इस समय हिमाचल जिस वित्तीय मुकाम पर आ पहुंचा है उसमें कुछ ऐसे बुनियादी सवाल खड़े हुये हैं जिनको और अधिक समय के लिए नजरअन्दाज कर पाना संभव नहीं होगा। आज प्रदेश के हर व्यक्ति पर 1.17 लाख का कर्ज है। बेरोजगारी में प्रदेश देश के छः राज्यों की सूची में आ पहुंचा है। सरकार को हर माह कर्ज लेना पड़ रहा है। बल्कि इस कर्ज का ब्याज चुकाने के लिये भी कर्ज लिया जा रहा है। कर्मचारियों के वेतन और पैन्शन का ही प्रतिमाह प्रतिबद्ध खर्च करीब 2000 करोड़ है। सरकार अप्रैल से दिसम्बर तक केवल 6200 करोड़ का ही कर्ज ले सकते हैं और यह सीमा पूरी हो चुकी है। जनवरी से मार्च की तिमाही में कितना कर्ज मिल पायेगा यह आगे फैसला होगा। पिछले वर्ष 2023-24 में जनवरी से मार्च के बीच केवल 1700 करोड़़ मिला था। अगले वर्ष कर्ज की सीमा 6200 करोड़ से कम रहेगी। इस गणित से यदि जनवरी से मार्च में 1700 करोड़ भी मिल जाता है तब भी गुजारा नहीं हो पायेगा क्योंकि वेतन और पैन्शन के लिये ही प्रतिमाह 2000 करोड़ चाहिए। इस वस्तुस्थिति से स्पष्ट हो जाता है कि वित्तीय संकट का आकार कितना बड़ा है और इसके परिणाम कितने गंभीर होंगे। इस वस्तुस्थिति में यह सवाल उठता है कि इस संकट के लिये जिम्मेदार कौन है? हिमाचल में 1977 के बाद उद्योगों को प्रदेश में आमंत्रित करने की योजना बनाई गई। इस योजना के तहत औद्योगिक क्षेत्र चिह्नित किये गये। उद्योगों को हर तरह की सब्सिडी दी गई। प्रदेश की वित्त निगम से कर्ज दिया गया। खादी बोर्ड ने भी इसमें सहयोग दिया। लेकिन आज इन उद्योगों की सहायता करने वाले वित्त निगम और खादी बोर्ड जैसे आदारे खुद डूब चुके हैं। इन्हें अपने कर्जदारों को ढूंढने के लिये इनाम योजनाएं तक लानी पड़ी। अधिकांश उद्योगों का आज पता ही नहीं है कि वह कहां है। सस्ते बिजली की उपलब्धता, सस्ती जमीन की उपलब्धता और सब्सिडी मिलने के नाम पर स्थापित हुए उद्योगों का व्यवहारिक सच यह है कि जितनी भी सब्सिडी राज्य और केन्द्र से इन्हें दी जा चुकी है उसका आंकड़ा उनके मूल निवेश से कहीं ज्यादा है। कैग रिपोर्ट और उद्योग विभाग की अपनी रिपोर्ट में यह दर्ज है। रोजगार के नाम पर भी इनका आंकड़ा सरकार के रोजगार से कहीं कम है। उद्योग की सफलता के दो मूल मानक हैं कि या तो क्षेत्र में कच्चा माल उपलब्ध हो या तैयार माल का उपभोक्ता हो। परन्तु हिमाचल में यह दोनों ही स्थितियां नहीं है। इसलिये यह उद्योग प्रदेश पर भारी पड़ रहे हैं। सरकार की थोड़ी सी सख्ती से पलायन पर आ रहे हैं। उद्योगों के साथ ही हिमाचल को पर्यटन हब बनाने की कवायत शुरू हुई। इसमें होटल उद्योग आगे आया। इसके लिए जमीन खरीद को आसान बनाने के लिए धारा 118 में कई रियायतें दी गई। जिस पर एक समय हिमाचल ऑन सेल के आरोप तक लगे। इन आरोपों की जांच के लिये तीन बार जांच आयोग गठित हुई है। लेकिन आयोग की जांच रिपोर्ट पर क्या कारवाई हुई है कोई नहीं जानता। पर्यटन के साथ ही हिमाचल को बिजली राज्य बनाने की मुहिम चली। प्राइवेट सैक्टर को इसमें निवेश के लिए आमंत्रित किया गया। बिजली बोर्ड से प्रोजेक्ट लेकर प्राइवेट निवेशों को दिये गये। इनमें जो बिजली बोर्ड का निवेश हो चुका था उसे ब्याज सहित लौटाने के अनुबंध हुये। परन्तु यह निवेश वापस नहीं आया। कैग की प्रतिकूल टिप्पणीयांे का भी कोई असर नहीं हुआ। जल विद्युत परियोजनाओं के कारण पर्यावरण का जो नुकसान हुआ है उस पर अभय शुक्ला कमेटी की रिपोर्ट चौंकाने वाली है। पिछले दिनों जो प्राकृतिक आपदाएं प्रदेश पर आयी थी। बादल फटने की घटनाएं इसका कारण भी इन परियोजनाओं का क्षेत्र ही ज्यादा रहा है। जिस बिजली उत्पादन से प्रदेश की सारी आर्थिक समस्याएं हल हो जाने का सपना देखा गया था। आज उसी के कारण प्रदेश का संकट गहराता जा रहा है। हिमाचल की करीब 60% जनसंख्या कृषि और बागवानी पर निर्भर है। लेकिन इसके लिए कोई कारगर योजनाएं नहीं हैं। एक समय स्व.डॉ. परमार ने त्री मुखी वन खेती की वकालत की थी। इसी के लिए बागवानी और कृषि विश्वविद्यालय स्थापित हुये थे लेकिन आज इनकी रिसर्च को खेत तक ले जाने की कोई योजनाएं नहीं है। यदि 60% जनसंख्या को हर तरह से आत्मनिर्भर बना दिया जाये तो प्रदेश का संकट स्वतः ही हल हो जायेगा। वोट के लिये छोटे-छोटे वोट बैंक बनाने और उन्हें मुफ्ती का लालच देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। इसके लिए सरकार को ठेकेदारी की मानसिकता से बाहर आना होगा।