शिमला/शैल। केन्द्रिय वित्त राज्य मन्त्री अनुराग ठाकुर और उनके छोटे भाई अरूण धूमल ने धर्मशाला के कजलोट में एक प्रेमु सुपुत्र सीतू से जनवरी 2008 में एक ज़मीन खरीदी थी। इस खरीद पर वीरभद्र शासन में विजिलैन्स में शिकायत हो गयी। आरोप लगा कि सीतू को यह ज़मीन भूमिहीन होने के नाते नौतोड़ के रूप में मिली थी। नियम था कि ऐसे मिली जमीनों को बीस वर्ष तक बेचा नही जा सकता था और इसमें बीस वर्ष नही हुए थे। इन आरोपों पर विजिलैन्स ने मामला दर्ज कर लिया। मामला दर्ज होने के बाद हुई जांच में यह भी जुड़ गया कि 5 मार्च 1988 को सरकार ने इसमें यह भी संशोधन कर दिया था कि ऐसी जमीनों को अलाटी की पत्नी के जीवन काल तक नही बेचा जा सकेगा। यह संशोधन सारे जिलाधीशों, उपमण्डलाधिकारियों, तहसीलदारों और नायब तहसीलदारों तक को भेजा गया और स्टैण्डिग आर्डर में भी दर्ज रहा है। इसी के साथ इस खरीद में यह भी एक मुद्दा बन गया कि इस जमीन को बेचने से सीतू पुनः भूमिहीन हो गया। जब कोई व्यक्ति भूराजस्व अधिनियम की धारा 118 के तहत जमीन खरीद की अनुमति सरकार से मांगता है तब संबंधित प्रशासन अनुमति में यह दर्ज करता है कि यह जमीन बेचने के बाद बेचने वाला भूमिहीन नहीं हो जायेगा। यदि जमीन बेचने वाला बेचने के बाद भूमिहीन हो रहा हो तो उसे इसकी अुनमति नही दी जाती है।
इस मामले में विजिलैन्स ने जो एफआईआर दर्ज कर रखी है उसमें यह सब दर्ज है। जांच के दौरान संबंधित राजस्व अधिकारियों और कार्यालय में इस मामलें से जुड़ी फाईल के गायब होने का भी जिक्र है। अब इन सारे तथ्यों के साथ विजिलैन्स ने इस मामले की कैन्सेलेशन रिपोर्ट अदालत में डाल दी। अदालत ने रिपोर्ट देखने के बाद जब विजिलैन्स से यह पूछा कि अलाटमैन्ट के बाद बीस वर्ष से पहले ही इस जमीन को किस नियम के तहत बेचा गया तो जांच ऐजैन्सी इसका कोई सन्तोषजनक उत्तर नही दे पायी। इसमें यह कहा गया कि जब इसकी अलाटमैन्ट हुई थी तब रिकार्ड में पन्द्रह वर्षों तक इसे ने बेचना दर्ज है। लेकिन फाईल गायब होने की अपनी ही रिपोर्ट के कारण अदालत ने विजिलैन्स के आग्रह को अस्वीकार कर दिया। अब यह मामला पुनः से अपने स्थान पर यथास्थिति खड़ा रह गया है। राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में इस पर कई तरह की चर्चाएं चल निकली हैं। माना जा रहा है कि विजिलैन्स ने इसमें कोई ज्यादा मेहनत नही की है। बल्कि इस मामले में सीतू के पुत्र प्रेमू का जांच के दौरान यह ब्यान भी नुकसानदेह साबित हुआ है कि सीतू अनपढ़ था और उसे शराब पीने की लत थी। उसे होटलों में ले जाकर शराब पिलायी जाती थी और तब उससे इस पर दस्तख्त करवा लिये गये हैं। इसमें हमीरपुर के किसी परमार द्वारा विचौलीये की भूमिका निभाने का भी जिक्र है। इस परिदृश्य में एक बार फिर इस मामले पर सबकी निगाहें लग गयी हैं। क्योंकि विजिलैन्स ने अदालत के इस आदेश को आगे कोई चुनौती नही दी है। चुनौती न देने से यही स्पष्ट होता है कि विजिलैन्स की नज़र में अदालत का एतराज जायज़ है।
माफिया को मन्त्राी के संरक्षण का आरोप
2008 में भी 97 जमीन खरीद मामलों में अनियमितताओं के लग चुके हैं आरोप
तीन आईएएस अधिकारी भी रह चुके हैं लाभार्थी
शिमला/शैल। राजस्व विभाग का कार्यभार संभालने के बाद विभाग के अधिकारियों से बेनामी सौदों और धारा 118 के तहत मांगी गयी अनुमतियों की जानकारी मांगी है। माना जा रहा है कि इस संबंध में विभाग कोई सौ फाईलों की जानकारी मन्त्री के सामने रखने जा रहा है। स्मरणीय है कि जयराम सरकार ने इन्वैस्टर मीट के माध्यम से प्रदेश में उद्योगपतियांे को निवेश के लिये आमन्त्रित किया है। इस आमन्त्रण पर करीब 92000 करोड़ के निवेश का आश्वासन भी सरकार को मिल चुका है। कोरोना के कारण फिलहाल यह निवेश रूक गया है लेकिन जब भी स्थितियां सामान्य होंगी इस दिशा में गतिविधियां रफ्तार पकड़ेंगी। इस संभावित निवेश को जमीन पर उतरने के लिये अन्ततः जमीन की आवश्यकता पड़ेगी। संभव है कि बहुत सारे निवेशकों को सरकार स्वयं ही जमीन उपलब्ध करवा दे। लेकिन सरकार के प्रयासों के बावजूद बहुत सारे निवेशक अपने स्तर पर जमीने खरीदने का प्रयास करेंगे। ऐसे प्रयासों में ही बेनामी सौदों और धारा 118 के तहत अनुमतियों की स्थिति आती है।
किन जगहों पर किस तरह के उद्योग स्थापित होंगे सरकार में इसकी पूरी योजना बनाई जाती है। ऐसी योजना की जानकारी सबसे पहले योजना बनाने वाले अधिकारियों और योजना की अनुमति देने वाले मन्त्रीयों को ही रहती है। इस तरह सबसे पहले ऐसे संभावित स्थानों पर जमीन खरीदने का काम अधिकारी और मन्त्री ही परोक्ष/अपरोक्ष में शुरू करते हैं। यहीं से बेनामी सौदों का चलन भी शुरू होता है। इस सरकार में भी ऐसे कारनामें शुरू हो चुके हैं इस आशय का आरोप पिछले दिनों धर्मशाला में एक पत्रकार वार्ता में पूर्व मन्त्री विजय सिंह मनकोटिया ने लगाया है। उन्होने आरोप लगाया कि जयराम का एक मन्त्री अपरोक्ष में जमीनें खरीदने में लग गया है। मनकोटिया ने इस आशय का एक पत्र भी मुख्यमन्त्री को भेजकर उसमें कुछ सवाल पूछे हैं।
स्मरणीय है कि हिमाचल में बेनामी सौदों और धारा 118 के प्रावधानों की अवहेलना किये जाने के मामले 1990-91 के बाद से लगातार चर्चा का विषय बनते रहे हैं। कांग्रेस ऐसे मामलों में भाजपा पर और भाजपा कांग्रेस पर प्रदेश को बेचने के आरोप लगाते रहे हैं। ऐसे मामलों की जांच के लिये प्रदेश में एस एस सिद्धू, आर एस ठाकुर और डी पी सूद की अध्यक्षता में तीन बार आयोग भी गठित हो चुके हैं लेकिन इन आयोगों की रिपोर्टों के आधार पर किसी को सज़ा भी मिली हो ऐसा अभी तक सामने नही आया है।
धारा 118 के प्रावधानों की उल्लघंना के मामलों की चर्चा और उनका रिकार्ड सदन के पटल पर आने के बाद भी जब इस पर कोई कारवाई नही होती है तब पूरी व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े हो जाते हैं। स्मरणीय है कि जब चुनाव आधार संहिता लागू हो जाती है तो सरकार ऐसा कोई फैसला नही लेती है जिसके कारण व्यक्ति विशेष को तो लाभ पहुंच जाये और उसके बदले में सरकार को नुकसान हो जाये जमीन खरीद में यह नियम है कि खरीदने और बेचने वाले दोनों का पूरा पता रिकार्ड पर दर्ज हो। धारा 118 की अनुमति संबंधित जिलाधीश देता है उसमें बेचने वाले को राजस्व का फार्म एल आर XV भरना पड़ता है जिसमें जिलाधीश प्रमाणित करता है कि इस जमीन के बेचने के बाद बेचने वाला भूमिहीन तो नही हो जाता है। बेचने वाले के पास आय का क्या साधन रह जाता है। सिंचाई वाली जमीन किसी अन्य उद्देश्य के लिये नही बेची जा सकती है। नौतोड़ में मिली हुई जमीन भी नही बेची जा सकती है किचन गार्डन के लिये भी जमीन खरीद की अनुमति नही मिलती है। बेची जाने वाली जमीन पर पेड़ों का पूरा ब्यौरा देना पड़ता है। यह सबकुछ जिलाधीश प्रमाणित करता है।
वर्ष 2007 में चुनाव आचार संहिता लगने के 29 दिसम्बर तक धारा 118 के तहत जमीन खरीद के 97 मामलों में अनुमतियां दी गयी थी। कुछ मामलों में तो विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद यह अनुमतियां दी गयी हैं जबकि सरकार हार गयी हुई थी। यह अनुमतियां पाने वालों में प्रदेश के तीन आईएएस अधिकारी भी शामिल रहे हैं जिनमें से दो तो जयराम सरकार में भी महत्वपूर्ण पदों पर तैनात हैं। सभी 97 अनुमतियों में कोई न कोई गंभीर कमी है जिसके कारण यह रद्द हो जानी चाहिये थी। लेकिन केवल प्रियंका गांधी वाड्रा के मामले में सरकार ने कारवाई की बात करी थी। जबकि यह सभी 97 मामलें विधानसभा में चर्चा में आये थे और सभी का रिकार्ड सदन के पटल पर रखा गया था। सभी में पायी गयी कमीयों को दर्शाया गया था। सदन में गंभीर बहस हुई थी लेकिन अन्तिम परिणाम शून्य ही रहा किसी मामलें में कोई कारवाई नही हुई।
अब पूर्व मन्त्री विजय सिंह मनकोटिया ने कांगड़ा-धर्मशाला क्षेत्र में एक भू माफिया द्वारा बडे पैमाने पर जमीन खरीदने का मामला उजागर किया गया है। इन लोगों को जयराम मन्त्री मण्डल के ही एक मन्त्री का संरक्षण प्राप्त होने की चर्चा है। यही लोग नगर निगम धर्मशाला के क्षेत्र में एक बड़े होटल का निर्माण कर रहे हैं। संरक्षण देने वाले मन्त्री के खिलाफ धर्मशाला में एक समय देवदार के पेड़ काटने का भी आरोप विभाग पर लग चुका है और इस संबंध में उच्च न्यायालय में एक महिला द्वारा पत्र लिखने के बाद यह मामला उठ चुका है। अब विजय मनकोटिया ने मुख्यमन्त्री को पत्र लिखने के साथ ही प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री और प्रदेश के राज्यपाल के भी संज्ञान में लाकर इस पर कारवाई की मांग की है। अब देखना रोचक होगा कि मनकोटिया के पत्र पर कोई कारवाई होती है या इसका परिणाम भी 2008 में उठे 97 मामलों जैसा ही होता है।
शिमला/शैल। बद्दी के झाड़ माज़री में वर्ष 2007 में बाॅस फार्मा के नाम से एक उद्योग की स्थापना हुई थी। 2008 में ही इस उद्योग ने आॅप्रेशन शुरू कर दिया था। स्मरणीय है कि किसी भी उद्योग को उसकी स्थापना और आॅप्रशन से पहले उद्योग विभाग ओर प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड से सारी आवश्यक अनुमतियां लेना आवश्यक होता है। उद्योग विभाग और प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के संवद्ध अधिकारी समय-समय पर उद्योगों का निरीक्षण करते हैं। जब कोई उद्योग अपनी ईकाई में कोई विस्तार करता है तब भी उसे इस सारी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। बाॅस फार्मा उद्योग ने वर्ष 2008 में ही प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग से ड्रग लाईसैन्स लेेकर Vitamin-C, IP/BP, Victamin B-1 IP/BP, Sodium, as a Corbate Crude IP/BP and Niacin/Niacinimide IP/BP (Pharmaceutical formation) का निर्माण शुरू किया था। इसके बाद 25-4-2011 को प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड को इसमें दो और ड्रग्स का निर्माण करने की अनुमति दिये जाने का आग्रह किया और इसके लिये 6100 रूपये की फीस भी जमा करवा दी। इस आग्रह में बोर्ड को यह भी सूचित कर दिया गया था कि भारत सरकार के वन एवम् पर्यावरण मन्त्रालय द्वारा पत्र संख्या F.No.3-168/2006-RO(NZ) Volume XV दिनांक 13-4-2011 के माध्यम से इस निर्माण की स्वीकृति मिल चुकी है। भारत सरकार ने भी यह स्वीकृति प्रदान करने से पहले इस संद्धर्भ में पूरी कर ली थी।
यह ड्रग्स निर्माण के लिये स्वास्थ्य विभाग हिमाचल प्रदेश ने 11-1-2017 को रिन्यूवल की अनुमति दी है। प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड ने भी इसका अनुमोदन करते हुए इसे 1-4-2017 से 31-3-2022 तक वैद्य़ करार दिया है। आॅप्रेशन के रिन्यूवल का पत्रा बोर्ड से सदस्य सचिव द्वारा 24-3-2019 को जारी हुआ है और यह सब प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के रिकार्ड में मौजूद है। लेकिन इसके बावजूद बोर्ड ने इस फार्मा उद्योग को प्रदूषण बोर्ड के तहत 11-6-2019 को नोटिस जारी किया कि प्रदूषण नियमों/मानकों के उल्लंघन के कारण उनकी बिजली काट दी जायेगी। उद्योग द्वारा बोर्ड के नोटिस का पूरे दस्तावेजों के साथ जवाब दिया गया है। स्थापना से लेकर अब तक कोई बीस बार बोर्ड के अधिकारी इसका निरीक्षण कर चुके हैं। कभी भी इसके सैंपल फेल नही हुए हैं। जिन ड्रग्स का यह उद्योग निर्माण कर रहा है वह कोरोना के ईलाज में प्रयोग की जाती है और उत्तरी भारत में यह शायद एक मात्र ईकाई है जो इसका निर्माण कर रही है यदि आज बोर्ड इसका निर्माण बन्द कर देता हैै तो इसका आयात चीन से करना पड़ेगा।
ऐसे में जो सवाल खड़े हो रहे है कि जब प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग से लेकर केन्द्र के पर्यावरण मन्त्रालय तक से सारी अनुमतियां मिली हुई हैं तो फिर बोर्ड उन्हें मानने से इन्कार क्यो कर रहा है। जब स्वयं प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड 24-3-2019 को अनुमति दे चुका है और यह अनुमति 2022 तक वैद्य है तो फिर बोर्ड अपनी ही अनुमति को क्यों नही मान रहा है? क्या मार्च 2019 के बाद प्रदूषण के नियमों और मानकों में कोई बदलाव आया है जिनकी अपुलना यह उद्योग ईकाई नही कर रही है? क्या बोर्ड में जो अधिकारी पहले तैनात थे उन्हे प्रदूषण के नियमों की पूरी जानकरी नही थी? यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण हो गये हैं क्योंकि प्रदेश सरकार बड़े पैमाने पर नये उद्योगों और निवेश को आमन्त्रण दे रही है। यदि आज बोर्ड पहले से स्थापित उद्योगों के साथ इस तरह का व्यवहार कर रहा है तो नये आने वाले उद्योगों के साथ क्या होगा।
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