शिमला/शैल। क्या भाजपा सुक्खू सरकार के प्रति ईमानदार, गंभीरता से आक्रामक है या उसकी आक्रामकता एक राजनीतिक रस्म अदायगी भर है? यह सवाल इसलिये उठ रहा है कि सुक्खू सरकार जिस तरह से कर्ज पर आश्रित हो गयी है वह भविष्य के लिये एक बड़े संकट का न्योता साबित होगी। क्योंकि बढ़ते कर्ज का सबसे पहला और बड़ा असर यह होता है कि सरकार को अपने प्रतिबद्ध खर्चों में सबसे पहले कटौती करनी पड़ती है। इन प्रतिबद्ध खर्चों में सबसे पहले कर्मचारी वर्ग आता है। उसमें स्थायी नियमित रोजगार को कम करके अस्थायी और आउटसोर्स का सहारा लेना पड़ता है। जब से प्रदेश में आउटसोर्स का चलन शुरू हुआ है तभी से उसी अनुपात में नियमित रोजगार में कटौती हुई है। बढ़ते कर्ज का दूसरा प्रभाव जन सुविधाओं पर पड़ता है। सरकार नियमित सुविधाओं से कर्ज के अनुपात में ही पीछे हटती जाती है। इस सरकार पर कर्ज पर आश्रित होने का जितना आरोप लगता जा रहा है उसी अनुपात में यह सरकार पूर्व सरकार पर वित्तीय कुप्रबंधन का आरोप लगाती जा रही है। लेकिन पूर्व के सरकार के नेतृत्व द्वारा इस कुप्रबंधन का कोई कड़ा जवाब नहीं दिया जा रहा है। इस सरकार पर विपक्ष भ्रष्टाचार के जितने आरोप लगा रहा है वह सब अपने में गंभीर हैं। लेकिन उन आरोपों पर अब तक एक भी आरोप पत्र विधिवत राज्यपाल को सौंपकर किसी जांच की मांग नहीं की गयी है। बल्कि जो आरोप देहरा उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशी रहे होशियार सिंह ने वाकायदा विधिवत शिकायत के रूप में महामहिम राज्यपाल को सौंपे हैं उनकी जांच की मांग को लेकर पूरी भाजपा खामोश खड़ी है और राजभवन भी शायद उस शिकायत को भूल ही गया है। बल्कि एचआरटीसी कि ई-वर्कशॉप को लेकर नादौन में खरीदी गई जमीन में घपला होने के जो आरोप विधायक सुधीर शर्मा ने लगाये थे उन आरोपों पर भी पूरी भाजपा ने मौन साध लिया है। ऐसे और भी कई उदाहरण है जो भाजपा नेतृत्व से इस दिशा में जवाब मांगते हैं।
इस परिदृश्य में भाजपा की आक्रामकता को लेकर आम आदमी भी इसे एक रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ मानने को तैयार नहीं है। भाजपा की इस नीयत और नीति पर अब कुछ सवाल उठने लग पड़े हैं। क्योंकि भाजपा ने राज्यसभा चुनाव के दौरान अपने उम्मीदवार को विजयी बना लिया था उस समय भाजपा पर धन बल के सहारे सरकार गिराने का आरोप लगा था। इस आरोप के बाद कांग्रेस और भाजपा में जिस तरह के आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर चला और अदालत तक भी पहुंच गया उसका अंतिम परिणाम कोई सामने नहीं आया है। यह सही है कि इस समय राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा बहुत ही नाजुक दौर से गुजर रही है। इसी नाजुकता के कारण राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा का अभी तक विकल्प नहीं ला पायी है। यह माना जा रहा है कि भाजपा के राष्ट्रीय परिदृश्य का असर प्रदेश पर भी पड़ रहा है। प्रदेश भाजपा की नई कार्यकारिणी में क्षेत्रीय असन्तुलन के आरोप मुखरित होने लग पड़े हैं। इसलिये प्रदेश सरकार के प्रति भाजपा की आक्रामकता पर भी सवाल उठने शुरू हो गये हैं। बल्कि यह कहा जाने लगा है की मुख्यमंत्री सुक्खू की सियासी चालों ने कांग्रेस से ज्यादा भाजपा को पंगु बना दिया है और भ्रष्टाचार के आरोपों पर ई.डी. में जाने की चुनौती दे रहे हैं।
शिमला/शैल। प्रदेश कांग्रेस का पुनर्गठन अभी तक नहीं हो पाया है। यहां तक कांग्रेस हाईकमान के साथ भी इस संबंध में प्रदेश नेताओं की बैठक हो चुकी है। पिछली बैठक में हाईकमान ने प्रदेश के मंत्रियों से अलग मंत्रणा की थी और तब यह लगा था कि एक-दो दिन में घोषणा हो जायेगी। परन्तु ऐसा हो नहीं सका। क्योंकि प्रदेश अध्यक्षा प्रतिभा सिंह ने शिमला में पत्रकारों से बात करते हुये स्पष्ट कहा कि वीरभद्र लीगेसी को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कहा कि अगला अध्यक्ष अनुसूचित जाति से होना चाहिये। साथ ही यह भी कहा कि अगला अध्यक्ष कोई मंत्री हो सकता है। प्रतिभा सिंह और मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के बयानों से स्पष्ट हो जाता है कि अभी अगले गठन पर प्रदेश के नेताओं में ही कोई सहमति नहीं हो पायी है।
प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बने अढ़ाई वर्ष हो गये हैं। प्रदेश संगठन में पिछले वर्ष नवम्बर से सारी कार्यकारणीयां भंग हैं। यदि सरकार और संगठन में अब तक के कार्यकाल की समीक्षा की जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि दोनों में अब तक तालमेल का अभाव रहा है और यह अभाव खुलकर जगजाहिर भी हो चुका है। वरिष्ठ कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं ने सरकार में यह यथोचित समायोजन की मांग उठी और हाईकमान तक भी पहुंची लेकिन कोई समाधान नहीं निकल सका। इसी तालमेल के अभाव का परिणाम था की छः विधायकों ने पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। कांग्रेस प्रदेश में लोकसभा और राज्यसभा सभी कुछ हार गयी लेकिन हाईकमान ने इस हार का कोई गंभीर संज्ञान नहीं लिया। हाईकमान इसी में खुश रही की दल बदल के प्रयासों के बावजूद भी प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बच गयी। आपसी तालमेल का अभाव उस समय भी जगजाहिर हो गया था जब धर्माणी और गोमा को मंत्री बनने के बाद उन्हें विभागों के आवंटन में जरूरत से ज्यादा समय लगा दिया गया। यह स्थिति व्यवहारिक रूप से अब तक बनी हुई है और इसी के कारण सरकार पर अफसरशााही के हावी होने की शिकायतें हाईकमान तक भी जा पहुंची है।
इसी वर्ष के अन्त में पंचायत और पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव होने हैं। यह चुनाव सरकार के कामकाज की परीक्षा होंगे। कांग्रेस विधानसभा चुनावों में दस गारंटियां जनता को देकर सत्ता में आई थी। अब यह गारंटियां कितनी पूरी हुई हैं इसका हिसाब हर वोटर मांगेगा और हर कांग्रेस कार्यकर्त्ता को इसका जवाब देना होगा। इस दौरान वित्तीय संकट के आवरण में जनता पर कितना कर्जभार लाद दिया गया और उसके अनुपात में आम आदमी के संसाधन कितने बढ़े हैं इसका भी व्यवहारिक लेखा-जोखा इन चुनावों में रखना पड़ेगा। यह सबसे बड़ा सवाल होगा कि कांग्रेस का कार्यकर्ता क्या संदेश लेकर जनता के बीच जायेगा। सरकार ने स्थानीय निकायों के चुनाव में ओबीसी को आरक्षण देने की बात की है। परन्तु यह आरक्षण तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक जातीय जनगणना नहीं हो जाती है। इसलिये यह बहुत संभव है कि विधानसभा के इस सत्र में यह प्रस्ताव आये कि स्थानीय निकायों के चुनाव दो वर्षों के लिये टाल दिये जायें। यह चुनाव टलने से इन निकायों में तो हार से बच जाएंगे परन्तु पंचायत के चुनाव में क्या होगा यह एक बड़ा सवाल रहेगा। इन्हीं चुनावों के कारण इस समय संगठन के पुनर्गठन को और टालना संभव नहीं होगा। हिमाचल में संगठन का पुनर्गठन प्रदेश नेतृत्व के साथ हाई कमान के लिए भी चुनौती बनता जा रहा है।
शिमला/शैल। प्रदेश सरकार में मंत्री का एक पद खाली चला आ रहा है और संगठन की राज्य से लेकर ब्लॉक तक सारी कार्यकारिणीयां पिछले वर्ष नवम्बर से भंग चली आ रही है। यह स्थिति है प्रदेश में सरकार और संगठन की। इस स्थिति के लिये कौन जिम्मेदार है अब यह विषय आम आदमी में चर्चा का विषय बनता जा रहा है। कांग्रेस संस्कृति से जो लोग परिचित हैं वह जानते हैं कि सरकार बनने के बाद सब कुछ मुख्यमंत्री और सरकार के गिर्द घूमना शुरू कर देता है और संगठन दूसरे दर्जे की स्थिति में तब पहुंच जाता है। जब संगठन का मुखिया इस पर परोक्ष/अपरोक्ष में सवाल उठाना शुरू करता है तब कार्यकारिणीयों को ही भंग कर दिये जाने तक हालात पहुंच जाते हैं। हिमाचल में भी सरकार और संगठन में वांच्छित तालमेल के अभाव के समाचार कांग्रेस हाईकमान तक लगातार पहुंचते रहे हैं। बल्कि समाचारों से निकलकर शिकायतें तक भी हाईकमान के पास पहुंची। लेकिन जब किसी चीज का भी असर नहीं हुआ तब सरकार के होते हुये पार्टी में दल बदल हो गया। छः विधानसभा क्षेत्रों में लोकसभा के साथ उपचुनाव हो गये। इन उपचुनावों में पार्टी अपने मूल आंकड़े चालीस तक फिर पहुंच गयी लेकिन लोकसभा की चारों ओर राज्यसभा की सीट भाजपा से हार गयी। इस हार जीत से न तो कांग्रेस हाईकमान ने कुछ सीखा और न ही प्रदेश में संगठन और सरकार में तालमेल बेहतर हो पाया है। यहां तक की तालमेल के लिये कमेटी तक का भी गठन हुआ परन्तु स्थितियां कार्यकारिणियों के भंग किये जाने तक पहुंच गयी। अब सरकार की परीक्षा पंचायत और पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों में फिर दाव पर होगी। इन चुनावों में हर वोटर और हर घर उसको विधानसभा चुनावों में दी गई गारंटीयों का हिसाब मांगेगा ।
सरकार के अपने मंत्रियों और मुख्यमंत्राी में भी कितना तालमेल चल रहा है इसका इसी से पता चल जाता है कि अब मंत्रिमण्डल की बैठकों से भी मंत्रियों का गैर हाजिर होना एक आम बात होती जा रही है। इस बार लगातार चार दिन मंत्रिमण्डल की बैठकें चली और एक मंत्री चारों ही दिन इसमें गैर हाजिर रहा। हाईकमान ने संगठन के पुनर्गठन के लिये दिल्ली में बैठक रखी। सारे मंत्रियों को बुलाया गया। इस बैठक में हाईकमान के सामने सारा कुछ सामने आ गया है। यहां तक संज्ञान में ला दिया गया है कि सरकार में अफसरशाही किस कदर हावी है। कुल मिलाकर हिमाचल के बारे में खड़गे और राहुल को काफी जानकारियां इस बैठक में मिल गयी है। अफसरशाही किस कदर हावि है इसका बड़ा उदाहरण पंचायती राज संस्थाओं के चुनावों में ओबीसी को आरक्षण का फैसला है। हिमाचल में आज तक ओबीसी की अलग से जनगणना नहीं हुई है और जब कोई गणना ही नहीं हुई है तो आरक्षण किस आधार पर तय होगा। स्वभाविक है कि कोई गणना न होने से इस आरक्षण के प्रयास को कोई अदालत में चुनौती दे देगा और सारी प्रक्रिया स्टे करवा दी जायेगी। इसी तरह का चलन 2003 के बाद लगे कर्मचारियों की सेवा शर्तों में वाकायदा एक विधेयक पारित करवाकर बदलाव किया गया। इस बदलाव के कारण उनके वेतन में कटौती तक के आदेश जारी हुये। जिन्हें प्रदेश उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया है। स्वभाविक है कि जब इस तरह के परिदृश्य में एक सरकार चुनावों में जायेगी तो उसे क्यों और कितनी सफलता मिलेगी?
इसी परिदृश्य में यदि विरासत की राजनीति की भी प्रदेश में पड़ताल की जाये तो वर्तमान कांग्रेस में प्रदेश में स्व. ठाकुर रामलाल और स्व. वीरभद्र सिंह दो पूर्व मुख्यमंत्रीयों की अपनी-अपनी विरासत अभी भी चल रही है। इनके वारिस इस विरासत का दोहन कर रहे हैं। लेकिन संयोगवश दोनों ही वारिस इस समय मुख्यमंत्री के साथ नहीं है। स्व.वीरभद्र की प्रतिमा के प्रतिक्षित अनावरण की राजनीति ने इस विरासत में भी एक नया अध्याय जोड़ दिया है और इससे अनायास स्व. वीरभद्र और वर्तमान मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के राजनीतिक रिश्ते फिर से चर्चा का विषय बनने लग गये हैं। इस तरह के राजनीतिक परिदृश्य में भावी संगठन और सरकार में किस तरह तालमेल बैठ पायेगा इस पर सबकी नज़रें लग गयी है। आज कांग्रेस के कार्यकर्ता भी यह मानने लग पड़े हैं की वर्तमान सत्ता को इस बात से कोई लेना देना नहीं रह गया है कि उसे एक प्रभावी संगठन की आवश्यकता है। क्योंकि जब संगठन प्रभावित होने का प्रयास करेगा तो वह सत्ता को अच्छा नहीं लगेगा। इस तरह प्रदेश में जो राजनीतिक परिस्थितियों निर्मित हो चुकी है उनसे अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि यह सरकार अपने एक विशेष दायरे के बाहर आने को तैयार ही नहीं है और इस तरह प्रदेश में नया संगठन अब हाईकमान के लिए भी चुनौती बन जायेगा।
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