शिमला/शैल। प्रदेश वित्त ने पिछले काफी समय से नये कर्ज देने बन्द कर रखे हैं क्योंकि इसकी अपनी माली हालत बहुत बिगड चुकी है। निगम का इस समय कर्जदारों के पास 72 करोड़ का ऐसा मूल धन उगाही के लिये फंसा है जिसमें निगम के पास सिक्योरिटी ही केवल 25 करोड़ की है। जिसका अर्थ है कि आज कर्ज के लिये धरोहर रखी संपत्ति को निगम जब्त भी कर ले तो केवल 25 करोड़ ही वसूल हो पायेंगे और 47 करोड़ तो डूबे ही हुए हैं लेकिन इस स्थिति के बाद भी प्रभावशाली कर्जदारों के मामले में तो सरकार नही चाहती कि उनसे वसूली की जाये। पूर्व मन्त्री मुख्य संसदीय सचिव मनसाराम के केस में कुछ ऐसा ही चल रहा है। इसमें मनसा राम के खिलाफ डिक्री होने के बाद निलामी की नौबत आयी तो
वित्त निगम की स्थापना अप्रैल 1967 में हुई थी। इसके एक्ट की धाराओं 29,30,31,32 और 32 जी के तहत रिकवरी की पूरी प्रक्रिया और प्रावधान स्थापित है। बल्कि वित्त निगम अधिनियम के उद्देश्यों की घोषणा में ही इसका उल्लेख है। एक्ट की धारा 29 और 31 के तहत वित्त निगम को वैधानिक तौर पर डिक्री होल्डर का दर्जा हासिल है। इस स्थायी स्थिति के बाद निगम को एक्ट की धारा 32(8) और 32(8ए) के तहत जिला जज से केवल डिक्री की तामील का आदेश ही हासिल करना होता है। इसके लिये केवल सवा रूपये की कोर्ट फीस लगाकर तामील के आग्रह का आवेदन किया जा सकता है। लेकिन निगम प्रशासन ने एक्ट के तहत दिये इस अधिकार और प्रावधान का इस्तेमाल न करके विभिन्न अदालतों में रिकवरी की याचिकाएं डालने में ही दो करोड़ की कोर्ट फीस खर्च कर दी है जो काम 1.25 रूपये खर्च करके हो सकता था उसके लिये हजारों/लाखों खर्च क्यों किये गये इसका कोई जबाव नही है। निगम की लेनदारीयों को तो Sovereign- dues का दर्जा हासिल है और इसी के कारण से भू-राजस्व के तहत वसूली का प्रावधान 1973 में पब्लिक मनी(रिकवरी आॅफ डयूज़) मे किया गया और बाद में 1982 में वित्त निगम एक्ट में ही धारा 32 जी जोड़ कर यह प्रावधान कर दिया गया। लेकिन इन प्रावधानों की ईमानदारी से अनुपालना नही की गयी बल्कि इन्हे अवरूद्ध करने के लिये निगम प्रशासन ने स्वतः इसमें दस लाख की सीमा तय कर ली।
आज वित्त निगम लगभग डूब चुका है। करीब 1700 करोड़ रूपया फंसा हुआ है। जिसकी पूरी वापसी की संभावनाए बहुत कम है। यदि निगम की इस स्थिति का निष्पक्षता से आंकलन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि एक्ट में प्रदत्त प्रावधानों को निगम प्रशासन से लेकर बीडीओ तक या तो जानबूझ कर नजरअन्दाज किया गया या फिर किसी ने भी इन्हें गंभीरता से समझने का प्रयास ही नही किया। यहां तक कि निगम में आन्तरिक आडिट से लेकर एजी तक आडिट का प्रावधान है बल्कि आईडीबीआई और अब सिडवी इसके रेगुलेटर है। लेकिन किसी ने भी इस ओर ध्यान नही दिया। अदालतों में मामले गये लेकिन वहां भी एक्ट में ही दिये इन प्रावधानों की ओर ध्यान नहीं आ पाया और इस सबका परिणाम है कि सरकार का इतना बड़ा अदारा फेल हो गया।