया था कि उनका एकाऊंट किस किस बैंक में है और उनमें कितना पैसा है। यह सूचना तैयार करते हुए यह सामने आया कि जिन विभागों के पास दूसरे विभाग का डिपाॅजिट वर्क आता है तब उस काम के लिये आवंटित धन भी साथ ही दे दिया जाता है। लेकिन जब व्यहारिक रूप से काम शुरू किया जाता है तब यह सामने आता है कि उसमें आवश्यक कुछ अनुमतियां अभी तक नही मिल पायी हैं और इस कारण से संबंधित कार्य वहीं पर रूक जाता है और उसके लिये आवंटित धन खर्च नही हो पाता है। संभव है कि यह बारह हजार करोड़ वैसा ही पैसा हो। लेकिन इसमें अब यह सवाल आयेगा कि क्या इस पैसे को कहीं और खर्चा जा सकता है। जिन कार्यो के लिये मूलतःयह पैसा आया था क्या सरकार उन कार्यों का अब बन्द कर पायेगी।
शिमला/शैल। प्रदेश भाजपा में जो असन्तोष एक अरसे से अन्दर ही अन्दर सुलग रहा था वह अब सार्वजनिक रूप से बाहर आकर जन चर्चा का मुद्दा बन गया है। जब भी किसी राजनीतिक दल के भीतर उभरे मतभेद सार्वजनिक होने के कगार पर पहुंच जाते हैं तो वह घातक हो जाते हैं यह एक स्थापित सत्य है। फिर जब इन मतभेदों की जमीन सर्वहित के मुद्दों पर भी आधारित हो जाती है तब इसका सारा कलेवर ही बदल जाता है। वैसे तो पार्टी के भीतर मतभेद उसी दिन से चले आ रहे हैं जब जयराम मुख्यमन्त्री बने थे क्योंकि विधानसभा चुनावों में जयराम मुख्यमन्त्री के लिये घोषित चेहरा नही थे। यही कारण था कि धूमल के चुनाव हारने के बाद भी विधायकों का एक बड़ा वर्ग उनको ही मुख्यमन्त्री बनाना चाहता था। बल्कि दो विधायकों ने उनके लिये सीट खाली करने की पेशकश कर दी थी। लेकिन जयराम उस समय धूमल और नड्डा को पछाड़ कर बाजी मार गये। क्योंकि इसकी बिसात चुनावों के दौरान ही पालमपुर की उस बैठक में बिछा दी गयी थी जिसमें कुछ पत्रकारों के साथ अमितशाह की एक वार्ता आयोजित हुई थी। बल्कि जयराम ने जब शिमला के प्रैस क्लब में आयोजित एक वार्ता में यह कहा था कि ‘‘अब तो उन्हे मुख्यमन्त्री मान लो क्योंकि वह बन गये हैं। भाजपा के आज के सियासी हालात का आकलन करने के लिये इस पृष्ठभूमि को नजरअन्दाज नही किया जा सकता है।
प्रदेश का जातिय और राजनीतिक गणित समझना भी सही आकलन के लिये आवश्यक है। इस गणित में यह महत्वपूर्ण है कि प्रदेश में ब्राहमण और राजपूत दो ही महत्वपूर्ण समुदाय है। लेकिन कांगड़ा, ऊना, हमीरपुर, सोलन और सिरमौर के कुछ विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां ओबीसी के सहयोग के बिना किसी दल को चुनाव जीतना कठिन हो जाता है। कांगड़ा में इसका प्रभाव क्षेत्र थोड़ा ज्यादा है। फिर कांगड़ा प्रदेश का सबसे बड़ा जिला है और सरकार उसी दल की बनती है जो यहां से कम से कम नौ-दस सीटें जीत पाता है। कांगड़ा में इतनी सीटें जीतने के लिये ओबीसी का सक्रिय सहयोग आवश्यक है। ओबीसी को अपनी इस राजनीतिक ताकत का पता है। इस समय ओबीसी से मन्त्री मण्डल में केवल एक ही मन्त्री है सरवीन चौधरी। लेकिन शहरी विकास मन्त्री होते हुए भी सरवीण समार्ट सिटी बोर्ड की सदस्य नही है। राष्ट्रीय स्तर पर भी ओबीसी भाजपा से पूरी तरह खुश नही है। क्योंकि इस वर्ग का सबसे बड़ा नुकसान करीमी लेयर की परिभाषा बदलने से हुआ है। यह परिभाषा बदलने से ओबीसी के उम्मीदवारों को संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास कर लेने के बावजूद नियुक्ति पत्र जारी नही हुए थे। इसको लेकर पूरे वर्ग में अन्दर ही अन्दर बड़ा रोष चल रहा है। यही रोष है जिसके कारण धवाला के खेद व्यक्त करने के बाद ओबीसी संगठन ने रणधीर शर्मा, राजीव बिन्दल और विशाल नेहरिया पर हमला बोलने में देर नही लगाई है।
संघ -भाजपा की आरक्षण को लेकर क्या धारणा है यह मण्डल आन्दोलन के दौरान जग जाहिर हो ही चुकी है। आज भी इसको लेकर संघ के शीर्ष नेतृत्व के ब्यान प्रायः आते ही रहते हैं। इस पृष्ठभूमि में ओबीसी का युवा पढ़ा लिखा वर्ग संघ भाजपा से वैचारिक दूरी बनाये रखने पर चल पड़ा है यह तय है। यदि इस पक्ष को थोड़ी देर के लिये साईड भी कर दिया जाये तो इस समय कांगड़ा से दो मन्त्री पद खाली हैं। कपूर और अनिल शर्मा के पद तो पिछले एक वर्ष से खाली चले आ रहे हैं। मुख्यमन्त्री अब तक इन पदों को भर नही पाये हैं। दूसरी ओर यह भी जग जाहिर है कि राजीव बिन्दल मन्त्री बनना चाहते थे लेकिन उन्हे विधानसभा अध्यक्ष बना दिया गया। फिर जब स्वास्थ्य विभाग को लेकर शान्ता कुमार के नाम एक खुला पत्र सामने आया तब अन्ततः स्वास्थ्य मन्त्री को मन्त्री पद छोड़कर स्पीकर बनना पड़ा। स्पीकर राजीव बिन्दल को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। यह सार्वजनिक है कि जयराम विपिन परमार को मन्त्री पद से नही हटाना चाहते थे और न ही बिन्दल को पार्टी अध्यक्ष देखना चाहते थे। यह दोनों काम मुख्यमन्त्री की सहमति के बिना हुए हैं। हाईकमान ने अपने फीड बैक पर यह फैसलें लिये हैं। इसमें सबसे अहम फैसला था बिन्दल का प्रदेश अध्यक्ष बनना। प्रदेश अध्यक्ष बनकर वह मुख्यमन्त्री के लिये चुनौती माने जाने लगे। इस चुनौती की पहली झलक तब सामने आयी जब भाजपा के ही आठ विधायकों ने नेता प्रतिपक्ष के साथ मिलकर विधानसभा सत्र बुलाये जाने के लिये स्पीकर को लिखित पत्र सौंप दिया। इस पत्र की घटना के साथ ही निदेशक स्वास्थ्य और एक पृथ्वी सिंह का आडियो सामने आ गया। यह आडियो सामने आते ही बिनदल ने आठ विधायकों के सत्र बुलाने की मांग को वाकायदा प्रैस नोट जारी करके अनुचित करार दे दिया। अब यह आठ विधायकों का पत्र और आडियो एक ही समय में सामने आना एक सहज संयोग था या प्रायोजित संयोग इस पर अभी तक रहस्य बना हुआ है। लेकिन इसमें यह आवश्य जुड़ गया कि पृथ्वी सिंह बिन्दल का खास आदमी है। यह जुड़ते ही शान्ता कुमार ने इस सब पर हाईकमान को पत्र लिख दिया। शान्ता के पत्र का संज्ञान लेते ही बिन्दल को अध्यक्ष पद छोड़ने के निर्देश हो गये और उन्होने त्यागपत्र भी दे दिया जिसे तुरन्त प्रभाव से स्वीकार भी कर लिया गया। बिन्दल के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद फिर एक चर्चा चली कि पूर्व अध्यक्ष सतपाल सत्ती, रणधीर और धर्माणी को निगमों/बोर्डों में अध्यक्ष बनाया जा रहा है। अध्यक्षों की इस चर्चा के साथ ही उत्साही पत्रकारों ने मन्त्रीमण्डल के विस्तार होने की चर्चा भी छेड़ दी। इन सारी चर्चाओं के बीच कांगड़ा में सांसद किश्न कपूर और पूर्व मन्त्री रविन्द्र रवि के साथ कांगड़ा के कुछ नेताओं की बैठक होना एक नया मुद्दा जुड़ गया। कपूर-रवि की इस बैठक को कांगड़ा-चम्बा के ही विधायकों ने पार्टी विरोधी गतिविधि करार देकर इनके खिलाफ कारवाई करने की गुहार हाईकमान से लगायी। इस पृष्ठभूमि में जब निदेशक-पृथ्वी के आडियो पर कांग्रेस हमलावर हो गयी तब मुख्यमन्त्री ने भाजपा विधायक दल की बैठक बुला ली । बैठक बुलाने की बात सामने आते ही इसमें प्रैस ने यह जोड़ दिया की इसमें मन्त्रीमण्डल विस्तार निगमों/बोर्डो की ताजपोशीयां और पार्टी अध्यक्ष पर चर्चा होगी लेकिन जब विधायक दल की बैठक हुई तो उसमें ऐसे किसी भी विषय पर कोई चर्चा तक नही हुई। बैठक कांग्रेस के हमले का जबाव कैसे देना है इस पर ही केन्द्रित रही यह कहा गया। लेकिन इसी बैठक से बाहर आकर रमेश धवाला ने संगठन मन्त्री पवन राणा पर सीधा हमला बोल दिया।
रमेश धवाला के इस हमले पर पार्टी ने उनके खिलाफ कारवाई करने की बात कर दी। यह प्रकरण इतना बढ़ा कि धवाला को खेद का पत्र संगठन को सौंपना पड़ा। धवाला के इस खेद पत्र के बाद ओबीसी समुदाय धवाला के साथ खड़ा हो गया है। कांगड़ा में धवाला बनाम पवन राणा धु्रवीकरण अब खुलकर खड़ा होता जा रहा है। इसी बीच मन्त्रीमण्डल विस्तार और निगमों/बोर्डो में ताजपोशीयों पर विराम लग गया है। नये अध्यक्ष पर भी अभी तक फैसला नही हो पाया है। ऐसे में जो विधायक मन्त्री बनने की आस लगाये बैठे थे अब उनका धैर्य कब जवाब दे जाये यह कहना कठिन नही है क्योंकि इन्ही लोगों ने कपूर- रवि के खिलाफ मोर्चा खोला था। अब अगर इनको लगा कि मुख्यमन्त्री के सहारे मन्त्री पद पाना आसान नही है तो यह लोग कब पासा बदलकर मुख्यमन्त्री के लिये ही कठिनाईयां पैदा कर दें इससे इन्कार नही किया जा सकता। क्योंकि आडियो के सहारे बिन्दल के खिलाफ प्रचार के अतिरिक्त कुछ नहीं मिल पाया है और यही नये समीकरणों का आधार कब बन जाये इसे नजर अन्दाज नही किया जा सकता है। क्योंकि जो ज्वाला भड़क उठी है शायद वह कोई बलि लिये बिना शान्त न हो।
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