शिमला/शैल। कांग्रेस हाईकमान ने अन्ततः शिमला ग्रामीण से वीरभद्र सिंह के बेटे युवा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष विक्रमादित्य सिंह को और मण्डी से स्वास्थ्य मंत्री कौल सिंह की बेटी चम्पा ठाकुर को उम्मीदवार बना दिया है। इन दोनों सीटों का फैसला सबसे अन्त में आया है जबकि वीरभद्र सिंह ने शिमला ग्रामीण से विक्रमादित्य सिंह कोे उम्मीदवार बनानेे का ऐलान बहुत पहले ही कर दिया था। मण्डी से चम्पा ठाकुर की उम्मीदवारी तब सामने आयी जब वहां से वर्तमान में मन्त्री रहे अनिल शर्मा ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने की घोषणा कर दी। यही नही अनिल के साथ उनके पिता पूर्व संचार मंत्री पंडित सुखराम भी भाजपा में शामिल हो गये। सुखराम को भाजपा में शामिल करना राजनीतिक दृष्टि से भाजपा का एक मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है। क्योंकि अभी प्रदेश में सुखराम को प्रदेश के लियेे संचार क्रान्ति का मसीहा माना जाता है। इसलिये भाजपा ने सुखराम के सारे भ्रष्टचार को भुलाकर पार्टी का मसीहा बना लिया क्योंकि मण्डी में अभी उनका प्रभाव माना जाता है। इसी तरह शिमला ग्रामीण से भाजपा ने हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डा. प्रमोद शर्मा को अपना उम्मीदवार बनाकर एक और मास्टर स्ट्रोक खेला है। क्योंकि प्रो. प्रमोद शर्मा निश्चित रूप से विक्रमादित्य से यहां पर ज्यादा सशक्त माने जा रहे हैं। वीरभद्र सिंह को अपने बेटे की जीत सुनिश्चित करने के लिये शिमला ग्रामीण में ज्यादा समय देना पडे़गा। वीरभद्र का काफी समय शिमला ग्रामीण में ही लग जाये यही भाजपा की राजनीतिक आवश्यकता है ताकि वह शेष प्रदेश को कम समय दे पायें।
भाजपा की यह रणनीति कितनी कारगर सिद्ध होगी इसका पता तोे आने वाले समय में हीे लगेगा। क्योंकि अनिल शर्मा के भाजपा में जाने की अटकलें तो काफी अरसे से चल रही थी। लेकिन प्रमोद शर्मा का भाजपा में शामिल होना कई सवाल खडेे़ कर देता है क्योंकि प्रमोद शर्मा वीरभद्र के विश्वस्तों में गिने जाते रहे हंै। प्रमोद ने 2003 में जब एचएएस छोड़कर चुनाव लड़ा था और उन्हें सफलता नही मिली थी तब उसके बाद वह वीरभद्र के सहयोग से ही विश्वविद्यालय में पहुंचे हैं। प्रमोद शर्मा 2007 और 2012 के चुनाव भी यहां से लड़ चुके है। लेकिन इस बार उनके चुनाव लड़ने की संभावना नही मानी जा रही थी। क्योंकि विश्वविद्यालय के अध्यापकों को अपना पद त्यागने के बिना ही चुनाव लड़ने की जो सुविधा पहले उपलब्ध थी उसे 2014 में विश्वविद्यालय ने वापिस ले लिया है। इससे अब चुनाव लड़नेे के लिये अपने पद से त्यागपत्र देना होगा। फिर कुछ समय पूर्व तक प्रमोद शर्मा को विश्वविद्यालय का वाईसचान्सलर बनाये जाने की भी चर्चा चलती रही है। सूत्रों के मुताबिक राजभवन को भी ऐसी जानकारी रही है। इस परिदृश्य में यह माना जा रहा था कि अब प्रमोद शर्मा पद से त्यागपत्र देकर चुनाव लड़ने का जोखिम नही उठायेंगे। क्योंकि यदि इस बार भी सफलता न मिली तो वह पुनः विश्वविद्यालय की नौकरी नही पा सकेंगे। लेकिन इस बार पहले ही विश्वविद्यालय के चुनाव लड़ने की सुविधा वापिस लेने के निर्णय को प्रदेश के प्रशासनिक ट्रिब्यनल में चुनौती देकर इस फैसलें के खिलाफ स्टे हासिल कर लिया। इस स्टेे के कारण अब फिर चुनाव लड़ने की सूरत में नौकरी जाने का जोखिम नही रहेगा।
स्मरणीय है कि यह सुविधा वापिस लेने का फैसला 2014 का है। लेकिन इसे अभी तीन वर्ष बाद कुछ समय पहले ही प्रशासनिक प्राधिकरण में चुनौती दी गयी थी। इस आग्रह को अदालत ने स्वीकार कर लिया और इस आदेश पर स्टे भी लगा दिया। इस स्टेे को अब प्रदेश उच्च न्यायालय में विश्वविद्यालय ने चुनौती दे दी है। विश्वविद्यालय ट्रिब्यूनल के इस फैसले को इस आधार पर चुनौती दे रहा है कि यह मामला सर्विस मैटरे न होकर विश्वविद्यालय का एक नीति संबधी फैसला है और इसे ट्रिब्यूनल की बजाये उच्च न्यायालय में चुनौती दी जानी चाहिये थी । फिर यह फैसला 2014 में लिया गया था और उसे अब तीन वर्ष बाद चुनौती देना तथा विश्वविद्यालय का पूरा पक्ष सुने बिना ही स्टे नही दिया जाना चाहिये था। प्रदेश उच्च न्यायालय विश्वविद्यालय के तर्क को कितना अधिमान देता है इसका पता तो आने वाले समय में ही चलेगा। लेकिन यदि उच्च न्यायालय इस स्टे को खारिज कर देता है तो उस स्थिति में क्या प्रमोद शर्मा का नामांकन दाखिल करना स्वीकार रहता है या उसे रद्द कर दिया जाता है इस पर सबकी निगाहें लगी हैं। क्योंकि किसी भी कर्मचारी का विधानसभा आदि का चुनाव लड़ने से पहलेे अपने पद से त्यागपत्र देना अनिवार्य है। ऐमे में यदि प्रमोद के नामांकन पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है तोे भाजपा की एक बड़ी रणनीतिक हार होगी।
शिमला/शैल। वीरभद्र मन्त्रीमण्डल की 90 वर्षीय सिंचाई एवं जन स्वास्थ्य मन्त्री विद्या स्टोक्स ने नामांकन के अन्तिम दिन ठियोग चुनाव क्षेत्र से पर्चा भरकर प्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक हल्कों में एक रोचक बहस को जन्म दे दिया है। यह बहस इसलिये उठी है कि विधानसभा पटल पर जिस भी व्यक्ति ने बतौर मन्त्री उनकी परफारमैन्स देखी है वह जानता है कि बढ़ती उम्र का असर उनकी कार्यशैली को प्रभावित कर चुका है। संभवतः वह भी इस असर को मानती है और इसीलिये उन्होंने पहले चुनाव न लड़ने का फैंसला लिया और वीरभद्र सिंह से आग्रह किया कि ठियोग से वह उनके स्थान पर चुनाव लड़े। वीरभद्र ने उनके आग्रह को मानते हुये ठियोग से चुनाव लड़ने का ऐलान भी कर दिया। लेकिन जैसे ही वीरभद्र का फैसला सामने आया तो ठियोग के ही विद्या के विश्वस्तों ने विद्या के फैसले पर रोष व्यक्त करते हुए वीरभद्र के उम्मीदवार बनने पर अपरोक्ष में एतराज जता दिया। इस एतराज पर वीरभद्र ने ठियोग को छोड़कर फिर अर्की का रूख कर लिया।
स्वभाविक था कि जब विद्या अब चुनाव लड़ने से इन्कार कर चुकी थी और वीरभद्र ने अर्की का चयन कर लिया था तो यहां से पार्टी को दूसरे उम्मीदवार की तलाश करनी ही थी। इस तलाश के तहत पहले विजय पाल खाची का नाम सामने आया लेकिन फिर बदल कर अन्तिम रूप से दीपक राठौर का नाम सामने आ गया। दीपक ने नामांकन भी कर दिया। लेकिन उसके बाद विद्या ने भी नामांकन कर दिया। अब दीपक और विद्या में से कौन पीछे हठता है यह तो 26 को ही सामने आयेगा। लेकिन इससे विद्या की राजनीतिक नीयत पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं कि जब उसने चुनाव न लड़ने का ऐलान का दिया था तब किन कारणों से वह पुनःचुनाव में आयी। इस पर यह भी सवाल उठ रहा है कि क्या उनका पहले इन्कार करना तथा वीरभद्र को आॅफर देना और फिर अपने ही फैसले पर अपने ही लोगों से एतराज उठवाना क्या यह सब प्रायोजित था या फिर अभी भी राजनीतिक लालसा पूरी नहीं हुई है।
स्टोक्स के इस फैसले से कांग्रेस हाईकमान की कार्यशैली को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। क्योंकि जब पार्टी ने नौ सीटों का फैसला पहली सूची में ही नहीं किया तब यह चर्चा चल पड़ी थी कि शायद हाईकमान अपने एक परिवार एक टिकट के फैसले पर कायम रहेगी और नेता पुत्रों को टिकट नहीं मिलेंगे। लेकिन जब वीरभद्र ने यह दावा किया कि विक्रमादित्य को ही टिकट मिलेगा और विक्रमादित्य को दिल्ली तलब भी कर लिया गया तब वीरभद्र के दावेे पर यकीन हो गया था। इस दावे को और बल तब मिला जब मण्डी में चम्पा ठाकुर ने नामांकन कर दावा किया कि उनका टिकट पक्का है। अन्त में हुआ भी यही। इस पर कई हल्कों में यह दबी चर्चा चल पड़ी है कि क्या हाईकमान ने टिकट के साथ ही विक्रमादित्य के लिये कुछ शर्तें रखी हैं। यदि उच्चस्थ सूत्रों की माने तो चुनावों के बाद युवा कांग्रेस के नेतृत्व को लेकर कोई बड़ा फैसला सामने आ सकता है। चर्चा यह भी है कि जब सुखराम परिवार कांग्रेस में शामिल हुआ और यह आशंका बन गयी थी कि जी एस बाली तथा कुछ और लोग भी पार्टी छोड़ सकते हैं तब हाईकमान ने पार्टी को टूटने से बचाने के लिये जी एस बाली से भी लंबी बातचीत की है। इस बातचीत का असर भी चुनावों के बाद देखने को मिलेगा सूत्रों के मुताबिक विद्या का नामांकन भी इसी कड़ी का हिस्सा है।
शिमला/शैल। विधानसभा चुनावों के लिये प्रदेश के दोनों बड़े दल अभी तक अपने-अपने उम्मीदवारों की अधिकृत सूची जारी नहीं कर पाये हैं। बल्कि भाजपा ने प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह और अन्य बड़े नेताओं के दौरों से जो हवा पार्टी के हक में खड़ी थी वह हवा भी अब थम सी गयी है। क्योंकि इन बड़े नेताओं के दौरों से जहां हवा बनी थी वहीं पर उसी के साथ चुनावों में पार्टी टिकट पाने की इच्छ भी बहुत सारे कार्यकर्ताओं में स्वभाविक रूप से आ गयी। क्योंकि अधिकांश कार्यकर्ता अभी भी पार्टी को उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश केे आईने से ही देख रहे हैं। जबकि आज नोटबंदी जीएसटी तेल की कीमतें और रसोई गैस की कीमत बढ़ने से देश के अन्दर उभर रहे असन्तोष पर भाजपा के अपने ही बडे नेताओं यशवन्त सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा और अरूण शौरी जैसे पूर्व मन्त्री मोदी सरकार की नीतियों पर खुलकर हमला बोलने लग गये हैं। इन हमलों से आम आदमी भी व्यवहारिकता से इस पर सोचने और समझने के लिये विवश हो गया है। पंजाब के लोकसभा उपचुनाव में भाजपा का करीब दो लाख मतों से हारना इसी का संकेत है कि अब ‘‘मोदी लहर ’’ नाम की चीज फील्ड में नही रह गयी है।
लेकिन प्रदेश से लेकर दिल्ली तक भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अभी भी इस धरातल की स्थिति को समझने से इन्कार कर रहा है। हिमाचल में मुख्यमन्त्री नामित किये बिना चुनाव में उतरने के फैसले पर कायम है। चुनाव टिकटों के लिये उम्मीदवारों से आवेदन मांगने की बजाये मण्डल स्तर सेे लेकर प्रदेश स्तर तक सभी को यह निर्देश रहेे हैं कि केन्द्रिय समिति को केवल तीन-तीन नाम उम्मीदवारों के भेजे जायें। लेकिन संगठन के इन स्तरों से हटकर भी संघ परिवार की कुछ इकाईयों के माध्यम से कुछ सर्वे रिपोर्ट भी केन्द्रिय समिति तक पहुची हुई है। इन सारी सर्वे रिपोर्टों और संगठनों के माध्यम से आये नामों के बाद केन्द्रिय समिति को किसी एक नाम पर फैसला ले पाना कठिन हो गया है। यह पूरी स्थिति इतनी जटिल हो गयी है कि लगभग हर चुनाव क्षेत्र में विद्रोह की स्थितियां पैदा हो गई है जो कार्यकर्ता कल तक चुनाव अभियान में व्यस्त हो गया था वह अब उसेे स्थगित करके प्रत्याशीयों की घोषणा का इन्तजार करने बैठ गया है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को जो यह भरोसा था कि अनुशासन के नाम पर कार्यकर्ता उसके हर फैसले को आॅंख बन्द करके स्वीकार कर लेगा, वह अब खण्डित होता जा रहा है। मण्डी सदर के मण्डल द्वारा सुखराम परिवार के भाजपा में शामिल होने और अनिल शर्मा को टिकट दिये जाने के फैसलेे पर सामुहिक त्यागपत्र देने का फैसला लिया जाना इसका स्पष्ट उदाहरण है।
प्रदेश भाजपा का शीर्ष नेतृत्व एक लम्बे अरसे से वीरभद्र सरकार के गिरनेे और कांग्रेस के कई नेताओं के संपर्क में होेनेे के दावे करता आया है। आज सुखराम परिवार के भाजपा में शामिल होने केे साथ ही जीएस बाली और राजेश धर्माणी जैसेे नेताओं के भी भाजपा में शामिल होने की चर्चाओं का उठना उसी दावेे का हिस्सा हो सकता है। लेकिन उस समय कांग्रेस के इन नेताओं के आने से वीरभद्र की सरकार गिरती थी और वह भाजपा की एक बड़ी सफलता होती। लेकिन आज कांग्रेस नेताओं को भाजपा में शामिल करना और उन्हें टिकट देना भाजपा की कमजोरी माना जायेगा। क्योंकि इस समय सरकार को गिराने के लिये जनता में नही जाया जा रहा है। बल्कि सरकार बनाने के लिये जनता का मत लिया जाना है। यदि आज भी इस मत के लिये कांग्रेस नेताओं का सहारा चाहिये तो क्या यह अपने आप में ही मोदी सरकार की नीतियों की जन स्वीकार्यता पर प्रश्नचिन्ह नही बन जायेगा। यह सही है कि आज से पूर्व जब भी प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी है तब कांग्रेस में किसी न किसी कारण से हुई तोड़फोड़ इसमें सहायक रही है। लेकिन उस समय केन्द्र में भाजपा की ऐसे प्रचण्ड बहुमत वाली सरकारें नही होती थी। परन्तु आज स्थिति भिन्न है। केन्द्र में सरकार है जो देश को कांग्रेस मुक्त करने का संकल्प लेकर बैठी है। लेकिन इस संकल्प को पूरा करने के लिये कांग्रेस के अन्दर तोड़फोड़ करके इसे हासिल करना कतई संभव नही हो पायेगा। क्योंकि जिन नेताओं को भाजपा में शामिल करवाया जा रहा उनके खिलाफ कभी स्वयं ही गंभीर आरोप लगा चुकी है। इस परिदृश्य में कांग्रेस नेताओं को भाजपा में शामिल करने को शीर्ष नेतृत्व में गंभीर मतभेद उभर चुके है। बल्कि सूत्रों के मुताबिक इन्ही मतभेदों के कारण पार्टी अभी तक उम्मीदवारो की अधिकृत सूची जारी नही कर पायी है। इन्ही मतभेदों के कारण वरिष्ठ नेता दिल्ली से अपने-अपने क्षेत्रों में वापिस आ चुके हैं। यह भी माना जा रहा है कि केन्द्र की सूची आने से पूर्व ही बहुत सारे संभावित उम्मीदवार नामांकन करने और इस माध्यम से नामाकंन के समय अपनी ताकत का प्रदर्शन करने की रणनीति अपनाने जा रहे हैं। धर्मशाला में पूर्व मन्त्री किशन कूपर द्वारा अपने समर्थकों का प्रदर्शन किया जाना इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। जो हालात भाजपा में बनते जा रहे हैं वह एक विद्रोह का संकेत बनते जा रहे हैं और माना जा रहा है कि इस संभावित विद्रोह को नियन्त्रण मेे रखने के लिये पार्टी को नेता की घोषणा करने की बाध्यता आ सकती है।
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