भीड़ हिंसा की बढ़ती घटनाओं पर सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ी चिन्ता व्यक्त करते हुए सरकारी तन्त्र को कड़े निर्देश देते हुए सरकार को भी कहा है कि वह इन घटनाओं को रोकने के लिये कानून बनाये। जब शीर्ष अदालत ने यह निर्देश जारी किये उसी दिन झारखण्ड में भीड़ ने सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश पर हमला कर दिया। हमला करने वाले जयश्रीराम के नारे लगा रहे थे। इस घटना के बाद अलवर में हिंसक भीड़ ने एक व्यक्ति की जान ले ली। इस भीड़ में शामिल लोग भी अपने को स्थानीय विधायक के आदमी होने का दम्मभर रहे थे। यह दोनां घटनाए संसद में उठी और विपक्ष ने इस पर सरकार को घेरा। शीर्ष अदालत जब ऐसी घटनाओं पर चिन्ता व्यक्त करते हुए निर्देश तक जारी कर चुकी हो तब मामले की गंभीरता का अन्दाजा लगाया जा सकता है। इसलिये यह उम्मीद की जा रही थी कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इस पर संसद में चर्चा होगी। लेकिन इस विषय पर उठी बहस का जबाव गृहमन्त्री राजनाथ सिंह ने यह कहकर दिया कि देश 1984 में भीड़ हिंसा का सबसे बड़ा ताण्डव देख चुका है और आज की हिंसा उसके मुकाबले में कही कम है। इस बहस में एक दूसरे पर आरोप लगाने के अतिरिक्त कुछ भी सामने नही आया है। यही नही संसद के बाहर आरएसएस नेता इन्द्रेश कुमार ने तो यहां तक कह दिया कि यदि लोग वीफ खाना और गाय को मारना छोड़ दे तो इस तरह की घटनाएं अपने आप ही बन्द हो जायेगीं।
आज केन्द्र में भाजपा की सरकार है इस नाते इन घटनाओं पर सबसे पहला सवाल उसी से पूछा जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को कानून बनाने के निर्देश दिये हैं तो उनकी अनुपालना भी मोदी सरकार को ही करनी है। अलवर की घटना के बाद एक और घटना घट गयी है। कुल मिलाकर एक ऐसा वातावरण बनता जा रहा है कि जहां आदमी को आदमी से ही डर लगने लग गया है। कानून का डर बिल्कुल खत्म होता जा रहा है। जब कानून का डर खत्म हो जाये और आदमी को आदमी से ही डर लगने लगे तथा भीड़ कहीं भी किसी की हत्या कर दे तो ऐसी स्थिति को ‘‘सिविल वार’’ के संकेतक माना जाता है। आज गोरक्षा के नाम पर भीड़ को हिंसक होने के लिये एक तरह से लाईसैन्स मिल गया है। कानून का डर खत्म हो चुका है इसका प्रमाण बढ़ती बलात्कार की घटनाएं है। निर्भया कांड के बाद मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और अरूणाचल प्रदेश बलात्कार के दोषियों को मौत की सजा़ देने का प्रावधान कर चुकी है और भी कई राज्य ऐसे ही कानून लाने की बात कर चुके हैं। मौत से बड़ी कोई सज़ा नही हो सकती है लेकिन यह सब होने के बाद भी बलात्कार की घटनाएं खत्म नही हुई है। कानून का जब डर खत्म हो जाता है व समाज में अराजकता का माहौल खड़ा हो जाता है जो किसी भी सभ्य समाज के लिये एक घातक स्थिति हो जाती है।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ऐसा हो क्यां रहा है। यह एक स्थापित सत्य है कि "Justice delayed is justice denied" देर से मिला न्याय न मिलने के ही बराबर होता है। हमारे देश में अभी तक व्यवस्था नही हो पायी है कि आपराधिक मामले के फैसले एक निश्चित समय सीमा के भीतर आ पायें। 2014 के लोकसभा चुनावों से पूर्व पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो माहौल खड़ा हुआ था उसी के कारण इस तरह का सत्ता परिर्वतन देखने को मिला था। उस समय लोकपाल की व्यवस्था लाने के लिये पूरा देश आन्दोलित हो उठा था। अन्ना हजा़रे, स्वामी राम देव, किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल उस आन्दोलन के सबसे बड़े चेहरे बन गये थे। सरकार को लोकपाल विधेयक संसद में लाना पड़ा था मोदी और केजरीवाल की सरकारें इसी आन्दोलन का प्रतिफल हैं। आज मोदी प्रधानमन्त्री हैं, केजरीवाल मुख्यमन्त्री हैं। किरण बेदी उपराज्यपाल, अन्ना हजारे सुरक्षा कवच लेकर बैठ गये हैं और स्वामी राम देव एक स्थापित उद्योगपति हो गये हैं। लेकिन अब तक देश को लोकपाल नही मिल पाया है। मोदी सरकार इसके लिये वांछिच्त कमेटीयों का गठन नही कर पायी है। सर्वोच्च न्यायालय इस पर भी अपनी नाराज़गी जाहिर कर चुका है। यही नही भ्रष्टाचार निरोधक कानून का जो नया रूप कुछ दिनों में अधिसूचित होने जा रहा है उसके लागू होने के बाद किसी भी भ्रष्टाचारी को आसानी से सज़ा नही मिल पायेगी। इस कानून में संशोधन का प्रारूप 2013 में तैयार हुआ था जिसे अब मोदी सरकार ने लोकसभा और राज्यसभा से पारित करवाया है। उम्मीद थी की इसमें कुछ नये कड़े उपबन्ध जोड़े जायेंगें लेकिन ऐसा नही हुआ है। इससे भ्रष्टाचार और अपराध पर सरकार की सोच और गंभीरता का अन्दाजा लगाया जा सकता है।
2014 लोकसभा चुनावों में भाजपा ने एक भी मुस्लिम को टिकट नही दिया था। अब गो हिंसा को लेकर जो वातावरण खड़ा किया जा रहा है और उसके लिये एक वर्ग विशेष को ही जिम्मेदार ठहराने की नीति चल रही है इससे ध्रुवीकरण के लिये एक और भी ठोस ज़मीन तैयार की जा रही है। गोरक्षा के नाम पर की जा रही हिंसा को जब जयश्रीराम के नारे के आवरण में परोसा जायेगा तो एकदम सारा आयाम ही बदल जायेगा अगला पूरा चुनाव इसी गोरक्षा के नाम पर केन्द्रित किये जाने की पूरी-पूरी संभावना बनती जा रही है। जबकि मंहगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार जैसे गंभीर सवाल आज भी उसी धरातल पर खड़े हैं जहां 2014 में थे। आज अन्तर केवल इतना है कि आने वाला चुनाव इन बुनियादी मुद्दों पर न लड़ा जाये। उसके लिये गोरक्षा और आरक्षण जैसे मुद्दे खड़े किये जा रहे हैं। क्योंकि यदि गोरक्षा सही में एक प्रमुख मुद्दा है तो उसकी हत्या के खिलाफ कानून क्यों नही लाया जा रहा है जबकि संसद में पूरा बहुमत है फिर जो ऐसे कानून का विरोध करेगा वह स्वयं जनता के सामने नंगा हो जायेगा। लेकिन जब कानून बन जायेगा तब सब कुछ कानून के अनुसार होगा भीड़ के अनुसार नही। कानून बन जाने के बाद भीड़ की हिंसा की वकालत नही हो पायेगी।